MANTROPCHAR (1) DIVINE CURE मंत्रोपचार

MANTROPCHAR (1) DIVINE CURE
मंत्रोपचार

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

 ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

Mantr (मन्त्र) are Sanskrat stanzas-rhymes which have special effect on us and the environment. These always bring peace, prosperity and wellness to all. If recited with the proper pronunciation a Shlok-Mantr can perform miracles. Scriptures have described specific Mantr which can cure diseases which are declared incurable. There are Mantr for healing, relief, mental peace, harmony, control of diseases, famine, floods, rains, soothing effect over the environment, repulsion of evil etc.
These are the coded verses which opens the power centres hidden in an individual to over his troubles, tensions, problems, provide performed with care, austerity, devotions with proper procedure under the supervision of some trained, qualified priest, Don’t link it with religion, if one wish to seek his welfare and blessings.

One, desirous of having intelligence, wisdom, knowledge, Riddhi, Siddhi and fulfilment of all desires, should pray, meditate Ganesh Ji Maha Raj respectfully, with faith, concentration and devotion. One often comes across difficulties in life, due to the deeds of present or previous lives. Ganpati is the incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu (God), who is worshipped  before one starts with the prayers, auspicious occasion,  new venture, marriage, construction of house or else. Om Ganganpatye Namah (or Om Ganganpatye Swaha) is the Mantr, recitation of which regularly 108 or 1008 times, clear, removes all hurdles in the way of auspicious-pious deeds, ventures or the deeds undertaken by the devotee. One must fresh himself, under take to have only vegetarian meals, no smoking, alcohol, drugs, narcotics, observe fast and recite this Mantr, facing east in the morning and north in the evening with concentration and asceticism.

Recitation of  any of these Mantr 5,00,000 times or more, ascertain success in the desired field.

Procedure-Methodology :: The devotee should sit comfortably over cushion, mattress (Munj-Chatai), skin of black deer, with crossed legs, in front of the image (photograph, picture, sketch), statue of the deity having placed a Lota, Kalsh filled with water, made up of copper, brass, silver, gold or earthen. Dhoop, Agarbatti-incense sticks, should be ignited and suitably placed in front by the desirous. One should be clad in washed cloths. Flow of fast air should be avoided. These performances should be avoided in  high speed wind, typhoon, cyclone. Extreme care should be taken to pronounce the Shlok, Mantr correctly, with rhythm. One should adhere to asceticism. The water in the Kalsh may be added with Ganga Jal, milk, honey, sugar, Tulsi leaves, pure ghee, curd, Kapoor-camphor etc. Help of learned Brahman Priest  may be obtained. Jal in the Kalsh has to be poured, offered to Sury Bhagwan in the morning. A Tulsi plant may be placed in east direction with a Shiv ling in it, for offering water.
Caution :: Recitation of these Mantr with evil designs, ulterior motives, yield negative results and is counter productive.

गणपति सिद्ध मंत्र :: गणेश  महाराज के सिद्ध मंत्र  लम्बोदर के प्रमुख चतुर्वर्ण हैं। सर्वत्र पूज्य सिंदूर वर्ण के हैं। इनका स्वरूप व फल सभी प्रकार के शुभ व मंगल भक्तों को प्रदान करने वाला है। नीलवर्ण उच्छिष्ट गणपति का रूप तांत्रिक क्रिया से संबंधित है। शांति और पुष्टि के लिए श्वेत वर्ण गणपति की आराधना करना चाहिए। शत्रु के नाश व विघ्नों को रोकने के लिए हरिद्रा गणपति की आराधना की जाती है।

गणपतिजी का बीज मंत्र “गं” है। इनसे युक्त मंत्र :- “ॐ गं गणपतये नमः” का जप करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।

षडाक्षर मंत्र ::

“ॐ वक्रतुंडाय हुम्‌”

आर्थिक प्रगति व समृद्धि के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

उच्छिष्ट गणपति मंत्र ::

“ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा”

किसी के द्वारा अनिष्ट के लिए की गई क्रिया को नष्ट करने के लिए, विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए उच्छिष्ट गणपति की साधना करना चाहिए। इनका जप करते समय मुँह में गुड़, लौंग, इलायची, पताशा, ताम्बुल, सुपारी होना चाहिए। यह साधना अक्षय भंडार प्रदान करने वाली है। इसमें पवित्रता-अपवित्रता का विशेष बंधन नहीं है।

विघ्नराज आराधना मंत्र ::

“गं क्षिप्रप्रसादनाय नम:”

आलस्य, निराशा, कलह, विघ्न दूर करने के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

हेरम्ब गणपति मंत्र ::

“ॐ गं नमः”

विघ्न को दूर करके धन व आत्मबल की प्राप्ति के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

लक्ष्मी विनायक मंत्र ::

“ॐ श्रीं गं सौभ्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं में वशमानय स्वाहा”

रोजगार की प्राप्ति व आर्थिक वृद्धि के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

विवाह में आने वाले दोषों को दूर करने वालों को त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप करने से शीघ्र विवाह व विवाह में आने वाले दोषों को दूर करने, शीघ्र विवाह व अनुकूल जीवनसाथी की प्राप्ति के लिये निम्न त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र :: 

“ॐ वक्रतुण्डैक दंष्ट्राय क्लीं ह्रीं श्रीं गं गणपते वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा”

इन मंत्रों के अतिरिक्त गणपति अथर्वशीर्ष, संकटनाशन गणेश स्तोत्र, गणेशकवच, संतान गणपति स्तोत्र, ऋणहर्ता गणपति स्तोत्र, मयूरेश स्तोत्र, गणेश चालीसा का पाठ करने से गणेश जी महाराज की कृपा प्राप्त होती है।

ॐ गं गणपत्ये नम:। ॐ गं गणपत्ये स्वाहा:।

Om Gan Ganpatye Namh.  Om Gan Ganpatye Swaha.

ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसम्स्प्रभः।

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

Vakr Tund Maha Kay Sury Koti Sam Prabah, Nir Vighnam Kuru Me Dev Sarv Karyeshu Savda.
Hey Bhagwan Ganesh, bearing large body, the curved trunk, who shines like a million suns, may you always make my work free from obstacles.
गणपति मंत्र GANPATI MANTR ::

ॐ गं गणपत्ये नम:। Om Gan Ganpatye Nameh.

ॐ गं गणपत्ये स्वाहा:। Om Gan Ganpatye Swaha.

वक़तुण्ड महाकाय कोटि सूर्य समप्रभा: निर्विघ्नं कुरुमेदेव सर्वाकार्येसु सर्वदा। Vakr Tund Mahakay Koti Sury Samprabh: Nirvighnam Kuru May Dev Sarv  Karyeshu Sarvda.

गजाननं  भूतगणादि  सेवितं, कपिथ्य जम्बू फल चारू भक्षणम्।

उमासुतं शोक विनाश कारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥

Gajanan Bhoot Ganadi Sawitam, Kapithy Jumboo Fal Charu Bhakshnam,

Umasutam Shok Vinash Karakam Namami Vighneshwer Pad Pankjam.

This is recited before starting any auspicious work to avoid obstacles.

गणेश्वरकल्प मन्त्र ::

ॐ गाँ गीं गूँ गैं गौं ग:।

नया मकान खरीदना :: निम्न मंत्रों से युक्त विघ्नहर्ता भगवान गणपति की प्रतिमा घर में स्थापित करने से आर्थिक तंगी-परेशानी, कलह, विघ्न, अशांति, क्लेश, तनाव, मन-मुटाव, बच्चों में अशांति, मानसिक संताप आदि का नाश होता है।
(1). बीज मंत्र “गं” का जप करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है, (2). षडाक्षर मंत्र “ॐ गं गणपतये नमः” का जप आर्थिक प्रगति व समृद्धि प्रदायक है, (3). ॐ श्री विघ्नेश्वार्य नम:, (4). ऊं श्री गणेशाय नम:, (5). निर्हन्याय नमः। अविनाय नमः।
गणपति की प्रतिमा के साथ श्रीपतये नमः, रत्नसिंहासनाय नमः, ममिकुंडलमंडिताय नमः, महालक्ष्मी प्रियतमाय नमः, सिद्घ लक्ष्मी मनोरप्राय नमः लक्षाधीश प्रियाय नमः, कोटिधीश्वराय नमः जैसे मंत्रों का सम्पुट होता है। गणपति की मूर्ति की पीठ दक्षिण दिशा में रखें।

MORNING-EVENING SANDHYA PRAYERS :: Following three Mantr are recited in the morning, as a part of prayers to seek the blessings of the Almighty to get the desired.

(1). Twmev Mata Ch Pita Twmev, Twmev Bandhusch Sakha Twmev;
Twmev Vidyasch Dravinam Twamev, Twamev Sarwam Mam Dev Dev.
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्याश्च द्रविनम त्वमेव ,त्वमेव सर्वं मम देव देव॥

(2). Kragre Vaste Lakshmi: Karmule Saraswati. Kar Madhyetu Govindh Prabhate Kardarshnam.

कराग्रे वस्ते लक्ष्मी: करमूले सरस्वती। 
कर मध्येतु गोविन्द :प्रभाते कर दर्शनम॥

शान्ति मन्त्र:: 

ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥

ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनां त्वा निधीपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥

ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।

ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥

स्वस्ति-वाचन आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। 

देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे॥ 

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्। 

देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥ 

तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। 

अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥ 

तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः। 

तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥ 

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्। 

पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥ 

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः। 

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ 

पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः। 

अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥ 

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। 

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ 

शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम। 

पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥ 

अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। 

विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥[ऋक॰1.89.1-10]

कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है, अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है।

द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥[यजुर्वेद 36.17]

 यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 

शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः  

सुशान्तिर्भवतु। 

ग्रह शांति के लिये नाम के अनुरूप मंत्र :: अपने नाम के प्रथम अक्षर से राशि को देखना चाहिये।

 राशि  नामाक्षर  मंत्र
मेष चू चे चो ला ली लू ले लो अ ॐ ऐं क्लीं सोः
 वृषभ  इ उ ए ओ वा वी वू वे वो ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मिथुन का की कू घ ङ छ के को हा  ॐ क्लीं ऐं सोः
कर्क  ही हू हे हो डा डी डू डे डो ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 सिंह मा मी मू मे मो टा टी टू टे ॐ ह्रीं श्रीं सोः
कन्या टो पा पी पू ष ण ठ पे पो ॐ क्लीं ऐं सोः
तुला रा री रू रे रो ता ती तू ते ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 वृश्चिक तो ना नी नू ने नो या यी यू ॐ ऐं क्लीं सोः
धनु ये यो भा भी भू धा फा ढा भे ॐ ह्रीं क्लीं सोः
 मकर भो जा जी खी खू खे खो गा गी ॐ ऐं क्लीं श्रीं
कुंभ गू गे गो सा सी सू से सौ दा ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मीन दी दू थ झ ञ दे दो चा ची ॐ ह्रीं क्लीं सोः

नवग्रह शान्ति मंत्र NAV GRAH SHANTI MANTR :: सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति चाहता है तो उसे नीचे लिखे नवग्रह मंत्रों का जाप करने से हर तरह की परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

सूर्य मंत्र :: “ऊँ घृणि सूर्याय नम:”।

चन्द्र मंत्र :: “ऊँ सों सोमाय नम:”।

मंगल मंत्र :: “ऊँ अंगारकाय नम:”।

बुध मंत्र :: “ऊँ बुं बुधाय नम:”।

गुरु मंत्र :: “ऊँ बृं बृहस्पत्ये नम:”।

शुक्र मंत्र :: “ऊँ शुं शुक्राय नम:”।

शनि मंत्र :: “ऊँ शं शनैश्चराय नम:”।

राहु मंत्र :: “ऊँ रां राहवे नम:”।

राहु मंत्र :: “ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:”

नवग्रह शान्ति बीज मंत्र :: ब्रह्मा मुरारी  त्रिपुरांतकारी भानु शशि भूमिसुतो बुधश्च गुरुश्च शुक्र: शनि राहु केतव:, सर्वे ग्रहा शान्ति करा भवन्तु।
Brahma Murari Tripurantkari Bhanu Shashi Bhumi Suto Budhshcha Gurushcha Shukr Shani Rahu Ketvh,  Sarve Graha Shanti Kara Bhawntu.Let Brahma, Vishnu (Murari) and Shiv (Tri Pu Rant Kari), the Sun (Bhanu), the Moon (Shashi), Mars (Bhumi Sut the son of earth), Buddh, Guru (teacher) Shukr, Shani and Ketu make the morning auspicious for me.

This is recited in the morning to make the day auspicious and fruitful.  

SHANTI MANTR शान्ति मंत्र ::

ॐ द्यौ: शांति अंतरिक्ष शांति पृथिवी शांति आपः शांति औषधय: शांति वनस्पतय: शांति विश्र्वेदेवा शांति सर्व शांति ब्रह्म शांतिरेव शांति  सामा शांति शान्तिरेधि: विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव। ॐ शांति: शांति: शांति: ॐ॥

Om Dhyo Shanti,  Antriksh Shanti,  Prathvi Shanti,  Apah Shanti,  Oushadhay Shanti, Vanaspaty Shanti,  Vishve Deva Shanti, Sarv Shanti, Shanti Rev Shanti,  Sa Ma Shanti Redhi, Vishwani Dev Sviturduritani Prasuv. Yad Bhadrantann Asuv.  Om Shanti Shanti Shanti Om.

हे परमात्मा स्वरुप शांति कीजिये, वायु में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, हे परमपिता परमेश्वर शांति हो, शांति हो, शांति हो।

Let the Almighty bless the mankind with peace (solace & tranquillity). Let the space be quite, the earth be quite. The air, water, medicines, the universe, demigods-deities, the creator-Brahm be quite. All of use be at peace. the God be quite. Let the entire world enjoy a congenital (mutually beneficial) environment. All of us should live happily.::

One who is suffering from mental tensions, agony, failure in endeavours, ill health, troubled married life, should recite this Mantr, every day 108 times.

For protection from death recite the following Mantr 108 times after taking bath facing North, East of North-East ::

मृत्यु-रोग, शांति-मन्त्र :: 

ॐ ह्रूमं हं स:।

मृत संजीवनी मन्त्र ::

 ॐ हं स: हूं हूं स:,
ॐ  ह: सौ:,
ॐ हूं स:,
ॐ जूं स:,
ॐ जूं स: वषट। 

महामृत्युंजय मन्त्र ::

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। 
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥ 

कूष्माण्ड मंत्र ::

कूष्माण्डैर्वापि जुहुयाद् घृतमग्नौ यथाविधि। 
उदित्यृचा वा वारुण्या तृचेनाब्दैवतेन वा॥[मनु स्मृति 8.106]

कृष्माण्ड मंत्रों से यथाविधि अग्नि में घृत से हवन करे। “किंया उदुत्तमं” इस वरुण मन्त्र से जल देवता की तीन ऋचाओं से हवन करे।

“ॐ कूष्माण्डायै नम:” का जाप मृत्युभय दूर करने के लिये किया जाता है। महामृत्युंजय मंत्र में उर्वारिक शब्द तोरी, घीया, खीरे जैसी वनस्पतियों के लिये आया है। इसका जाप करने से रोग, शोक, जरा-मृत्युभय दूर होता है।

One should recite “Krashmand Mantr” while offering holy sacrifices in holy fire. “Kinya Uduttamam” is a rhyme devoted to Varun Dev-deity of water, which has to be recited trice while performing Yagy, Hawan, Agnihotr-holy sacrifices in fire.

Kushmand Mantrs reduces the fear of diseases, ageing, sorrow-pain and death. Kushmand is a word used for gourds in Maha Mratunjay Mantr devoted to Bhagwan Shiv i.e., Maha Kal.

कूष्माण्ड :: gourd, cucurbit

राशि का मूल मंत्र :: धन, यश और समृद्धि लिये अपनी राशि के अनुकूल मंत्र का जाप करें। सामान्य सहज भाव से स्नान के पश्चात पूजा गृह या घर में शुद्ध स्थान का चयन कर प्रतिदिन धूप-दीप के पश्चात ऊन या कुशासन पर बैठें एवं अपनी शक्ति अनुरूप एक, तीन या पाँच माला का जाप करें।

मेष ॐ ऐं क्लीं सौं:
 वृषभ  ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 मिथुन  ॐ क्लीं ऐं सौं:
 कर्क  ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 सिंह  ॐ ह्रीं श्रीं सौं:
 कन्या  ॐ श्रीं ऐं सौं:
 तुला  ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं
 वृश्चिक  ॐ ऐं क्लीं सौं:
 धनु  ॐ ह्रीं क्लीं सौं:
 मकर  ॐ ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं सौं:
 कुंभ  ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं
 मीन  ॐ ह्रीं क्लीं सौं:

SANDHYA-EVENING PRAYER ::

शुभं कुरुत्वं कल्याणं आरोग्यं धनसंपदः।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिनमोऽस्तु ते॥

दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योति जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

भो दीप ब्रह्मारूपस्त्वं ज्योतिषां प्रभुरव्ययः।
आरोग्यं देहि पुत्रांश्च मतिं स्वच्छां हि मे सदा॥

स्वेरस्तं समारभ्य यावत्सूर्योदयो भवेत्।
यस्य तिष्ठेद्गृहे दीपस्तस्य नास्ति दरिद्रता॥

Shubham Kurutvam Kalyanam Arogyam Dhan Sampdah, Shatru Buddhi Vinashay Deep Jyoti Namo Astu Te.

Deep Jyotih Par Brahm Deep Jyoti Janardnah, Deepo Hartu Me Papam Sandhya Deep Namo Astu Te.

Bho Deep Brahma Rupstwam, Jyotisham Prabhurvyyh Arogyam Dehi Putranshch Matim Swachchham Hi Me Sada.

Swerastam Samarbhay Yavatsuryodayo Bhavet, Yasy Tishthedgrahe Deepstasy Nasti Daridrta.

SANDHYA MANTR :: This is recited while lighting a candle (दीप, Deep) in the evening.

ॐ ऐं वाग्देव्यै च विद्महे कामराजाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदया।

ॐ नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि;

सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते।

ॐ काली काली महाकाली पाप नाशिनी;

काली कराली निष्क्रान्ते कालिके तवन्नामोSस्तुते।
For purification of body, mind and soul, eternal peace, solace and tranquillity and attainment of Salvation, recitation of these Mantr is helpful:
(1).  ॐ नम: शिवाय। Om Namah Shivay.
(2). ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।  Om Namo Bhagwate Vasudevay.
(3). कर्पूर गौरं करुणावतारम्, संसारसारं भुजगेंद्र हारम।
सदा बसंतम्  ह्र्द्यारविन्दे, भवम्  भवानी सहितम् नमामि॥
Karpur Gouram Karunavtaram, Sansarsaram Bhujgendr Haram;
Sada Basantam Hradyarvinde, Bhawam Bhawami Sahitam Namami.
(4). मंगलम्  भगवान  विष्णु, मंगलम् गरुड़ ध्वज।
मंगलम् पुंड्रिरिकाक्ष, मंगलाय तनु  हरि:॥
Manglam Bhagwan Vishnu, Manglam Garud Dhwaj,
Manglam Pundrikaksh, Manglay Tanu Hari.
(5). शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं;

विश्र्वाधारं गगन सदॄशमं मेघ वर्णं शुभांगम।
लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभिर्ध्यान गम्यं;

वंदे विष्णु भवभयहरं सर्व लोकैकनाथं॥
Shantakaram Bhujagshaynam Padmnabham Suresham,
Vishwadharam Gagan Sdrasham Megh Varnam Shubhangam.
Laxmi Kantam Kamal Nayanam Yogibhirdhyan Gamyam,
Vande Vishnu Bhavbhayharam Sarvloknatham.
(6). सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वादी साधिके।

शरण्ये त्रिअम्बिके गौरी नारायणी  नमोस्तुते॥
Sarv Mangal Mangalye Shive Sarvadi Sadhike,
Sharanye Triambike Gauri Narayani Namostute.

गायत्री मन्त्र ::

पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्। 

पश्चिमां तु समासीन: सम्यगृक्षविभावनात्॥[मनु स्मृति 2.101]

प्रातः संध्या में पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होकर सूर्य दर्शन पर्यन्त सावित्री का जप करे। संध्याकालीन संध्या में पश्चिम की ओर मुँह करके बैठ कर जब तक तारे न दिखाई पड़ें तब तक गायत्री का जप करे।

One should stand facing east in the morning and recite the Savitri Mantr till the Sun rises and in the evening he should sit facing west and recite the Gayatri Mantr till the stars-constellations  appear.

This process begins quite early in the morning in the Brahm Muhurt, around 4 AM during summers and 6 AM during winters.

पूर्वां संध्यां जपन्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति। 

पश्चिमां तु समासीनो मलं  हन्ति दिवाकृतम्॥[मनु स्मृति 2.102]

प्रातः संध्या में खड़े होकर (गायत्री) जप करने वाला रात के पाप को नष्ट करता है और साँय-सँध्या के समय बैठकर जप करने वाला दिन के पाप को नष्ट करता है।

Recitation of the Gayatri Mantr in the morning while standing removes the sins-guilt committed at night, while the recitation of the Mantr while sting in the evening removes the sins of the day.

अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। 

सावित्रीमप्यधीयीत  गत्वाSरण्यं समाहितः॥[मनु स्मृति 2.104]

निर्जन स्थान में जल के समीप जाकर अपनी नित्य क्रियाओं को कर, स्थिर चित्त होकर, गायत्री का जप करना चाहिए।

One should move to an isolate place near a water body, pond, lake, river & perform the daily routine of freshness and then he should recite the Gayatri Mantr with full concentration-devotion.

ॐ भुर्भुवः स्वः तत्सोवितुवरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्॥

Om Bhur Bhuvah Svah Tat Savitur Varenyam; Bhargo Devasy Dhee Mahi Dhiyo Yonah Prachodyat.

O God! YOU are the giver of life, the remover of pain and sorrow, the bestower of happiness; O Creator of the Universe!, may we receive YOUR supreme, sin destroying light; may YOU guide our intellect in the right direction.

Reciting or listening this Mantr, 3 to 108 times in early morning is extremely beneficial.

ब्रह्मा गायत्री BRAHMA GAYATRI ::

ॐ चतुर्मुखाय  विद्महे, हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्।

Om Chaturmukhay Vidhmahe, Hansarudhay Dhimahi, Tenno Brahma Prechodyat.

विष्णु गायत्री VISHNU GAYATRI ::

ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।

Om Naraynay Vidmahe, Vasudevay Dheemahi Tenno Vishnuh Prechodyat.

रूद्र गायत्री RUDR GAYATRI ::

ॐ  पंच वाक्याय विद्महे, महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।

Om Punch Vakyay Vidhmahe, Mahadevay Dhimahi Tenno Rudrah Prechodyat.

श्री दुर्गा गायत्री SHRI DURGA GAYATRI ::

ऊँ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारि धीमहि तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात्॥

महामृत्युंजय साधना :: प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम् अर्थात् ज्योतिष प्रत्यक्ष शास्त्र है। फलित ज्योतिष में महादशा एवं अन्तर्दशा का बड़ा महत्व है। वृहत्पाराशर होराशास्त्र में अनेकानेक दशाओं का वर्णन है। आजकल विंशोत्तरी दशा का प्रचलन है। मारकेश ग्रहों की दशा एवं अन्तर्दशा में महामृत्युंजय प्रयोग फलदायी है।
जन्म, मास, गोचर, अष्टक आदि में ग्रहजन्य पीड़ा के योग, मेलापक में नाड़ी के योग, मेलापक में नाड़ी दोष की स्थिति, शनि की साढ़ेसाती, अढय्या शनि, पनौती (पंचम शनि), राहु-केतु, पीड़ा, भाई का वियोग, मृत्युतुल्य विविध कष्ट, असाध्य रोग, त्रिदोषजन्य महारोग, अपमृत्युभय आदि अनिष्टकारी योगों में महामृत्युंजय प्रयोग रामबाण औषधि है।
शनि की महादशा में शनि तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, केतु में केतु तथा गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, रवि की महादशा में रवि की अनिष्टकारी अंतर्दशा, चन्द्र की महादशा में बृहस्पति, शनि, केतु, शुक तथा सूर्य की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, राहु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, शुक्र की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अन्तर्दशा, गुरु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अंतर्दशा, बुध की महादशा में मंगल-गुरु तथा शनि की अनिष्टकारी अन्तर्दशा आदि इस प्रकार मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा में सविधि मृत्युंजय जप, रुद्राभिषेक एवं शिवार्जन से ग्रहजन्य एवं रोगजन्य अनिष्टकारी बाधाएँ शीघ्र नष्ट होकर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त अनिष्टकारी योगों के साथ ही अभीष्ट सिद्धि, पुत्र प्राप्ति, राजपद प्राप्ति, चुनाव में विजयी होने, मान-सम्मान, धन लाभ, महामारी आदि विभिन्न उपद्रवों, असाध्य एवं त्रिदोषजन्य महारोगादि विभिन्न प्रयोजनों में सविधि प्रमाण सहित महामृत्युंजय जप से मनोकामना पूर्ण होती है।
विभिन्न प्रयोजनों में अनिष्टता के मान से 1 करोड़ 24 लाख, सवा लाख, दस हजार या एक हजार महामृत्युंजय जप करने का विधान उपलब्ध होता है। मंत्र दिखने में जरूर छोटा दिखाई देता है, किन्तु प्रभाव में अत्यंत चमत्कारी है।
देवता मंत्रों के अधीन होते हैं- मंत्रधीनास्तु देवताः। मंत्रों से देवता प्रसन्न होते हैं। मंत्र से अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों का नाश होता है तथा सिद्धियों की प्राप्ति भी होती है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता एवं निरुवतादि मंत्र शास्त्रीय ग्रंथों में त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। उक्त मंत्र मृत्युंजय मंत्र के नाम से प्रसिद्ध है।
शिवपुराण में सतीखण्ड में इस मंत्र को ‘सर्वोत्तम’ महामंत्र’ की संज्ञान से विभूषित किया गया है- मृत संजीवनी मंत्रों मम सर्वोत्तम स्मृतः। इस मंत्र को शुक्राचार्य द्वारा आराधित ‘मृतसंजीवनी विद्या’ के नाम से भी जाना जाता है। नारायणणोपनिषद् एवं मंत्र सार में- मृत्युर्विनिर्जितो यस्मात तस्मान्यमृत्युंजय स्मतः अर्थात् मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के कारण इन मंत्र योगों को ‘मृत्युंजय’ कहा जाता है। सामान्यतः मंत्र तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, तांत्रिक, एवं शाबरी। इनमें वैदिक मंत्र शीघ्र फल देने वाले त्र्यम्बक मंत्र भी वैदिक मंत्र हैं।
मृत्युंजय जप, प्रकार एवं प्रयोगविधि का मंत्र महोदधि, मंत्र महार्णव, शारदातिक, मृत्युंजय कल्प एवं तांत्र, तंत्रसार, पुराण आदि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में विशिष्टता से उल्लेख है। मृत्युंजय मंत्र तीन प्रकार के हैं- पहला मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र। पहला मंत्र तीन व्यह्यति- भूर्भुवः स्वः से सम्पुटित होने के कारण मृत्युंजय, दूसरा ॐ हौं जूं सः (त्रिबीज) और भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) से सम्पुटित होने के कारण ‘मृतसंजीवनी’ तथा उपर्युक्त हौं जूं सः (त्रिबीज) तथा भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) के प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ में ॐ का सम्पुट लगाया जाता है। इसे ही शुक्राचार्य द्वारा आराधित महामृत्युंजय मंत्र कहा जाता है।
इस प्रकार वेदोक्त ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ मंत्र में ॐ सहित विविध सम्पुट लगने से उपर्युक्त मंत्रों की रचना हुई है।

उपर्युक्त तीन मंत्रों में मृतसंजीवनी मंत्र ::

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः ॐ सः जूं हौं ॐ।

यह मंत्र सर्वाधिक प्रचलित एवं फल देने वाला माना गया है। कुछ लघु मंत्र भी प्रयोग में आते हैं, जैसे-त्र्यक्षरी अर्थात तीन अक्षरों वाला ॐ जूं सः पंचाक्षरी ॐ हौं जूं सः ॐ तथा ॐ जूं सः पालय पालय आदि। ॐ हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ। हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ।
इस मंत्र के 11 लाख अथवा सवा लाख जप का मृत्युंजय कवच यंत्र के साथ जप करने का विधान भी है। यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखकर पुरुष के दाहिने तथा स्त्री के बाएँ हाथ पर बाँधने से असाध्य रोगों से मुक्ति होती है। सर्वप्रथम यंत्र की सविधि विभिन्न पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना करना चाहिए, पूजा में विशेष रूप से आंकड़े, एवं धतूरे का फूल, केसरयुक्त, चंदन, बिल्वपत्र एवं बिल्वफल, भांग एवं जायफल का नैवेद्य आदि।
मंत्र जप के पश्चात् सविधि हवन, तर्पण एवं मार्जन करना चाहिए। मंत्र प्रयोग विधि सुयोग्य वैदिक विद्वान आचार्य के आचार्यत्व या मार्गदर्शन में सविधि सम्पन्न हो तभी यथेष्ठ की प्राप्ति होती है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने की आशंका हो सकती है।
जप विधि में साधक को नित्यकर्म से निवृत्त हो आचमन-प्राणायाम के साथ मस्तक पर केसरयुक्त चंदन के साथ रुद्राक्ष माला धारण कर प्रयोग प्रारंभ करना चाहिए। प्रयोग विधि में मृत्युंजय देवता के सम्मुख पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर शरीर शुद्धि कर संकल्प करने का विधान प्रमुख है। संकल्प के साथ विनियोग न्यास एवं ध्यान जप विधि के प्रमुख अंग हैं। मृत्युंजय महादेवों त्राहिमाम् शरणामम्। जन्म-मृत्यु जरारोगैः पीड़ितम् कर्मबंधनैः के ध्यान के साथ जप निवेदन करना चाहिए। अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों से मुक्ति की यह रामबाण महौषधि है।

Recitation or listening of this Mantr, 3 to 108 times in early morning is highly beneficial. This Mantr protects one along with his family, friends, relatives, elders, from accidents and misfortunes of all kinds and has great curative effect over diseases declared incurable.

व्याधि-बीमारी-रोग, संकट, कष्ट, मृत्यु का आभास होने पर मनुष्य को इस मन्त्र का पूरी लग्न-निष्ठां-ईमानदारी के साथ श्रवण, मनन, पाठ करना चाहिए। इसके जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। स्वयं के लिए निम्न मन्त्रों का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा।

(1). एकाक्षरी मंत्र :-

हौं। 

(2). त्र्यक्षरी मंत्र :-

ॐ जूं सः। 

(3). चतुराक्षरी मंत्र :-

ॐ वं जूं सः। 

(4). नवाक्षरी  मंत्र :-

ॐ जूं सः पालय पालय। 

(5). दशाक्षरी (10) मंत्र :-

ॐ जूं सः मां पालय पालय।

तांत्रिक बीजोक्त मंत्र :: महामृत्युंजय मन्त्र के अलग-अलग रुप हैं। अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी मंत्र का चुनाव करके नियमित रूप से इन मंत्रों का पाठ करना चाहिये। यह मन्त्र महर्षि वशिष्ठ ने हमें प्रदान किया। आचार्य शौनक ने ऋग्विधान में इस मन्त्र का वर्णन किया है। नियम पूर्वक व्रत तथा इस मंत्र द्वारा पायस (खीर, pudding) के हवन से दीर्घ आयु प्राप्त होती है, मृत्यु दूर  है तथा प्रकार सुख प्राप्त होता है। इस मंत्र  के अधिष्ठाता भगवान् शिव हैं। वेदोक्त महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है :-

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥[ऋग्वेद 7.59.12]

सुगन्ध युक्त, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव समस्त प्राणियों को भरण-पोषण, पालन-पोषण करने वाले, हमें संसार सागर (मृत्यु-अज्ञान) से उसी प्रकार बन्धन मुक्त करें, जिस प्रकार खीरा अथवा ककड़ी पककर बेल से अलग हो जाती है।

I worship Bhagwan Shiv the three-eyed Supreme deity, who is full of fragrance and who nourishes all beings; may He liberate me from the death (of ignorance), for the sake of immortality (of knowledge and truth), just as the ripe cucumber is severed from its bondage (the creeper).

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या ::

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ॥

महामृत्युंजय मंत्र :: 

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ॥

MAHA MRATUNJAY MANTR OTHER FORM ::

ॐ मृतुंज्याय महादेवाय नमोस्तुते।

Om Mratunjayay Maha Devay Namostute.

भगवान् शिव को अति प्रसन्न करने वाला मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र। जन साधारण की धारणा है कि इसके जाप से व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती परंतु यह पूरी तरह सही अर्थ नहीं है। महामृत्युंजय का अर्थ है महामृत्यु पर विजय अर्थात् व्यक्ति की बार-बार मृत्यु ना हो। वह मोक्ष को प्राप्त हो जाए। उसका शरीर स्वस्थ हो, धन एवं मान की वृद्धि तथा वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाए। शिव पुराण में भी महामृत्युंजय मंत्र की महिमा के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी मंत्र के लगातार जाप से कई असाध्य रोगों से भी लाभ पहुंचता है। महामृत्युंजय मेंत्र के पहले तथा बाद उसके बीज मंत्र “ॐ हौं जूँ स:” का उच्चारण आवश्यक माना गया है। जिस तरह बिना बीज के जीवन उत्पन्न नहीं होता है उसी तरह बिना बीज मंत्र के महामृत्युंजय मंत्र फलित नहीं होता है। जो पूरे मंत्र का जाप नहीं सकते वे केवल बीज मंत्र के सतत जाप से सभी अभिष्ट फल प्राप्त कर सकते हैं।महामृत्युंजय मंत्र का एक लाख जाप करने पर शरीर की शुद्धि होती है। दो लाख जाप करने पर पूर्वजन्म का स्मरण होता है। तीन लाख जाप करने पर इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाती है। चार लाख जाप करने पर स्वप्न में भगवान् शिव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। पांच लाख जाप करने पर भगवान् शिव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। दस लाख जाप करने पर संपूर्ण फल की सिद्धि होती है। मंत्र जाप आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से पूर्ण पवित्र होकर करें। जो असहाय बीमार हो वह कैसी भी अवस्था में लेटे-बैठे, बगैर स्नान किए, किसी भी समय, किसी भी उम्र में बीज मंत्रों का जाप कर सकते हैं। उन्हें भगवान् शिव की कृपा से निरोगता प्राप्त होगी।

शिवाराधना से चन्द्रमा और शनि दोनों मजबूत और निरापद होते हैं। निराकार रूप में भगवान् शिव शिवलिंग रूप में पूजे जाते हैं। शिवपुराण में कहा गया है कि साकार और निराकार दोनों ही रूपों में शिव जी की पूजा कल्याणकारी होती है, लेकिन शिवलिंग की पूजा करना अधिक उत्तम है। भगवान् शिव के अतिरिक्त अन्य कोई भी देवता साक्षात् ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं। संसार भगवान्  शिव के ब्रह्मस्वरूप को जान सके इसलिए ही भगवान शिव ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट हुए और शिवलिंग के रूप में इनकी पूजा होती है। भगवान् शिव को जगत पिता हैं। वही सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म भी हैं। शिव’ का अर्थ है, कल्याणकारी, लिंग का अर्थ है :- सृजन अतः भगवान् सर्जनहार हैं। उत्पादक शक्ति के चिन्ह के रूप में लिंग की पूजा होती है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं।

विधि-विधान :: (1). रोजाना सुबह शिव मंदिर जायें और शिवलिंग पर चावल चढ़ायें। शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से घर में कभी भी धन की कमी नहीं होती।

(2).  रोजाना रात के समय शिव मंदिर जाएं और दीप दान करें। ऐसा करने वाले व्यक्ति के जीवन में कभी भी धन का अभाव नहीं होता।

(3). मंत्र कामनापूर्ति का श्रेष्ठ साधन हैं। पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके किया गया मंत्र जाप धन, वैभव व ऐश्वर्य की कामना को पूरी करता है।

रूद्राक्ष की माला लेकर अपनी इच्छा अनुसार शिव मंत्र का जाप करें : –

मन्दारमालाङ्कुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥

श्री अखण्डानन्दबोधाय शोकसन्तापहारिणे।

सच्चिदानन्दस्वरूपाय शंकराय नमो नम:॥

(4). जन-धन हानि हो रही हो तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें :-

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥

(5).  सोमवार के दिन भगवान शिव जी को पंजीरी का भोग लगाएं।
सावधानियाँ :- महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम कल्याणकारी-फलदायी है। अनिष्ट निवारण हेतु जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :-
(1). जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
(2). एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
(3). मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
(4). जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
(5). रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
(6). माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
(7). जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
(8). महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
(9). जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
(10). महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
(11). जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
(12). जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
(13). जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
(14). मिथ्या बातें न करें।
(15). जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
(16). जपकाल में मद्य-नशा-मांसाहार त्याग दें।
शिवाराधना से चन्द्रमा और शनि दोनों मजबूत और निरापद होते हैं। निराकार रूप में भगवान शिव शिवलिंग रूप में पूजे जाते हैं।शिवपुराण में कहा गया है कि साकार और निराकार दोनों ही रूपों में शिव जी की पूजा कल्याणकारी होती है, लेकिन शिवलिंग की पूजा करना अधिक उत्तम है। शिव जी के अतिरिक्त अन्य कोई भी देवता साक्षात् ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं। संसार भगवान शिव के ब्रह्मस्वरूप को जान सके इसलिए ही भगवान शिव ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट हुए और शिवलिंग के रूप में इनकी पूजा होती है।भगवान् शिव को जगत पिता हैं। वही सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म भी हैं। शिव’ का अर्थ है – कल्याणकारी, लिंग का अर्थ है :- सृजन अतः भगवान् सर्जनहार हैं।उत्पादक शक्ति के चिन्ह के रूप में लिंग की पूजा होती है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं।
विधि-विधान :: (1). रोजाना सुबह शिव मंदिर जाएं और शिवलिंग पर चावल चढ़ाएं। शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से घर में कभी भी धन की कमी नहीं होती।
(2).  रोजाना रात के समय शिव मंदिर जाएं और दीप दान करें। ऐसा करने वाले व्यक्ति के जीवन में कभी भी धन का अभाव नहीं होता।
(3). मंत्र कामनापूर्ति का श्रेष्ठ साधन हैं। पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके किया गया मंत्र जाप धन, वैभव व ऐश्वर्य की कामना को पूरी करता है।
रूद्राक्ष की माला लेकर अपनी इच्छा अनुसार शिव मंत्र का जाप करें : –

मन्दारमालाङ्कुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥

श्री अखण्डानन्दबोधाय शोकसन्तापहारिणे।

सच्चिदानन्दस्वरूपाय शंकराय नमो नम:॥

(4).  जन-धन हानि हो रही हो तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें ::

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥

(5).  सोमवार के दिन भगवान शिव जी को पंजीरी का भोग लगाएं।
कुशाग्र बुद्धि हेतु शिव मंत्र द्वारा आराधना ::

याते रुद्रशिवातनूरघोरा पापकाशिनी।
तयानस्तन्नवाशन्त मयागिरी शंताभिचाकशीहि॥

भगवान शिव के इस मंत्र को जप करने के लिए पूर्व दिशा या काशी की तरफ मुख कर, आसन पर बैठकर जाप करें। इस  मंत्र का जाप प्रत्येक दिन 108 बार करने से बुद्धि कुशाग्र हो जाती है और  गृहक्लेशों का निवारण होता है। मंत्र को जपते समय भगवान शिव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। विद्यार्थियों के लिए यह श्लोक बहुत लाभ प्रद है। मन्त्र सिद्धि की लिए इसका 5,00,000 जप विधि विधान से करें।

SARASWAT MANTR ::

This Mantr is helpful to those who wish to be blessed with education, knowledge  and enlightenment.

 Om aim namah. ॐ ऐं नम:। 

सोने की सलाई से या कुशा की जड़ से गंगा-जल द्वारा अभिमंत्रित, अष्टमी या चतुर्दशी के दिन छात्र-बच्चे की जीभ पर ऐं’बीज लिखें व 5,00,000 बार शांत भाव से सस्वर उच्चारण करें।

सारस्वत मन्त्र: “ॐ ह्रां ऐं ह्रीं सरस्वतयै नमः” का जाप 5,00,000 बार विधि-विधान के साथ करें।

हंसारुढा भगवती मां सरस्वती का ध्यान कर मानस-पूजा पूर्वक इस मन्त्र का 108 बार जप करें :-

ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः।

सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा॥

Saraswati Namas Tubhyam Varde Kam Rupini;

Vidyarambham Karishyami Siddhirbhvtu Me Sada.

O Goddess Saraswati, I bow down humbly before you, the bestow-er of all wishes; As I commence my studies, may there be success for ever. Note: This is recited to salute Goddess Saraswati before starting studies.

 या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्र वस्त्रावृता। 

या वीणा वर दण्ड मण्डितकरा या श्वेत पद्मासना॥

या ब्रह्माच्युत सङ्कर प्रभृतिभिः देवैः सदा वन्दिता। 

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा॥

Ya Kundendu Tushar Har Dhavla Ya Shubhr Vastra Vrta;

Ya Veena Var Dand Manditkara Ya Shvet Padmasana.

Ya Brahmachyut Sankar Prabhr Tibhih Devaeh  Sada Vandita;

Sa Maan Patu Sarasvati Bhagvati Nihi Shesh Jadyapha.

Hey Maan  Saraswati, pure and radiant as the full moon and frost, wearing a garland of jasmine flowers, in your white robes, seated on lotus throne; with the Veena on your lap; O one who is worshipped by Brahma, Vishnu and Maheshwar (Shiv), may you bless and protect me and remove the laziness and sloth in me.

This is recited while worshipping Maa Saraswati.

SHAKTI MANTR ::

Tantrik/Beej (बीजमंत्र) :: This is a form of prayer, performed by the Tantrik. Those who recite this Mantr with good intentions, are blessed with might and power.

Om Aim Hreem Kleem Chamunday Vichchae Phat Swaha.

ॐ  ऐं  ह्रीं  क्लीं चामुंडाय  विच्चै  फट  स्वाहा:।

DURGA SAPT SHATI ::

Durge Smreta Harsi Bheetim shesh Janto, Swesthe Smreta Matimateew Shubham Dadasi.

Daridry Dukh Bhayharini Ka Tvdanya, Serwopkar Kernay Sdardr Chitta.

दुर्गे स्मृता  हरसि भीतिम शेष जन्तो, स्वस्थे: स्मृतामतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्र्य दुःख भयहारिणी का त्वदन्या, सर्वोपकार  करणाय सदार्द्र चित्ता॥ 

LAKSHMI MANTR :: भौतिक सुख के लिये लक्ष्मी मन्त्र :-

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये महे प्रसीदा प्रसीदा स्वाहा॥

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मेय नमः॥

किसी भी मन्त्र को कमलगट्टे की माला से हर गुरुवार को 5 माला जपे। इससे घर की आर्थिक परिस्थिती में सुधार होने लगता है।
Laxmi is the Shakti of Bhagwan Vishnu, who nurtures this universe. Desirous of worldly comforts and pleasures, people worship mother Laxmi on Deepawali, new ventures and the beginning of new business.

Om Shreem Hreem Kleem Aim Kamal Vasiney Phat Swaha.

ओम श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमल वासिन्ये फट स्वाहा:। 

आर्थिक संकट से मुक्त होने के लिए  ऋग्वेद के इस मंत्र का जप करें ::

“ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मादभ्रं भूर्या भर। भूरि धेदिन्द्र दित्ससि।

ॐ भूरि दाह्यसि श्रुतः पुरुजा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

हे लक्ष्मीपते! आप दानी हैं, साधारण दानदाता ही नहीं बहुत बड़े दानी हैं। आप्तजनों से सुना है कि संसारभर से निराश होकर जो याचक आपसे प्रार्थना करता है, उसकी पुकार सुनकर उसे आप आर्थिक कष्टों से मुक्त कर देते हैं-उसकी झोली भर देते हैं। हे भगवान्! मुझे इस अर्थ संकट से उबार दें।
LAKSHMI VANDNA ::

महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वेरि।

हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधि॥

Maha Laxmi Namstubhayam Namstubhayam Sureshrewari,

Hari Priye Namstubhayam Namstubhayam Dayanidhi.

KUBER MANTR कुबेर मन्त्र :: दीपावली की रात में लक्ष्मी और कुबेर देव का पूजन करें और इस मंत्र का जाप 108 बार करें।

ऊँ यक्षाय कुबेराय वैश्रववाय, धन-धान्यधिपतये धन-धान्य समृद्धि मम देहि दापय स्वाहा।

महालक्ष्मी के पूजन में गोमती चक्र भी रखना चाहिए। गोमती चक्र भी घर में धन संबंधी लाभ दिलाता है। दीपावली पर तेल का दीपक जलाएं और दीपक में एक लौंग डालकर हनुमान जी की आरती करें। किसी हनुमान जी के मंदिर में जाकर ऐसा दीपक भी लगा सकते हैं।

LAKSHMI (wealth) & SARASWATI (Education)

Laxmi, Lajje, Maha Viddye Sherddhe, 

Pushti Swedhye Dhruve;

Maha Ratri Maha Viddye Narayani Namostute.

 लक्ष्मी, लज्जे, महाविद्दे श्रद्दे, पुष्टि स्वधे ध्रुवे।

 महारात्रि महाविद्द्ये   नारायणि नमोस्तुते॥ 

DAKHNINA MANTR :: For timely, good, harmonious marriage this Mantr is purposeful.

Om  Shreem Hreem Kleem Dakshinayae Phat Swaha. 

  ॐ श्रीं  ह्रीं  क्लीं  दक्षिणायै  फट स्वाहा:। 

SURY (रवि) MANTR :: The devotees of Bhagwan Sury Narayan are blessed with success, riches, name, fame, health and vigour. One should recite the Mantr every day, in the morning, after becoming fresh and pour water towards the Sun, such that the Lota-pot-vessel,  carrying water is slightly over the head. The water may be allowed to run into Tulsi Plant kept in the open. The day assigned to specific Pooja and Archna is Sunday.

Om Suryay Namo Namah. ॐ सूर्याय नमो: नम:।  

Om Suryay Namah. ॐ सूर्याय नम:। 

   Om Adityay Namo Namah. ॐ आदित्याय नम:। 

                  Om Jyotir Aditay Phat Swaha. ॐ ज्योतिर आदित्य फट स्वाहा:। 

             Om Bhaskray Namah. ॐ भास्कराय नम:। 

 Om Bhanuve Namah.  ॐ भानुवे नम:। 

 Om Khakhol Kay Namah. ॐ  खखोलकाय नम:।    

 Om Khakhol Kay Swaha.  ॐ  खखोलकाय स्वाहा:।

Om Vyam Phat. ॐ व्यं फट।

Om Hram Hreem Sah: Phat Swaha. ॐ  ह्रां  ह्रीं   स: फट स्वाहा:।

Om Hram Hreem Sheh Suryay Namah. ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम:।

SURY GAYATRI MANTR ::

Om Adityay Vidmahe Bhaskray Dheemahi Tanno  Bhanuh Prachodyat.

आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुह: प्रचोदयात्।

साध्य सूर्य मन्त्र :: ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः। ॐ घृणि सूर्याय नमः।  

SOM MANTR :: Som (सोम-Moon) Mantr is devoted to Moon. Moon is the lord of Brahmns and the vegetation-herbs (Medicinal Plants). He nourishes all medicinal plants herbs. He is associated with travel and love. Those who wish to have good mental & physical health may pray to him. The day assigned is Monday. He is  a component of Brahma Ji and controls the Man, Mood, psyche, wisdom. For special-specific prayers visit Som Nath temple in Gujrat.

Om Somay Namo Nameh. ॐ सोमाय नमो: नम:।

MANGAL (मंगल-Mars) MANTR ::

This Mantr is meant to seek the blessings of Mangal-the red planet Mars which was created by the sweat of Bhagwan Shiv, which fell on earth.Those who are Mangli, must recite this Mantr, to seek protection from the bad omens associated with this sign lord.This plane creates all sorts of hurdles in the life of some people. Recitation of Hanuman Chalisa on Tuesdays is helpful to great extent.

Om Bhomay Namo Namah.  ॐ भोमाय नमो: नम।  

                   BUDDH MANTR

Buddh  (बुद्ध-Mercury) is the son of Moon from Tara-the wife of Dev Guru Vrahspati. This planet is closest to the Sun and is worshiped for success in trade, business, sciences, new inventions, techniques, innovations, new designs etc. on Wednesday. This day is assigned for Ganpati-Ganesh ji’s prayers as well.

ॐ सोमात्मज्याय नमो: नम:। 

Om Somatmjyay Namo Nameh.

GURU VRAHASPATI (गुरू वृहस्पति) :: Jupiter is the largest-gaseous planet in our Solar system. He is the teacher, philosopher and guide of Demigods, and most revered person in the Heaven. For harmony in family and cordial relations, one has to observe fast on Thursday, wear yellow cloths, donate yellow goods and eatables. Bhagwan Shiv is  the Maha Guru.  Guru Vandna is recited to pay salutation to teacher  (गुरु, guru) in the evening.

“ॐ गुं गुरूभ्यो नम:”। Om Gun Gurubhyo Namah.

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

Gurur Brahma, Gurur Vishnuh, Gurur Devo Maheshwarah;

Gurur Sakshat Param Brahm, Tasmae Shri Gurve Nameh.

My salutation to my teacher, who to me are Brahma, Vishnu and Maheshwar, the Ultimate Par Brahm, the Supreme reality.

SHUKR DEV :: Shukr (शुक्र-Venus) is the shining planet, which is closest to the earth. It affects the weather on earth, along with moon and Shishumar Chakr-constituted of 4 stars. Dhruv-the Pole Star is located at the tail of Shishumar Chakr-the embodiment of Bhagwan Vishnu. Sun revolves round Dhruv. It provides health, vigour  potency and success in arts and literary fields. Wear white cloths and observe fast on Friday.

ॐ शुक्राय नमो: नमः।

Om Shukray Namo Namah.

मृत सञ्जीवनी विद्या ::

ॐ हौं जूँ स:। ॐ भूर्भुव: स्व:। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं। ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम। ॐ भर्गो देवस्य धीमहि। ॐ उर्वारुकमिव बन्धनाद। ॐ धियो यो न प्रचोदयात। ॐ मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात। ॐ स्व: भुव: भू:। ॐ स: जूँ ह्रौं ॐ।

असुरों के गुरु शुक्राचार्य द्वारा इसका अभ्यास किया गया। सभी प्रकार के रोग-शोक निवारण के लिये इसका विधि-विधान पूर्वक अभ्यास करें।

सर्वरोग नाशक प्रातः स्मरण-आराधना :: यह महर्षि वशिष्ठ द्वारा भगदेवता-ईश्वर से सभी रोगों से मुक्ति पाने की प्रार्थना है। इसके प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक पाठ करने से असाध्य से भी असाध्य रोग दूर हो जाते हैं और दीर्घायु प्राप्त होती है।

प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। 

प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम॥

हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! आप स्वप्रकाश स्वरूप-सर्वज्ञ, परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य से युक्त, प्राण और उदान के समान, सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न करने वाले हैं।आप भजनीय, सेवनीय, पुष्टिकर्त्ता हैं। आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता, अन्तर्यामी और प्रेरक, पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोग नाशक हैं। हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 7.41.1]

Hey Almighty! YOU bear (inbuilt) aura, all knowing, possess & grants ultimate comforts-bliss, support Pran Vayu-life sustaining force in us, creator of Sun & Moon, has to be prayed by us-devotees. YOU maintain-nurture your devotees, Ved & the Universe, punishes the sinners & eliminates all diseases-illness. We pray to YOU in the morning.

SHANI DEV-SATURN (शनि देव) :: It is the ringed planet, which is most feared and considered to be dreaded and cruel  by nature. If one is facing tough time, difficulties, obstructions in life, money losses, weak constitution, poor health, thin pale body, he must pray to Shani. People wear blue clothes and observe fast on Saturdays, for protection from its ill effects. They donate mustered oil, glow/light earthen lamp, with mustard oil, below the Peepal tree near its root.  People wear iron ring in their Saturn finger to avoid ill effects of Shani. It provides Bhakti, might and wealth.

ॐ शनैश्वराय  नमो नम:। Om Shaneshwray Namo Namah.

शनि गायत्री मन्त्र ::

ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न सौरि प्रचोदयात।

शनि पौराणिक मन्त्र ::

ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनये नम:। ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनैश्चराय नमः॥    

 काल सर्प योग 

Protection from Snakes/Nag/Serpents. Recitation of these Mantr is useful.

 

Om Kurukulle Phat Swaha.  ॐ कुरुकुल्ले फट स्वाहा:|

 Om Nagar Phat Swaha.  ॐ नगर  फट स्वाहा:|

Om Narmdaye Nameh. Prater Narmdaye Namo Nishi,

Namo Astu Narmdye Trahimam Vishsarpt:.

ॐ  नर्मदायै नम:. प्रातर्नर्मदायै  नमो निशि। नमोअस्तु नर्मदे तुभं त्राहि मां विश्सर्पत:॥ 

Om Namo Bhagwate Neel Kanthay.

ॐ नमो भगवते नील कंठाय।

कालसर्प योग के दोष निवारण :- इस कार्य हेतु ताँबे का एक बड़ा सर्प शिवलिंग को अर्पित करें अथवा चांदी के नाग नागिन का जोड़ा समर्पित करें। नव नाग स्तोत्र तथा सर्प गायत्री मंत्र का उच्चारण करें।
नवनाग स्तोत्र :- अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलं, शन्खपालं ध्रूतराष्ट्रं च तक्षकं, कालियं तथा एतानि नव नामानि नागानाम च, महात्मनं सायमकाले पठेन्नीत्यं प्रातक्काले विशेषतः तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेतll
NAVNAG STROT :: Anant Vasukim Shesham Padmnabham Ch Kambalam, Shankhpalm Dhratrashtram  Ch Takshakm Kaliyam Tatha, Atani Nav Namani Naganam Ch Mahatmanm,Sayamkale Pathennityam Pratahkale Visheshtah Tasy Vishbhyam Nasti Sarwatr Vijyee Bhavet.
नाग गायत्री मंत्र :- ॐ नव कुलाय विध्महे विषदन्ताय धी माहि तन्नो सर्प प्रचोदयात।
NAG GAYATRI MANTR :: Om Nav Kulay Vidhmahe Vishdantay Dhee Mahi Tanno Sarp Prachodyat.

Protection from Ghosts, evil spirits 

Recitation of this Mantr and Hanuman Chalisa will help:

Om Shree Maha Anjnay Pawan Putravesh Veshey,

 Om Shree Hanumate Phat.

ॐ श्री महा अन्ज्नाये पवन पुत्रावेशवेशय। 

 ॐ श्री हनुमते फट॥ 

Shri Hanumat Vandna 

Atulit Bal Dhamam hem Shaella Bhadem, 

Dju Jwn Krashanu Gyani Namgr  Gamyam.

Sakal Gun Nidhanam Vrndhishm Vanrandhisham, 

Ragupati Pribhkram Vat Jatm Namami.

अतुलित बल धामं हेम शैला  भदेहं, दजु जवन  कृषानु  ज्ञानी नामग्र गम्यं।

सकल गुण निधानं वंरधिषम वानराधीशं, रघुपति प्रियभ्कृम्  वात  जातं नमामि॥ 

 Wish to have long life of son, recite this Mantr ::

ॐ नमोस्तुते कार्त्विर्याय।

Wish to avoid untimely/accidental  death, recite:

Akal Mrtyu-Hrnam Sarv Vyadhi-Vinashnam.               

Shri Ram Padodkam Peetva Punrjnm Na Vidhyte.

 अकाल मृत्यु-हरणं सर्व व्याधि-विनाशनम्। 

 श्री राम पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विध्यते॥ 

Shri Ram Vandna ::

Shri Ram Chandr Raghupungev Rajvry Rajendr Ram Raghu Nayak Raghvesh.

Rajadhiraj Raghunandan Ramchandr Dasoahmdy Bhawth Sarnagatoasmi.

श्री रामचन्द्र रघु पुंगव राज्वर्य राजेन्द्र राम रघु नायक राघवेश।

राजाधिराज रघुनन्दन रामचन्द्र दासोडहमद्द भवत: शरणागतोअस्मि॥ 

PREVENTION FROM  EPIDEMIC/PLAGUE ::

      Om Jayanti Mangla Kali Bhadr Kali Krapalini.               
Durga Kshama Shiva Dhatri Swaha Swedha Namostute.

 ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कृपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा  स्वधा नमोस्तुते॥ 

PREVENTION OF DISTRESS, DISASTER, ADVERSITY, MISFORTUNE ::

                                                   Sharnagat Deenatr Paritran Prayne;  

Sarw Syatimhre Devi Narayani Namostute.

   

 शरणागतदीनार्तपरीत्राण परायणे।

     सर्वस्यातिमंहरे देवी नारायणि नमोस्तुते।।  

PREVENTION FROM FEAR

                   Sarw-Sverupe Sarveshe Sarw Shakti Samnvite;                     

Bhyebhy strahi no Devi Durge Devi Namostute.. 

        सर्व-स्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।         

 भयेभ्यस्त्राहि  नो देवी दुर्गे देवि नमोस्तुते।।

           Prevention from Poverty, Pains and sorrow/grief

Durge Smrta Hersi Bheetim Sheshjnto. Swestheh Smrta Mtimteev Shubham Dadasi..

Daridry Dukh-Bhy Hrni Ka Tvdnya. Sarvopkarkrnay Sdardrchita..

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो । स्वेस्थे: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।।

दारिद्र्य दुःख-भय हारिणि  का त्वदन्या। सर्वोपकारकरणाय  सदार्द्रचिता  ।।

PREVENTION OF DISTRESS, DISASTER, ADVERSITY, MISFORTUNE OF THE ENTIRE  WORLD

Devi Prsann Tirhre Prsid Prsid Matrjgto Akhilsy.

 Prsid Vishveshwari Pahi Vishvm Tvmishwri Devi Chrachrsy..

देवि प्रसन्नतिर्हेरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतो   अखिलस्य।

 प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य।।

Mantr recited  for Good Night sound sleep before sleeping

Krshnay Vasudevay Hrye Prmatmne, Prnat Klesh Nashay Govinday Namo Namh..

कृष्णाय  वासुदेवाय हरये परमात्मने, 

प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नम:।

भैरवी कवच ::

भैरवी कवचस्यास्य सदाशिव ऋषि: स्मृत:; 

छंदोSनुष्टुब देवता च भैरवी भयनाशिनी। 
धर्मार्थ काम मोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित:; 

हसरैं मे शिर: पातु भैरवी भयनाशिनी। 
हसकलरीं नेत्रंच हसरौश्च ललाटकम् ; कुमारी सर्व्वगात्रे च वाराही उत्तरे तथा। 
पूर्व्वे च वैष्णवी देवी इंद्राणी मम दक्षिणे; दिग्विदिक्ष सर्व्वेत्रैवभैरवी सर्व्वेदावतु। 
इदं कवचमज्ञात्वा यो सिद्धिद्देवी भैरवीम; कल्पकोटिशतेनापि सिद्धिस्तस्य न जायते। 

Shri Brahm Vandna श्री ब्रह्म वन्दना 

Nameste Sate  Jagatkarnaay, Nameste Chite Serwlokashryay.

Namo Asdwet Ttway Mukti Prday, Namo Brahmne Vyapine Shashwtay.

नमस्ते सते ते जगत्कारणाम, नमस्ते चिते सर्व लोकाश्रयाय।

नमो अद्वेत तत्वाय मुक्ति प्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय ।।

Shri Krashn Vandna श्री कृष्ण वन्दना ::

Vsudev Sutam Devm Kans Chadur Mardnm, Devki Permanandm Kreshnm Vnde Jagatgurum.

वसुदेव सुतं देवं कंस  चाणूर मर्दनम्, देवकी परमानन्दं कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम।

Shuddhi Mantr  शुद्धि मंत्र ::

Om Apvitrh  Pavitro Va Sarwavsthangto Api Va.

Yh Smret Pundrikakshm S Wa Hyabhyantr Shuchih.

ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वाव स्थान्गतो अपि वा। 

य: स्मरेत  पुंडरीकाक्षं स वा ह्यभ्यन्तर: शुचि:॥   

प्रात: कर-दर्शनम् ::

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

पृथ्वी क्षमा प्रार्थना::

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण ::

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

स्नान मन्त्र ::

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

सूर्य नमस्कार ::

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।

दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्  सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

ॐ मित्राय नम:। ॐ रवये नम:। ॐ सूर्याय नम:। ॐ भानवे नम:। ॐ खगाय नम:। ॐ पूष्णे नम:। ॐ हिरण्यगर्भाय नम:। ॐ मरीचये नम:। ॐ आदित्याय नम:। ॐ सवित्रे नम:। ॐ अर्काय नम:। ॐ भास्कराय नम:। ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:।

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

दीप दर्शन ::

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

गणपति स्तोत्र ::

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।
द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥

विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।
द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥

विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय। लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥

नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय। गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं। प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

माता आदि शक्ति वंदना ::

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

भगवान् शिव स्तुति ::

कर्पूर गौरम करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।

सदा वसंतं हृदयार विन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि॥

भगवान्  श्री हरी विष्णु स्तुति ::

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

भगवान्  श्री कृष्ण स्तुति ::

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥

सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌॥

भगवान्  श्री राम वंदना ::

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

श्री रामाष्टक ::

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥

एक श्लोकी रामायण ::

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

सरस्वती वंदना ::

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। 

सा माम पातु सरस्वती भगवती  निःशेषजाड्याऽपहा॥

श्री हनुमान वंदना ::

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌। दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌। रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

स्वस्ति-वाचन ::

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

शाँति पाठ ::

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:, पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

शुद्धि मन्त्र ::

आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने।
सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः॥

स्नान आचमन आदि के बाद चाण्डाल आदि अपवित्र लोगों पर दृष्टि पड़े तो वह साध्य सूर्य का मन्त्र (उदुत्यं जातवेदसमीत्यादि) और यथाशक्ति पावमानी (पुनन्तु मां, इत्यादि) मन्त्र जपे।
If one happen to see a Chandal of some impure-unclean person, he should recite the Sadhy Sury Mantr and practice Pavmani Mantr with effort.

साध्य सूर्य मन्त्र :: ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः। ॐ घृणि सूर्याय नमः।

पावमानी मन्त्र ::

ॐ स्तूता मया वरदा वेद माता प्रचोदयंताम् पावमानी द्विजानाम् आयुः प्राणं प्रजाम् पशुं कीर्तिम् द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यम् द्वत्वा वृजत् ब्रह्मलोकं।  ततो नमस्कारं करोमि।

उच्चाटन मन्त्र ::

 (1). ॐ उल्लूकाना विद्वेषय फट स्वाहा:, (2). ॐ  क्षौं क्षौं भैरवाय स्वाहा:, (3). ॐ हृलीं ब्रह्मास्त्राये विद्यमने स्तम्भन धीमही तन्नो बगला प्रचोदयात।

आजचा मंत्र :: महामारी, स्वास्थ्य, भय दूर करने हेतु तथा  बुद्धि-ज्ञान प्राप्ति हेतु निम्न मंत्र  का जप प्रतिदिन शुद्ध होकर प्रातःकाल 108 बार करें :-

ॐ नमो भगवते सुदर्शन वासुदेवाय, धन्वंतराय अमृतकलश हस्ताय, सकला भय विनाशाय, सर्व रोग निवारणाय, त्रिलोक पठाय, त्रिलोक लोकनिथाये, ॐ श्री महाविष्णु स्वरूपा, ॐ श्री श्री ॐ औषधा चक्र नारायण स्वहा॥

अनावृष्टि दूर करने के उपाय ::

अनश्नतैतज्जप्तव्यं वृष्टिकामेन यन्त्रत:। 

पंचरात्रेSप्यतिक्रान्ते महतीं वृष्टिमाप्नुयात्॥[ऋग्विधान 2.327]

जल वृष्टि  :: निम्न दोनों मंत्रों से सत्तू और जल का ही सेवन करता हुआ, गुड़ तथा दूध में वेतस् की समिधाओं को भिगोकर हवन करे करें तो भगवान् सूर्य नारायण जल बरसाते हैं :-

“असौ यस्ताम्नो” तथा “असौ योSवसर्पति”

भूत-प्रेत से मुक्ति :: निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए सरसों के दाने अभिमन्त्रित करके आविष्ट पुरुष पर डालने से ब्रह्मराक्षस,भूत-प्रेत, पिशाचादि से मुक्ति प्राप्त होती है :-

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्। 

अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योSधराची: परा सुव॥[शुक्ल यजुर्वेद 16.5]

 बाल शान्ति ::

मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। 

मा नो वधी: पितरं मोत मातरं मा नः प्रिया स्तन्वो रूद्र रीरिष:॥

[शुक्ल यजुर्वेद 16.15]

इस मंत्र से तिल की 10,000 आहुति देने से बालक नीरोग रहता है तथा परिवार में शान्ति रहती है।

रोग नाशन :: 

नमः सिकत्याय च प्रवाह्याय च नमः कि ँ ्शिलाय च क्षयणाय च नमः कपर्दिने च पुलस्तये च नम इरिण्याय च प्रपथ्याय च॥

[शुक्ल यजुर्वेद 16.43]

इस मंत्र से 800 वार कलश स्थित जल को अभिमन्त्रित करके उससे रोगी का अभिषेक करें तो वह रोग मुक्त हो जाता है।

सर्वरोग निवारण ::

ॐ नमो भगवते महासुदर्शन वासुदेवाय धन्वंतराय अमृतकळश हस्ताय सकल भय विनाशाय सर्वरोग निवारणाय त्रिलोक पतये त्रिलोक निधये ॐ श्री महाविष्णू स्वरुप श्री धन्वंतरी स्वरुप ॐ श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नम:।

द्रव्य प्राप्ति :: 

नमो वः किरिकेभ्योo।[शुक्ल यजुर्वेद 16.46]

उपरोक्त मंत्र से तिल की 10,000 आहुति देने पर धन की प्राप्ति होती है।

PRAYERS FOR HUMAN WELFARE :: 

ऋग्वेद का आद्य मांगलिक संदेश ::

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ 

स्वयं आगे बढ़कर लोगों का हित करनेवाले, प्रकाशक, ऋतु के अनुसार यज्ञ करने तथा देवों को बुलाने वाले और रत्नों को धारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।

आद्य :: आदि, मूल; primitive, primordial.

I pray to the Agni-deity of fire, who illuminates all, performs Yagy as per the season (sowing crops, mating and performing all useful deeds), who invites the demigods-deities, bearing jewels-ornaments.

यजुर्वेद का आद्य मांगलिक संदेश ::

इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रापयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायस्व मध्य इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत माघश सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्याहि॥

(हे मानव!) सबको उत्पन्न करने वाला देव-सविता देव, तुझे अन्न-प्राप्ति के लिये प्रेरित करें। सबको उत्पन्न करने वाला देव तुझे बल-प्राप्ति के लिये प्रेरित करे। हे मनुष्यो! तुम प्राण हो। सबका सृजन करने वाला देव तुम सबको श्रेष्ठतम कर्म के लिये प्रेरित करे। हे मनुष्यो! बढ़ते जाओ। तुम सभी प्रजाओं का वध करने के अयोग्य हो।

तुम इन्द्र के लिये अपना भाग बढ़ाकर दो। तुम सन्तान युक्त, यज्ञ से रोग मुक्त और क्षय रोग रहित होओ। चोर तुम्हारा प्रभु न बने, पापी तुम्हारा स्वामी न बने। इस भूपति के निकट स्थिर रहो, अधिक सँख्या में प्रजा सम्पन्न हो, यज्ञ कर्ता के पशुओं की रक्षा करो।

Hey Humans! Savita Dev (read Almighty) who gave birth to all, should inspire-guide us to produce food grain. One-God who produces all, should inspire to acquire strength-power. Hey Humans! You are life force. The God who gave birth to all may inspire you to do excellent Karm-Deeds (endeavours). Keep on progressing. Let the God make you incompetent to destroy life-shun from violence.

You should increase the offering to Indr (Dev Raj-here Almighty, for the sake of charity, donations, human welfare). You should be blessed with progeny through the Yagy (production of life is also a form of Yagy.) and become free from illness & tuberculosis. The thief should not become your master-king. Stay with this land lord-the honest (virtuous, righteous, pious). More and more people should become rich-wealthy. Protect the one who performs the Yagy.

सामवेद का आद्य माङ्गलिक संदेश ::  

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि॥ 

 हे अग्ने! हवि-भक्षण करने के लिये तू आ, देवों को हवि देने के लिये जिसकी स्तुति की जाती है, ऐसा तू यज्ञ में ऋत्विज् होता हुआ आसन पर बैठ।

Hey Agni Dev! Please come and acquire the seat of Ritvij-the person making offerings to the demigods-deities.  Please eat the offerings to the demigods-deities for whom you act the mouth.

अथर्ववेद का आद्य माङ्गलिक संदेश :: 

शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः॥ 

दिव्य जल हमें सुख दे और इष्ट-प्राप्ति के लिये एवं पीने के लिये हो तथा हम पर शान्ति का स्रोत बहाये।

The divine water should grant us pleasure-comforts & should be meant as an offering to the Isht-the deity prayed by us and for drinking, in addition to showering solace, peace & tranquillity over us.

शरीर शुद्ध करने का मंत्र ::

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा

यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

अतिनिल घनश्यामं नलिनायतलोचनं

स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम॥

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SUN-BHAGWAN SURY NARAYAN भगवान् सूर्य नारायण :: SUN (1) सूर्य

SUN-BHAGWAN SURY NARAYAN
भगवान् सूर्य नारायण
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com 
santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नमः 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।

All these characters given here pertaining to Bhagwan Sury, resembles with those described in Shri Mad Bhagwat Geeta pertaining to the Almighty. Bhagwan Shri Ram himself is an incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu. Geeta describes Sun as a form of the Almighty and simultaneously as his right eye. If one worships Sun as a demigod he attains the abode of Sun. If one prays to Sun as Almighty he gets Vaekunth Lok or Gau Lok. Worship of Sun as Almighty grants Salvation and as a demigod grants success, fame, name worldly amenities, comforts, luxuries, wealth along with repeated reincarnations. This prayer helped Bhagwan Shri Ram in activating his power as Almighty.

ADITY HRADYAM STROTR  आदित्य हृदयम स्त्रोत्र :: जब भगवान् राम रावण के साथ युद्ध करते-करते क्लान्त हो गए, तब तान्त्रिक अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कारक ऋषि अगस्त्य ने आकर भगवान् राम से कहा कि 3 बार जल का आचमन कर, आदित्य-हृदय स्त्रोत्र का तीन बार पाठ कर रावण का वध करें। भगवान् श्री राम ने इसी प्रकार किया, जिससे उनकी क्लान्ति मिट गई और उनमें नए उत्साह का सञ्चार हुआ। भीषण युद्ध में रावण मारा गया ।

रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य-मन्दिर में, नव-ग्रह मन्दिर में अथवा अपने घर में सूर्य देवता के समक्ष इस स्तोत्र का 3 बार पाठ करना चाहिये। न्यास, विनियोगादि संक्रान्ति के 5 मिनट पूर्व प्रारम्भ कर दें। प्रयोग के दिन बिना नमक का भोजन किया जाता है। इसका पाठ 108 करना चाहिए। जो लोग केवल तीन ही पाठ करें, वे 108 बार गायत्री-मन्त्र का जप अवश्य करें।

विनियोगः :: 

ॐ अस्य आदित्य-हृदय-स्तोत्रस्य-श्रीअगस्त्य ऋर्षिनुष्टुप्छन्दः आदित्य-हृदयभूतो भगवान श्रीब्रह्मा देवता, ॐ बीजं, रश्मि-मते शक्तिः, अभीष्ट-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः (वा) निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जय सिद्धौ च विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः :: 

अगस्त्य ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। ॐ आदित्य-हृदय-भूत-श्रीब्रह्मा देवतायै नमः हृदि। ॐ बीजाय नमः गुह्ये। ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकाय नमः नाभौ।

इस स्तोत्र के अंगन्यास और करन्यास तीन प्रकार से किये जाते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मन्त्र से अथवा `रश्मिमते नमः´ इत्यादि छः नाम मन्त्रों से। यहाँ नाम मन्त्रों से किये जाने वाले न्यास का प्रकार बतलाया गया है।

कर-न्यासः ::

ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। ॐ देवासुर-नमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि-न्यासः ::

ॐ रश्मिमते हृदयायं नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुर-नमस्कृताय शिखायै वषट्। ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।

इस प्रकार न्यास करके निम्न गायत्री मन्त्र से भगवान् सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिये :-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

तत्पश्चात् आदित्यहृदय का पाठ करना चाहिये।

पूर्व-पीठिका ::

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्। 

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥1॥ 

Tato yuddhaparisrantaṃ samare chintaya sthitam ravaṇaṃ jagrato drastva yuddhay samupasthitam.

महर्षि अगस्त ने देखा कि मानव रूप में अवतरित पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम लीला रुप में युद्ध क्षेत्र में थके-क्लान्त और दुःखी हैं और रावण जो कि युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार था, के साथ युद्ध को लेकर गहरी सोच में डूबे हैं।

When Ram was exhausted in battle field standing with extreme sorrow and deep thought to fight against Ravan who was duly prepared for the battle, Mahrishi August observed that.

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्। 

उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥2॥ 

Daevataesch samagamy drastumabhyagato ranam upagamyabravidramamagastyo bhagavan rishih.

अगस्त ऋषि देव गणों के साथ भगवान् के पास आये और बोले :-

August along with other demigods approached Bhagwan Shri Ram and said:

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्। 

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥ 3॥

Ram rām mahābāho śṛṇu guhyaṃ sanātanam yena sarvānarīn vatsa samare vijayiṣyasi

अगस्त ऋषि ने भगवान् श्री राम के हृदय के भावों को समझा और बोले कि हे राम! आपकी चिन्ता-समस्या का एक समाधान एक रहस्य पूर्ण स्तोत्र है, जिसके पाठ करने से आप युद्ध में विजय प्राप्त करेंगे।

Hey Ram! There is a solution for your worry which is a perennial secret, by reciting it you would be victorious in this war.

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्। 

जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम्॥4॥ 

Adityahṛdayaṃ puṇyaṃ sarvaśatruvināśanam jayāvahaṃ japennityam akṣayyaṃ paramaṃ śivam

भगवान् सूर्य की अर्चना-पूजा आदित्य हृदयम स्त्रोत्र के द्वारा नित्य-नियम पूर्वक करने से आपके शत्रुओं का विनाश होगा, आपको विजय प्राप्त होगी और स्थाई प्रसन्नता-ख़ुशी मिलेगी।

This is the holy hymn Adity Hradyam which destroys all enemies, brings victory and permanent happiness by enchanting it, regularly.

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्। 

चिन्ताशोकप्रशमनम् आयुर्वर्धनमुत्तमम्॥5॥

Sarvamaṅgalamāṅgalyaṃ sarvapāpapraṇasanam cintasokapraśamanam ayurvardhanamuttamam

भगवान् सूर्य को समर्पित यह उत्तमोत्तम प्रार्थना-स्त्रोत्र शत्रुओं का नाश करके ख़ुशी तथा लम्बी उम्र देता है और चिंताओं का नाश करता है।

This supreme prayer of Sun-Sury Bhagwan always gives happiness, destroys all sins, worries and increase the longevity.

रश्मिमंतं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्। 

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥6॥ 

Raśmimaṃtaṃ samudyantaṃ devāsuranamaskṛtam pūjayasva vivasvantaṃ bhāskaraṃ bhuvaneśvaram

सूर्य भगवान् जो कि इस विश्व के संचालक-शासक हैं, की आराधना इस चराचर में सभी देव और दानवों के द्वारा की जाती है।

Worship the Sun-Sury Bhagwan, the ruler of the worlds and master of the universe, who is worshipped by both Dev-Sur and Asur-Demons and who is worshiped by every one in this universe.

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः। 

एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥7॥ 

Sarvadevatmako hyesa tejasvi rasmibhavanah esa devasuraganamallokan pati gabhastibhih.

सूर्य भगवान् सभी देवों के देव हैं और सबसे तेजस्वी व स्वयं प्रकाशित हैं। वे अपने में समस्त देव और दानवों को समाहित किये हुए हैं अर्थात उनका पालन-पोषण करते हैं।

He has within him all the Dev and He is the brightest among the bright, He is self-luminous and sustains all worlds of Devas and Asur with his rays-Aura-brightness-shine.

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः। 

महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥8॥ 

Eṣa brahmā ca viṣṇuśca śivaḥ skandaḥ prajāpatiḥ mahendro dhanadaḥ kālo yamaḥ somo hyapāṃ patiḥ

वे समस्त देवों यथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव, कार्तिकेय, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, यमराज-धर्मराज, चन्द्र और वरुण अदि में विराजमान-निहित हैं।

He is pervading in all viz., Brahma (the creator), Vishnu (-the Sustainer, nurturer), Shiv (the destroyer), Skand-Kartikey (-the son of Shiv), Prajapati (progenitor of human race), the mighty Indr (King of demigods), Kuber (demigod-Yaksh-treasurer of demigods, who awards prosperity), Kaal (eternal time), Yam (demigod of death), Som (the moon demigod nourishes and controls-nurturer of all medicines-herbs), and Varun (demigod of rain).

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः। 

वायुर्वह्निः प्रजाप्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥9॥ 

Pitaro vasavaḥ sādhyā hyaśvinau maruto manuḥ vāyurvahniḥ prajāprāṇa ṛtukartā prabhākaraḥ

सूर्य में ही पितरों, 8 वसुओं (अनल, अनिल, सोम, अहस, धारा, ध्रुव, प्रत्युष और प्रभास), सँध्या, अश्वनी कुमारों, मारुतों, पवन-वायु, मनु, अग्नि, प्राण, छः ऋतुओं का वास है और उन्हीं से प्रकाश उत्पन्न होता है।

He constitutes the ancestors, eight Vasus (viz., Anal, Anil, Som, Ahas, Dhara, Dhruv, Pratyush and Prabhas. He is Sandhya and Ashwani Kumars (physicians of demigods in the heaven). He constitutes the Maruts and Pawan-wind-Vayu demigods responsible for breeze, Agni-the demigod of fire and Manu, Agni-the demigod of fire, Pran (the Life breath of all beings), the maker of six seasons and the giver of light.

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्। 

सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥10॥ 

adityah savita suryah khagah pusha gabhastiman suvarnsadrsho bhanurhiraṇyareta divakarah

सूर्य भगवान् अदिति के पुत्र हैं जो कि महृषि कश्यप की पत्नी हैं। सूर्य भगवान् सभी को अपनी ओर आकृषित करते हैं। वो ही सविता के रुप में सारे संसार को प्रकाशित करते हैं। वे ही सूर्य-अनन्त प्रकाश पुंज हैं। वो ही खग-पक्षी के समान आकाश में विचरण करने वाले हैं। वो पूषा-संसार का पालन-पोषण करने वाले, वर्षा उत्पन्न करने वाले हैं। वे गभस्तिमान् अर्थात प्रखर-चमकीली किरणों से सजे हैं। वे स्वर्ण के समान दिखते हैं। वे हिरण्य रेता अर्थात सुंदर, चमकीले, स्वर्ण अण्ड के समान हैं; जिससे भगवान् नारायण-विष्णु प्रकट हुए तथा वे ही सृष्टि कर्ता भगवान् ब्रह्मा हैं। वे भानु के रुप में सभी में निवास करते हैं। वे दिवाकर अर्थात सारे विश्व को प्रकाशमान रखते हैं।

He is the son of Aditi-wife of Mahrishi Kashyap, who attracts all towards himself) Savita (brightness, one who glows-brightens the whole universe), Sury (supreme light), Khag (पक्षी, bird, travels in the sky), Poosha (one who protects & feeds the world by rain), Gabhastiman (possessed of bright rays), Suwarn Sadrashy (like the gold, golden hue), coloured Hirany Reta (beautiful, wise, always shining, radiant round shaped like golden egg), he is the creator, day starts with him). Bhanu (pervaded in all) & Diwakar (one who is reason for bright day)

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्। 

तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान्॥11॥

Haridaśvaḥ sahasrārciḥ saptasaptirmarīcimān timironmathanaḥ śambhustvaṣṭā mārtāṇḍa aṃśumān

वे हरिदश्वः हैं, अर्थात उनके रथ को हरे रंग के अश्वों द्वारा खींचा जाता है जो कि विजय के प्रतीक हैं। वे सहस्रार्चिः हैं अर्थात उनकी हजार रश्मियाँ किरणें हैं जो कि अनन्त किरणों में बँट जाती हैं। सप्तसप्तिर्मरीचिमान् अर्थात उनके घोड़े हरे रंग के हैं जो कि विजय और सात उच्च-स्वर्ग लोकों के प्रतीक हैं। तिमिरोन्मथनः अर्थात अन्धकार को नष्ट करने वाले। शम्भुस्त्वष्टा अर्थात संतुष्टि प्रदायक दुःख का नाश करने वाले और प्रगति के प्रतीक हैं। मार्ताण्ड अर्थात जो कि विनाश-प्रलय के उपरान्त पुनः उत्पत्ति करने वाले हैं। व अंशुमान् जो सभी में विचरण करते हैं उपस्थित हैं।

He is Haridashw (one whose chariot is dragged by green horses, green is a symbol of victory), Sahasrarchi (one who has thousands of rays turning into infinite rays), Sapt Sapti (one who has seven horses, symbol of seven Lok-abodes), Marichiman (whose body radiates rays), Timironmatanh (dispeller of darkness), Shambhu (one who gives contentment, removes sufferings and gives a pleasant life), Twasta (one who removes sorrow and gives elation), Martand (one who comes from annihilated creation and again creates), Amshuman (vastness, pervaded in all with immeasurable amount of rays).

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः। 

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः॥12॥

Hiraṇyagarbhaḥ śhiśhirastapano bhāskaro raviḥ agnigarbho’diteḥ putraḥ shaṅkhaḥ śhiśhiranāśhanaḥ

हिरण्यगर्भः अर्थात स्वर्ण गर्भ से प्रकट ब्रह्मा जी जो की ज्ञान, खुशहाली, विवेक, बुद्धिमत्ता के प्रतीक हैं। शिशिर अर्थात जो कि वर्षा के द्वारा ठंड अर्थात श्रद्धालुओं में शांति, संतुष्टि उत्पन्न करते हैं। स्तपनो अर्थात ऊष्मा-पौरुष-कार्यक्षमता प्रदान करते हैं, भास्करो रविः। अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः

He is Hirany Garbh (-one who came out of golden coloured egg-shall, has powers of Brahmn, prosperity and who is wise, Gyani, enlightened, learned, scholar), Shishir (one who causes cold through rain, i.e., keeps the devotees calm and quite, satisfied-content)). Satpno (one who generates, bestows heat), Bhaskar (one who gives light Gyan-enlightenment), Ravi (one who is praised by everyone, illuminator (-source of light). Agni Garbh (one who has fire within himself. Aditi Putr: He is the son of Aditi and Maha Rishi Kashyap Maharishi. Shankh: He is one who become cool when he sets-merges at night. Shishir Nashnah: He is one who destroyer of the cold, melts snow and fog.

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः। 

घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥13॥ 

Vyomanāthastamobhedī ṛgyajuḥsamaparagaḥ ghanavṛṣṭirapāṃ mitro vindhyavīthīplavaṅgamaḥ

व्योमनाथस्तमोभेदी : सूर्य नारायण सारे संसार के स्वामी हैं और अंतरिक्ष में विस्तृत अंधकार को नष्ट करते हैं। ऋग्यजुः सामपारगः :ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद के पारगामी विद्वान् हैं। घनवृष्टिरपां मित्रो : उनके प्रभावस्वरूप ही वर्षा होती है और वे जल के देवता वरुण के मित्र हैं। विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः :- वे अपनी विहंगम गति से विंध्याचल पर्वत को पार करके दक्षिणायन में प्रवेश करते हैं।

Vyom Nath: He is one who is the lord of space and the ruler of sky. Tamo Bhedi: He is dispeller of darkness. Rig, Yajur, Sam, Parag: He is one who is the scholar, enlightened with the 3 Veds namely:- Rig, Yajur and Sam. Ghan Vrasti : He is one who is the reason for heavy rain. Apam Mitr: He is one who is friend of demigod of rain i.e., Varun Dev. Vindhy Vithi Palvangam: He is one who swiftly courses in the South direction Vindhy Parwat-mountains like monkeys and sports in the Brahm Nadi (in Dakshinayan-southern hemisphere).

आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः। 

कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भवः॥14॥ 

Atpi Maṇḍali Mṛatyuḥ Pingalaḥ Sarvtapanaḥ; kavirviśvo mahātejāḥ raktaḥ sarvabhavodbhavaḥ

आतपी : उनसे ही ऊष्मा ऊर्जा उत्पन्न होती है। मण्डली : वे वृताकार हैं। मृत्युः :- वे शत्रु के लिए भय उत्पन्न करते हैं। पिङ्गलः : वे पीले वर्ण वाले, स्वर्ण-सोने के रंगवाले हैं। सर्वतापनः : वे सभी को ऊर्जा-पालन पोषण प्रदान करने वाले हैं। कविर्विश्वो महातेजाः : वे महान तेज से ओतप्रोत हैं ाहर ज्ञान के भण्डार हैं। रक्तः : वे सबको प्रिय हैं। सर्वभवोद्भवः : संसार में सभी कार्य उनसे ही सम्पन्न होते हैं।

Aatpi: He is one who is the creator for heat. Mandali: He is circular in shape. Mratyu: He is death for the enemy-foes. Pingal: He is yellow colored he is yellow colored. Sarv Tapan: He is one who gives heat-energy-nourishment to all living organisms. Kavi: He is giver of brilliance, shining with great radiance and expert in knowledge. Vishw: He pervades the in whole universe. Maha Tej: He is the one who constitutes shin with great radiance. Rakt: He is one who is dear to everyone. Sarv Bhavodbhav: He is the creator of all things sustaining the universe and all actions.

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः। 

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते॥15॥

Nakṣatragrahatārāṇāmadhipo viśvabhāvanaḥ tejasāmapi tejasvī dvādaśātman namo’stute

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः :समस्त नक्षत्र मण्डल, ग्रहों, तारों के स्वामी और सम्पूर्ण विश्व तो उत्पन्न करनेवाले भगवान् सूर्य को नमस्कार है। तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते :बारह रुपों में उदय-प्रकट होने वाले आदित्य को वर्ष के 12 महीनों के रुप भी हैं को नमस्कार है।

Salutations to him who is the Lord of stars, planets and zodiac, and the origin of everything in the universe. Salutations to Adity who appears in twelve forms viz., Indr, Dhata, Bhag, Poosha, Mitr, Aryama, Archi, Vivaswan, Twasta, Savita, Varun and Vishnu (-in the shape of twelve months of the year.

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः। 

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥16॥ 

Namaḥ pūrvāya giraye paścimāyādraye namaḥ jyotirgaṇānāṃ pataye dinādhipataye namaḥ

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः : उन प्रभु को नमस्कार है जो कि पूर्व में उदित होकर पश्चिम में अस्त होते हैं। ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः : दिन की रौशनी को देने वाले और समस्त नक्षत्र मण्डल-भौतिक वस्तुओं को प्रकट करने वाले प्रभु को नमस्कार है।

Salutations to the Lord who rises from the mounts of east and sets on mounts of west, Salutations to the Lord of the stellar bodies and to the Lord of daylight.

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः। नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥17॥

Jayaya jayabhadraya haryasvāya namo namaḥ namo namaḥ sahasrāṃśo ādityāya namo namaḥ

जयाय : मनुष्यगण और देवगण उस प्रभु की स्तुति करते हैं, जो विजय दिलाते हैं। जयभद्राय : उस प्रभु को नमन करते हैं, जो शुभफल और समृद्धि प्रदान करते हैं। हर्यश्वाय : हम उन प्रभु की पूजा करते हैं, जिनका रथ हरे घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। सहस्रांशो :हम उन प्रभु को प्रणाम करते हैं जिनकी सहस्त्र (-अनन्त) रश्मियाँ हैं। आदित्याय :- अदिति के पुत्र सूर्य भगवान् को नमस्कार है जो सभी को अपनी ओर अकृषित करते हैं।

Jay: One prays the demigod who brings victory. Jay Bhadr: One prays to the God who gives auspiciousness and prosperity. Hary Shravy: One prays to the God who is carried by Green horses. Sahasransho: One prays to the God who has infinite rays. Adity: He is the son of Aditi and is one who attracts all towards Him or has power to attract all towards him.

नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः। 

नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः॥18॥ 

Nama ugraya vīrāya sāraṅgāya namo namaḥ namaḥ padmaprabodhaya martaṇḍaya namo namaḥ

उग्राय :- मैं परमात्मा के उस उग्र रुप को नमन करता हूँ जो कि पापियों के हृदय में भय उत्पन्न करता है।वीराय : सूर्य रुपी परमात्मा के स्वरुप को नमस्कार है, जो वीर-बहादुर और शत्रु नाशक है। सारङ्गाय : प्रभु के उस रुप को नमन है जो सर्प अथवा घोड़े के समान तेज चलता है। पद्मप्रबोधाय : प्रभु का स्वरुप किसके साथ कमल उदय होते हैं अथवा खिलते हैं को नमस्कार है। मार्ताण्डाय : मार्तण्ड ऋषि के पुत्र, जिनके साथ प्रलयकाल के उपरान्त सृष्टि का पुनः उद्भव होता है।

Ugr: I pray to the terrible-fierce-furious form of the Almighty, which causes fear in the mind & hearts of the wretched-sinner enemies. Veer: I pray to the brave-powerful-mighty, who controls the senses. Sarang (Radiant, Brilliance, Hue, Grace, Deepak-lamp, God, Sun, Moon, Shiv, Shri Krashn, Cupid, Sky, planets, stars and constellations): I pray to the Almighty who moves-travels swiftly-fast like a snake or the horse. Padm Prabodh: I bow in front of one whose appearance makes the lotus blossom. Martand: I pray to the son of Martand Rishi who after the annihilation of the creation, is able to create it again

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥19॥ 

Brahmeśānācyuteśāya sūryāyādityavarcase bhāsvate sarvabhakṣāya raudrāya vapuṣe namaḥ

उन भगवान् भास्कर को नमन है जो त्रिमूर्ति : भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा सभी प्राणियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत्र हैं। उन भगवान् द्वादश आदित्य को नमस्कार है जो सृष्टि के संहार के लिए रौद्र रुप धारण कर हैं। Salutation to Him who is the inspiration to Trimurti-Trinity (Brahma, Vishnu, Mahesh) and inspiration to all creatures, salutation to who is fierce like Rudr at the end of the creation.

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने। 

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥20॥

Tamoghnāya himaghnāya śatrughnāyāmitātmane kṛtaghnaghnāya devāya jyotiṣāṃ pataye namaḥ

तमोघ्नाय :- तम-अन्धकार का नाश करने वाले, हिमघ्नाय : बर्फ का नाश करने वाले हैं-सर्दी दूर करने वाले, शत्रुघ्नायामितात्मने : शत्रु को दण्डित करने वाले-नाश करने वाले, कृतघ्नघ्नाय : कृतध्न-धोखेबाज़ को नष्ट करने वाले, देवाय : सारे बृह्माण्ड को प्रकाशित करने वाले और ज्योतिषां पतये : सभी, ग्रहों, नक्षत्रों, आकाश गंगाओं के स्वामी सूर्य भगवान् को नमस्कार है।

Salutations to the dispeller of the darkness-ignorance and cold-one who is the reason for melting of snow, one who punishes ungrateful people, one who is fearful to bad people-evil. Salutations to the annihilator of the ungrateful people, one who has enormous will power and to the Lord of all the stellar bodies, one who is the first amongest all the lights of the Universe i.e., illuminating.

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे। 

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥21॥ 

Taptacāmīkarābhāya vahnaye viśvakarmaṇe namastamo’bhinighnāya rucaye lokasākṣiṇe

तप्तचामीकराभाय :- उन सूर्य भगवान् को नमस्कार है जो पिघले हुए स्वर्ण और अग्नि के रंग वाले हैं. वह्नये : जो सब कुछ भस्म कर देते हैं, विश्वकर्मणे :- देवशिल्पी, निर्माण करने वाले, समस्त कार्य कलाप के साक्षी, नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे : अन्धकार-अज्ञान का नाश करने वाले सभी गतिविधियों के साक्ष्य हैं, फिर भी इस संसार से दूर हैं।

Salutations to Him, whose color is like molten gold and the form of fire, one who burns all, dispeller of darkness, adorable and one who is the reason for all actions, the architect of the universe-the cause of all activity and creation in the world, dispeller of darkness, one who witness all & yet beyond the world.

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः। 

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥22॥ 

Nāśayatyeṣa vai bhūtaṃ tadeva sṛjati prabhuḥ pāyatyeṣa tapatyeṣa varṣatyeṣa gabhastibhiḥ

सूर्य भगवान् को नमस्कार है जो कि अपनी किरणों से सभी कुछ नष्ट और पुनरोत्पत्ति करने में सक्षम हैं तथा जिनकी कृपा से वर्षा होती है और ज्ञान प्राप्त होता है।

Salutation to the Sun God who is able to destroy all with his rays and then create them again, he is the producer of rain and also a showers wisdom as well.

ष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः। 

एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥23॥ 

Eṣa supteṣu jāgarti bhūteṣu pariniṣṭhitaḥ eṣa evāgnihotraṃ ca phalaṃ caivāgnihotriṇām

सूर्य भगवान् सदैव जाग्रत अवस्था में रहते हैं और सभी प्राणियों के दिल में निवास करते हैं, उन्हें जाग्रत रखते हैं तथा वे यज्ञ में दी गई आहुति और उसके फल स्वरुप हैं।

Sun-Sury Bhagwan is always awake and abides in the heart of all beings and awake them, he is only the sacrifice and fruit of the sacrifice performed by Yagy-sacrifices.

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च। 

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥24॥ 

Vedāśca kratavaścaiva kratūnāṃ phalameva ca yāni kṛtyāni lokeṣu sarva eṣa raviḥ prabhuḥ

सभी वेद, यज्ञ और परिणाम-फल, कर्म उनके फल स्वरुप सूर्य भगवान् सभी जगह उपस्थित रहते हैं।

Behind the all Ved, Yagy and fruits of all Yagy and results of all actions of the world is Sun God only, he is the omnipresent.

फलश्रुतिः :: 

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च। 

कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥25॥

Enamāpatsu kṛcchreṣu kāntāreṣu bhayeṣu ca kīrtayan puruṣaḥ kaścinnāvasīdati rāghava

अगस्त ऋषि ने कहा कि हे राघव जो कोई भी इस स्त्रोत का जाप-पाठ करेगा वो सूर्य भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त करके शारीरिक, मानसिक और आत्मिक-दैविक संकट से मुक्त हो जायेगा।

Oh Raghav, one who chant this prayer in any critical situation viz., physical, mental and spiritual, for sure he will over come of it and always he is blessed.

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्। 

एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥26॥ 

Pūjayasvainamekāgro devadevaṃ jagatpatim; etat triguṇitaṃ japtvā yuddheṣu vijayiṣyasi.

जो कोई भी संतुलित मन स्थिति के साथ सूर्य भगवान् के इस स्त्रोत का 3 बार जाप करेगा, वो हर संघर्ष-परिस्थिति में विजय प्राप्त करेगा।

Do worship Adity by chanting this prayer with even minded. If you chant three times for sure you will be the conquer of this battle.

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि। 

एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम्॥27॥ 

Asmin kṣaṇe mahābāho rāvaṇaṃ tvaṃ vadhiṣyasi; evamuktvā tadāgastyo jagāma ca yathāgatam.

मह्रिषी अगस्त ने भगवान् राम से कहा कि आप रावण का एक क्षण में विनाश कर देंगे और भगवान् श्री राम को सूर्य मन्त्र प्रदान करके युद्ध स्थल से वापस चले गए। परमात्मा की महती कृपा से उन्होंने अपनी तपोशक्ति का सहारा लेकर भगवान् श्री राम का उत्साह बढ़ाया।

Maharishi August says to Ram that “you would kill Ravan within a moment,” and left that battlefield, August had come to Ram to teach this holy hymn of Sun-Sury Bhagwan. With the grace of Gods he encourages Ram with his meditation power.

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा। 

धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥28॥ 

Etacchrutvā mahātejā naṣṭaśoko’bhavattadā; dhārayāmāsa suprīto rāghavaḥ prayatātmavān.

अगस्त ऋषि के पवित्र वचनों को सुनकर भगवान् श्री राम उत्साहित होकर संतुलित मन से क्षणिक क्लांत करनेवाली परिस्थिति से निकल आए। उनका दुःख और चिंता दूर हो चुकी थी। उन्होंने उत्साहित होकर मन्त्र का जाप शुरू कर दिया।

Hearing the holy words of August with even minded Ram became rejuvenated and came out of momentary fearful situation; his clouds of worry got dispelled, with enthusiastically started chanting the prayer of Sun-Sury Bhagwan.

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्। 

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥29॥ 

Adityaṃ prekṣya japtvā tu paraṃ harṣamavāptavān; trirācamya śucirbhūtvā dhanurādāya vīryavān.

भगवान् श्री राम ने शुद्ध होकर 3 बार प्रार्थना की, जल से आचमन लिया और फिर अपने पवित्र धनुष को उठा कर उस पर प्र्त्यांच चढ़ा दी।

Himself being purified concentrated on Sun-Sury Bhagwan; Ram recited the prayer thrice with achman (-sipping water) then thrilled and lifted his holy bow.

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्। 

सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥30॥

Rāvaṇaṃ prekṣya hṛṣṭātmā yuddhāya samupāgamat

sarvayatnena mahatā vadhe tasya dhṛto’bhavat

भगवान् राम नए उत्साह के साथ रावण का सामना करने को तैयार थे, जब वह उनसे युद्ध करने आया।

Ram facing Ravan with the greater spirit who was coming to fight with his all effort determined to kill Ravan.

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः। 

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥31॥

Atha raviravadannirīkṣya rāmaṃ muditamanāḥ paramaṃ prahṛṣyamāṇaḥ niśicarapatisaṃkṣayaṃ viditvā suragaṇamadhyagato vacastvareti

इसी समय-वक्त-मौके पर भगवान् सूर्य-आदित्य समस्त देवताओं के साथ प्रकट हो गए और उन्होंने भगवान् श्री राम को युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दिया। भगवान् श्री राम ने सूर्य वंश जो बाद में इक्ष्वाकु और रघु वंश कहलाया था, में अवतार ग्रहण किया था।

At this juncture Adity surrounded with all demigods appears and blesses Ram with great mental and physical strength and blessed to kill Ravan. Bhagwan Ram took this incarnation in Sury Vansh Sury dynasty-clan, later called Ikshvaku Vansh.

॥इति वाल्मीकीयरामयणे युद्धकाण्डे, अगस्त्यप्रोक्तमादित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णं॥

सूर्य वन्दना ::

नमो नम: कारणकारणाय नमो पापविमोचनाय। 

 नमो नमस्ते दितिजार्दनाय नमो नमो रोगविमोचनाय।

नमो नम: सर्व वरप्रदाय नमो नम: सर्वसुखप्रदाय। 

 नमो नम: सर्वधनप्रदाय नमो नम: सर्वमतिप्रदाय॥

अथ सूर्य कवचं ::

ॐ अम् आम् इम् ईं शिरः पातु ॐ सूर्यो मन्त्रविग्रहः। 

उम् ऊं ऋं ॠं ललाटं मे ह्रां रविः पातु चिन्मयः॥1॥

ऌं ॡम् एम् ऐं पातु नेत्रे ह्रीं ममारुणसारथिः। 

ॐ औम् अम् अः श्रुती पातु सः सर्वजगदीश्वरः॥2॥

कं खं गं घं पातु गण्डौ सूं सूरः सुरपूजितः। 

चं छं जं झं च नासां मे पातु यार्म् अर्यमा प्रभुः॥3॥

टं ठं डं ढं मुखं पायाद् यं योगीश्वरपूजितः। 

तं थं दं धं गलं पातु नं नारायणवल्लभः॥4॥

पं फं बं भं मम स्कन्धौ पातु मं महसां निधिः। 

यं रं लं वं भुजौ पातु मूलं सकनायकः॥5॥

शं षं सं हं पातु वक्षो मूलमन्त्रमयो ध्रुवः। 

लं क्षः कुक्ष्सिं सदा पातु ग्रहाथो दिनेश्वरः॥6॥

ङं ञं णं नं मं मे पातु पृष्ठं दिवसनायकः। 

अम् आम् इम् ईम् उम् ऊं ऋं ॠं नाभिं पातु तमोपहः॥7॥

ऌं ॡम् एम् ऐम् ॐ औम् अम् अः लिङ्गं मे‌Sव्याद् ग्रहेश्वरः। 

कं खं गं घं चं छं जं झं कटिं भानुर्ममावतु॥8॥

टं ठं डं ढं तं थं दं धं जानू भास्वान् ममावतु। 

पं फं बं भं यं रं लं वं जङ्घे मे‌Sव्याद् विभाकरः॥9॥

शं षं सं हं लं क्षः पातु मूलं पादौ त्रयितनुः। 

ङं ञं णं नं मं मे पातु सविता सकलं वपुः॥10॥

सोमः पूर्वे च मां पातु भौमो‌Sग्नौ मां सदावतु। 

बुधो मां दक्षिणे पातु नैऋत्या गुररेव माम्॥11॥

पश्चिमे मां सितः पातु वायव्यां मां शनैश्चरः। 

उत्तरे मां तमः पायादैशान्यां मां शिखी तथा ॥12॥

ऊर्ध्वं मां पातु मिहिरो मामधस्ताञ्जगत्पतिः। 

प्रभाते भास्करः पातु मध्याह्ने मां दिनेश्वरः॥13॥

सायं वेदप्रियः पातु निशीथे विस्फुरापतिः। 

सर्वत्र सर्वदा सूर्यः पातु मां चक्रनायकः॥14॥

रणे राजकुले द्यूते विदादे शत्रुसङ्कटे। 

सङ्गामे च ज्वरे रोगे पातु मां सविता प्रभुः॥15॥

ॐ ॐ ॐ उत ॐ उ औम् ह स म यः सूरो‌Sवतान्मां भयाद्। 

ह्रां ह्रीं ह्रुं हहहा हसौः हसहसौः हंसो‌Sवतात् सर्वतः॥16॥

सः सः सः सससा नृपाद्वनचराच्चौराद्रणात् सङ्कटात्। 

पायान्मां कुलनायको‌Sपि सविता ॐ ह्रीं ह सौः सर्वदा॥17॥

द्रां द्रीं द्रूं दधनं तथा च तरणिर्भाम्भैर्भयाद् भास्करो। 

रां रीं रूं रुरुरूं रविर्ज्वरभयात् कुष्ठाच्च शूलामयात्॥18॥

अम् अम् आं विविवीं महामयभयं मां पातु मार्तण्डको। 

मूलव्याप्ततनुः सदावतु परं हंसः सहस्रांशुमान्॥19॥ 

SUN TEMPLE FACING WEST पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर :: बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित ऎतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी भव्यता के साथ-साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। माना जाता है कि इस सूर्य मंदिर का निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्ति चोरों, तस्करों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। यह सूर्य मंदिर काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना यह सूर्यमंदिर उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार त्रेता युग के 12 लाख 16 हजार वर्ष बीत जाने के बाद इलापुत्र परूरवा ऎल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2,014 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं। यह विश्व का एकमात्र पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर है।

सूर्य देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (प्रात:) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध हैं। जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है।

अनुसार ऎल एक राजा किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पडा जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ रोग पूरी तरह जाता रहा।

शरीर में आशर्चजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऎल ने इसी वन में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमे प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। राजा ऎल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है, वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऎसा लगता है, मानो बाद में स्थापित की गई हो।[सूर्य पुराण]

मन्दिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देव शिल्पी विश्वकर्मा ने अपने हाथों किया था। कहा जाता है कि इतना सुन्दर मन्दिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहाँ भी सूर्य मंदिर है, उनका मुँह पूर्व की ओर है, लेकिन यही एक मन्दिर है, जो सूर्य मन्दिर होते हुए भी प्रात:कालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मन्दिर का अभिषेक करती हैं।

जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों एवं मन्दिरों को तोड़ता हुआ यहाँ पहुँचा तो देव मन्दिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मन्दिर को न तोड़ें, क्योंकि यहाँ के भगवान् का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हँसा और बोला यदि सचमुच तुम्हारे भगवान् में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूँ तथा यदि इसका मुँह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोडूँगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रात भर भगवान् से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मन्दिर का मुँह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मन्दिर का मुँह पश्चिम की ओर ही है। हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों लोग विभिन्न स्थानों से यहाँ आकर भगवान् भास्कर की आराधना करते हैं। भगवान् भास्कर का यह मन्दिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। साल भर देश के विभिन्न स्थानों से भक्तजन यहाँ मनौतियां माँगने और सूर्य देव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्ध्य देने आते हैं।

SUN WORSHIP सूर्य नमस्कार मन्त्र ::

ॐ ध्येयस्सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणस्सरसिजासनसन्निविष्टः।

केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुः धृतशङ्खचक्रः॥

ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्यगर्भाय नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ श्रीसवितृसूर्यनारायणाय नमः॥

आदितस्य नमस्कारान् ये कुर्वन्ति दिने दिने। 

जन्मान्तरसहस्रेषु दारिद्र्यं दोष नाशते॥

अकालमृत्यु हरणं सर्वव्याधि विनाशनम्।  

सूर्यपादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम्॥

योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।

योपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि

SUN TRANSITION मकर संक्रांति :: मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। यह पूरे भारत, नेपाल और विश्व हिन्दुओं द्वारा किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है, तभी इस पर्व को मनाया जाता है। यह त्यौहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसे उत्तरायणी भी कहा जाता है।

हर वर्ष 12 सक्रान्ति होती हैं। 12 में से अयान, विश्व, विष्णुपदी एवं षदिति मुखी मुख्य सक्रान्ति हैं। मकर सक्रान्ति पूरे भारत में उत्साह के साथ मनाई जाती है। मकर सक्रान्ति हर वर्ष 14 जनवरी को मनाई जाती है। कभी-कभी 15 जनवरी को भी ऐसा होता है।

दक्षिण भारत में मकर सक्रान्ति चार दिन मनाई जाती है। सक्रान्ति का दिन बहुत ही शुभ एवं दान के लिए अच्छा माना जाता है परन्तु इस अवसर पर कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। मकर सक्रान्ति से शुभ कार्य करने के दिनों की शुरुआत होती है। इस दिन अशुभ काल का अंत होता है, जो कि लगभग दिसंबर महीने के मध्य से प्रारम्भ होता है।

तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं। पँजाब में लोहरी इससे एक दिन पहले मनाई जाती है। कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं पँजाब में माघी। इस दिन घरों में कई तरह की मिठाईयाँ भी बनाई जाती है। ज्यादातर मक्की की फुल्लियाँ, मूँगफली, रेवड़ी, तिलपट्टी, मूँगफली की पट्टी, गज्जक, गाजर का हलवा-गाजर पाक आदि का आदान-प्रदान किया जाता है। मकर सक्रान्ति बहुत खुशियाँ लेकर आती है और दुखों को भुलाती है।

इस दिन प्रातःकाल उबटन आदि लगाकर तीर्थ के जल से मिश्रित जल से स्नान करें। यदि तीर्थ का जल उपलब्ध न हो तो दूध, दही से स्नान करें। तीर्थ स्थान या पवित्र नदियों में स्नान करने का महत्व अधिक है। स्नान के उपरान्त नित्य कर्म तथा अपने आराध्य देव की आराधना करें। पुण्यकाल में दाँत माँजना, कठोर बोलना, फसल तथा वृक्ष का काटना, गाय, भैंस का दूध निकालना व मैथुन काम विषयक कार्य वर्जित हैं।

उत्तरायण देवताओं का अयन है। यह पुण्य पर्व है। इस पर्व से शुभ कार्यों की शुरुआत होती है। उत्तरायन में मृत्यु होने से मोक्ष प्राप्ति की संभावना रहती है। पुत्र की राशि में पिता का प्रवेश पुण्य वर्द्धक होने से साथ-साथ पापों का विनाशक है। सूर्य पूर्व दिशा से उदित होकर 6 महीने दक्षिण दिशा की ओर से तथा 6 महीने उत्तर दिशा की ओर से होकर पश्चिम दिशा में अस्त होता है।

उत्तरायण का समय देवताओं का दिन तथा दक्षिणायण का समय देवताओं की रात्रि है। उत्तरायन को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। मकर संक्रांति के बाद माघ मास में उत्तरायन में सभी शुभ कार्य किए जाते हैं।

ज्यादातर त्यौहारों की गणना चंद्रमा पर आधारित पंचांग के द्वारा की जाती है, लेकिन मकर संक्रांति पर्व सूर्य पर आधारित पंचांग की गणना से मनाया जाता है। मकर संक्रांति से ही ऋतु में परिवर्तन होने लगता है। शरद ऋतु क्षीण होने लगती है और बसंत का आगमन शुरू हो जाता है। इसके फलस्वरूप दिन लम्बे होने लगते हैं और रातें छोटी हो जाती है।

जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर चलता है, तब तक सूर्य की अधिक प्रभावशाली नहीं होती। जब सूर्य पूर्व से उत्तर की ओर गमन करने लगता है, तब उसकी किरणें स्वास्थ्य और शान्ति को बढ़ाती हैं। इस वजह से साधु-संत और आध्यात्मिक क्रियाओं से जुड़े व्यक्तियों को शान्ति और सिद्धि की प्राप्त होती है। पूर्व के कड़वे अनुभवों को भुलाकर मनुष्य आगे की ओर बढ़ता है।

मकर संक्रांति के मौके पर देश के कई शहरों में मेले लगते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में बड़े मेलों का आयोजन होता है। इस मौके पर लाखों श्रद्धालु गंगा और अन्य पावन नदियों के तट पर स्नान और दान, धर्म करते हैं।

इस अवसर पर खिचड़ी का दान किया जाता है और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती है।

भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण  से मकर संक्रांति का बड़ा ही महत्व है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं। चूंकि शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी है। अतः  यह पर्व पिता-पुत्र के अनोखे मिलन से भी जुड़ा है।

एक अन्य कथा के अनुसार असुरों पर भगवान् श्री हरी विष्णु की विजय के तौर पर भी मकर संक्रांति मनाई जाती है। मकर संक्रांति के दिन ही भगवान् श्री हरी  विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का संहार कर उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर गाड़ दिया था। तभी से भगवानभगवान् श्री हरी विष्णु की इस जीत को मकर संक्रांति पर्व के तौर पर मनाया जाने लगा।

मकर संक्रांति का महत्व :: भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि, उत्तरायण के 6 माह के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं, तब पृथ्वी प्रकाशमय होती है, अत: इस प्रकाश में शरीर का त्याग करने से मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है और वह ब्रह्म को प्राप्त होता है। महाभारत काल के दौरान भीष्म पितामह जिन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। उन्होंने भी मकर संक्रांति के दिन शरीर का त्याग किया था।

शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रान्ति को सभी जातकों को चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष सूर्योदय से पूर्व अवश्य ही अपनी शय्या का त्याग कर के स्नान अवश्य ही करना चाहिए ।

देवी पुराण में लिखा है कि जो व्यक्ति मकर संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता है। वह रोगी और निर्धन बना रहता है।

विशेषकर मकर संक्रांति पर तिल-स्नान को अत्यंत पुण्यदायक बतलाया गया है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन तिल-स्नान करने वाला मनुष्य सात जन्म तक आरोग्य को प्राप्त करता है, जातक रूपवान होता है उसे किसी भी रोग का भय नहीं होता है।

इस दिन तीर्थों, मन्दिर, देवालय में देव दर्शन, एवं पवित्र नदियों में स्नान का विशेष महत्व है।

मकर सक्रांति के दिन स्नान के बाद भगवान् सूर्य की अवश्य ही पूजा करनी चाहिए। ज्योतिष के अनुसार यदि इस दिन प्रभु सूर्य देव को प्रसन्न करने पर विशेष फल मिलता है और भगवानभगवान् सूर्य के उपाय करने से किस्मत चमक जाती है।

इस दिन प्रातः उगते हुए सूर्य को ताँबे के लोटे के जल में कुंकुम, अक्षत, तिल तथा लाल रंग के फूल डालकर अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय “ॐ घृणिं सूर्य:” आदित्य मंत्र का जप करते रहें।

इस दिन किए गए दान का सहस्त्रों गुना पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन कम्बल, गर्म वस्त्र, घी, दाल-चावल की कच्ची खिचड़ी और तिल आदि का दान विशेष रूप से फलदायी माना गया है। गरीबों को यथासंभव भोजन करवाने से घर में कभी भी अन्न धन की कमी नहीं रहती है।

मकर संक्रांति के दिन तिल का अधिक से अधिक प्रयोग करें। आरोग्य, सुख एवं समृद्धि के लिये तिल का प्रयोग, तिल के जल से स्नान, तिल का दान, तिल का भोजन करें इस दिन स्नान से पूर्व तिल के तेल से मालिश करने, तिल का उबटन लगाने से समस्त पाप नष्ट होते हैं।

मकर संक्रांति के दिन साफ लाल कपड़े में गेहूँ व गुड़ बाँधकर किसी जरूरतमंद अथवा ब्राह्मण को दान देने से भी व्यक्ति की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। ताँबा सूर्य की धातु है, अत: मकर संक्रान्ति  के दिन ताँबे का सिक्का या ताँबे का चौकोर टुकड़ा बहते जल में प्रवाहित करने से कुण्डली में स्थित सूर्य के दोष कम होते हैं।

मकर संक्रांति के दिन गुड़ एवं कच्चे चावल बहते हुए जल में प्रवाहित करना बहुत शुभ माना जाता है। इस दिन खिचड़ी, तिल-गुड़ और पके हुए चावल में गुड़ और दूध मिलाकर खाने से भी भगवान् सूर्य नारायण शीघ्र प्रसन्न होते हैं।

मकर संक्रांति के दिन पितरों के लिए तर्पण करने का विधान है। इस दिन भगवान्  सूर्य को जल देने के पश्चात अपने पितरों का स्मरण करते हुए तिलयुक्त जल देने से पितर प्रसन्न होते हैं। जातक पर उसके पितरों का सदैव शुभाशीष बना रहता है। तिल युक्त जल पितरों को देने,अग्नि में तिल से हवन करने, तिल खाने-खिलाने एवं दान करने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है।

वर्ष 2008 से 2080 तक मकर संक्राति 15 जनवरी को होगी। 

विगत 72 वर्षों से (1935 से) प्रति वर्ष मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही पड़ती रही है।

2081 से आगे 72 वर्षों तक अर्थात 2153 तक यह 16 जनवरी को रहेगी।

सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश (संक्रमण) का दिन मकर संक्रांति के रूप में जाना जाता है। इस दिवस से, मिथुन राशि तक में सूर्य के बने रहने पर सूर्य उत्तरायण का तथा कर्क से धनु राशि तक में सूर्य के बने रहने पर इसे दक्षिणायन का माना जाता है।

सूर्य का धनु से मकर राशि में संक्रमण प्रति वर्ष लगभग 20 मिनिट विलम्ब से होता है। स्थूल गणना के आधार पर तीन वर्षों में यह अंतर एक घंटे का तथा 72 वर्षो में पूरे 24 घंटे का हो जाता है।

यही कारण है, कि अंग्रेजी तारीखों के मान से, मकर-संक्रांति का पर्व,72 वषों के अंतराल के बाद एक तारीख आगे बढ़ता रहता है।

धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण :: भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण  से मकर संक्रांति का बड़ा ही महत्व है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं। चूंकि शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी है। अतः  यह पर्व पिता-पुत्र के अनोखे मिलन से भी जुड़ा है।
एक अन्य कथा के अनुसार असुरों पर भगवान विष्णु की विजय के तौर पर भी मकर संक्रांति मनाई जाती है। बताया जाता है कि मकर संक्रांति के दिन ही भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का संहार कर उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर गाड़ दिया था। तभी से भगवान विष्णु की इस जीत को मकर संक्रांति पर्व के तौर पर मनाया जाने लगा।

Photographs of Sun rise in Kanya Kumari captures what Ved described as Uttrayan & Dakshinayan millions & millions of years ago. Same time, same angle, every month.

मन्दिर-देव प्रतिमा और ध्यान साधना :: मूर्ति और मन्दिर भगवान् के प्रतीक हैं। ईश्वर सर्वव्यापी है और इस प्रकार मूर्ति में भी है। यह मनुष्य को ध्यान लगाने में मदद करते हैं। मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा-आराधना मनुष्य को शक्ति से जोड़ देती है। मन्दिर का निर्माण पूर्णतया वास्तु शास्त्र के अनुरूप हो तो वह परमात्मा के शरीर का प्रतीक बन जाता है। गर्भ गृह-सर, गोपुरा-मुख्य द्वार चरण, शुकनासी-नाक, अंतराला-निकलने की जगह गर्दन, प्राकरा :- ऊँची दीवारें इन्हें शरीर के हाथ और ह्रदय या दिल में ईश्वर की मूर्ति है। इसी प्रकार मानव शरीर भी ईश्वर का प्रतिरूप ही है।

SURY (रवि) MANTR :: The devotees of Bhagwan Sury Narayan are blessed with success, riches, name, fame, health and vigour. One should recite the Mantr every day, in the morning, after becoming fresh and pour water towards the Sun, such that the Lota, pot, vessel, carrying water is slightly over the head. The water may be allowed to run into Tulsi Plant kept in the open. The day assigned to specific Pooja and Archna is Sunday.

Om Suryay Namo Namah. ॐ सूर्याय नमो: नम:।

Get up early in the morning before Sun rise. Take a bath and offer water-pour water facing east to the Sun.

Om stands for the primordial sound generated when the universe came into being. Sury stands for Sun who regulates the entire universe. Life exists due to the Sun who is a form-incarnation of the God. Stonehenge in Britain constitutes the remains of a marvellous temple dedicated to both Sun & Moon built millions of years ago.

Namah :: I bow in front of you. Just fold your hands and salute the Lord.

Om Suryay Namah. ॐ सूर्याय नम:।

Om Adityay Namo Namah. ॐ आदित्याय नम:।

Om Jyotir Aditay Phat Swaha. ॐ ज्योतिर आदित्य फट स्वाहा:।

Om Bhaskray Namah. ॐ भास्कराय नम:।

Om Bhanuve Namah. ॐ भानुवे नम:।

Om Khakhol Kay Namah. ॐ खखोलकाय नम:।

Om Khakhol Kay Swaha. ॐ खखोलकाय स्वाहा:।

Om Vyam Phat. ॐ व्यं फट।

Om Hram Hreem Sah: Phat Swaha. ॐ ह्रां ह्रीं स: फट स्वाहा:।

Om Hram Hreem Sheh Suryay Namah. ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम:।

SURY GAYATRI MANTR ::

आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुह: प्रचोदयात्।

Om Adityay Vidmahe Bhaskray Dheemahi Tanno Bhanuh Prachodyat.

Its is located at the base of the Sun-Apollo finger, over the Heart Line. This is indicative of the success, name, fame, defamation, relationship, eyes, development of skills in crafts, interest in spirituality and efforts to reach the truth, wealth, honour, respect, vehicles etc.

SUN & THE PLANETS :: Prominence of Sun awards genius and fame. One may reach a very high status in life if the mount is well-developed with pink colour. Such people are of cheerful nature and work in close co-operation with friends. They are successful as Artists, Expert Musicians and Painters. They are inborn genius. They are honest in their dealings and are completely materialistic. Highly developed Mount indicates self-confidence, gentleness, kindness and grandeur. He will face trouble at the age of 49th and 50th years. If Sun is bad, he have face more problems at the age 49th year but 50th year will not be that much troublesome.

If it is not prominent, one would be interested in beauty. But he would not be able to succeed in this field.

Exaggerated Mount makes one egoistic-proudy or a flatterer. He would be having friends from the lower sections. He is extravagant and quarrelsome and may not be successful in life.

If the Mount is absent, then the person would be dull, foolish-ignorant leading an ordinary life.

DEVELOPED SUN :: One will have name, fame and respect, kingly grandeur, relations with high profile people in power. He will be ambitious, ready to help others, with liberal temperament. He may have agriculture, farming, horticulture, animal breeding, dairy business or business pertaining to food art objects or cloths.

DEVELOPED SUN, GOOD SATURN, TWISTED SUN FINGER :: One will have interest in agriculture, farming, horticulture, animal breeding or dairy business.

DEVELOPED SUN, BOTH SUN & SATURN FINGERS TWISTED :: One will achieve success in agriculture and related ventures.

DEVELOPED SUN, SPATULATE HAND :: One will take more interest in business pertaining to food.

DEVELOPED SUN, DEVELOPED JUPITER :: One will establish food factory.

DEVELOPED SUN, DEVELOPED MERCURY :: One will have interest in chemicals or medicines related businesses.

SUN & VENUS DEVELOPED :: One will deal with cinema or hotel business.

SUN & VENUS DEVELOPED, STRAIGHT FINGER & DEFECT FREE SUN LINE :: One will have name, fame & success pertaining to hotel & cinema business.

DEVELOPED SUN WITH GOOD SUN LINE, LUCK LINE RISES OVER LUNA & REACHES SATURN :: One may be a union.

DEVELOPED SUN WITH GOOD SUN LINE, LUCK LINE RISES OVER LUNA & REACHES SATURN, MEDIUM HAND :: One may be a union leader with oratory.

DEVELOPED SUN WITH STRAIGHT FINGERS :: Sun will have special significance in one’s life. Events pertaining to Sun will show their impact like fame, defame, wealth,crafts etc. 5th, 6th, 14th, 22nd, 44th, 50th year in his life will be more eventful.

DEPRESSED SUN, TWISTED FINGER OR CRISS CROSS LINES OVER SUN :: One will have erratic temperament-behaviour. He will show off and quarrelsome by nature. He will have numerous chances-occasions of defamation.

MANY LINE OVER SUN WITH GOOD HAND :: One will be very busy.

MANY LINES OVER SUN, HAND IS NOT GOOD :: Undue, unwanted busyness and erratic behaviour.

CIRCLE OVER SUN :: One will get name, fame and honour.

CIRCLE OVER SUN, HEART LINE AND SUN ARE DEFECTIVE :: Eye trouble-defect.

TRIANGLE OVER SUN :: One will be liberal by nature and construct a house. More triangles more houses or one many make modifications-additions in the same house, many times. In case, he has agricultural land, he will have tube well and all necessary equipment.

VERTICAL LINES OVER SUN :: Each line will show a source of income, confirmed by Luck Line.

VERTICAL LINES, NARROW-THIN HAND :: More lines, more earning hands in the family.

FISH FORMATION OVER SUN, OVER RIGHT HAND :: One will be liberal and donate money, obviously a rich person. This formation is made by at least 4 lines, will moves outwards after the formation of a quadrangle-square.

MOLE OVER SUN :: One will be rich. He will face defamation, initially but later he will get name and fame.

FISH FORMATION OVER SUN, OVER LEFT HAND :: Family members of the bearer will be liberal and donate money to needy & poor.

सूर्य अनामिका अर्थात तीसरी अँगुली के नीचे, ह्रदय रेखा के ऊपर है। इसका सम्बन्ध प्रसिद्धि, बदनामी, रिश्तेदारी धन-सम्पत्ति और आँख, शिल्प, सम्बन्धी दक्षता, तत्व ज्ञान-रुचि और अनुसंधान से है। जातक को 49वें और 50वें साल में परेशानी झेलनी होगी। सूर्य दोष पूर्ण हो तो 49 वें वर्ष में अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। 50वें साल में उतनी समस्याएँ नहीं आयेंगी।

उन्नत सूर्य :: जातक सम्मान और प्रसिद्धि को महत्व देने वाला, महत्वाकांक्षी, राजसी शान-शौकत, सम्पत्ति का निर्माण करने वाला, बड़े लोगों से मेल-जोल रखने वाला, उदार प्रवृति और दूसरों की सहायता करने वाला होगा।जातक खेती, कला, खाने-पीने, कपड़े आदि का व्यवसाय करने वाला होगा।

उन्नत सूर्य, शनि अच्छा, सूर्य की अँगुली तिरछी :: जातक कृषि सम्बन्धी कार्यों में रुचि लेगा।

उन्नत सूर्य, शनि और सूर्य दोनों की अँगुली सीधी :: कृषि कार्यों में विशेष सफलता।

उन्नत सूर्य, चमसाकार हाथ (बनावट चमचे जैसी, अँगुलिया भी चमचे की आकृति वाली अर्थात चौड़ी, अँगुलियों के बीच में छिद्र, अँगुलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी नहीं) :: जातक खाने-पीने के व्यापार में अधिक रुचि लेगा।

उन्नत सूर्य, वृहस्पति उत्तम :: जातक खाने-पीने की वस्तुओं का कारखाना लगायेगा।

उन्नत सूर्य, बुध उत्तम :: जातक रसायन, औषधि सम्बन्धी कार्यों में रुचि रखेगा।

सूर्य और शुक्र उत्तम :: जातक सिनेमा या होटल सम्बन्धी कार्य करेगा।

सूर्य और शुक्र उत्तम, सूर्य की अँगुली सीधी, निर्दोष सूर्य रेखा :: जातक को सिनेमा या होटल सम्बन्धी कार्यों में बहुत सफलता और प्रसिद्धि मिलेगी।

उत्तम सूर्य और सूर्य रेखा, भाग्य रेखा चंद्र से निकल कर शनि पर :: जातक जन प्रतिनिधि-नायक होगा।

उत्तम सूर्य और सूर्य रेखा, भाग्य रेखा चंद्र से निकल कर शनि पर, हाथ मध्यम :: जातक श्रमिक संघ की गतिविधियों माँ शामिल होगा और भाषण देने में निपुण होगा।

उन्नत सूर्य, अंगुली सीधी :: जातक के जीवन में सूर्य का विशेष महत्व होगा। सूर्य से सम्बन्ध (प्रसिद्धि, बदनामी, रिश्तेदारी धन-सम्पत्ति और आँख, शिल्प, सम्बन्धी दक्षता, तत्व ज्ञान-रुचि और अनुसंधान) रखने वाले फल और वर्ष (5, 6, 14, 22, 44, 50) विशेष प्रभाव दिखायेंगे।

सूर्य बैठा हुआ, अंगुली तिरछी या सूर्य पर कटी-फटी रेखाएँ :: जातक चिड़चिड़ा, अधिक दिखावा करने वाला, झगड़ालू होगा। जीवन में बदनामी के अवसर अवश्य आयेंगे।

सूर्य पर अधिक रेखाएँ, हाथ अच्छा :: जातक बहुत व्यस्त रहने वाला होगा।

सूर्य पर अधिक रेखाएँ, हाथ अच्छा नहीं :: व्यर्थ की व्यस्तता और चिड़चिड़ापन।

सूर्य पर वृत्त :: जातक यशस्वी होगा।

सूर्य पर वृत्त, हृदय रेखा और सूर्य रेखा में दोष :: जातक की आँखों में दोष होगा।

सूर्य पर त्रिभुज :: जातक उदार और सम्पत्ति का निर्माण करने वाला होगा। जितने त्रिभुज होंगे उतनी ही सम्पत्तियों का निर्माण वह करेगा या एक ही सम्पत्ति अपर एक से अधिक बार कार्य करायेगा। खेती होने पर नलकूप और अन्य यंत्र लगायेगा।

सूर्य पर खड़ी रेखाएँ :: प्रत्येक रेखा एक आय का साधन दिखाती है। शनि पर मौजूद रेखाएँ इसकी पुष्टि करेंगी।

सूर्य पर खड़ी रेखाएँ, हाथ पतला :: जितनी रेखाएँ होंगी, घर में उतने ही कमाने वाले होंगे।

सूर्य पर तिल :: जातक धनी होगा. पहले बदनामी और फिर बाद में प्रसिद्धि होगी।

सूर्य पर मत्स्य रेखा, दाँये हाथ में :: जातक उदार और दानवीर होंगे।

सूर्य पर मत्स्य रेखा, बायें हाथ में :: जातक के कुटुम्ब के व्यक्ति उदार और दानवीर होंगे।

GRID OVER SUN :: (1). One has over confidence in him, due to which he may be involved in a dangerous accident. He should be extremely careful-cautious while driving.

(2). Presence of this sign over the juncture of Mercury, Sun and the Mental Mars pushes one to peak in politics but sinks to bottom as well, like Jag Jeevan Ram and Mrs. Bhandar Nayke-ex Prime Minister of Shri Lanka.

(3). Presence at the junction of Sun and Mental Mars makes one dangerously over ambitious.

(4). Its presence over the junction of Sun & Saturn, indicates paralysis. One will recover if the auspicious planets are present in the horoscope, at this point of time.

सूर्य पर जाली :: (1). यह जातक में अत्यधिक आत्मविश्वास को प्रदर्शित करती है जो कि भयंकर दुर्घटना का कारण बन सकताी है। जातक को किसी भी प्रकार का वाहन बेहद ध्यान के साथ चलाना चाहिये।

(2). सूर्य, बुध और उच्च मङ्गल के संयुक्त क्षेत्र में पाये जाने पर यह चिन्ह जातक को राजनीति के शिखर पर ले जाता है, मगर जगजीवन राम और भंडार नायके की तरह नीचे भी गिरा देता है।

(3). सूर्य और उच्च मंगल की संधि पर स्थित यह चिन्ह जातक को खतरनाक स्तर तक महत्वाकांक्षी बना देता है। (4). सूर्य और शनि की सन्धि पर उपस्थित यह जाली लकवे को प्रदर्शित करती है। यदि जन्म कुण्डली में शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो यह ठीक भी हो जाता है।

सूर्य शान्ति के उपाय :: वेदों में भगवान् सूर्य को चराचर जगत की आत्मा माना गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है। सूर्य का अर्थ है सर्व प्रेरक, सर्व प्रकाशक। सर्व प्रवर्तक होने से भगवान् सूर्य सर्व कल्याणकारी हैं। ऋग्वेद में देवताओं में भगवान् सूर्य को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है और उन्हें परमात्मा का अंश माना गया है। यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर भगवान् सूर्य को परमात्मा परब्रह्म परमेश्वर का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में भगवान् सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण में भी भगवान् सूर्य को परमात्मा स्वरूप माना गया है। गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन भगवान् सूर्य ही करते है। भविष्य पुराण में भगवान् ब्रह्मा और भगवान् विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त भगवान् श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी।

शुकदेव जी महाराज ने कहा :- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।

सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।

सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।”

सूर्य के रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है।

मानसोत्तर पर्वत के पूर्व में इन्द्र की वस्वौकसारा स्थित है। इस पर्वत के पश्चिम में वरुण की संयमनी स्थित है। इस पर्वत के उत्तर में चंद्रमा की सुखा स्थित है। इस पर्वत के दक्षिण में यम की विभावरी स्थित है।[श्रीमदभागवत पुराण]

ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है। सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं। यह भचक्र की पाँचवीं राशि सिंह का स्वामी है। सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है। लकड़ी, मिर्च, घास, हिरन, शेर, ऊन, स्वर्ण, आभूषण, ताँबा आदि का भी कारक है। मन्दिर सुन्दर महल जंगल किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है। यह शरीर में पेट, आँख, हृदय और चेहरे का प्रतिधिनित्व करता है। इसके प्रतिकूल प्रभाव से आँख, सिर, रक्तचाप, गंजापन एवं बुखार सम्बन्धी बीमारियाँ होती हैं। सूर्य की जाति क्षत्रिय है। शरीर की बनावट सूर्य के अनुसार मानी जाती है। हड्डियों का ढाँचा सूर्य के क्षेत्र में आता है। सूर्य का अयन 6 माह का होता है। 6 माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है और 6 माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है। इसका रंग केसरिया है। धातु, ताँबा और रत्न माणिक उप रत्न लाडली हैं। यह पुरुष ग्रह है।

इससे आयु की गणना 50 साल मानी जाती है। सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है। सूर्य सप्तम दृष्टि से देखता है। सूर्य की दिशा पूर्व है। सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है। सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु हैं। शत्रु शनि और शुक्र हैं। समान देखने वाला ग्रह बुध है। सूर्य की विंशोत्तरी दशा 6 साल की होती है। सूर्य गेंहू, घी, पत्थर, दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है। पित्त रोग का कारण सूर्य ही है।

वनस्पति जगत में लम्बे पेड़ का कारक सूर्य है। मेष के 10 अंश पर उच्च और तुला के 10 अंश पर नीच माना जाता है। सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर 0-शून्य अंश से लेकर 10 अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है।

सूर्य के देवता भगवान् शिव हैं। सूर्य का मौसम ग्रीष्म ऋतु है। सूर्य के नक्षत्र कृतिका है। इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम अ, ई, उ, ए अक्षरों से शुरु होते हैं। इस नक्षत्र के तारों की सँख्या अनेक है। इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है।

सूर्य से उत्पन्न दोष :: अस्‍थि‍ विकार, सिरदर्द, पित्त रोग, आत्मिक निर्बलता, ने‍त्र में दोष आदि।

जब सूर्य अशुभ फल देने लगता है, तो जातक के जोड़ की हड्डी दर्द देती है। शरीर अकड़ने लगता है। मुँह में थूक बार-बार आता है। घर में भैंस या लाल गाय हो तो उस पर संकट आता है।

प्रत्येक कार्य करने से पहले मीठा खायें।

बहते पानी में गुड़ व ताँबा बहायें।

रविवार का व्रत करें।

दान का फल उत्तम तभी होता है, जब यह शुभ समय में सुपात्र को दिया जाए। सूर्य से सम्बन्धित वस्तुओं का दान रविवार के दिन दोपहर में 40 से 50 वर्ष के व्यक्ति को देना चाहिए। माणिक्य, गुड़, कमल-फूल, लाल-वस्त्र, लाल-चन्दन, ताँबा, स्वर्ण सभी वस्तुएँ दक्षिणा सहित रविवार के दिन दान करें। रविवार के दिन लाल वस्तुओं का दान करें। गाय का बछड़े समेत दान करें। लाल गाय को रविवार के दिन दोपहर के समय दोनों हाथों में गेहूँ भरकर खिलाने चाहिए। गेहूँ को जमीन पर नहीं डालना चाहिए।

भगवान् विष्णु की आराधना करें।

चरित्र ठीक रखें, गलत कार्यों, गलत सोहबत से बचें।

भगवान् सूर्य को प्रतिदिन ताँबे के पात्र से मिश्री युक्त जल चढ़ायें। सूर्य को बली बनाने के लिए व्यक्ति को प्रातःकाल सूर्योदय के समय उठकर लाल पुष्प वाले पौधों एवं वृक्षों को जल से सींचना चाहिए।

किसी भी सूर्य मंत्र का 21 बार जाप करें।

“ॐ घ्रणि सूर्याय नम:” का जाप करें।

आदित्य-ह्रदय स्तोत्र का पाठ करें।

ॐ घृणिः सूर्याय नमः” का जप करें।

लाल चंदन का तिलक लगायें। माणिक्य अनामिका अंगुली में धारण करें।

गाय या बैल को जल में भीगे गेहूँ खिलायें।

किसी ब्राह्मण अथवा गरीब व्यक्ति को गुड़ का खीर खिलाने से भी सूर्य ग्रह के विपरीत प्रभाव में कमी आती है। अगर कुण्डली में सूर्य कमज़ोर है तो माता-पिता, गुरु एवं अन्य बुजुर्गों की सेवा करें।

प्रात: उठकर सूर्य नमस्कार करने से भी सूर्य की विपरीत दशा से राहत मिल सकती है।

रात्रि में ताँबे के पात्र में जल भरकर सिरहाने रख दें तथा दूसरे दिन प्रातःकाल उसे पीना चाहिए।

ताँबे का कड़ा दाहिने हाथ में धारण करें।

हाथ में मोली (कलावा) छः बार लपेटकर बाँधना चाहिए।

लाल चन्दन को घिसकर स्नान के जल में डालना चाहिए।

सूर्य के दुष्प्रभाव निवारण के लिए किए जा रहे उपाय रविवार का दिन, सूर्य के नक्षत्र (कृत्तिका, उत्तरा-फाल्गुनी तथा उत्तराषाढ़ा) तथा सूर्य की होरा में अधिक शुभ होते हैं।

निषेध :: गेंहूँ और गुड़ का सेवन न करें। नहीं करना चाहिए। इस समय ताँबा धारण नहीं करना चाहिए।

KONARK SUN TEMPLE  कोणार्क सूर्य मन्दिर :: कोणार्क सूर्य मन्दिर भारत में उड़ीसा राज्य में जगन्नाथ पुरी से 35 किमी उत्तर-पूर्व में कोणार्क नामक शहर में प्रतिष्ठित है। यह भारतवर्ष के चुनिन्दा सूर्य मन्दिरों में से एक है। सन् 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान की है।

यह मन्दिर भगवान् सूर्य को समर्पित है, जिन्हें बिरंचि-नारायण भी कहा जाता है। इस क्षेत्र को अर्क क्षेत्र (अर्क, सूर्य) या पद्म-क्षेत्र कहा जाता है। भगवान् श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब को श्रापवश कोढ़ हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्षों तक तपस्या की और भगवान् सूर्य को प्रसन्न किया। भगवान् सूर्य, जो सभी रोगों के नाशक हैं, ने उसके रोग का निवारण कर दिया। तदनुसार साम्ब ने भगवान् सूर्य का एक मन्दिर निर्माण का निश्चय किया। अपने रोग नाश के उपरांत, चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए, उसे भगवान् सूर्य की एक मूर्ति मिली। यह मूर्ति भगवान् सूर्य के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में मन्दिर में, इस मूर्ति को स्थापित किया।

BHAGWAN SHRI HARI VISHNU AT KONARK उड़ीसा, कोणार्क मन्दिर :: कोणार्क मन्दिर के भीतर से जब प्रकाश दूसरी ओर-आर पार निकलता है, तभी भगवान् श्री कृष्ण की इस बहुमूल्य-दुर्लभ विराट रूप प्रतिमा के दर्शन होते हैं।

कोणार्क दो शब्द कोना और अर्का का संयोजन है। अर्का का मतलब सूर्य है। कोणार्क सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी कोने पर स्थित है और भगवान् सूर्य को समर्पित है। कोणार्क को अर्का क्षेत्र भी कहा जाता है।
वर्तमान काल में 13 वीं शताब्दी के मध्य में निर्मित कोणार्क सूर्य मंदिर कलात्मक भव्यता और अभियांत्रिकी-वास्तु निपुणता का उदाहरण है परन्तु इसके निर्माण में वास्तु में कुछ कमियों के कारण इसका विध्वंश हुआ। गंगा राजवंश के महान शासक राजा नरसिम्हादेव प्रथम ने इस मंदिर को 12 साल (1243-1255 ई.) की अवधि के भीतर 1,200 कारीगरों की मदद से बनाया था। कोणार्क सूर्य मंदिर को 24 पहियों पर घुड़सवार एक भव्य सजाए गए रथ के रूप में उकेरा गया है। प्रत्येक व्यास में लगभग 10 फीट और 7 शक्तिशाली घोड़ों द्वारा खींचा गया था।
मंदिर के आधार पर जानवरों, पत्ते, घोड़ों पर योद्धाओं और अन्य रोचक संरचनाओं की छवियाँ उकेरी गई हैं। मंदिर की दीवारों और छत पर सुंदर कामुक मुद्राओं की नक्काशी की गई है। भगवान् सूर्य की तीन छवियाँ हैं, जो सुबह, दोपहर और सूर्यास्त में सूरज की किरणों को पकड़ने के लिए तैनात हैं।

RAYS OF SUN PASSING THROUGH THE TEMPLE AFTER 200 YEARS.

मंदिर के आधार पर जानवरों, पत्ते, घोड़ों पर योद्धाओं और अन्य रोचक संरचनाओं की छवियां उकेरी गई हैं। मंदिर की दीवारों और छत पर सुंदर कामुक आंकड़े नक्काशीदार हैं। सूरज भगवान की तीन छवियां हैं, जो सुबह, दोपहर और सूर्यास्त में सूरज की किरणों को पकड़ने के लिए तैनात हैं। कोणार्क का सूर्य मंदिर ओडिशा के मध्ययुगीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है।
काले ग्रेनाइट से बना कोणार्क मंदिर, शुरुआत में समुद्र तट पर बनाया गया था, लेकिन अब समुद्र का पानी गिर गया है और मंदिर समुद्र तट से थोड़ा दूर है। इस मंदिर को ‘काला पगोडा’ भी कहा जाता था और ओडिशा के प्राचीन नाविकों द्वारा नौसेना के ऐतिहासिक स्थल के रूप में उपयोग किया जाता था। सदियों से क्षय के बावजूद इस स्मारक की सुंदरता अभी भी अद्भुत है। यदि आप वास्तुकला और मूर्तिकला में गंभीर रुचि रखते हैं तो आपको इस विश्व प्रसिद्ध स्मारक का दौरा करना होगा। इसे 1984 में यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है
मिट्टी की स्थिति जहां मंदिर का निर्माण किया जाना था, मूल रूप से इतनी बुरी थी कि मुख्य वास्तुकार बिशु महाराणा, जिसको इसके निर्माण काम का साथ सौंपा गया था, बहुत परेशान हो गया। लेकिन जब इसकी पवित्रता के कारण इसी ही स्थान पर निर्माण करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था, तो वह बड़ी कठिनाई के साथ काम करने में कामयाब रहा। राजा और श्रमिकों के बीच एक अनुबंध था, कि पूरा काम पूरा होने तक किसी को भी जाने की इजाजत नहीं दी जाएगी।

जब निर्माण कार्य पूरा होने के करीब था, तभी अचानक वास्तुकारों को इसके अन्तिम भाग को पूरा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ गया। इस बीच कोर्णाक मंदिर के मुख्य वास्तुकार का पुत्र धर्मपाड़ा अपने पिता को देखने आया, क्योंकि वह लंबे समय से घर से दूर थे। धर्मपाड़ा का जन्म उनके पिता के प्रस्थान के एक महीने बाद हुआ था और बारह साल बीत चुके थे। वह अपने पिता से मिलने के लिए साइट पर आया और देखा कि प्रमुख वास्तुकार मन्दिर के निर्माण के आखरी भाग को पूर्ण करने में कठिनाईयों का सामना कर रहे है। हालांकि बिशु अपने बेटे को देखकर खुश थे, लेकिन वह इस तथ्य को छुपा नहीं सकते थे कि वह मन्दिर के अन्तिम रूप को सही तरीके से नहीं कर पा रहे है। उन्होंने कहा,बेटा हालांकि निर्माण कार्य लगभग पूरा हो गया है, हम अब इसे अन्तिम रूप देने में कुछ कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। अगर हम इसे एक समय के भीतर करने में असफल रहते हैं, तो राजा हमारे शरीर से हमारे सिर अलग कर देगा। यह सुनकर लड़का तुरन्त ऊपर उठ गया और मन्दिर के काम में हो रही गलती को ढूँढ़ लिया।
बिशु के लड़के ने तत्काल उस गलती को ठीक कर दिया। अब मन्दिर का काम पूरा हो गया था; लेकिन प्रमुख वास्तुकार अभी भी अपने भाग्य के बारे में सोच रहे थे कि अगर राजा को इसके बारे में सब कुछ पता चल जाए, तो वह निश्चित रूप से सोचेंगे कि वास्तुकार ठीक से अपना काम नहीं कर रहे थे, जबकि छोटे से लड़के ने इतने कम समय में यह काम कर दिया था। अपने पिता और कारीगरों की यह बात सुनकर लड़का बहुत चौंक गया था और इस मामले को हल करने के लिए, वह ऊपर उठा और आत्महत्या कर ली।

Photographs of Sun rise in Kanya Kumari captures what Ved described as Uttrayan & Dakshinayan millions & millions of years ago. Same time, same angle, every month.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 35 :: ऋषि :- हिरण्यस्तूप अङ्गिरस,  देवता :- प्रथम मन्त्र का प्रथम पाद :- अग्नि, द्वितिय पाद :- मित्रावरुण, तृतीय पाद :-रात्रि, चतुर्थ पाद :- सविता, 2-11 सविता, छन्द: – त्रिष्टुप, 1.9 जगती।

ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे।

ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये॥1॥

कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्य देव का हम अपनी रक्षा के लिए आह्वान (evoke, invite, call) करते है।[ऋग्वेद 1.35.1]

कल्याण के लिए अग्नि, सखा और वरुण का आह्वान करता हूँ और प्राणधारियों को विश्राम देने वाली रात्रि तथा सूर्य देवता को सुरक्षा के लिए आह्वान करता हूँ।

First of all we pray-worship Agni Dev for our welfare. For our protection we invite demigods-deities Mitr & Varun. The night which gives rest to the universe is invited-invoked along with Sun to protect us.

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥2॥

सविता देव गहन तमिस्त्रा युक्त अन्तरिक्ष पथ में भ्रमण करते हुए, देवों और मनुष्यों को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित करते हैं। वे समस्त लोकों को देखते (प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणों से युक्त) रथ से आते हैं।[ऋग्वेद 1.35.2]

अंधकार पूर्ण समय में विचरण करते हुए प्राण धारियों को चैतन्य करने वाले सूर्य स्वर्ण के रथ से हमको ग्रहण होते हैं।

Savita Dev-Sun travelling through the dark path keep busy (engage, involve) the demigods-deities & the humans in excellent (pious, virtuous) deeds like Yagy. He lightens all the abodes coming, in his chariot which has golden colour-hue rays.

याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम्।

आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः॥

स्तुत्य सविता देव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हैं, निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट करते हुए अति दूर से उस यज्ञशाला में श्वेत अश्वों के रथ पर आसीन होकर आते हैं।[ऋग्वेद 1.35.3]

वे सूर्य देव निचले मार्गों या उच्च मार्गों पर श्वेत अश्वों से परिपूर्ण रथ पर विचरण  करते हैं। वे अंधकार आदि को समाप्त करते हुए नजर आते हैं।

Pray able Savita Dev-Sun gradually rise up and then comes down gradually maintaining his motion-speed. He destroys all sins in the form of darkness visits the Yagy Shala-location of Yagy, riding white horses.

अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम्।

आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः॥

सतत परिभ्रमण शील, विविध रूपों में सुशोभित, पूजनीय, अद्भूत रश्मि-युक्त सविता देव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आते हैं।[ऋग्वेद 1.35.4]

पूज्य एवं अद्भुत रश्मियों से युक्त सूर्य अंधकार से युक्त लोकों के लिए शक्ति को धारण करते हैं। वे स्वर्ण साधनों से युक्त रथ पर आरूढ़ होते हैं।

Continuously moving Savita Dev, having vivid forms, honourable, having amazing rays destroys the deep darkness with his might & comes in his chariot bearing golden rays-aura.

वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः।

शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः॥

सूर्य देव के अश्व श्वेत पैर वाले हैं, वे स्वर्ण रथ को वहन करते हैं और मानवों को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोकों के प्राणी सविता देव के अंक में स्थित हैं अर्थात उन्हीं पर आश्रित हैं।[ऋग्वेद 1.35.5]

श्वेत आश्रम वाले, जुओं को बाँधने वाले स्नान से युक्त रथ को चलाते हुए सूर्य के अश्वों ने प्राणियों को प्रकाश दिया। समस्त व्यक्ति और लोक सूर्य के अंक में ही स्थित हैं।

The horses of Sury Dev have white legs who pulls his golden chariot and gives Sun light to the humans. The creatures-organisms, living beings of all abodes are dependent over them for their lives.

तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट्।

आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत्॥

तीनों लोकों में द्यावा और पृथिवी ये दोनों लोक सूर्य के समीप हैं अर्थात सूर्य से प्रकाशित हैं। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धुरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित हैं। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें।[ऋग्वेद 1.35.6]

तीनों लोकों में सूर्य के निकट धरा स्थित है। एक अंतरिक्ष यमलोक का द्वार रूप है। रथ के पहिये की अगली कील पर अवलम्बित रहने के तुल्य समस्त नक्षत्र सूर्य पर अवलम्बित हैं।

Out of the three abodes (heavens, earth and the nether world) the heaven & the earth are near the Sun meaning there by that they are being illuminated by the Sun. One of the abode in the universe acts as the gate of Yam Lok-the abode of the deity of death. All abodes depend over the Sun just like the axel of the chariot. One who knows this secret should reveal it to others.

The gravitational force of the Sun binds the planets, moons which revolves around it. 

वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः 

क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान॥

गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्य देव अंतरिक्षादि को प्रकाशित करते हैं। ये सूर्य देव कहाँ रहते हैं? उनकी रश्मियाँ किस आकाश में होंगी? यह रहस्य कौन जानता है?[ऋग्वेद 1.35.7]

गम्भीर कम्पन से युक्त, सुन्दर प्राण युक्त सविता ने अंतरिक्ष को प्रकाशित किया है। वह सूर्य किधर रहता है, इसकी किरणें किस आकाश में फैली हुई हैं, यह कौन कह सकता है?

Serious, moving, who is like the life giving force, inspiring in excellent ways-manners, beautifully shining Sury Dev-Sun illuminates the universe. Where does he live, what is, where is his abode, where are his rays, who knows this secret!?

अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून्।

हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि॥

हिरण्य दृष्टि युक्त (सुनहली किरणों से युक्त) सविता देव पृथ्वी की आठों दिशाओं, उनसे युक्त तीनों लोकों, सप्त सागरों आदि को आलोकित करते हुए दाता (हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियाँ लेकर यहा आयें।[ऋग्वेद 1.35.8]

सूर्य ने पृथ्वी की आठों दिशाओं को मिलाने वाले तीनों कोणों और सातों समुद्रों को प्रकाशित किया है। वह स्वर्णिम नेत्र वाले सूर्य साधक को धन देने के लिए यहाँ आयें।

Associated with golden rays, Savita Dev illuminates the 8 directions of the earth, the three abodes connected with it & the seven seas-oceans may bring gifts-excellencies here.

हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते।

अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति॥

स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथों से युक्त विलक्षण द्रष्टा सविता देव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते हैं। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकार नाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.35.9]

स्वर्ण के हाथ वाले सर्व द्रष्टा सूर्य आकाश और पृथ्वी के बीच गति करते हैं। वे रोग आदि बाधाओं को समाप्त कर अंधकार नाशक तेज से आकाश को व्याप्त कर देते हैं।

Savita Dev who is an excellent visionary, with golden rays like his hands moves-transect through the heavens & the earth. He vanish the obstructions like diseases with his rays which removes the darkness and illuminates the sky.

हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ्।

अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः॥

हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणों से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्य गुण सम्पन्न सूर्य देव सम्पूर्ण मनुष्यों के समस्त दोषों को, असुरों और दुष्कर्मियो को नष्ट करते (दूर भगाते) हुए उदित होते हैं। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हों।[ऋग्वेद 1.35.10]

सुवर्णपाणि, प्राणावान, महान कृपालु, समृद्धिवान सूर्य हमारे सम्मुख पधारें। वे सूर्य प्रतिदिन राक्षसों का दमन करते हुए वहाँ ठहरें।

Sury-Savita Dev associated with divine powers-qualities, having golden hue rays around him, grants life, benefit the organisms, grants comforts, repel the demons and sinners, rise. Such Sun Dev should be favourable to us.

ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे।

तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव॥

हे सवितादेव! आकाश में आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित हैं। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें।[ऋग्वेद 1.35.11]

हे सूर्य! क्षितिज में तुम्हारे धूल रहित पुराने मार्ग सुनिर्मित हैं। इन रास्तों से प्रस्थान कर हमारी सुरक्षा करो जो मार्ग हमारे अनुकूल हों, बताओ।

Hey Savita Dev! Your path in the sky is free from dust, is fixed. Travelling through comfortable routes please come & protect us and make us divine.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल  सूक्त 50 :: ऋषि :- प्रस्कण्व कण्व, देवता :- सूर्य (11-13) रोगघ्न उपनिषद), छन्द :- गायत्री, 10-13 अनुष्टुप्।
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्॥
ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ सम्पूर्ण प्राणियों के ज्ञाता सूर्य देव को एवं समस्त विश्व को दृष्टि प्रदान करने के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं।[ऋग्वेद 1.50.1]
सर्वभूतों के ज्ञाता प्रकाशवान सूरज की किरणें क्षितिज में ही विचरण करती हैं।
The rays of Sun, who knows all creatures, grants vision to the whole world.
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः। सूराय विश्वचक्षसे॥
सबको प्रकाश देने वाले सूर्य देव के उदित होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल वैसे ही छिप जाते है, जैसे चोर छिप जाते है।[ऋग्वेद 1.50.2]
सर्वदर्शी के प्रकट होते ही नक्षत्र आदि विख्यात चोर के तुल्य छिप जाते हैं।
With the Sun rise the stars hide alongwith the night just like the thieves.
अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा॥
प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के समान सूर्य देव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं।[ऋग्वेद 1.50.3]
सूर्य की ध्वजा रूप किरणें प्रज्वलित अग्नि के समान मनुष्य की ओर जाती हुई स्पष्ट दिखाई देती हैं।
 Rays of Sun lit the whole world like the fire.
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य। विश्वमा भासि रोचनम्॥
हे सूर्य देव! आप साधकों का उद्धार करने वाले हैं, समस्त संसार में एक मात्र दर्शनीय प्रकाशक हैं तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.50.4]
हे सूर्य! तुम वेगवान सभी के दर्शन करने योग्य हो। तुम प्रकाश वाले सभी को प्रकाशित करते हो।
उद्धार :: निस्तार,  मुक्ति, छुटकारा, बचाव, छुड़ाना; deliverance, extricatio, releasement, rescue.
Hey Sury-Sun Dev! You release the devotee from the cycle of birth & death. You are the only source of light for the whole universe.
प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान्। प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे॥
हे सूर्यदेव! मरुद्गणों, देवगणों, मनुष्यों और स्वर्गलोक वासियों के सामने आप नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीन लोकों के निवासी आपका दर्शन कर सकें।[ऋग्वेद 1.50.5]
हे सूर्य! तुम देवताओं, प्राणियों तथा सभी मनुष्यों के लिए साक्षात् हुए तेज को प्रकाशित करने को आकाश में भ्रमण करते हो।
Hey Sury Dev! You rise regularly for the Marud Gan, Dev Gan, the hebitents of heaven and the humans; so that they can see the three abodes viz. earth, heaven and the Nether world.
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु। त्वं वरुण पश्यसि॥
जिस दृष्टि अर्थात प्रकाश से आप प्राणियों को धारण-पोषण करने वाले इस लोक को प्रकाशित करते हैं, हम उस प्रकाश की स्तुति करतें हैं।[ऋग्वेद 1.50.6]
तुम जिस नेत्र से मनुष्यों की ओर देखते हो उस नेत्र को हम प्रणाम करते हैं।
We pray to the eye-light through which you see the universe and support the living beings.
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः। पश्यञ्जन्मानि सूर्य॥
हे सूर्य देव! आप दिन एवं रात में समय को विभाजित करते हुए अन्तरिक्ष एवं द्युलोक में भ्रमण करते हैं, जिसमें सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है।[ऋग्वेद 1.50.7]
हे सूर्य! रात्रियों को दिनों से अलग करते हुए, जीव मात्र को देखते हुए तुम विशाल क्षितिज में विचरण करते हो।
Hey Sury Dev! You move through the space and the heavens, dividing the time into day & night, which helps-supports the organis-living beings.
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य। शोचिष्केशं विचक्षण॥
हे सर्वद्रष्टा सूर्य देव! आप तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणों रूपी अश्वों के रथ में सुशोभित होते हैं।[ऋग्वेद 1.50.8]
हे दूर दृष्टा सूर्य! तेजवन्त रश्मियों सहित रथारोही हुए, तुमको सप्त अश्व खींचते हैं।
Hey all visualizing-seeing Sury Dev! Your chariot is decorated with seven bright rays of light.
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः। ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः॥
पवित्रता प्रदान करने वाले ज्ञान सम्पन्न उर्ध्वगामी सूर्यदेव अपने सप्तवर्णी अश्वों से (किरणों से) सुशोभित रथ में शोभायमान होते हैं।[ऋग्वेद 1.50.9]
सूर्य स्वयं जुड़ने वाले सप्त अश्वों को रथ में जोड़कर आसमान में भ्रमण करते हैं।
Sury Dev possessing the pious knowledge-enlightenment, moves in the glorious chariot decorated with seven horses (colours-rays of light).
उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम्। 
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥
तमिस्त्रा से दूर श्रेष्ठतम ज्योति को देखते हुए हम ज्योति स्वरूप और देवों में उत्कृष्ठतम ज्योति (सूर्य) को प्राप्त हों।[ऋग्वेद 1.50.10]
अंधकार के ऊपर व्याप्त क्षितिज को फैलाते हुए देवों में महान सूर्य को हम ग्रहण हों।
Let us assimilate in the brightest, best amongest the demigods-deities, removing darkness, while looking at it.
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्। 
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥
हे मित्रों के मित्र सूर्यदेव! आप उदित होकर आकाश में उठते हुए हृदय रोग, शरीर की कान्ति का हरण करने वाले रोगों को नष्ट करें।[ऋग्वेद 1.50.11]
हे सखाओं के सखा सूर्य! तुम उदित होकर क्षितिज में उठते हुए मेरी हृदय व्याधि और पीत रंग को मिटाओ।
Hey friend of the friends Sury Dev! Remove my heart disease and the yellowish colour of the skin (jaundice, पीलिया).
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि। 
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि॥
हम अपने हरिमाण (शरीर को क्षीण करने वाले रोग) को शुकों (तोतों), रोपणाका (वृक्षों) एवं हरिद्रवों (हरी वनस्पतियों) में स्थापित करते हैं।[ऋग्वेद 1.50.12]
हे सूर्य! मैं अपने पीलेपन को शुक-सारिकाओं में स्थापित करता हूँ।
Hey Sury Dev! I establish my disease weakening the body in the greenery.
Each and every plant, shrub, wine, tree has one or the other medicinal property. That’s why one is advised to depend over the vegeterian diet only.
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह। 
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम्॥
हे सूर्य देव! अपने सम्पूर्ण तेजों से उदित होकर हमारे सभी रोगों को वशवर्ती करें। हम उन रोगों के वश में कभी न आयें।[ऋग्वेद 1.50.13]
अपने पूर्ण तेज से समस्त रोगों के विनाश के लिए हुए हैं। मैं उन रोगी के वश में न पड़ सकूँ।
Hey Sury Dev! Rising with your energy, over power-control our diseases, weakness of the body.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (115) :: ऋषि :- कुत्स आंगिरस, देवता :- सूर्य,  छन्द :- त्रिष्टुप्।

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 

आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥

विचित्र तेज युक्त तथा मित्र, वरुण और अग्नि के चक्षु स्वरूप सूर्य उदित हुए हैं। उन्होंने द्यावा पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपनी किरणों से परिपूर्ण किया है। सूर्य जंगम और स्थावर दोनों की आत्मा हैं।[ऋग्वेद 1.115.1]

विचित्र :: बहुरंगा, रंग-बिरंगा, अजीब, अनोखा, विलक्षण; weird, bizarre, quaint, pied. देवगण का विचित्र सुख-रूप रथ तथा सखा, वरुण, अग्नि का नेत्र रूप सूर्य उदित हो गया। जंगम स्थावर को प्राणरूप सूर्य ने क्षितिज धरा और अंतरिक्ष को समस्त तरफ से प्रकाशमान कर दिया।

The Sun as the eye of Mitr, Varun and Agni-fire, rises with amazing-quaint energy. He has filled the earth, all living beings whether movable or fixed with light.

सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात्। 

यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम्॥

जिस प्रकार से पुरुष स्त्री का अनुगमन करता है, उसी प्रकार से सूर्य देव भी दीप्तिमयी उषा के पीछे-पीछे आते हैं। इसी समय देवाभिलाषी मनुष्य बहुयुग प्रचलित यज्ञ कर्म को सम्पन्न करते हैं, वहाँ उन साधकों एवं कल्याणकारी यज्ञीय कर्मों को सूर्यदेव अपने प्रकाश से प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.115.2]

मनुष्यों के नारी के पीछे जाने के समान, सूर्य कांतिमती उषा के पीछे जाता है। उस समय उपासक जन युगों तक कल्याणकारी प्रभाव डालने के लिए कल्याणदाता यज्ञ को बढ़ाते हैं।

The Sun follows dashing Usha just as the humans follow women. At this moment the devotees, sages, ascetics perform-conduct Yagy with the desire to attain the divine hood-divinity. Sun light the welfare means adopted by those doing Yagy for the welfare of humanity.

भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्त चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः। 

नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः॥

सूर्य के कल्याण रूप हरि नाम के विचित्र घोड़े इस मार्ग से जाते हैं। वे सबके स्तुति भाजन है। हम उनको नमस्कार करते हैं। वे आकाश के पृष्ठ देश में उपस्थित हुए हैं। वे घोड़े तत्काल ही द्युलोक और भूलोक की चारों दिशाओं की परिक्रमा कर डालते हैं।[ऋग्वेद 1.115.3]

कल्याण स्वरूप, स्वर्णिम रंग वाले दीप्ति परिपूर्ण मार्ग से विचरण करने वाले लगातार वन्दना किये जाते सूर्य के अश्व क्षितिज की पीठ पर पैर रखते हैं और उसी दिन क्षितिज और धरा का चक्कर काट लेते हैं।

The bizarre horses named Hari, the embodiment of human welfare follows this tract. They are prayed by every one. We salute them. They are present over the surface of the sky. These horses revolve round the entire universe & the earth, in all directions, quickly.

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार। 

यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥

सूर्य देव का ऐसा ही देवत्व और माहात्म्य है कि वे मनुष्यों के कर्म समाप्त होने से पूर्व ही अपनी विशाल किरण के जाल का उपसंहार कर डालते हैं। जिस समय सूर्य अपने रथ से हरि नाम के घोड़ों को खोलते हैं, उस समय सभी लोकों में रात्रि अन्धकार रूप आवरण विस्तारित करती है।[ऋग्वेद 1.115.4]

अन्धकार को दूरस्थ करना सूर्य का अद्भुत कांतिमती उषा के पीछे प्रभाव डालने के लिए कल्याणदाता यज्ञ को बढ़ाते हैं। कल्याण स्वरूप, स्वर्णिम रंग वाले दीप्ति परिपूर्ण मार्ग से विचरण करने वाले लगातार वंदना किये जाते सूर्य के अश्व क्षितिज की पीठ पर पैर रखते हैं और उसी दिन क्षितिज और धरा का चक्कर काट लेते हैं। अन्धकार को दूरस्थ करना सूर्य का अद्भुत कार्य है।

The divinity & significance of Sury Bhagwan-The Sun, lies in the fact that he accomplish-finish the web-net of the rays, just before the humans complete-accomplish their ventures-endeavours. The moment Sun releases his horses named Hari, all abodes are filled with darkness.

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥

मित्र और वरुण को देखने के लिए आकाश के बीच सूर्य देव अपना ज्योतिर्मय रूप प्रकाशित करते हैं। सूर्य के हरि नाम के घोड़े एक ओर अपना अनन्त दीप्तिमान् बल धारित करते हैं तो दूसरी ओर कृष्ण वर्ण अन्धकार करते हैं।[ऋग्वेद 1.115.5]

जब वह अपने सुनहरी अश्वों को हटाते हैं तब रात अपना काला वस्त्र फैलाती है। सखा और वरुण के देखने को सूर्य आकाश की गोद में उस विख्यात रूप को प्रकट करते हैं। उनके सुनहरी अश्व अपने प्रकाश से युक्त पराक्रम को प्रत्यक्ष कर दूसरी ओर अंधेरा कर देते हैं।

To see Mitr & Varun, the Sun show his bright form in the sky. The horses of Sury Bhagwan-The Sun, on one side acquire their infinite strength & power and on the other side they cause the darkness of black colour.

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्। 

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥

हे सूर्य की किरणों! सूर्योदय होने पर आज हमें पाप से मुक्त करें। मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु पृथ्वी और आकाश हमारी इस प्रार्थना को अंगीकार करें।[ऋग्वेद 1.115.6]

हे देवगण! आज सूर्य उदित होने पर हमको पाप कर्मों तथा निंदा से बचाओ। सखा, वरुण, अदिति, समुद्र, धरा और क्षितिज हमारी इस वंदना को अनुमोदित करें।

Hey the Sun rays! Please release-relieve us of the sins before the dawn-day break. Let Mitr, Varun, Sindhu, Prathvi & Akash accept our this prayer.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (191) ::  ऋषि :- अगस्त्य, देवता :-अप्तृण-जल, औषधि, सूर्य ,  छन्द :- महापंक्ति, महाबृहती, अनुष्टुप्, अत्यन्त।

कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः। 

द्वाविति प्लुषी इति न्यदृष्टा अलिप्सत

कम विष वाले अधिक विष वाले, जलीय कम विष वाले दो प्रकार के जलचर और स्थलचर जलाने वाले प्राणी और अदृश्य प्राणी मुझे विष द्वारा अच्छी तरह लिप्त किए हुए हैं।[ऋग्वेद 1.191.1]

जहरीले और जहर पृथक, जल में वास करने वाले अल्पविष परिपूर्ण दोनों प्रकार के जलचर और थलचर जलन पैदा करने वाले प्रत्यक्ष और अदृश्य जीव विषय द्वारा घेरे हुए हैं।

I have been surrounded by the poisonous creatures. Some of them have little and some has more poison in them.  Water born and those living on land visible and invisible living beings too have contaminated me.

Virus, bacteria, fungus, pathogens, microbes are present all around us and are generally microscopic & invisible. They are present in air and water well. Cow is a carrier of platyhelminths. Other than these, flat worm, ring worm are quite common. Pig contains ascaris. Bird flue is quite common. Still majority of the populace eat meat. Corona too has come to humans from bats. Aids virus came to humans from the anus of the monkey. Malaria-dengue comes from mosquitoes. Bed bug hides in the sofa set, beds etc. Lice reside in the hair.

I live in Noida and its very unfortunate that Noida, Ghaziabad and Delhi are in the highest polluting cities in the world. The smog, air contain harmful dust & antigens. The water supplied too is very filthy. It led to acquiring cancer by me. 

अदृष्टान्हन्त्यायत्थो हन्ति परायती। 

अथो अबध्नती हन्त्यथो पिनष्टि पिंधती॥

जो औषधि खाता है, वह दिखाई न देने वाले विषधर प्राणी को नष्ट करता है और प्रत्यावर्तन काल में उसे विनष्ट करता है। यह कुटी और पीसी हुई (औषधि) विषधर जीवों के विष को समाप्त कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.2]

प्रत्यावर्तन :: एकान्तरण, परिवर्तन, पुनरावर्तन, पलटाव; repatriation, alternation, reversion, relapse.

औषधि उन अदृश्य जीवों और उनके जहर को मार देती है। वह कूटी, पीसी, जाकर भी विषैले जन्तुओं को नष्ट कर देती है।

One eats the medicine destroys the poisonous organisms during the intake of it. Either are grinded or crushed-smashed medicine vanish the poison.

शरासः कुशरासो दर्भासः सैर्या उत। 

मौञ्जा अदृष्टा बैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत

शर, कुशर, दर्भ, सैर्य, मुज, वीरण आदि धासों में छिपे विषधर जीव-जन्तु अवसर मिलते ही लिपट जाते हैं।[ऋग्वेद 1.191.3]

शर, कुशर, दर्भ, सैर्य, मोंज और वैरिण नामक घासों में छिपे हुए जीव विषयुक्त करते हैं।

The poisonous organism stick to the various kinds of grasses named :- Shar, Kushar, Darbh, Saery, Munj, Viran etc. 

नि गावो गोष्ठे असददन्नि मृगासो अविक्षत। 

नि केतवो जनानां न्यदृष्टा अलिप्सत

जिस समय गाँवें गोष्ठ में बैठी रहती हैं, जिस समय हरिण, अपने-अपने स्थानों पर विश्राम करते हैं और जिस समय मनुष्य निद्रा में रहता है, उस समय अदृश्य विषधर ये जीव बाहर निकलकर उनसे लिपट जाते हैं।[ऋग्वेद 1.191.4]

जब गौएँ अपने गोष्ठ में बैठती हैं, हिरन अपने स्थान पर आराम करते हैं और प्राणी सुप्तावस्था में होता है तब ये विषैले जीव उन्हें विषयुक्त करते हैं।

The poisonous organism stick-attack the cows, deer and the humans while they are either sleeping or taking rest-inactive.

एत उ त्ये प्रत्यदृश्रन्प्रदोषं तस्करेंइव। 

अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन

ये विषधर चोरों की तरह रात्रि में ही दिखाई देते हैं। ये छिपे रहने पर भी सभी को देखते है। इसलिए इनसे सावधान रहना चाहिए।[ऋग्वेद 1.191.5]

वे अदृश्य और प्रकट विषैले जीव चोरों के समान रात्रि की प्रतीक्षा करते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।

These visible & invisible poisonous being are active at night like a thief. They watch every one, hiding themselves. One has to to very carful with respect to them. 

द्यौर्व: पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा। 

अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम्

स्वर्ग पिता, पृथ्वी  माता, सोम भ्राता और अदिति बहन है। अदृष्ट समदर्शी लोग आप विश्राम करते हैं। जिस समय मनुष्य निद्रा में रहता है, उस समय अदृश्य विषधर ये जीव बाहर निकलकर उनसे लिपट जाते हैं।

हे जहरीले प्राणियों! आकाश तुम्हारा पिता, धरती माता और सोम भाई, अदिति बहन हैं। तुम प्रकट और अप्रकट दोनों प्रकार के जीव अपने अपने स्थान पर ही रहो, सूख पूर्वक विश्राम करो।

Heaven is your father, earth is your mother, Moon is your brother and Aditi (mother of demigod-deities) is your sister. You-invisible poisonous beings take rest in your places of hiding. As soon as the humans sleep you attack them.

ये अंस्या ये अङ्गया: सूचीका ये प्रकङ्कताः।

अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत

जो विषधर स्कन्ध वाले है, जो अंग वाले (सर्प) हैं, जो सूचीवाले (वृश्चिकादि) हैं, जो अतीव विषधर हैं, वैसे अदृष्ट विषधर जीव-जन्तुओं का यहाँ क्या काम है? ये सभी विषैले जीव एक साथ हमें कष्ट न पहुँचायें अर्थात् हमसे दूर चले जायें।[ऋग्वेद 1.191.7]

हे जहरीले प्राणियों! तुम कन्धे से जलने वाले शरीर से विचरणशील, सुई की तरह डंक मारने वाले, अत्यन्त विष परिपूर्ण अदृश्य एवं प्रत्यक्ष, जितनी तरह के भी हो, हमारे पास से दूर चले जाओ।

Let all poisonous creatures move away from us. All those creatures which move with the help of shoulders, creepers, those who wriggle and those who sting should not harm us move away from us.

उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा। 

अदृष्टान्त्सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यः

पूर्व दिशा में सूर्यदेव उदित होते हैं, वे समस्त संसार को देखते और अदृष्ट विषधरों का विनाश करते हैं। वे सभी अदृष्टों और राक्षसी वा महोरगी का विनाश करते हैं।[ऋग्वेद 1.191.8]

सबके सामने प्रयत्न, अदृष्ट जीवों को भी दिखाने वाले, अदृश्य विषधरों और दानव, वृत्ति वाले हिंसक पशुओं को विनाश करने वाले सूर्य पूर्व से उदित होते हो।

The Sun rises in the east and kill all sorts of invisible harmful creatures-organism. He kills the demonic and the canine animals as well.

Sun light is essential in homes and offices in addition to cross ventilation.

उदपप्तदसौ सूर्यः पुरु विश्वानि जूर्वन्। 

आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा

सूर्यदेव बड़ी संख्या में विषों का विनाश करते हुए उदित होते हैं। सर्वदर्शी और अदृश्यों के विनाशक सूर्यदेव जीवों के मंगल के लिए उदित होते हैं।[ऋग्वेद 1.191.9]

सभी विश्व द्वारा देखे जाने वाले, अदृष्ट प्राणियों के नाशक अदिति पुत्र सूर्य अनेक प्रकार से सभी विषों का विनाश करने के लिए, शैल से भी ऊँचे उठे हुए हैं।

With the Sun rise majority of harmful-poisonous microscopic organisms are destroyed-killed. Sun rises for the welfare of all living beings. 

Ultra violet and infra red rays are capable of killing all sorts of microbes, antigens.

सूर्ये विषमा सजामि दृति सुरावतो गृहे। सो चिन्नु न मसति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

शौण्डिक के गृह में चमड़े से बने सुरापात्र की तरह मैं सूर्य मण्डल में विष फेकता हूँ। जिस प्रकार से पूजनीय सूर्यदेव प्राणत्याग नहीं करते। उसी प्रकार से हम भी प्राण त्याग नहीं करते। अपने अश्वों पर आरूढ़ होकर सूर्यदेव इस विष का निवारण करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.10]

शौण्डिक के घर में मद्य पात्र के समान सूर्य मंडल में विष को प्रेरित करता हूँ। सूर्य का उससे पतन नहीं होगा। हम भी नहीं मरेंगे। वे अश्व पर सवार सूर्य विष का अमृत में परिवर्तन कर देते हैं।

Shoundik discard the poisons carried-kept in a skin vessel in the atmosphere-environment. The way Sun is not lost, I too remain alive. Sun riding his horses removes the impact affect of the poison. The science of pathogens tackles this menace and converts the poisons into ambrosia, nectar Amrat.

इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम्। सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

जिस प्रकार से क्षुद्र शकुन्तिका पक्षी ने आपका विष खाकर उगल दिया, उसने प्राण त्याग नहीं किया, उसी प्रकार से हम भी प्राण त्याग नहीं करेंगे। अश्व द्वारा परिचालित होकर सूर्यदेव दूर स्थित विष को दूर करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.11]

जैसे क्षुद्र शकुनि (पक्षी) ने तेरा जहर खाकर उगल दिया, वह उससे मरा नहीं, वैसे ही हम भी नहीं मरेंगे, अश्वारूढ़ सूर्य दूर रहकर भी हमसे विष को दूर रखते हैं तथा विष को माधुर्य देते हैं।

The way small Shakuntika bird eats poison and vomit, without being killed, we too shall survive. Driven by the horses the Sun removes the poisons and converts the poisons into nectar by using Madhula Vidya-science of converting poisons into nectar.

त्रिः सप्त विष्णुलिङ्गका विषस्य पुष्पमक्षन्। ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामार अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

अग्निदेव की सातों जिह्वाओं में से प्रत्येक में श्वेत, लोहित और कृष्णादि तीन वर्ण अथवा इक्कीस प्रकार के पक्षी विष की पुष्टि का विनाश करते हैं। वे कभी नहीं मरते, उसी प्रकार हम भी प्राण त्याग नहीं करते। अश्व द्वारा परिचालित होकर सूर्यदेव दूर स्थित विष का हरण करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.12]

अग्नि ने इक्कीस प्रकार के विषों को बल का भक्षण कर लिया। उसकी ज्वालाएँ अमर हैं। हम भी नहीं मर सकते। अश्वारूढ़ सूर्य ने दूरस्थ विष को भी नष्ट कर दिया और विष को मधुरता प्रदान की।

The seven flames of fire-Agni are capable of killing 21 types of poisons present in the birds (germs, virus, bacteria, fungus etc.) The birds carries them without being killed and we too will survive. Madhula Vidya converts these poisons into nectar.

Each and every century finds the out break of epidemic, which kills millions of people. There is mention of Corona in the Shastr. Pure vegetarians can easily survive the onslaught of it. Please refer to :: CORONA-DEADLY CHINES VIRUS over my blogs.

नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्। 

सर्वासामग्रभं नामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

मैं सभी विषनाशक निन्यानबे नदियों के नामों का कीर्तन करता हूँ। अश्व द्वारा चालित होकर सूर्यदेव दूर स्थित विष का निवारण करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.13]

मैंने विष नाशक निन्यानवें क्रियाओं को जान लिया है। रथ पर सवार सूर्य दूर से भी विष को अमृत में बदल देते हैं, 

I recite the names of  all 99 rivers which are capable of killing germs microbes etc. Driven by the horses Sury Dev-the Sun removes these poisons and the Madhula Vidya converts these poisons into nectar.

Maa Ganga is well knows for containing anti microbes properties. In fact a large number of rivers flowing from the mountains acquires the property of germicide due to the assimilation of vital herbs in them. Rivers flowing from the mountains possessing Sulphur too acquire such properties.

त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अग्रुवः। 

तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव

जिस प्रकार से स्त्रियाँ घड़े में जल ले जाती हैं, उसी प्रकार से इक्कीस मयूरियाँ (पक्षी) और सात नदियाँ आपके विष को दूर करें।[ऋग्वेद 1.191.14]

हे विष, से परिपूर्ण प्राणी! घड़े में नारियाँ जल ले जाती हैं, जैसे ही इक्कीस और भगिनी रूप सात नदियाँ तुम्हारे विष को दूरस्थ करती हैं। 

The way the women carries water in the Ghada-earthen pot, picher, 21 female peacock and 7 rivers remove your poisons.

इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्मयश्मना। 

ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवतः

अति सूक्ष्म-सा यह विषैला कीड़ा अर्थात् कीट हैं। हमारी ओर आने वाले छोटे से छोटे कीट को हम पत्थर से मार देते हैं। जिससे उसका विष अर्थात् जहर अन्य दिशाओं में चला जाता है।[ऋग्वेद 1.191.15] 

वह छोटा सा नकुल तुम्हारी देह का विष खींच ले अन्यथा उस नीच को मैं पत्थर ढेलों से मार डालूँगा। शरीर का विष चूसकर दूर देशों का चला जाये। 

Let the small Nakul suck the poison from your body, move else where otherwise I will kill it with pebbles.  

कुषुम्भकस्तदब्रवीगिरेः प्रवर्तमानकः। 

वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम्

पर्वत से आने वाले नेवला ने यह कहा कि वृश्चिक अर्थात् बिच्छू का विष प्रभावहीन है। हे वृश्चिक (बिच्छू)! तुम्हारे विष का प्रभाव नहीं।[ऋग्वेद 1.191.16]

नकुल ने शैल से निकल कर कहा, बिच्छू का विष प्रभाव से शून्य है। हे वृश्चिक! तेरे विष प्रभाव नहीं है। 

The mongoose coming from the hills told the scorpion that his poison was neutralised.

जल, औषधि और सूर्य में विषनाशक शक्ति है। इसलिए यहाँ इनकी प्रार्थना की गई है।

Water, medicines and Sun kills germs, microbes and antigens, hence they are described her. Flowing waters gradually become free from all sorts of contamination by the addition of atmospheric oxygen in it. 

ऋग्वेद संहिता, द्वितीय मण्डल सूक्त (38) :: ऋषि :- गृत्समद, भार्गव, शौनक, देवता :- सविता, छन्द :- त्रिष्टुप, पंक्ति।

उदु ष्य देवः सविता सवाय शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थात्।

नूनं देवेभ्यो वि हि धाति रत्नमथाभजद्वीतिहोत्रं स्वस्तौ

प्रकाशक और जगद्बाहक सूर्य देव प्रसव के लिए प्रतिदिन उदित होते हैं, यही उनका कर्म है। वे स्तोताओं को रत्न देते और सुन्दर यज्ञ वाले यजमान को मंगलभागी बनाते हैं।[ऋग्वेद 2.38.1]

संसार को वहन करने वाले ज्योर्तिमान सविता देव प्रसव के लिए प्रतिदिन प्रकट होते हैं। यही उनका नित्य का सिद्धान्त है। वे वंदना करने वालों को रत्नादि धन प्रदान करते और यजमान को कल्याण का भागीदार बनाते हैं।

Illuminating and supporting-sustaining the universe, is the daily routine of Savita-Dev-the Sun. This is his duty. He grants jewels to the host who worship him. He benefit the host-Ritviz as well. 

विश्वस्य हि श्रुष्टये देव ऊर्ध्वः प्र बाहवा पृथुपाणिः सिसर्ति।

आपश्चिदस्य व्रत आ निमृग्रा अयं चिद्वातो रमते परिज्मन्

प्रलम्बाहु और प्रकाशवाले सविता देव, संसार के आनन्द के लिए उदित होकर बाहु प्रसारित करते हैं। उनके कार्य के लिए अतीव पवित्र जल समूह प्रवाहित होता है और वायु भी सर्वतोव्यापी अन्तरिक्ष में विहरण करता है।[ऋग्वेद 2.38.2]

लम्बी भुजा और ज्योति से परिपूर्ण सवितादेव संसार को आनन्दमय करने के लिए हाथ फैलाते हैं। उनके लिए अत्यन्त शुद्ध जल प्रवाहमान होता और पवन अंतरिक्ष में विचरता है।

Long armed Savita Dev illuminate and extend his arms for the pleasure of the world. Extremely pure water flow and the air flows through the sky-space.  

आशुभिश्चिद्यान्वि मुचाति नूनमरीरमदतमानं चिदेतोः।

अह्यर्षूणां चिन्त्र्ययाँ अविष्यामनु व्रतं सविआर्पोक्यागात्

जिस समय सविता शीघ्रगामी किरणों द्वारा विमुक्त होते हैं, उस समय वे निरन्तरगामी पथिक को भी अलग करते हैं। जो शत्रु के विरुद्ध जाते हैं; सविता देव उनकी जाने की इच्छा को भी निवृत्त करते हैं। सविता के कर्म के पश्चात् ही रात्रि का आगमन होता है।[ऋग्वेद 2.38.3]

जब सविता देव तीव्र गति से किरणों द्वारा छोड़े जाते हैं, तब निरन्तर चलने वाले राही भी रुक जाते हैं । शत्रु के विरुद्ध आक्रमण के लिए जाने वाले की इच्छा भी उस समय निवृत्त हो जाती सविता देव के कर्म कर लेने पर रात आलोक को छिपा लेती है।When Savita Dev stops his fast moving rays, the traveller stops moving further and the night falls. Savita Dev checks the desire of moving-attacking the enemy at this hour-juncture. Once the task of Savita Dev is over, the night engulfs the universe-world. 

पुनः समव्यद्विततं वयन्ती मध्या कर्तोर्न्यधाच्छक्म धीरः।

उत्संहायास्थाद्व्यृ १ तुँरदर्धररमतिः सविता देव आगात्

वस्त्र बुनने वाली रमणी की तरह रात्रि पुनः आलोक को भली-भाँति वेष्टित करती है। बुद्धिमान् लोग जो कर्म करते हैं, वह करने में समर्थ होने पर भी मध्य मार्ग में रख देती है। विराम रहित और ऋतु विभाग कर्ता प्रकाशक सविता जिस समय पुनः उदित होते हैं, उस समय लोग शय्या को त्याग देते हैं।[ऋग्वेद 2.38.4]

आलोक :: देखना, दर्शन, दृष्टि, प्रकाश, रोशनी; light, lustre.

बुद्धिमानों के लिए हुए कार्य हिस्सा बीच के भाग में रुक जाते हैं, ऋतुओं का विभाजन करने वाले सूर्य जब दुबारा उदित होते हैं, तब व्यक्ति बिस्तारों को छोड़ देते हैं।

The night cover the light properly, like the young woman who knit the cloth. The intelligent post pone their endeavours even though  they are competent-capable. The Sun rises again and move continuously creating-causing the seasons. People leave their bed with the Sun rise. 

नानौकांसि दुर्यो विश्वमायुर्वि तिष्ठते प्रभवः शोको अग्नेः।

ज्येष्ठं माता सूनवे भागमाधादन्वस्य केतमिषितं सवित्रा

अग्नि के गृह में स्थित प्रभूत तेज यजमान के भिन्न-भिन्न गृह और समस्त अन्न में अधिष्ठित है। माता उषा ने सविता द्वारा प्रेरित प्रज्ञापक यज्ञ का श्रेष्ठ भाग पुत्र अग्नि को दान किया।[ऋग्वेद 2.38.5]

अग्नि ग्रह में उत्पन्न तेज यजमान के अन्न कोष्ठों में व्याप्त हैं। उषा माता सविता प्रेरित यज्ञ का उत्तम भाग अग्नि को दे चुकी हैं।

The energy generated in the house of Agni has pervaded the entire property and the food grains of the hosts-Ritviz. Mother Usha has granted the excellent portion of the Yagy to her son Agni, transferred to her by Savita i.e., Sun. 

समाववर्ति विष्ठितो जिगीषुर्विश्वेषां कामश्चरताममाभूत्।

शश्वाँ अपो विकृतं हित्व्यागादनु व्रतं सवितुर्दैव्यस्य

स्वर्गीय सविता के व्रत की समाप्ति होने पर जयाभिलाषी राजा युद्ध यात्रा कर चुकने पर भी लौट आता है। सारे जंगम पदार्थ घर की अभिलाषा करते और सदा कार्यरत् व्यक्ति अपने किये आधे कर्म को भी छोड़कर घर की ओर लौट आते हैं।[ऋग्वेद 2.38.6]

सविता के दिव्य व्रत की समाप्ति पर रथ से विजय की कामना करने वाला राजा लौटता है। सभी जंगम पदार्थ अपने पास की अभिलाषा करते और कर्म में लगे प्राणी अपने कार्यों के अधूरा रहने पर भी घर की ओर चल देते हैं।

The winning kings too return to their camps, from the battle field as soon as the Sun sets. All movable-living beings busy with their work return home, leaving behind their work unfinished (to complete the next day).

त्वया हितमप्यमप्सु भागं धन्वान्वा मृगयसो वि तस्थुः।

वनानि विभ्यो नकिरस्य तानि व्रता देवस्य सवितुर्मिनन्ति

हे सविता देव! अन्तरिक्ष में आपने जो जल-भाग रख छोड़ा है, जलान्वेषण कर्त्ता लोग चारों ओर उसे पाते हैं। आपने पक्षियों के लिए वृक्षों का विभाग किया है। कोई भी सविता के कार्य की हिंसा नहीं कर सकता।[ऋग्वेद 2.38.7]

हे सवितादेव! अंतरिक्ष में तुम्हारे द्वारा दृढ़ जल भाग को खोज करने वाले पाते हैं। तुमने पक्षियों के निवास के लिए वृक्षों का विभाजन किया। तुम्हारे कर्म को कोई नहीं रोक सकता।

Hey Savita Dev! The water left over in the sky-space, is found by those who wish to trace-find it. You have reserved the trees for the residence of the birds. No one can challenge your authority.

याद्राध्य वरुणो योनिमप्यमनिशितं निमिषि जर्भुराणः।

विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुर्गात्स्थशो जन्मानि सविता व्याकः

सविता के अस्त होने पर सदा गमनशील वरुण देव सारे जंगम पदार्थों को सुखकर, वाञ्छनीय और सुगम वास स्थान प्रदान करते हैं। जिस समय सविता सारे भूतों को स्थान-स्थान पर अलग अलग कर देते हैं, उस समय पशु-पक्षी गण भी अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं।[ऋग्वेद 2.38.8]

सूर्य अस्त होने पर गतिमान वरुण समस्त जंगम पदार्थों को सुख प्रदान करने वाले, आवश्यक और आसान निवास को ग्रहण होते हैं। 

Varun Dev provide appropriate-comfortable shelter to each and every living being after the Sun set. When Savita dev distinguishes-separates the place of living, all animals & birds return to their habitat.

The ever-going Varun Dev grants a cool, accessible and agreeable place for rest, to all moving creatures-beings on the closing of the eyes of Savita Dev and every bird and every beast repairs to its lair when Savita Dev has dispersed all beings in various directions.

न यस्येन्द्रो वरुणो न मित्रो व्रतमर्यमा न मिनन्ति रुद्रः।

नारातयस्तमिदं स्वस्ति हुवे दैवं सवितारं नमोभिः

इन्द्र देव जिसके व्रत की हिंसा नहीं करते, वरुण, मित्र, अर्यमा और रुद्र भी हिंसा नहीं करते, शत्रुगण भी हिंसा नहीं करते, उन्हीं द्युतिमान् सविता को कल्याण के लिए इस प्रकार नमस्कार द्वारा हम आह्वान करते हैं।[ऋग्वेद 2.38.9]

इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्यमा, रुद्र और शत्रु भी जिसके वृत्र को नहीं रोक सकते। उसी प्रकाशवान सूर्य को मंडल के लिए हम मस्तक नवाकर आमंत्रित करते हैं।

We invoke Savita Dev-Sun, who is not opposed by Indr, Varun, Mitr, Aryma, Rudr and even the enemies, 

by lowing our heads in his honour.

भगं धियं वाजयन्तः पुरंधिं नराशंसो ग्नास्पतिर्नो अव्याः। 

आये वामस्य संगथे रयीणां प्रिया देवस्य सवितुः स्याम

जिनकी स्तुति सारे मनुष्य करते हैं, जो देव पत्नियों के रक्षक हैं, वे ही सवितादेव हमारी रक्षा करें। हम भजनीय, बहुप्रज्ञ और ध्यान योग्य सविता को बलवान् करते हैं। हम धन और पशु की प्राप्ति के और संचय के सम्बन्ध में सवितादेव के प्रिय होकर रहें।[ऋग्वेद 2.38.10]

सभी प्राणी जिसकी वंदना करते हैं जो देव पत्नियों के रक्षक हैं वे सूर्य हमारे रक्षक हों। भजन और ध्यान के योग्य प्रतापी सूर्य को हम प्रसन्न करते हैं। 

धन और पशु को प्राप्त कर सुरक्षित रहने की कामना से हम सविता देव का सद्भाव चाहते हैं।

Let Savita Dev, who is the protector of goddesses-wives of the demigods and worshiped prayed by all humans, protect us. We worship-pray Sun through hymns and meditation, to keep him happy and healthy. We wish to have wealth and cattle and remain protected by Savita Dev along with his goodwill. 

अस्मभ्यं तद्दिवो अद्भ्यः पृथिव्यास्त्वया दत्तं काम्यं राध आ गात्।

शं यत्स्तोतृभ्य आपये भवात्युरुशंसाय सवितर्जरित्रे

हे सविता देव! आपने हमें जो प्रसिद्ध और रमणीय धन प्रदान किया है, वह द्युलोक, भूलोक और अन्तरिक्ष लोक से हमारे पास आवे। जो धन स्तोताओं के वंशजों के लिए शुभकर है। मैं बहुत-बहुत स्तुति करता हूँ कि मुझे वही धन प्रदान करें।[ऋग्वेद 2.38.11]

हे सूर्यदेव! तुमने हमें जो प्रसिद्ध और मनोरम धन प्रदान किया है, वह अद्भुत संसार, धरा और अंतरिक्ष से हमको प्राप्त हो। जो धन प्रार्थना करने वालों के वंशजों के लिए कल्याणकारी है, वही धन मुझे प्रदान करो। मैं तुम्हारी भली-भांति अत्यन्त वदंना करता हूँ।

Hey Sury Dev! The wealth granted by you, should come to us from the heavens, earth and the space. It should be auspicious to our next generation-progeny.  We pray to you again and again to be given that auspicious wealth. 

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स्वस्तिवाचन

स्वस्तिवाचन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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SKB CHANDIGARH BLOG

ॐ गं गणपतये नम:।

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते हैं. यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया ‘स्वस्तिवाचन’ कहलाती है।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय प्रार्थना की जाती है कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता है जिससे उनमें कोई रोग ना लगे। गायों को खूब बच्चे उत्पन्न करें।
यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है ताकि यात्रा सफल और सुरक्षित हो, मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू ना मिलें। व्यापार में लाभ हो। अच्छे मौसम के लिए भी इस मन्त्र का जाप किया जाता है, जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।

पुत्र जन्म पर स्वस्तिक मंत्र अत्यावश्यक है। इससे बच्चा स्वस्थ रहता है, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता है। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी इस मंत्र का उपयोग किया जाता है। स्वस्तिक मंत्र शरीर रक्षा, सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होता है।

गणेशाम्बिका पूजन :: यजमान हाथ में पुष्प लेकर गणेश जी महाराज और माँ अम्बिका का ध्यान करें करते हुए निम्न मन्त्रों का पाठ-उच्चारण करें :-
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक:॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:। 
द्वद्शैतानि नामानि यः पठे च्छ्रिणुयादपी॥
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। 
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व्विघ्नोपशान्तये॥
अभिप्सितार्थ सिद्ध्यर्थं पूजितो य: सुरासुरै:। 
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नम:॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बिके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम्। 
येषां हृदयस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरि:॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेन्घ्रियुगं स्मरामि॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय:। 
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दन:॥
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
अनन्यास्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
स्मृतेःसकल कल्याणं भाजनं यत्र जायते। 
पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरम्॥
सर्वेष्वारंभ कार्येषु त्रय:स्त्री भुवनेश्वरा:। 
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दना:॥
विश्वेशम् माधवं दुन्धिं दण्डपाणिं च भैरवम्।
वन्दे कशी गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्॥
वक्रतुण्ड् महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ। 
निर्विघ्नं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥ ॐ श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नम:।
हाथ में लिया हुआ पुष्प गणेश जी महाराज माँ अम्बिका की मूर्ति या सुपारी से बनाए हुए भगवान् पर चढ़ा दें। इसके पश्चात दाँये हाथ में पुष्प, कुश, तिल, जौ, जल, द्रव्य लेकर संकल्प करना चाहिए।
ऋग्वेद अध्याय एक, सूक्त 89 ::
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।
देवा नोयथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥
हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों। प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें।[ऋग्वेद 1.89.1]
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्।
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥
यजमान की इच्छा रखने वाले देवताओं की कल्याण कारिणी श्रेष्ठ बुद्धि सदा हमारे सम्मुख रहे, देवताओं का दान हमें प्राप्त हो, हम देवताओं की मित्रता प्राप्त करें, देवता हमारी आयु को जीने के निमित्त बढ़ायें।[ऋग्वेद 1.89.2]
तान् पूर्वयानिविदाहूमहे वयंभगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।
अर्यमणंवरुणंसोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥
हम वेदरुप सनातन वाणी के द्वारा अच्युतरुप भग, मित्र, अदिति, प्रजापति, अर्यमण, वरुण, चन्द्रमा और अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं। ऐश्वर्यमयी सरस्वती महावाणी हमें सब प्रकार का सुख प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.89.3]
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥
वायुदेवता हमें सुखकारी औषधियाँ प्राप्त करायें। माता पृथ्वी और पिता स्वर्ग भी हमें सुखकारी औषधियाँ प्रदान करें। सोम का अभिषव करने वाले सुखदाता ग्रावा उस औषधरुप अदृष्ट को प्रकट करें। हे अश्विनी-कुमारो! आप दोनों सबके आधार हैं, हमारी प्रार्थना सुनिये।[ऋग्वेद 1.89.4]
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥
हम स्थावर-जंगम के स्वामी, बुद्धि को सन्तोष देनेवाले रुद्रदेवता का रक्षा के निमित्त आवाहन करते हैं। वैदिक ज्ञान एवं धन की रक्षा करने वाले, पुत्र आदि के पालक, अविनाशी पुष्टि-कर्ता देवता हमारी वृद्धि और कल्याण के निमित्त हों।[ऋग्वेद 1.89.5]
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
महती कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें।[ऋग्वेद 1.89.6]
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह॥
चितकबरे वर्ण के घोड़ों वाले, अदिति माता से उत्पन्न, सबका कल्याण करने वाले, यज्ञशालाओं में जाने वाले, अग्निरुपी जिह्वा वाले, सर्वज्ञ, सूर्यरुप नेत्र वाले मरुद्गण और विश्वेदेव देवता हविरुप अन्न को ग्रहण करने के लिये हमारे इस यज्ञ में आयें।[ऋग्वेद 1.89.7]
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥
हे यजमान के रक्षक देवतागण! हम दृढ अंगों वाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं को देखें, देवताओं की उपासना-योग्य आयु को प्राप्त करें।[ऋग्वेद 1.89.8]
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥
हे देवता गण! आप सौ वर्ष की आयु-पर्यन्त हमारे समीप रहें, जिस आयु में हमारे शरीर को जरावस्था प्राप्त हो, जिस आयु में हमारे पुत्र पिता अर्थात् पुत्रवान् बन जाएँ, हमारी उस गमनशील आयु को आपलोग बीच में खण्डित न होने दें।[ऋग्वेद 1.89.9]
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।
विश्वेदेवा अदितिः पंचजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥
अखण्डित पराशक्ति स्वर्ग है, वही अन्तरिक्ष-रुप है, वही पराशक्ति माता-पिता और पुत्र भी है। समस्त देवता पराशक्ति के ही स्वरुप हैं, अन्त्यज सहित चारों वर्णों के सभी मनुष्य पराशक्तिमय हैं, जो उत्पन्न हो चुका है और जो उत्पन्न होगा, सब पराशक्ति के ही स्वरुप हैं।[ऋग्वेद 1.89.10]
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
द्युलोक शान्तिदायक हों, अन्तरिक्ष लोक शान्तिदायक हों, पृथ्वी लोक शान्तिदायक हो। जल, औषधियाँ और वनस्पतियाँ शान्तिदायक हों। सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शान्तिदायक हों। ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शान्ति प्रदान करने वाले हों। उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शान्ति देने वाले हों। सम्पूर्ण चराचर जगत शान्ति पूर्ण हों अर्थात सब जगह शान्ति ही शान्ति हो। ऐसी शान्ति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढ़ती ही रहे। अभिप्राय यह है कि सृष्टि का कण-कण हमें शान्ति प्रदान करने वाला हो। समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो।
यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शं न: कुरु प्रजाभ्यो भयं न: पशुभ्य:॥
सुशान्तिर्भवतु।श्री मन्महागणाधिपतये नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:। उमामहेश्वराभ्यां नम:। वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नं:। शचिपुरन्दराभ्यां नम:। इष्टदेवताभ्यो नम:। कुलदेवताभ्यो नम:। ग्रामदेवताभ्यो नम:। वास्तुदेवताभ्यो नम:। स्थानदेवताभ्यो नम:। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:। ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय श्री मन्महागणाधिपतये नम:।
कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभ कर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है।
स्वास्तिक :: यह हिन्दु-सनातन धर्म का एक प्रतीक-चिन्ह है।
स्वस्तिक भारतीय संस्कृति का सनातन चिन्ह-प्रतीक है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ ‘कर्त्ता’ या करने वाले से है। इस प्रकार ‘स्वस्तिक’ शब्द का अर्थ हुआ ‘अच्छा’ या ‘मंगल’ करने वाला। आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है आदि इसके पर्यायवाची हैं। ‘स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध’ अर्थात् ‘सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।’ इस प्रकार ‘स्वस्तिक’ शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है। स्वस्तिक शब्द की निरुक्ति है :- “स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः” कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध श्रवा हा स्वस्ति न ह पूषा विश्व वेदा हा।
स्वस्ति न ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट नेमि हि स्वस्ति नो बृहस्पति हि दधातु॥
महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।

वामावर्त स्वस्तिक :: यह शुभ चिह्न है, जो प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है। जर्मनी के तानाशाह हिटलर के ध्वज में यही वामावर्त स्वस्तिक’ अंकित था। ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।

(1). स्वस्तिवाचन से ही समस्त मांगलिक कार्य को शुरू किया जाता है। अनादिकाल से ऋषि-महर्षि, शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान पूर्वाचार्य प्रत्येक कार्य का शुभारम्भ स्वस्ति वाचन से ही कराते चले आ रहे हैं।
(2). स्वास्तिक चिह्न का सभी धर्मावलम्बी समान रूप से आदर करते हैं। बर्मा, चीन, कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि अन्यान्य देशों में इसे सम्मान प्राप्त है। यह चिह्न र्जमन राष्ट्र ध्वज में भी सगौरव फहराता’ है।
(3). पूजन हेतु थाली के मध्य में रोली के स्वास्तिक बनाकर अक्षत रखकर श्री गणेशजी का पूजन कराया जाता है। कलश में भी स्वास्तिक अंकित किया जाता है। भवन द्वार (चैखट) पर सतिया अंकित किया जाता है। जहाँ ऊँ, श्री, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ लिखा जाता है वहीं सतिया भी अपना विशेष स्थान रखता है।
(4). बच्चे के जन्मोत्सव पर आचार्य से पूछकर सद्गृहस्थों में विदूषी महिलायें सतियो रखने के पश्चात ही गीतादि मांगलिक कार्यों को शुरु करती हैं। सतिया श्री, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ, श्रीगणेश अनुपूरक सुखस्वरूप हैं। ऊँ श्री स्वस्तिक सकल, मंगल मूल अधार। ऋद्धि-सिद्धि शुभ लाभ हो, श्री गणेश सुखसार।
(5). स्वस्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है। पाणिनी व्याकरण के अनुसार इसे व्याकरण कौमुदी में अव्यय के पदों में गिनाया जाता है यह ‘स्वस्तिक’ पद ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘अस्ति’ अव्यय (क्रम 61) के संयोग से बना है, यथा सु+अस्ति = स्वस्ति। इसमें ‘इकोयविच’ सूत्र के उकार के स्थान में वकार हुआ है। स्वस्ति में भी ‘अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ‘स्वस्ति’ अव्यय पद का अर्थ कल्याण, मंगल, शुभ आदि के रूप में किया गया है जब ‘स्वस्ति’ अव्यय से स्वार्थ में ‘क’ प्रत्यय हो जाता है तब यही ‘स्वस्ति’ स्वस्तिक नाम पा जाता है। परंतु अर्थ में कोई भेद नहीं होता। सारांश यह है कि ‘ऊँ’ और ‘स्वस्तिक’ दोनों ही मंगल, क्षेत्र, कल्याण रूप, परमात्मा वाचक हैं। इनमें कोई संदेह नहीं।
(6). ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यों अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातुः॥
महान यशस्वी प्रभु हमारा कल्याण करें, सबके पालक सर्वज्ञ प्रभु हमारा कल्याण करें। सबके प्रकाशक विघ्नविनाशक प्रभु हमारा कल्याण करें। सबका पिता ज्ञानप्रदाता प्रभु वेदज्ञान देकर हम सबका कल्याण करें। चारों वेदों में वर्णित उपरोक्त वेदमंत्र “ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो…” इसमें इन्द्र, वृद्ध श्रवा, पूषा, विश्ववेदा, ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमि, बृहस्पति से मानव चराचर में व्याप्त प्राणियों के कल्याण की कामना की गई है। अंतरिक्ष में गतिशील ग्रहों के भ्रमणमार्ग पर जिसमें आने वाले अश्विनी, भरणी, कृतकादि नक्षत्र राशि समूह और असंख्य तारा पुँज हैं।
(7). यह तो सर्वविदित है कि अपने सौर परिवार की नाभि में सूर्य स्थित है जिसके इर्द-गिर्द ‘नाक्षरन्ति नाम नक्षत्र’ नक्षत्र भी स्थित है। राशि चक्र के चैदहवें नक्षत्र चित्रा का स्वामी वृद्धश्रवा (इन्द्र) है। त्वष्टा ने सूर्य को खराद कर कम तेजयुक्त करके प्राणियों को जीवन दान दिया था। पू.षा. रेवती के स्वामी हैं, जो कि एक दूसरे के आमने-सामने हैं। इसी प्रकार उत्तराषाढ़ा 21 वाँ नक्षत्र होने से पुष्य के सम्मुख है।
(8). अंतरिक्ष में बनने वाले इस प्राकृतिक चतुष्पाद चैराहे के केंद्र में सूर्य है। जिसकी चारों भुजायें परिक्रमा क्रम से फैली हुयी हैं। इस प्राकृतिक नक्षत्र रचना स्वस्तिक में आने वाले अनेक तारा समूहों के देवतागणों से भी मंगलकाममनाएं वेदों में की गई है।
(9). स्वस्तिक मात्र कल्पना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित समस्त सुखों का मूल है। स्वस्तिक आर्यों का पवित्र शुभ एवं सौभाग्य चिह्न है। इसमें समस्त देवताओं का प्रतिनिधित्व निहित है सतिया में उपभुजायें लगाना अनुचित है लेकिन अन्यान्य विद्वान उपभुजायें बनाना उचित कहते हैं। स्वास्तिक चिह्न पर अभी खोज जारी है
(10). स्वस्तिक पोषक अन्य वेद मंत्रों में विशद् वर्णन मिलता है, यथा :-
स्वस्ति मित्रावरूणा स्वस्ति पथ्ये रेवंति।
स्वस्तिन इन्द्रश्चग्निश्च स्वस्तिनो अदिते कृषि॥
इसमें भी मित्र का अर्थ अनुराधा से लिया गया है। इसी प्रकार पूर्वाषाढ़ा का स्वामी वरूण है। रेवती एवं ज्येष्ठा का इन्द्र, कृत्तिका, विशाखा अग्नि और पुनर्वसु नक्षत्र का स्वामी अदिति है। रेवती से आठवाँ पुनर्वसु। पुनर्वसु से आठवाँ चित्रा, चित्रा से सातवाँ पूषा और पूषा से आठवाँ रेवती है।
उपरोक्त ऋचा में रेवती गणना क्रम से आता है। स्वस्तिक के चिह्न से सम्बंधित अन्य ऋचायें वेदों में वर्णित हैं। देखें सतिया के मध्य में जो शून्य बिन्दु रख दिये जाते हैं वे अनन्त ब्रह्माण्ड में अन्य तारा समूहों का संकेत करते हैं।

स्वास्तिक का चिन्ह जर्मन फ़ौजियों की वर्दी के साथ हिटलर की वर्दी पर भी देखा जा सकता था। सनातन धर्म में स्वास्तिक सर्वप्रथम पूज्य गणेशजी का प्रतीक है। इसीलिए स्वास्तिक चिन्ह शुभता का प्रतीक है।

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 NAV GRAH POOJAN नवग्रह पूजन

NAV GRAH POOJAN 
नवग्रह पूजन
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
Nine Grah-planets viz. Sun (Adity), Moon (Som), Mars (Angarak), Mercury (Budh), Jupiter (Brahaspati), Venus (Shukr), Rahu and Ketu. Rahu & Ketu are shadow planets. Prayers of these deities occur in the  :- Rig Ved, Atharv Ved & Sam Ved.
Enchantment of these poetic verses-Mantr is collectively termed as Nav Grah Pujan or Nav Grah Sukt. One recites these Shloks just as to fulfill his worldly desires-wishes.
सूर्य-आदित्य SUN :: Adity is the Sun-Sury Narayan  and is the son of Maharshi Kashyap and Aditi. He is strong, splendid, bold, regal, warlike, victorious and energetic. He travels in a chariot drawn by seven horses and his charioteer is Arun.
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। 
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ 
[यजुवेद 33.43, 34.31,ऋग्वेद 1.35.2, तैतिरीय संहिता 3.4.11.2]
अंधकार से प्रकाश की ले जाने के लिये सत्य निष्ठां हेतु, निर्जीव अथवा सजीव सभी में प्राणों का संचार करने हेतु सूर्य देव  स्वर्णमयी रथ में सवार होकर जगत को प्रकाशित करते हैं।
Moving through darkness with the light of truth, recognizing the mortal and immortal, borne in his golden chariot he comes, Savitar, God who gazes upon the worlds.
सूर्य SUN :: He illuminates the whole world & nourishes it.
ॐ आदित्यस्य नमस्कारान् हे कुरुवंतु दिने दिने।
आयुः प्रज्ञा बलम् वीर्यम् तेजस तेषान् च जायते॥
ॐ ह्राँ ह्री सः ॐ नमो भगवाते श्री सूर्याय नम:।
जपाकुसीमसका काश्यप्रयं सूहादयुतिम्। 
मतोऽस्मि दिवाकरम् तमोऽरिं संदण॥
जपा (जिसे अढ़ौल का फूल भी कहा जाता है) की भाँति जिसकी कान्ति है, कश्यप से जो उत्पन्न अन्धकार जिनका शत्रु है, जो सभी पापों को नष्ट कर देते हैं, उन सूर्य भगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ।
चन्द्र-सोम MOON :: Moon is the demigod God who rose from the ocean of milk when it was churned. He is inconsistent, amorous, charming, imaginative and poetical.
इमं देवा असपत्नं सुवध्यं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय।
इमममुष्य पुत्रममुष्ये पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा॥ [यजु. 10.18]
आ पयायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वर्ष्ण्यम। भवा वाजस्य संगथे॥ 
[ऋग्वेद 1.91.16; तैतरीय संहिता 3.2.5]
हे चंद्र देव! आपको हर दिशा से शक्ति की प्राप्ति हो।
Swell up, O Som! Let your strength be gathered from all sides. Be strong in the gathering of might.
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्। 
नमामि शशिनं सोमं शर्भोमुकूटभूषणम्॥
दही, शंख, हिम के समान जो दीप्तमान है, जो क्षीर सागर से उत्पन्न हुए हैं, जो भगवान् शिव के मुकुट के अलङ्कार बने हुए हैं, उन चन्द्रदेव को में प्रणाम करता हूँ।
स चित्र चित्रं चितयन्तमस्मे चित्रक्षत्र चित्रतमं वयोधाम।
चन्द्रं रयिं पुरुवीरं बर्हन्तं चन्द्र चन्द्राभिर्ग्र्णते युवस्व॥ 
हे (चित्र) अद्भुत गुण कर्म और स्वभाव वाले (चित्रक्षत्र) अदभुत राज्य वा धन से युक्त (चन्द्र) आह्लादकारक, जैसे (सः) वह विद्वान् (चन्द्राभिः) आनन्द और धन करने वाली प्रजाओं से (अस्मे) हम लोगों के लिये (चित्रम्) आश्चर्य्यभूत (चन्द्रम्) आनन्द देने वाले सुवर्ण आदि को (चितयन्तम्) जनाते हुए तथा (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्ययुक्त रूप और (वयोधाम) जीवन के धारण करने और बृहन्तम् बड़े (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के देने वाले (रयिम्) धन की (गुणते) स्तुति करता है, उस को आप (युवस्व) उत्तम प्रकार युक्त करिये।[ऋग्वेद  6.6.7]
Wondrous! Of wondrous power! I give to the singer wealth wondrous, outstanding, most wonderful, life-giving. Bright wealth, O Refulgent Divine Wisdom, vast, with many aspects, give understanding to your devotee.
चन्द्र स्तोत्र :: 
श्वेताम्बर: श्वेतवपु: किरीटी, श्वेतद्युतिर्दण्डधरो द्विबाहु:।
 चन्द्रो मृतात्मा वरद: शशांक:, श्रेयांसि मह्यं प्रददातु देव:॥1
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम। 
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम॥2
क्षीरसिन्धुसमुत्पन्नो रोहिणी सहित: प्रभु:।
हरस्य मुकुटावास: बालचन्द्र नमोsस्तु ते॥3॥
सुधायया यत्किरणा: पोषयन्त्योषधीवनम।
सर्वान्नरसहेतुं तं नमामि सिन्धुनन्दनम॥4
राकेशं तारकेशं च रोहिणीप्रियसुन्दरम।
ध्यायतां सर्वदोषघ्नं नमामीन्दुं मुहुर्मुहु:॥5 
इति मन्त्रमहार्णवे चन्द्रमस: स्तोत्रम।  
भौम-मंगल, अङ्गारक MARS :: Mars also called as Kuj and Angarak. He is a soldier, crafty, unscrupulous and tyrannical.
अग्निमूर्धा दिव: ककुत्पति: पृथिव्या अयम्। 
अपां रेतां सि जिन्वति[यजु. 3.12]
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्। 
कुमारं शक्तिहस्तं तं (च) मङ्गलं प्रणाम्यहम्॥
पृथ्वी के गर्भ से जिनकी उत्पत्ति हुई है, विद्युत के समान जिनकी प्रभा है,जो हाथो में शक्ति धारण किये हुए है, उन मङ्गलदेव को में प्रणाम करता हूँ।
बुध MERCURY :: Mercury is the illicit son of Moon and Guru Brahaspati’s wife Tara. He is speculative scientific, skilful.
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेधामयं च। 
अस्मिन्त्सधस्‍थे अध्‍युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यशमानश्च सीदत[यजु. 15.54] 
प्रियंगलिकॉश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्य सौम्य रणोपेतं तं बुधं प्रणाम्यहेम्॥ 
प्रियंगु की काली के जैसे जिनका परिणामतर्ण) है, जिनके रूपको किसी भी तरह वर्णित नहीं किया जाता ऐसा है (जिनकी कोई उपमा ही।) उन सौम्य और सोम्य गुणों से युक्त बुध को में प्रणाम करता हूँ।
गुरु-बृहस्पति JUPITER :: Jupiter is and the son of Mahrshi  Angiras.  He is Dev Guru, teacher, Purohit, guide of demigods. He is religious learned, and philosopher, wise and a statesman.
बृहस्पति युद्ध के देवता और देवगुरु-पुरोहित भी हैं। उनमें ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों की चरित्रगत विशेषताएँ पायी जाती हैं। इसकी पीठकाली तथा शृंग तीक्ष्ण हैं। बृहस्पति स्वर्णिम वर्ण के हैं। यह शस्त्र के रूप में धनुष-बाण तथा परशु धारण करते हैं।उनको वज्रिन भी कहा गया है। वे युद्ध में इन्द्र की सहायता करते हैं। इन के बिना कोई भी यज्ञ कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। बृहस्पति मनुष्यों को उत्तम वय, सौभाग्य प्रदान करते हैं। उनको पृष्ठ, ब्रह्मणस्पति, शक्तिपुत्र, सुगोपाः, मरुत्संखा, द्युतिमान्, गणपति वाचस्पति भी कहा गया है।
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन्।
सप्तास्यस्तु वि जातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत् तमांसि
जब बृहस्पति ने महान् प्रकाश वाले परम व्योम (आकाश) में पहले-पहले जन्म लिया, तो सात मुख वाले, ध्वनि के साथ विभिन्न रूपों वाले (संयुक्त) और सात किरणों वाले ने अँधेरे को पराजित किया।[ऋग्वेद 4.50.4; अथर्ववेद 20.88]
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानस्तिष्यं नक्षत्रमभिसम्बभूव।
श्रेष्ठो देवानां पृतनासु जिष्णुः दिशोSनुसर्वा अभयं नो अस्तु
पहली बार प्रकट होते हुए बृहस्पति तिष्य (पुष्य) नक्षत्र के सामने प्रकट हुए। तिष्य और पुष्य दोनों एकार्थक है । तैत्तिरीय-ब्राह्मण में इसके देवता बृहस्पति है।[तैतरीय ब्राह्मण 3.1.1.5] 
बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। 
यद्दीदयच्छवस ऋतुप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्[यजु. 26.3]
देवानां च ऋषिणों च गुरुकाञ्चनसत्रिभम्। 
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥
जो स्वयं देवताओ और ऋषिओ के गुरु है, कंचन (सुवर्ण) के समान जिनकी प्रभा है, जो बुद्धिदाता है, तीनों लोको के प्रभु हैं, उन बृहस्पति को में प्रणाम करता हूँ।
शुक्र VENUS :: Shukr-Venus is the son of Bhragu. His mother’s name is Kavya. He was adopted as their Guru by the Asuras and he guided them in their wars with the demigods. He is self-willed, master of state craft, poet, thinker and philosopher.
पर वः शुक्राय भानवे भरध्वं हव्यं मतिं चाग्नये सुपूतम।
यो दैव्यानि मानुषा जनूंष्यन्तर्विश्वानि विद्मना जिगाति॥ 
[ऋग्वेद 7.4.1]
Bring forth your offerings to his refulgent splendour; your hymn as purest offering to Agni the mystic fire of wisdom who goes as messenger conveying all songs of men to the Gods in heaven.
अन्नात्परिस्त्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपित्क्षत्रं पय: सोमं प्रजापति:। 
ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु
[यजुवेद 19.75]
हिमहेम कुन्दमणोलाभ द्वेत्यानां परमं गुरुम्।  
सर्वशास्तप्रवक्तारं भार्गवं प्रणाम्यहम्॥
तुषार (हिम की तरह), कुन्द,मृणाल के समान जिनकी कान्ति है, जो दैत्यों के परम गुरु हैं, सब शास्त्रों के परमज्ञाता हैं, कुशल वक्ता हैं, उन शुक्रदेव को मैं में प्रणाम करता हूँ।
शनि SATURN :: Saturn is the son of Sun-the deity of light & wisdom. He is lame and moves slowly. He is cruel, vindictive, gloomy, immoral and destructive.
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु न:
[ऋग्वेद 10.9.4; अथर्वेद 1.6.1; यजुवेद 36.12]
हे शनिदेव! आप हमारे अनुकूल हों, हमें उत्तम स्वास्थ्य और शक्ति प्रदान करें।
May the seven cosmic principles be propitious for us; divine forces for our aid & bliss. Let them flow for us, for health and strength.
PROPITIOUS :: अनुकूल, मेहरबान, अनुग्राही; suited, favourable, compatible, congruent, congenial, clement, complaisant, merciful, tender hearted, regardful, merciful.
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। 
छायामात्त ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
नीलांजन के समय जिनकी दीप्ति है जो सूर्य नारायण के पुत्र हे, यमराज के को सूर्य की छाया से जिनकी उत्पत्ति हुई है, उन शनेछर दताको में प्रणाम करता हु (करती हु)
राहु RAHU-DRAGON HEAD :: He is the son of Mahrishi Kashyap and his Asur wife Sinhika. Bhagwan Shri Hari Vishnu chopped off his head while distributing Amrat (nectar, elixir) between the demigods & the demons as Mohini when he tried to get it by deceit. The Head constitutes  He is violent, headstrong, frank and furious.
कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठया वृता
[यजु. 36.4] 
अर्धकाय महावीर्य चन्द्रादित्यविमर्दनम्। 
सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणाम्यहम्॥ 
जिनका देह आधा है,जिनमे महान पराक्रम है,जो सूर्य चंद्र को भी परास्त कर सकते है जिनकी उत्पत्ति सिंहिका के गर्भ से हुई है उन राहु देवताको में प्रणाम करता हूँ।
केतु KETU DRAGON TAIL :: Torso of Rahu is Ketu. He is secretive. meditative and unsocial.
केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथा:
[यजुवेद 29.37, तैतरीय संहिता 7.4.20]
पलाशपुष्पसकाशं तारकाग्रहमस्तकम्। 
रौद्र रौद्रात्मकं धोरं त केतुं प्रणाम्यहम्॥ 
पलाश के पुष्प की तरह जिनकी देहकान्ति हे,जो सभी तारकाओं में श्रेष्ठ है जो स्वयं रोद्र और रोद्रात्मक है। ऐसे घोत रूपधारी केतु देवता को में प्रणाम करता हूँ।
फूलश्रुति :: 
इति व्यासमखोद्गीत यूँ: पठेत् समाहित:। 
दिवा वा वा रात्रौ विघशान्तिर्भविष्यति॥
व्यास के मुखसे निकत हु स्तोत्र को सावधानी पूर्वक दिन या रात्रि के समय पाठ करता हे उसकी सारी बाधार्य शांत हो जाती है। विघ्न शान्त हो जाते है।
नर्नारीनपाणां च भवेद दुःस्वप्नाशनम्। 
ऐश्वर्यमर्तुलं तेषामारोग्य पुष्टिवर्धनम्॥
समग्र संसार के सभी लोग स्त्री-पुरुष और राजाओं के भी दुःस्वप्नो के दोप दूर हो जाते है। इसका पाठ करने से अपार ऐश्वर्य और आरोग्य प्राप्त होता है। पुष्टि वृद्धि होती है।
नव ग्रह सूक्त NAV GRAH SUKT :: ग्रहों से होने वाली पीड़ा का निवारण करने के लिए इस स्तोत्र का पाठ अत्यंत लाभदायक है। इसमें सूर्य से लेकर हर ग्रहों से क्रमश: एक-एक श्लोक के द्वारा पीड़ा दूर करने की प्रार्थना की गई है :-
ग्रहाणामादिरात्यो लोकरक्षणकारक:। 
विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे रवि:॥
रोहिणीश: सुधा‍मूर्ति: सुधागात्र: सुधाशन:। 
विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे विधु:॥
भूमिपुत्रो महातेजा जगतां भयकृत् सदा। 
वृष्टिकृद् वृष्टिहर्ता च पीड़ां हरतु में कुज:॥ 
उत्पातरूपो जगतां चन्द्रपुत्रो महाद्युति:। 
सूर्यप्रियकरो विद्वान् पीड़ां हरतु मे बुध:॥ 
देवमन्त्री विशालाक्ष: सदा लोकहिते रत:। 
अनेकशिष्यसम्पूर्ण:पीड़ां हरतु मे गुरु:॥
दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महामति:। 
प्रभु: ताराग्रहाणां च पीड़ां हरतु मे भृगु:॥
सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:। 
मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु मे शनि:॥
अनेकरूपवर्णेश्च शतशोऽथ सहस्त्रदृक्। 
उत्पातरूपो जगतां पीडां पीड़ां मे तम:॥
महाशिरा महावक्त्रो दीर्घदंष्ट्रो महाबल:। 
अतनुश्चोर्ध्वकेशश्च पीड़ां हरतु मे शिखी:॥
 नवग्रह स्तोत्र ::
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्। 
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणम्॥
धरणीगर्भ संभूतं विद्युत्कांति समप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मंगलं प्रणाम्यहम्॥ 
प्रियंगुकलिकाश्यामं रुपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥
देवानांच ऋषीनांच गुरुं कांचन सन्निभम्। 
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥
हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥
नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥ 
अर्धकायं महावीर्यं चंद्रादित्य विमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रह मस्तकम्। 
रौद्रंरौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥ 
इति श्रीव्यासमुखोग्दीतम् यः पठेत् सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्न शांतिर्भविष्यति॥ 
नरनारी नृपाणांच भवेत् दुःस्वप्ननाशनम्।
ऐश्वर्यमतुलं तेषां आरोग्यं पुष्टिवर्धनम्॥
ग्रहनक्षत्रजाः पीडास्तस्कराग्निसमुभ्दवाः।
ता सर्वाःप्रशमं यान्ति व्यासोब्रुते न संशयः॥ 
इति श्रीव्यास विरचितम् आदित्यादी नवग्रह स्तोत्रं संपूर्णं। 
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PRAYER RULES पूजा विधान 

PRAYER RULES पूजा विधान 

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नमः 

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परम्परा आदि काल से चली आ रही है। अधिकांश हिन्दु इस परम्परा  को निभाते हैं। पूजन से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु पूजा करते समय शास्त्र में वर्णित कुछ सावधानियाँ-नियमों का पालन भी किया जाता है।
पूजा पाठ सम्बन्धी सामान्य नियम ::
(1). सूर्य, गणेश,दुर्गा,शिव एवं विष्णु ये पाँच देव कहलाते हैं। इनकी पूजा सभी कार्यों में गृहस्थ आश्रम में नित्य होनी चाहिए। इससे धन-लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।
(2). गणेश जी महाराज और भैरव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।
(3). दुर्गा जी को दूर्वा नहीं चढ़ानी चाहिए।
(4). सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।
(5). तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोडना चाहिए। जो लोग बिना स्नान किये तोड़ते हैं, उनके तुलसी पत्रों को भगवान स्वीकार नहीं करते हैं।
(6). रविवार, एकादशी, द्वादशी,संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए।मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें।
(7). दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।
(8). केतकी का फूल भगवान् शंकर को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(9).  कमल का फूल पाँच रात्रि तक उसमें जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(10). बिल्व पत्र दस रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(11). तुलसी की पत्ती को ग्यारह रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।
(12). हाथों में रख कर हाथों से फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।
(13). ताँबे के पात्र में चंदन नहीं रखना चाहिए।
(14). दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए; जो दीपक से दीपक जलाते हैं, वो रोगी होते हैं।
(15). पतला चंदन देवताओं को नहीं चढ़ाना चाहिए।
(16). प्रतिदिन की पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए। दक्षिणा में अपने दोष, दुर्गुणों को छोड़ने का संकल्प लें, अवश्य सफलता मिलेगी और मनोकामना पूर्ण होगी।
(17). चर्मपात्र या प्लास्टिक पात्र में गंगाजल नहीं रखना चाहिए।
(18). स्त्रियों और शूद्रों को शंख नहीं बजाना चाहिए यदि वे बजाते हैं तो माता लक्ष्मी वहाँ से चली जाती हैं।
(19). देवी देवताओं का पूजन दिन में पाँच बार करना चाहिए। सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म बेला में प्रथम पूजन और आरती होनी चाहिए। प्रात: 9 से 10 बजे तक दिवितीय पूजन और आरती होनी चाहिए। मध्याह्र में तीसरा पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए शाम को चार से पाँच बजे तक चौथा पूजन और आरती होना चाहिए। रात्रि में 8 से 9 बजे तक पाँचवाँ पूजन और आरती। फिर शयन करा देना चाहिए।
(20). आरती करने वालों को प्रथम चरणों की चार बार, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार और समस्त अंगों की सात बार आरती करनी चाहिए।
(21). पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
(22). पूजा जमीन पर ऊनी आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए। पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक, एक घी का और एक तेल का रखें। पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
(23). पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें।
(24). पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
(25). गणेश जी महाराज या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें। अपने मदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें। खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरन्त हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है।
(26). मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है। अपने पूज्य माता-पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
(27). भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, भगवान् सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
(28). प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में कलश स्थापित करना चाहिए। कलश जल से पूर्ण, श्रीफल से युक्त विधिपूर्वक स्थापित करें। यदि घर में श्रीफल कलश उग जाता हैं, तो वहाँ सुख एवं समृद्धि के साथ स्वयं लक्ष्मी जी नारायण के साथ निवास करती हैं। तुलसी का पूजन भी आवश्यक है।
(29). मकड़ी के जाले एवं दीमक से घर को सर्वदा बचावें अन्यथा घर में भयंकर हानि हो सकती है।
(30). घर में झाड़ू कभी खड़ा कर के न रखें। झाड़ू लांघना, पाँव से कुचलना भी दरिद्रता को निमंत्रण देना है।  दो झाड़ू को भी एक ही स्थान में न रखें इससे शत्रु बढ़ते हैं।
(31). घर में किसी परिस्थिति में जूठे बर्तन न रखें। क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि रात में लक्ष्मी जी घर का निरीक्षण करती हैं। यदि जूठे बर्तन रखने ही हो तो किसी बड़े बर्तन में उन बर्तनों को रख कर उनमें पानी भर दें और ऊपर से ढक दें तो दोष निवारण हो जायेगा।
(32). कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा घर में नित्य अवश्य जलाना चाहिए, जिससे वातावरण अधिकाधिक शुद्ध हो और वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।
(33). घर में नित्य घी का दीपक जलावें और सुखी रहें। कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
(34). घर में नित्य गोमूत्र युक्त जल से पोंछा लगाने से घर में वास्तुदोष समाप्त होते हैं तथा दुरात्माएँ हावी नहीं होती हैं।
(35). सेंधा नमक घर में रखने से सुख श्री(लक्ष्मी) की वृद्धि होती है ।
(36). रोज पीपल वृक्ष के स्पर्श से शरीर में रोग प्रतिरोधकता में वृद्धि होती है। बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
(37). साबुत धनिया, हल्दी की पाँच गाँठें, 11 कमलगट्टे तथा साबुत नमक एक थैली में रख कर तिजोरी में रखने से बरकत होती है, श्री (लक्ष्मी) व समृद्धि बढ़ती है।
(38). दक्षिणावर्त शंख जिस घर में होता है, उसमें साक्षात लक्ष्मी एवं शांति का वास होता है वहाँ मंगल ही मंगल होते हैं। पूजा स्थान पर दो शंख नहीं होने चाहिए।
(39). घर में यदा-कदा केसर के छींटे देते रहने से वहाँ धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। पतला घोल बनाकर आम्र पत्र अथवा पान के पते की सहायता से केसर के छींटे लगाने चाहिए।
(40). एक मोती शंख, पाँच गोमती चक्र, तीन हकीक पत्थर, एक ताम्र सिक्का व थोड़ी सी नागकेसर एक थैली में भरकर घर में रखें। इससे श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि होगी।
(41). आचमन करके जूठे हाथ सिर के पृष्ठ भाग में कदापि न पोंछें। इस भाग में अत्यंत महत्वपूर्ण कोशिकाएँ होती हैं।
(42). घर में पूजा पाठ व मांगलिक पर्व में सिर पर टोपी व पगड़ी पहननी चाहिए, रुमाल विशेष कर सफेद रुमाल शुभ नहीं माना जाता है।
पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजन :: मूर्ति के आकार और जातक में श्रद्धा-भक्ति के अनुरूप उसमें देवता का तत्त्व आता है। पूजादि संस्कारों के कारण भक्ति तत्त्व को जागृत किया जाता है। पूजन से देवता प्रसन्न होते हैं। देवता की कृपा पूजक को सुलभ हो जाती है। जातक में उपस्थित-विद्यमान रज-तम गुणों की मात्रा घटने से जातक की बुद्धि चैतन्य होती है।
पंचोपचार पूजन कृत्य ::
(1). देवता को गंध (चंदन) लगाना तथा हलदी-कुमकुम चढाना :- सर्वप्रथम, देवता को अनामिका से (कनिष्ठिका के समीप की उंगलीसे) चंदन लगाएं । इसके उपरांत दाएं हाथ के अंगूठे और अनामिका के बीच चुटकीभर पहले हलदी, फिर कुमकुम देवता के चरणों में अर्पित करें ।
(2). देवता को पत्र-पुष्प (पल्लव) चढाना :- देवता को कागद के (कागज के), प्लास्टिक के इत्यादि कृत्रिम तथा सजावटी पुष्प न चढाएं, अपितु नवीन (ताजे) और सात्विक पुष्प चढाएं । देवता को चढाए जानेवाले पत्र-पुष्प न सूंघें । देवता को पुष्प चढाने से पूर्व पत्र चढाएं। विशिष्ट देवता को उनका तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करनेवाले विशिष्ट पत्र-पुष्प चढाएं, उदा. शिवजी को बिल्वपत्र तथा श्री गणेशजी को दूर्वा और लाल पुष्प । पुष्प देवता के सिर पर न चढाएं; चरणों में अर्पित करें । डंठल देवता की ओर एवं पंखुडियां (पुष्पदल) अपनी ओर कर पुष्प अर्पित करें ।
(3). देवता को धूप दिखाना (अथवा अगरबत्ती दिखाना) :- देवता को धूप दिखाते समय उसे हाथ से न फैलाएं । धूप दिखाने के उपरांत विशिष्ट देवता का तत्त्व अधिक मात्रा में आकर्षित करने हेतु विशिष्ट सुगंध की अगरबत्तियों से उनकी आरती उतारें, उदा. शिवजी को हीना से तथा श्री लक्ष्मीदेवी की गुलाब से ।
धूप दिखाते समय तथा अगरबत्ती घुमाते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं ।
(4). देवता की दीप-आरती करना :- दीप-आरती तीन बार धीमी गति से उतारें । दीप-आरती उतारते समय बाएं हाथ से घंटी बजाएं।
दीप जलाने के संदर्भ में ध्यान में रखने योग्य सूत्र
(4.1). दीप प्रज्वलित करने हेतु एक दीप से दूसरा दीप न जलाएं ।
(4.2). तेल के दीप से घी का दीप न जलाएं ।
(4.3). पूजाघरमे प्रतिदिन तेल के दीप की नई बाती जलाएं ।
(5); देवता को नैवेद्य निवेदित करना :- नैवेद्य के पदार्थ बनाते समय मिर्च, नमक और तेल का प्रयोग अल्प मात्रा में करें और घी जैसे सात्विक पदार्थों का प्रयोग अधिक करें । नैवेद्य के लिए सिद्ध (तैयार) की गई थाली में नमक न परोसें। देवता को नैवेद्य निवेदित करने से पहले अन्न ढककर रखें । नैवेद्य समर्पण में सर्वप्रथम इष्टदेवता से प्रार्थना कर देवता के समक्ष भूमि पर जल से चौकोर मंडल बनाएं तथा उस पर नैवेद्य की थाली रखें । नैवेद्य समर्पण में थाली के सर्व ओर घडी के कांटे की दिशा में एक ही बार जल का मंडल बनाएं । पुनः विपरीत दिशा में जल का मंडल न बनाएं । नैवेद्य निवेदित करते समय ऐसा भाव रखें कि ‘हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य देवतातक पहुंच रहा है तथा देवता उसे ग्रहण कर रहे हैं।
देव पूजन के उपरांत किए जानेवाले कृत्य :: यद्यपि पंचोपचार पूजन में ‘कर्पूरदीप जलाना’ यह उपचार नहीं है, तथापि कर्पूर की सात्विकता के कारण उस का दीप जलाने से सात्विकता प्राप्त होने में सहायता मिलती है । अतएव नैवेद्य दिखाने के उपरांत कर्पूरदीप जलाएं । fशंखनाद कर देवता की भावपूर्वक आरती उतारें । आरती ग्रहण करने के उपरांत नाक के मूल पर (आज्ञाचक्र पर) विभूति लगाएं और तीन बार तीर्थ प्राशन करें । अंत में प्रसाद ग्रहण करें तथा उसके उपरांत हाथ धोएं ।
षोडशोेपचार पूजन :: 
(1). देवता का आवाहन-बुलाना :- देवता अपने अंग, परिवार, आयुध और शक्तिसहित पधारें तथा मूर्ति में प्रतिष्ठित होकर हमारी पूजा ग्रहण करें, इस हेतु संपूर्ण शरणागत भाव से देवता से प्रार्थना करना अर्थात् उनका `आवाहन करना। आवाहन के समय हाथ में चंदन, अक्षत एवं तुलसीदल अथवा पुष्प लें।
आवाहन के उपरांत देवता का नाम लेकर अंत में ‘नमः’ बोलते हुए उन्हें चंदन, अक्षत, तुलसीदल अथवा पुष्प अर्पित कर हाथ जोडें।
देवता के रूप के अनुसार उनका नाम लें यथा श्री गणपति के लिए श्री गणपतये नमः।माँ भवानी के लिए ‘श्री भवानी देव्यै नमः। तथा विष्णु पंचायतन के लिए (पंचायतन अर्थात् पांच देवता; विष्णु पंचायतन के पांच देवता हैं, श्री हरि विष्णु, शिव, श्री गणेश, देवी तथा सूर्य) श्री महाविष्णु प्रमुख पंचायतन देवताभ्यो नमः, कहें।
(2). देवता को आसन :- देवता के आगमन पर उन्हें विराजमान होने के लिए सुंदर आसन दिया है, ऐसी कल्पना कर विशिष्ट देवता को प्रिय पत्र-पुष्प; यथा श्री गणेश जी को दूर्वा, शिव जी को बेल, श्री हरि विष्णु को तुलसी अथवा अक्षत अर्पित करें ।
(3). पाद्य-पाद प्रक्षालन :-  देवता को ताम्रपात्र में रखकर उनके चरणों पर आचमनी से जल चढाएं।
(4). हस्त-प्रक्षालन :- आचमनी में जल लेकर उसमें चंदन, अक्षत तथा पुष्प डालकर, उसे मूर्ति के हाथ पर चढाएं।
(5). मुख-प्रक्षालन :- आचमनी में कर्पूर-मिश्रित जल लेकर, उसे देवता को अर्पित करने के लिए ताम्रपात्र में छोड़ें।
(6). स्नान-देवता पर जल चढाना :- धातु की मूर्ति, यंत्र, शालग्राम इत्यादि हों, तो उन पर जल चढाएं। मिट्टी की मूर्ति हो, तो पुष्प अथवा तुलसी दल से केवल जल छिड़कें। चित्र हो, तो पहले उसे सूखे वस्त्र से पोंछ लें। तदुपरांत गीले कपड़े से पुनः सूखे कपडे से पोंछें। देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछने के लिए प्रयुक्त वस्त्र स्वच्छ हो। वस्त्र नया हो, तो एक-दो बार पानी में भिगोकर तथा सुखाकर प्रयोग करें। अपने कंधे के उपरने से अथवा धारण किए वस्त्र से देवताओं को न पोंछें।
(6.1). पंचामृत से स्नान के अंतर्गत दूध, दही, घी, मधु तथा शक्कर से क्रमानुसार स्नान करवाएं। एक पदार्थ से स्नान करवाने के उपरांत तथा दूसरे पदार्थ से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं यथा दूध से स्नान करवाने के उपरांत तथा दही से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं।
(6.2). देवता को चंदन तथा कर्पूर-मिश्रित जल से स्नान करवाएं।
(6.3). आचमनी से जल चढाकर सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाएं ।
(6.4). देवताओं को उष्णोदक से स्नान करवाएं। उष्णोदक अर्थात् अत्यधिक गरम नहीं, वरन् गुनगुना पानी ।
(6.5). देवताओं को सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाने के उपरांत गुनगुना जल डालकर महाभिषेक स्नान करवाएं। महाभिषेक करते समय देवताओं पर धीमी गति की निरंतर धारा पडती रहे, इसके लिए अभिषेक पात्र का प्रयोग करें। संभव हो तो महाभिषेक के समय विविध सूक्तों का उच्चारण करें।
(6.6). महाभिषेक के उपरांत पुनः आचमन के लिए ताम्रपात्र में जल छोडेें तथा देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछकर रखें।
(7). देवता को वस्त्र देना :-  देवताओं को कपास के दो वस्त्र अर्पित करें। एक वस्त्र देवता के गले में अलंकार के समान पहनाएं तथा दूसरा देवता के चरणों में रखें।
(8). देवता को उपवस्त्र अथवा यज्ञोपवीत (जनेऊ देना) अर्पित करना :-  पुरुष देवताओं को यज्ञोपवीत (उपवस्त्र) अर्पित करें।
(9). पंचोपचार अर्थात देवता को गंध (चंदन) लगाना।
(10). पुष्प अर्पित करना।
(11). धूप दिखाना अथवा अगरबत्ती से आरती उतारना।
(12). दीप-आरती करना तथा नैवेद्य निवेदित करना।
(13). नैवेद्य दिखाने के उपरांत दीप-आरती और तत्पश्चात् कर्पूर-आरती करें ।
(14). देवता को मनः पूर्वक नमस्कार करना। 
(15). परिक्रमा करना :- नमस्कार के उपरांत देवता के सर्व ओर परिक्रमा करें। परिक्रमा करने की सुविधा न हो, तो अपने स्थान पर ही खड़े होकर तीन बार घूम जाएं।
(16). मंत्र-पुष्पांजलि :- परिक्रमा के उपरांत मंत्रपुष्प-उच्चारण कर, देवता को अक्षत अर्पित करें। तदुपरान्त पूजा में ज्ञात-अज्ञात चूकों तथा त्रुटियों के लिए अंत में देवतासे क्षमा मांगें और पूजा का समापन करें।
अंत में विभूति लगाएं, तीर्थ प्राशन करें और प्रसाद ग्रहण करें।
सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए देवी-देवताओं के पूजन की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। अधिकांश हिन्दु  में लोग इस परंपरा को निभाते हैं। पूजन से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। पूजन का शुभ फल पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु पूजा करते समय शास्त्र में वर्णित कुछ सावधानियाँ-नियमों का पालन भी किया जाना चाहिए।  
कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए। जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलाते हैं, वे रोगी होते हैं।
बुधवार और रविवार को पीपल के वृक्ष में जल अर्पित नहीं करना चाहिए।
पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखकर करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में पूजा अवश्य करें।
पूजा के लिए आसन रुरु मृग चरम, चीते की खाल, मृग चर्म, मूँज की चटाई या फिर ऊनी हो।
घर के मंदिर में सुबह एवं शाम एक दीपक घी का और एक दीपक तेल का जलाना चाहिए।
पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद उसी स्थान पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ अवश्य करनी चाहिए।
रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए। मासिक धर्म की स्थिति में महिलायें तुलसी से दूर ही रहें। 
भगवान् की आरती करते समय भगवान् के श्री चरणों की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान् के समस्त अंगों की कम से कम सात बार आरती करनी चाहिए।
पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहियें। इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, माता सरस्वती, माता लक्ष्मी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।
गणेश जी या देवी की प्रतिमा तीन-तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की सँख्या में कदापि न रखें।
मंदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें। उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें एवं खण्डित, जली-कटी-फ़टी  फोटो और टूटा काँच तुरंत हटा दें। खंडित मूर्तियों की पूजा वर्जित की गई हैं। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे पूजा के स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र बहती नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित मूर्तियों की पूजा अशुभ मानी गई है। 
मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है।  अपने पूज्य माता–पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें। उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।
भगवान् विष्णु की चार, गणेश जी की तीन, सूर्य की सात, माता भगवती दुर्गा की एक एवं भगवान् शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।
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  FORMS OF PRAYERS पूजा-अर्चना की विधियाँ

 FORMS OF PRAYERS पूजा-अर्चना की विधियाँ

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नमः। 

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
पूजा अर्चना :: ईश्वर से जुड़ने के लिए सबसे सरल माध्यम है पूजा। पूजा के लिए कर्मकांड आवश्यक नहीं है। भगवान् का नाम कभी भी, कहीं भी लिया जा सकता है। रामायण, महा भारत, गीता, पुराण, उपनिषद का पढ़ना भी पूजा है। भगवान् की कथा-चरित्र को सुनना भी पूजा ही है। मन्दिर में जाना जरूरी नहीं है। इसके लिये धन की आवश्यकता भी नहीं है-नहाने-धोने-शुद्धि की भी आवश्यकता नहीं है। पूजा से मनुष्य में मन पर काबु, अनुशासन, परिश्रम, धर्य और दूरदर्शिता जैसे गुणों का विकास हो जाता है।सूर्य को अर्ध्य दिया जाना, तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाना, गाय को गोग्रास देना, माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करना, मन्दिर में जाने का नाम पूजा नहीं बल्कि एक नियम-क्रम है। सच्चे-सरल शुद्ध ह्रदय से नाम लेना-स्मरण करना ही पर्याप्त है।  हाँ यदि धन है, समय है, नियत है तो कर्मकाण्ड-विधि, का पालन अवश्य करिये। पूजा-पाठ के लिये दुःख-दर्द, परेशानी आने का इन्तज़ार करना जरूरी नहीं है। तीर्थ यात्रा, पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान भी पूजा है।  अगर मन सच्चा है तो पूजा फल अवश्य देगी। निस्वार्थ पूजा, भक्ति भाव का महत्व तो बहुत ही ज्यादा है। मनुष्य किसी भी वर्ण, कुल-गोत्र, क्षेत्र, देश, लोक में जन्म हो सच्चे मन से पूजा अवश्य करे।
अग्नि में आहुति-हवन-भोग आदि के कर्म में यज्ञ भी मात्र पाँच तरह के होते हैं:- (1). ब्रह्मयज्ञ, (2). देवयज्ञ, (3). पितृयज्ञ, (4). वैश्वदेव यज्ञ, (5). अतिथि यज्ञ। इनकी प्रकृति का निर्धारण आवश्यकताओं के अनुरूप है।
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ :: निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बन्धन मुक्त हो जाता है।
(1). ब्रह्म यज्ञ :: प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना।
(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ :: सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ :: असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।
(4). संयम रूप यज्ञ :: एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना।
(5). विषय हवन रूप यज्ञ :: व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना।
(6). समाधिरूप यज्ञ ::मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना।
(7). द्रव्य यज्ञ :: सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना।
(8). तपो यज्ञ :: अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि :: असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना।
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ :: दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना।
(11). प्राणायम रूप यज्ञ :: पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना।
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ :: नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना।
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ में स्वतः हो जाती है।
होम, यज्ञ या हवन आदि में यज्ञ कुण्ड की आकृति :: यज्ञ-अग्निहोत्र, हवन के लिए अग्नि कुण्ड-यज्ञ कुण्ड की आवश्यकता पड़ती है। यज्ञ विधि के अनुरूप ही यज्ञ कुण्ड का निर्माण किया जाता है। यज्ञ के प्रयोजन के अनुरूप मुख्यत: आठ प्रकार के यज्ञ कुण्ड प्रयोग में लए जाते हैं।
(1). योनी कुण्ड  :- योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु।
(2). अर्ध चंद्राकार कुण्ड :- परिवार में सुख-शान्ति हेतु। पति-पत्नी दोनों को एक साथ आहुति देनी चाहिये।
(3. त्रिकोण कुण्ड  :- शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु।
(4). वृत्त कुण्ड  :- जन कल्याण और देश में शान्ति  हेतु।
(5). सम अष्टास्त्र कुण्ड :- रोग निवारण हेतु।
(6). सम षडास्त्र कुण्ड :- शत्रुओं में परस्पर लड़ाई-झगड़े करवाने हेतु।
(7). चतुष् कोण स्त्र कुण्ड :- सर्व कार्य की सिद्धि हेतु।
(8). पदम कुण्ड :- तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु।
सामान्य पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन के लिए चतुर्वर्ग के आकार के कुण्ड का ही प्रयोग करना चाहिये।
मन्दिर-देव प्रतिमा और ध्यान साधना :: मूर्ति और मन्दिर भगवान् के प्रतीक हैं। ईश्वर सर्वव्यापी है और इस प्रकार मूर्ति में भी है। यह मनुष्य को ध्यान लगाने में मदद करते हैं। मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा-आराधना मनुष्य को शक्ति से जोड़ देती है। मन्दिर का निर्माण पूर्णतया वास्तु शास्त्र के अनुरूप हो तो वह परमात्मा के शरीर का प्रतीक बन जाता है। गर्भ गृह-सर, गोपुरा-मुख्य द्वार चरण, शुकनासी-नाक, अंतराला-निकलने की जगह गर्दन, प्राकर-ऊँची दीवारें, इन्हें शरीर के हाथ और ह्रदय या दिल में ईश्वर की मूर्ति के समान समझना चाहिये। इसी प्रकार मानव शरीर भी ईश्वर का प्रतिरूप ही है।
NAMING STATUES-IDOLS :: They are broadly classified into five categories :- Swayam-Vyakt, Dev, Arsh or Siddh, Pauranik and Manush. The difference is based on who installed the deity in a given temple. The images installed by divinities like Brahm, Indr etc. are known as Devsthal. Images installed by great sages are known as Arshsthal and by Siddh are known as Siddhsthal. Images installed in the ancient days and are mentioned in the epics are known as Pauraniksthal. Images installed by the devout human beings are known as Manushsthal.
OFFERINGS OF A TEMPLE मन्दिर का चढ़ावा :: भक्त और भगवान् के बीच की कड़ी मन्दिर, धर्म स्थल, तीर्थ स्थल हैं। भारत में करोणों की तादाद में श्रद्धालुगण अपनी भक्ति भावना का इज़हार प्रतिदिन नियमानुसार करते हैं। इसके लिए उन्हें मन्दिर मिले या ना मिले, वो अपनी श्रद्धा के सुमन-फूल, मन, वचन-क्रम, श्रद्धा, कर्म-कर्तव्य, सेवा के माध्यम से प्रभु को अर्पित कर ही देते हैं। अक्सर लोग मन्दिरों में धन, सोना-चाँदी, जेवर, कीमती बहुमूल्य वस्तुएँ चढ़ा कर अपनी आरजू पूरी करने की अरदास करते हैं। कुछ लोग फल-फूल, मेवा-मिठाई अर्पित करते हैं। भारत में ऐसे हजारों मन्दिर हैं, जहाँ दैनिक चढ़ावा करोणों में चढ़ता है।
इस चढ़ावे की बन्दर बाँट, ट्रस्टी, पुजारियों, कर्मचारियों में हो जाती है। अक्सर झगड़ा होने पर हत्या, मुकदमे होते रहते हैं। मन्दिरों में चढ़ावे की बन्दर बाँट तिमाही, छमाही, चौथाई, माहवारी, देहाड़ी आदि आधारों पर होती आई है।
अपनी मनोकामना पूरी करवाने को लोग-बाग जो चढ़ावा चढ़ाते हैं, वो हारी-बीमारी, दुःख-दर्द, परेशानी-कष्ट, भूत-प्रेत से मुक्ति, सन्तान प्राप्ति, नौकरी, आकाँक्षा-इच्छा पूर्ति हेतु ही ज्यादातर होती हैं। मुक्ति-मोक्ष, धर्म की चाहत वाले भी उनमें शामिल होते हैं।
जो चढ़ावा धर्म-ईमान की कमाई का होता है, वही सार्थक होता है, शेष व्यर्थ।
चढ़ावे की कमाई खाने वालों के वारिसों को तरक्की करते शायद ही कभी देखा जाता है। बगैर कमाए खाना अवनति, निम्न लोकों में जाने का रास्ता है। शास्त्रों में वेतन लेकर पूजा करने वाले को अगले जन्म में चाण्डाल, हीन-निम्न योनियों में जाने वाला बताया जाता है।
उन यवन, मुसलमान, अँग्रेजों का वंश नाश हो गया, जो कि मन्दिरों में लूट-पाट के जिम्मेवार थे। उनका राजपाठ, ठाठ-बाट, दौलत-धन-शौहरत सब नष्ट हो गया। अहमद शाह अब्दाली, मोहम्मद गौरी, एलेक्सजेण्डर-सिकंदर (Alexander) आदि आदि सभी नर्कगामी हुए। बाबर, औरंगज़ेब भी उसी गति को प्राप्त हुए।
जो ब्राह्मण दान में प्राप्त हुए धन का सदुपयोग अपने और दूसरों की भलाई, हित रक्षा-चिन्तन में करता है, उसका और उसके कुल का नाश कभी होता। अपितु वह निरन्तर फलता-फूलता रहता है। सामर्थवान को कभी भी अनुग्रह, दान, बख्शीश नहीं लेनी चाहिये।
प्रसाद को कभी भी अकेले, बिना बाँटे नहीं खाना चाहिए। प्रसाद चावल के दाने के बराबर भी पर्याप्त होता है। प्रसाद देने में कभी हाथ नहीं रोकना चाहिए। प्रसाद देने में भेद-भाव, अन्तर-फ़र्क नहीं होना चाहिए।
दीन-दुःखी, गरीब-बीमार, बेआसरा, साधु, महात्मा, फकीर, ब्राह्मण, ज़रूरतमन्द को देने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए।
घर आये मेहमान की समुचित खातिरदारी निसंकोच करनी चाहिए। अतिथि सत्कार में कोई कोर-कसर बाकि नहीं रहनी चाहिए। हाँ पात्र-कुपात्र का ध्यान रखना जरूरी है।
कलियुग के आगमन के साथ भारतवासियों ने स्वाध्याय को लगभग छोड़ दिया। धर्म की बेतुकी व्याख्याएँ की जाने लगीं। बौद्ध अवतार के बाद तो हद ही गई। ऐरा-गेरा, नत्थू-खैरा भी स्वयं को विद्वान् बताने लगा। वेदाभ्यासी ब्राह्मणों की उपेक्षा-बेकद्री हो गई। नतीज़तन-जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें आक्रान्ता-आक्रमणकारी-लुटेरे भी अतिथि दिखने लगे और भारत वर्ष को 800 तक आधीनता का सामना करना पड़ा। अभी भी विधर्मी मुसलमान और ईसाई स्वयं को पण्डित कहकर राज कर रहे हैं। 
केरल, कर्नाटक जैसे प्रान्तों की विधर्मी सरकारों ने मन्दिरों के चढ़ावे को लूटकर मुसलमानों और ईसाइयों पर खर्च करना शुरू कर दिया।
5 FORMS OF PRAYER 5 प्रकार की पूजा ::
(1). अभिगमन :: देवता के स्थान को झाड़ बुहार के साफ रखना, उसे लीपना, रंग-रोगन, सफेदी करना, पहले चढ़े निर्माल्य को हटाना। यह सार्ष्टि नामक मुक्ति प्रदान करता है।
(2). उपादान :: पूजा के लिए चन्दन, गंध, पुष्प आदि पूजा-सामग्री का संग्रह का नाम उपादान है। यह सामीप्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
(3). योग :: अपने इष्टदेव के साथ अपनी आत्मभावना करना कि वे मुझ से भिन्न नहीं हैं; वे मेरी ही आत्मा हैं। यह सालोक्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
(4). स्वाध्याय :: इष्टदेव के मंत्र का अर्थानुसन्धान पूर्वक जप करना। सूक्त और स्त्रोत्र, वेदान्त शास्त्र आदि का पाठ, गुण, नाम, लीला, भगवान् का कीर्तन तथा भगवत्त तत्व आदि का प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों का अभ्यास भी स्वाध्याय कहलाता है। यह सायुज्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
(5). इज्या :: उपचारों द्वारा अपने आराध्य देव का यथार्थ विधि से पूजा करना। यह सारूप्य नामक मुक्ति प्रदान करता है।
भगवान् सदाशिव की पूजा-उपासना में एक रहस्य की बात है यह कि जहाँ एक ओर रत्नों से परिनिर्मित लिंगों की पूजा में अपार समारोह के साथ राजोपचार आदि विधियों से विशाल वैभव का प्रयोग होता है, वहीं सरलता की दृष्टि से, केवल जल, अक्षत, बिल्वपत्र ओर मिखावाद्य (मुख से बम-बम की ध्वनी) से भी परिपूर्णता मानी जाती है और भगवान् सदाशिव की कृपा उपलब्ध हो जाती है। इसीलिये वे आशुतोष और उदार शिरोमणि कहे हैं।
FIVE WAYS-METHODS-PROCEDURES TO OFFER PRAYER :: Naman, Smaran, Keertan, Yachna (याचना)  and Arpan (अर्पण, समर्पण). The five faces of Hanuman Ji Maha Raj depict these five forms. Shri Hanuman always used to Naman, Smaran and Keertan of Bhagwan Shri Ram. He surrendered (Arpan, Samarpan) to his Master Shri Ram. He also begged (Yachna) Shri Ram to bless him the undivided love.
Prayer  to the deities, God, saints or the holy places-temples can be performed in five different ways. One can clean, sweep, broom the holy place-shrine, statues and change the deity’s clothing. Offering of sandalwood paste, Kum-Kum and other items utilized for prayers, do include prayer. Thinking-identifying of the deities-Almighty considering him to be none other than one self, is also a pure form of prayer. Recitation of verses, prayers is a virtuous-pious-righteous form of worship. Performing various acts like sacrifices, Hawan, Agnihotr-igniting incense sticks-dhoop-visiting holy places-pilgrimage-bathing in holy rivers ponds-sacred ocean, offerings made for the sake of the poor-downtrodden, pity on all living beings, donation for social cause, too is a part and partial of prayers. Any of these performed with purity of heart-dedication-concentration under the asylum of the God grants Salvation.
पंचकोशी साधना ::
गायत्री के पाँच मुख-पाँच दिव्य कोश :: अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश। पंचकोशी साधना ध्यान गायत्री की उच्च स्तरीय साधना है। पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पाँच मुख मानवीय चेतना के पाँच आवरण हैं। इनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोश या पाँच खजाने भी कह सकते हैं। मनुष्य की अन्तःचेतना में एक से एक बढ़ी-चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इनके जागने पर मानवीय सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँच जाती है और जगमगाती हुई दृष्टिगोचर होती है।
पंचकोश ध्यान धारणा के निर्देश में पाँच प्राण तत्त्व ::
पाँच प्राण :: चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान नामक पञ्च पर्ण करते हैं।
पाँच तत्त्व :: अग्नि, जल, वायु , आकाश और पृथ्वी यह पाँच तत्त्व काया, दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है।
पाँच देव :: भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन्हें क्रमशः बलिष्ठता, बुद्धिमता, उपार्जन शक्ति, अभिवर्धन, पराक्रम एवं परिवर्तन की प्रखरता कह सकते हैं। यही पाँच शक्तियाँ आत्मसत्ता में भी विद्यमान हैं और इस छोटे ब्रह्माण्ड को सुखी समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व सम्भालती हैं।
आत्म सत्ता के पाँच कलेवरों के रूप में पंचकोश को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है।
(1). अन्नमय कोश :: प्रत्यक्ष शरीर, जीवन शरीर। अन्नमयकोश ऐसे पदार्थों का बना है जो आँखों से देखा और हाथों से छुआ जा सकता है। अन्नमयकोश के दो भाग किये जा सकते हैं। एक प्रत्यक्ष अर्थात् स्थूल, दूसरा परोक्ष अर्थात् सूक्ष्म, दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण काया बनती है।
पंचकोश की ध्यान धारणा में जिस अन्नमयकोश का ऊहापोह किया गया है, वह सूक्ष्म है, उसे जीवन शरीर कहना अधिक उपयुक्त होगा। अध्यात्म शास्त्र में इसी जीवन शरीर को प्रधान माना गया है और अन्नमयकोश के नाम से इसी की चर्चा की गई है।
योगी लोगों का आहार-विहार बहुत बार ऐसा देखा जाता है जिसे शरीर शास्त्र की दृष्टि से हानिकारक कहा जा सकता है फिर भी वे निरोगी और दीर्घजीवी देखे जाते हैं, इसका कारण उनके जीवन शरीर का परिपुष्ट होना ही है। अन्नमय कोश की साधना जीवन शरीर को जाग्रत्, परिपुष्ट, प्रखर एवं परिष्कृत रखने की विधि व्यवस्था है।
जीवन-शरीर का मध्य केन्द्र नाभि है। जीवन शरीर को जीवित रखने वाली ऊष्मा और रक्त की गर्मी जो सच्चार का कारण है और रोगों से लड़ती है, उत्साह स्फूर्ति प्रदान करती है, यही ओजस् है।
ध्यान धारणा :: ध्यान धारणा में श्रद्धा और सङ्कल्प के साथ साधक ऐसी भावना-कल्पना करे कि साक्षात् सविता देव-भगवान् सूर्य नाभि चक्र में अग्नि के माध्यम से सारे शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। जीवन शरीर में ओजस् का उभार और व्यक्तित्व में नव जीवन का सच्चार हो रहा है। पहले की अपेक्षा सक्रियता बढ़ गई है, उदासी दूर हुई है और उत्साह एवं स्फूर्त में उभार आया है।
(2). प्राणमय कोश :: जीवनी शक्ति। जीवित मनुष्य में आँका जाने वाला विद्युत् प्रवाह, तेजोवलय एवं शरीर के अन्दर एवं बाह्य क्षेत्र में फैली हुई जैव विद्युत् की परिधि को प्राणमय कोश कहते हैं। शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता प्राण विद्युत् के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है।
चेहरे पर चमक, आँखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस एवं प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत्प्रवाह का उपयुक्त मात्रा में होना है। इसे ही प्रतिभा अथवा तेजस् कहते हैं। शरीर के इर्दगिर्द फैला हुआविद्युत् प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। यही प्राण विश्वप्राण के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसे पात्रता के अनुरूप जितना अभीष्ट है, प्राप्त कर सकते हैं।
ध्यान धारणा :: सविता शक्ति मूलाधार चक्र के माध्यम से प्राणमय कोश में प्रवेश और संव्याप्त हो रही है। सविता की विद्युत् शक्ति काया में संव्याप्त बिजली के साथ मिलकर उसकी क्षमता असंख्य गुना बढ़ा देती है। साधक ध्यान करे कि उसके कण-कण में, नस-नस में, रोम-रोम में सविता से अवतरित विशिष्ट शक्ति का प्रवाह गतिशील हो रहा है। आत्मसत्ता प्राण विद्युत् से ओत-प्रोत एवं आलोकित हो रही है। यह दिव्य विद्युत् प्रतिभा बनकर व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना रही है, पराक्रम और साहस का जागरण हो रहा है।
(3). मनोमय कोश :: विचार बुद्धि, विवेकशीलता। मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। इसमें मन, बुद्धि और चित्त तीनों का संगम है।
मन कल्पना करता है। बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुँचाती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं, जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है।
मनोमय कोश का प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र (भू्र मध्य) है। आज्ञाचक्र जिसे तृतीय नेत्र अथवा दूरदर्शिता कह सकते हैं, इसका जागरण एवं उन्मीलन करना मनोमय कोश की ध्यान धारणा का उद्देश्य है। आज्ञाचक्र की संगति शरीर शास्त्री पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ करते हैं।
ध्यान धारणा :: व्यक्ति को चेतना में उच्चस्तरीय प्रखरता उत्पन्न करने के लिए बह्मचेतना के समावेश की आवश्यकता पड़ती है। ब्रह्मसत्ता की उसी की विनिर्मित प्रतीक-प्रतिमा सूर्य है। उसकी सचेतन स्थिति सविता है, भावना करें कि सविता का प्रकाश आज्ञाचक्र, मस्तिष्क क्षेत्र से सम्पूर्ण शरीर मेंव्याप्त,मनोमय कोश में फैल रहा है।
आत्मसत्ता का समूचा चिन्तन, क्षेत्र, मनोमय कोश सविता की ज्योति एवं ऊर्जा से भर गया है। आत्मसत्ता की स्थिति ज्योति पुञ्ज एवं ज्योति पिण्ड बनने जैसी हो रही है। दृश्य में ज्योति का स्वरूप भावानुभूति में प्रज्ञा बन जाता है।
सविता के मनोमय कोश में प्रवेश करने का अर्थ है, चेतना का प्रज्ञावान् बनना, ऋतम्भरा से-भूमा से आलोकित एवं ओतप्रोत होना। इस स्थिति को विवेक एवं सन्तुलन का जागरण भी कह सकते हैं।
इन्हीं भावनाओं को मान्यता रूप में परिणत करना, श्रद्धा, निष्ठा एवं आस्था की तरह अन्य क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करना, यही है सविता शक्ति का मनोमय कोश में अवतरण। भावना करें कि प्रज्ञा-विवेक, सन्तुलन की चमक मस्तिष्क के हर कण में प्रविष्ट हो रही है, संकल्पों में दृढ़ता आ रही है।
(4). विज्ञानमय कोश :: भाव प्रवाह। विज्ञानमय कोश चेतन की तरह है जिसे अतीन्द्रिय- क्षमता एवं भाव संवेदना के रूप में जाना जाता है। विज्ञानमय और आनन्दमय कोश का सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से ब्रह्मचेतना से है।
सहानुभूति की संवेदना, सहृदयता और सज्जनता का सम्बन्ध हृदय से है। यही हृदय एवं भाव संस्थान अध्यात्म शास्त्र में विज्ञानमय कोश कहलाता है। परिष्कृत हृदय- चक्र में उत्पन्न चुम्बकत्व ही दैवी तत्त्वों को सूक्ष्म जगत् से आकर्षित करता और आत्मसत्ता में भर लेने की प्रक्रियाएँ सम्पन्न करता है।
श्रद्धा जितनी परिपक्व होगी-दिव्य लोक से अनुपम वरदान खिंचते चले आएँगे। अतीन्द्रिय क्षमता, दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म जगत् से अपने प्रभाव-पराक्रम पुरुषार्थ द्वारा अवतरित होता है।
ध्यान धारणा :: विज्ञानमय कोश में सविता प्रकाश का प्रवेश दीप्ति के रूप में माना गया है। दीप्ति प्रकाश की वह दिव्य धारा है, जिसमें प्रेरणा एवं आगे बढ़ने की शक्ति भी भरी रहती है, ऐसी क्षमता को वर्चस् कहते हैं। यह प्रेरणा से ऊँची चीज है।
प्रेरणा से दिशा प्रोत्साहन देने जैसा भाव टपकता है, किन्तु वर्चस् में वह चमक है जो धकेलने, घसीटने, फेंकने, उछालने की भी सामर्थ्य रखती है। नस-नस में रोम-रोम में दीप्ति का सच्चार, दीप्ति का प्रभाव, दिव्य भाव संवेदनाओं और अतीन्द्रिय ज्ञान के रूप में होता है।
दीप्ति की प्रेरणा से सद्भावनाओं का अभिवर्धन होता है और सहृदयता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ उभर कर आती हैं, ऐसी आस्था अन्तःकरण में सुदृढ़ अवस्था में होनी चाहिए। स्वयं को असीम सत्ता में व्याप्त फैला हुआ अनुभव करें। सहृदयता, श्रद्धा, दिव्य ज्ञान का विकास और स्नेह करुणा जैसी संवेदनाओं से रोमांच का शरीर में बोध हो रहा है।
(5). आनन्दमय कोश :: आनन्दमय कोश चेतना का वह स्तर है, जिनमें उसे अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती रहती है। आत्मबोध के दो पक्ष हैं :- (5.1). अपनी ब्राह्मी चेतना, बह्म सत्ता का भान होने से आत्मसत्ता में संव्याप्त परमात्मा का दर्शन होता है। (5.2). संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ अपने वास्तविक सम्बन्धों का तत्त्वज्ञान भी हो जाता है। इस कोश के परिष्कृत होने पर एक आनन्द भरी मस्ती छाई रहती है।
ईश्वर इच्छा मानकर प्रखर कर्त्तव्य परायण; किन्तु नितान्त वैरागी की तरह काम करते हैं। स्थितप्रज्ञ की स्थिति आ जाती है। आनन्दमय कोश की ध्यान धारणा से व्यक्तित्व में ऐसे परिवर्तन आरम्भ होते हैं, जिसके सहारे क्रमिक गति से बढ़ते हुए धरती पर रहने वाले देवता के रूप में आदर्श जीवनयापन कर सकने का सौभाग्य मिलता है।
ध्यान धारणा :: धारणा में सविता का सहस्रार मार्ग से प्रवेश करके समस्त कोश सत्ता पर छा जाने, ओत-प्रोत होने का ध्यान किया जाता है। यदि सङ्कल्प में श्रद्धा, विश्वास की प्रखरता हो, तो सहस्रार का चुम्बकत्व सविता शक्ति को प्रचुर परिमाण में आकर्षित करने और धारण करने में सफल हो जाता है।
इसकी अनुभूति कान्ति रूप में होती है। कान्ति सामान्यतः सौन्दर्य मिश्रित प्रकाश को कहते हैं और किसी आकर्षक एवं प्रभावशाली चेहरे को कान्तिवान् कहते हैं, पर यहाँ शरीर की नहीं आत्मा की कान्ति का प्रसङ्ग है।
इसलिए वह तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति के रूप में देखी जाती है। तृप्ति अर्थात् सन्तोष। तुष्टि अर्थात् प्रसन्नता। शान्ति अर्थात् उद्वेग रहित, सुस्थिर मनःस्थिति। यह तीनों वरदान, तीनों शरीरों में काम करने वाली चेतना के सुसंस्कृत उत्कृष्ट चिन्तन का परिचय देते हैं। स्थूल शरीर सन्तुष्ट, तृप्त। सूक्ष्म शरीर प्रसन्न, तुष्ट।
कारण शरीर शान्त समाहित, स्थिति में सहज मुसकान बनी रहती है, हलकी-सी मस्ती छायी रहती है।
सविता शक्ति के पंचकोश में प्रवेश करने और छा जाने की अनुभूति ऐसी गहरी और भावमय होनी चाहिए, जैसे प्रसन्नता की स्थिति में मन उल्लास से उभरता है या धूप में बैठने से शरीर गर्म होता है।

इच्छा पूर्ति हेतु देवराधना ::

ब्रह्म तेज़ या विशिष्ट ज्ञान-विद्या हेतु :: वृहस्पति 
इन्द्रियों की सन्तुष्टि-विशिष्ट शक्ति ::
 इन्द्र
अगले जन्म में संतान सुख :: प्रजापतियों का स्मरण
सुन्दर और आकृषक शरीर :: अग्नि-गन्दर्भ
अन्न संग्रह :: देव माता अदिति
वीरता :: रुद्रगण।
धन-लक्ष्मी :: माया (माँ लक्ष्मी)।
स्वर्ग :: देवमाता अदिति।
राज्य, सत्ता :: विश्व देव।
सुंदरता :: गन्दर्भ।  
पति-पत्नी में सामंजस्य-प्रेम-सौहार्द, गृहस्थ सुख :: 
माँ गौरी-पार्वती, शिव परिवार (भगवान् शिव, माँ पार्वती, गणपति, कुमार भगवान् कार्तिकेय और नंदी महाराज)।

विद्या :: भगवान् शिव माँ, सरस्वती।
वंश वृद्धि :: पितृगण।
भोग :: चन्द्र, कामदेव, ब्रह्मा जी।
मोक्ष :: भगवान्  श्री हरी विष्णु।
कष्ट निवारण :: गणपति श्री गणेश। 
रोग निवारण :: 
अश्वनी कुमार, भगवान् धन्वंतरि, महामृत्युंजयी महा काल भगवान् शिव।
SYMBOLISM OF BHAGWAN SHIV भगवान् शिव के प्रतीक :: 

THREE POWERS :: Knowledge-enlightenment, Desire, Implementation.

DRUM :: Represents Ved,  Scriptures, The  Ultimate  Guru.
SERPENTS :: Ego, Pride.
FACE :: Maa Ganga (गँगा) Flowing Over Spiritual Wisdom, Learning, Enlightenment.
MOON :: Master of time-Kal &  & Immortal HIMSELF.
THIRD EYE :: Destroyer Of Evil, Ignorance, Vision.
RUDRAKSH :: Purity, Rosary in Right hand-concentration.
TIGER SKIN :: Fearlessness.
Prayer to the deities, God, saints or the holy places-temples can be performed in five different ways. One can clean, sweep, broom the holy place-shrine, statues and change the deity’s clothing. Offering of sandal wood paste, Kum-Kum and other items utilised for prayers, do include prayer. Thinking-identifying of the deities-Almighty considering HIM to be none other than oneself, is also a pure form of prayer. Recitation of verses, prayers is a virtuous, pious, righteous form of worship. Performing various acts like sacrifices, Hawan, Agnihotr, igniting essence sticks, dhoop, visiting holy places-shrines, pilgrimage,bathing in holy rivers ponds-sacred ocean, offerings made for the sake of the poor-down trodden, pity on all living beings, donation for social cause, too is a part and partial of prayers. Any of these performed with purity of heart, dedication, concentration under the asylum of the God grants Salvation is prayer.
SHIV LING ABHISHEK ::
MILK :: Blessings, purity.
YOGURT :: Prosperity.
HONEY :: Sweet, soothing words, speech.
GHEE :: Victory.
SUGAR :: Happiness.
WATER :: PURITY.

राहु केतु आवरण पूजा ::

ॐ राहवे नमः। ॐ केतवे नमः। ॐ भौमाय नमः। ॐ बुधाय नमः। ॐ गुरवे नमः। ॐ शुक्राय नमः। ॐ शनैश्चराय नमः। ॐ वरुणसुतेभ्योनमः। 
ॐ सूर्यसुतेभ्यो नमः। ॐ अग्निपुत्रेभ्यो नमः। ॐ कुबेरपुत्रेभ्यो नमः। 
ॐ वायुपुत्रेभ्यो नमः। ॐ कटुरसाय नमः। ॐ आम्लरसाय नमः। 
ॐ क्षाररसाय नमः। ॐ कषायरसाय नमः। ॐ स्वादुरसाय नमः। 
ॐ षष्ठिसहस्रमन्दे हारुणी राक्षसेभ्यो नमः। ॐ मेषादिद्वादशराशिभ्यो नमः। 
ॐ अश्विन्यादिसप्तविंशतिनक्षत्रेभ्यो नमः। 
ॐ विष्कुम्भादिसप्तविंशतियोगेभ्यो नमः। ॐ बबादि करणेभ्यो नमः। 
ॐ सप्तद्वीपेभ्यो नमः। ॐ ऋग्वेदादिचतुर्वेदेभ्यो नमः। 
ॐ भूरादिसप्तलोकेभ्यो नमः। ॐ सप्तसागरेभ्यो नमः। ॐ ध्रुवाय नमः। 
ॐ सप्तर्षिभ्यो नमः। ॐ एकोनपञ्चाशन्मरुद्भ्यो नमः। ॐ षडृतुभ्यो नमः। 
ॐ द्वादशमासेभ्यो नमः। ॐ द्वयनाभ्यां नमः। ॐ पञ्चदशतिथिभ्यो नमः। 
ॐ षष्ठिसंवत्सरेभ्यो नमः। ॐ सुपर्णेभ्यो नमः। ॐ नागेभ्यो नमः। 
ॐ यक्षेभ्यो नमः।ॐ गन्धर्वेभ्यो नमः। ॐ विद्याधरेभ्यो नमः। 
ॐ अप्सरेभ्यो नमः। ॐ अक्षोभ्यो नमः।ॐ ब्रह्मणे नमः।ॐ विष्णवे नमः।
ॐ रुद्राय नमः। ॐ सत्वाय नमः।ॐ रजसे नमः। ॐ तमसे नमः। 
ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः। ॐ वज्राय नमः। ॐ शक्तये नमः। 
ॐ दण्डाय नमः। ॐ खड्गाय नमः। ॐ पाशाय नमः।
ॐ अङ्कुशाय नमः। ॐ गदायै नमः। ॐ त्रिशूलाय नमः। ॐ पद्माय नमः। 
ॐ चक्राय नमः। ॐ ऐरावताय नमः। ॐ पुण्डरीकाय नमः। 
ॐ वामनाय नमः।ॐ कुमुदाय नमः। ॐ अञ्जनाय नमः। ॐ पुष्पदन्ताय नमः। ॐ सार्वभौमाय नमः। ॐ दामिन्यै नमः। ॐ छायायै नमः। 
ॐ अभीष्टसिद्धिं मे देही। ॐ समस्तावरणार्चनदेवेभ्यो नमः। 
ॐ राहुकेतुभ्यां नमः। 
इस को जपने से महानता प्राप्त होती है और साधक के घर में आठों सिद्धियाँ वर्तमान रहती हैं। यह जप मच्छ शंकराचार्य विरचित है।
पूजा अर्चना :: ईश्वर से जुड़ने के लिए सबसे सरल माध्यम है पूजा। पूजा के लिए कर्मकाण्ड आवश्यक नहीं है। भगवान् का नाम कभी भी, कहीं भी लिया जा सकता है। रामायण, महा भारत, गीता, पुराण, उपनिषद का पढ़ना भी पूजा है। भगवान् की कथा-चरित्र को सुनना भी पूजा ही है। मन्दिर में जाना जरूरी नहीं है। इसके लिये धन की आवश्यकता भी नहीं है, नहाने-धोने, शुद्धि की भी आवश्यकता नहीं है। पूजा से मनुष्य में मन पर काबू, अनुशासन, परिश्रम, धर्य और दूरदर्शिता जैसे गुणों का विकास हो जाता है। सूर्य को अर्ध्य दिया जाना, तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाना, गाय को गोग्रास देना, माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करना, मन्दिर में जाने का नाम पूजा नहीं बल्कि एक नियम-क्रम है। सच्चे-सरल शुद्ध ह्रदय से नाम लेना-स्मरण करना ही पर्याप्त है। हाँ यदि धन है, समय है, नियत है तो कर्म काण्ड-विधि, का पालन किया जा सकता है। पूजा-पाठ के लिये दुःख-दर्द, परेशानी आने का इन्तज़ार करना जरूरी नहीं है। तीर्थ यात्रा, पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान भी पूजा है। अगर मन सच्चा है तो पूजा फल अवश्य देगी। निस्वार्थ पूजा, भक्ति भाव का महत्व तो बहुत ही ज्यादा है। मनुष्य किसी भी वर्ण, कुल-गोत्र, क्षेत्र, देश, लोक में जन्म हो सच्चे मन से पूजा अवश्य करे।
संध्या वन्दन :: संध्या वन्दन को संध्योपासना भी कहते हैं। सन्धि काल में ही सँध्या वन्दन की जाती है। संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और सँध्‍या काल उक्त 2 समय की सन्धि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय।
इस समय मन्दिर या एकान्त  में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना मौन रहकर की जाती है। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और समागम आदि वर्जित हैं। इसमें पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। सँध्या वन्दन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
वेदज्ञ और ईश्‍वर परायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं।
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में सँध्या वन्दन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। सँध्या वन्दन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।
संध्योपासना के 4 प्रकार :: (1). प्रार्थना, (2). ध्यान, (3). कीर्तन और (4). पूजा-आरती। व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा करता है। सँध्या वन्दन सभी मनुष्यों का धर्म-कर्तव्य है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।[आचार भूषण 89]
(1). प्रार्थना :: सँध्या वन्दन में सर्वश्रेष्ठ है, प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वन्दना कहते थे। प्रार्थना को उपासना और आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती।
प्रार्थना के प्रकार :- (1.1). आत्मनिवेदन, (1.2). नामस्मरण, (1.3). वन्दन और (1.4). संस्कृत भाषा में समूह गान।
प्रार्थना के फायदे :: प्रार्थना में मन से जो भी माँगा जाता है वह फलित होता है। ईश्वर प्रार्थना को सँध्या वन्दन भी कहते हैं। यह आरती, जप, पूजा या पाठ, तंत्र, मंत्र आदि कर्म काण्ड से भिन्न और सर्वश्रेष्ठ है।
प्रार्थना से मन स्थिर और शाँत रहता है। इससे क्रोध पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। इससे स्मरण शक्ति और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। प्रतिदिन इसी तरह 15-20 मिनट प्रार्थना करने से व्यक्ति अपने आराध्य से जुड़ने लगता है और धीरे-धीरे उसके सारे संकट समाप्त होने लगते हैं। प्रार्थना से मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है तथा शरीर निरोगी बनता है।
प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। वेदज्ञ प्रार्थना ही करते हैं। वे‍दों की ऋचाएँ प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएँ ही तो है।
नवधा भक्ति में से एक है प्रार्थना। प्रार्थना को उपासना, आराधना, वन्दना, अर्चना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर या देवताओं के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है।
प्रार्थना का प्रचलन सभी धर्मों में है, लेकिन प्रार्थना करने के तरीके अलग-अलग हैं। तरीके कैसे भी हों जरूरी है प्रार्थना करना। प्रार्थना योग भी अपने आप में एक अलग ही योग है, लेकिन कुछ लोग इसे योग के तप और ईश्वर प्राणिधान का हिस्सा मानते हैं। प्रार्थना को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने की एक क्रिया भी माना जाता है।
प्रार्थना विधि :: ईश्वर, भगवान, देवी-देवता या प्रकृति के समक्ष प्रार्थना करने से मन और तन को शान्ति मिलती है। मन्दिर, घर या किसी एकान्त स्थान पर खड़े होकर या फिर ध्यान मुद्रा में बैठकर दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में ले आएं। अब मन-मस्तिष्क को एकदम शान्त और शरीर को पूर्णत: शिथिल कर लें और आँखें बद कर अपना सम्पूर्ण ध्यान अपने ईष्ट पर लगाएं। 15 मिनट तक एकदम शान्त इसी मुद्रा में रहें तथा साँस की क्रिया सामान्य कर दें।
(2). ध्यान :: ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता, होश, साक्ष‍ी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है, उस पर, विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही साधक अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है। भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है। ध्यान को ऋषि-मुनियों ने पूजा, आरती, यज्ञ और प्रार्थना आदि में सबसे ऊपर रखा है। ध्यान से सभी प्रकार के कष्ट मिट जाते हैं और ध्यान के माध्यम से ही मोक्ष मिलता है।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥[योग सूत्र 3.2]
जहाँ चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, जहाँ भी चित्त ठहरा हुआ है, उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है। ध्यान अर्थात परमात्मा का स्मरण, उसमें मन-चित्त को केंद्रित-एकाग्र करना।
(3). कीर्तन :: कीर्तन ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शान्त और संगीतमय तरीका है। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शान्ति मिलती है। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय सं‍गीत का उल्लेख मिलता है।
कीर्तन नवधा भक्ति का ही एक रूप है।
मन्दिर में कीर्तन सामूहिक रूप से किसी विशेष अवसर पर ही किया जाता है। कीर्तन के प्रवर्तक देवर्षि नारद हैं। कीर्तन के माध्यम से ही प्रह्लाद, अजामिल आदि ने परम पद प्राप्त किया था। मीराबाई, नरसी मेहता, तुकाराम आदि संत भी इसी परम्परा के अनुयायी थे।
कीर्तन के दो प्रकार :: देशज और शास्त्रीय। देशज अर्थात लोक संगीत परम्परा से उपजा कीर्तन जिसे हीड़ भी कहा जाता है। शास्त्रीय संगीत में रागों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। संतों के दोहे और भजनकारों के पदों को भजन में गाया जाता है।
(4). पूजा-आरती :: पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कुमकुम, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके आराध्यदेव की आरती उतारी जाती है। पूजा को नित्यकर्म में शामिल किया गया है। पूजा में सभी देवों की स्तुति की जाती है।
12 बजे के पूर्व पूजा और आरती समाप्त हो जाना चाहिए। दिन के 12 से 4 बजे के बीच पूजा या आरती नहीं की जाती है। रात्रि के सभी कर्म वेदों द्वारा निषेध माने गए हैं, जो लोग रात्रि को पूजा या यज्ञ करते हैं उनके उद्देश्य अलग रहते हैं। पूजा और यज्ञ का सात्विक रूप ही मान्य है।
पूजा से वातावरण शुद्ध होता है और आध्यात्मिक माहौल का निर्माण होता है जिसके चलते मन और मस्तिष्क को शान्ति मिलती है। पूजा मंत्रों के उच्चारण के साथ की जाती है। पूजा समाप्ति के बाद आरती की जाती है। यज्ञ करते वक्त यज्ञ की पूजा की जाती है और उसके अलग नियम होते हैं। पूजा करने से देवता लोग प्रसन्न होते हैं। पूजा से रोग और शोक मिटते हैं और व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।
SANDHYOPASNA सन्ध्योपासना 
सँध्या विधि :: जातक पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर के आसन पर बैठ कर मार्जन के विनियोग का मन्त्र पढ़कर, जल छोड़े व मार्जन का निम्न मन्त्र पढ़कर, अपने शरीर एवं सामग्री पर जल छिड़कें :-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वेत्यस्य वामदेव ऋषिः, 
विष्णुर्देवता, गायत्रीच्छन्दः, हृदि पवित्रकरणे विनियोगः।
पवित्रीकरण :: 
ॐ अपवित्रः पवित्रोऽवा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचि:। 
पुण्डरीकाक्षः पुनातु। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु॥
आचमन :: 
ॐ केशवाय नमः। ॐ माधवाय नमः। 
ॐ नारायणाय नमः। ॐ ह्रृषीकेशाय नमः॥
आसन पवित्र करने के मंत्र का विनियोग पढ़कर जल गिरायें :–
ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतलं छन्दः, 
कूर्मो देवता, आसन पवित्रकरणे विनियोगः।
अब आसन पर जल छिड़क कर दायें हाथ से उसका स्पर्श करते हुए आसन पवित्र करने का मंत्र पढें।
आसनशुद्धि :: 
ॐ पृथिवी त्त्वया धृता लोका देवी त्वम् विष्णुना धृता। 
त्वम् च धारय मां देवी पवित्रं कुरु चासनम्॥
शिखा बन्धन :: 
ॐ चिद्रुपिणी महामाये दिव्य तेजः समन्विते। 
तिष्ठ देवी शिखा मध्ये तेजो वृधिं कुरुष्व मे॥
मंत्र से शिखा बाँध लें, यदि शिखा पहले से बँधी हो तो उसका स्पर्श कर लें। ईशान दिशा की ओर मुख करके आचमन करें और निम्न विनियोग पढ़कर पृथ्वी पर जल छोड़ें :–
विनियोग :: 
ऋत्तं चेत्ति माधुच्छन्दसोऽघर्मर्षण ऋषिरनुष्टुप्च्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोगः।
निम्न मंत्र पढ़कर आचमन करें :–
आचमन :: 
ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रात्र्यजायत। ततः समुद्रो अर्णवः।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्यमिषतोवशी। 
सूर्याचन्द्रमसैाधाता यथा पूर्वमकल्पयत। दिवं च पृथिवींचांतरिक्षोमथो स्वः॥
तीन बार गायत्री मन्त्र से जल को अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर छिड़क लें और उच्चारण करें :-
ॐ आपोमामभिरक्षन्तु।
तत्पश्चात निम्न विनियोग मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोड़ें :–
विनियोग :: 
ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, सप्त व्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतिपंक्ति त्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांसि अग्निवाय्वादित्य बृहस्पति वरुणेन्द्र विष्णवो देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता, आपो ज्योतिरिति शिरसः प्रजापतिः ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवताः प्राणायामे विनियोगः॥ 
अब नीचे लिखे मंत्र से तीन बार प्राणायाम करें। पूरक में नीलवर्ण भगवान् श्री हरी विष्णु का ध्यान (नाभी देश में) करें। कुम्भक में रक्तवर्ण ब्रह्मा (हृदय में) का ध्यान करें। रेचक में श्वेतवर्ण शंकर का (ललाट में) ध्यान करें। भगवान् के प्रत्येक रुप लिए तीन या एक बार प्राणायाम मंत्र पढ़ें।
प्राणायाम मन्त्र :: 
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं। 
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥ 
ॐ आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों॥ 
प्रातःकाल का निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
विनियोग :: 
सूर्यश्च मेति नारायण ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः 
सूर्यो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।  
आचमन ::  
ॐ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। 
यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां 
पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु।  
यत्किञ्चदुरितम् मयि इदमहमापोऽमृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा॥ 
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
विनियोग :: 
आपो हिष्ठेत्यादि त्र्यृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिर्गायत्री 
छन्द आपोदेवता मार्जने विनियोगः। 
अब नीचे लिखे 9 मंत्रों से मार्जन करें। 7 पदों से सिर पर जल छोड़े, 8वें से भूमि पर और 9वें पद से फिर सिर पर तीन कुशों अथवा तीन अँगुलियों से मार्जन करें :–
(1). ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः। (2). ॐ ता न ऊर्जे दधातन। (3). ॐ महे रणाय चक्षसे।
(4). ॐ यो वः शिवतमो रसः। (5). ॐ तस्य भाजयतेह नः। (6). ॐ उशतीरिव मातरः।
(7). ॐ तस्मा अरं गमाम वः। (8). ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ। (9). ॐ आपो जनयथा च नः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
द्रुपदादिवेत्यस्य कोकिलो राजपुत्र ऋषिः अनुष्टुप् 
छन्द आपो देवता सौत्रामण्यवभृथे विनियोगः। 
अब बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से उसे ढक कर, नीचे लिखे मन्त्र को तीन बार पढ़ें, फिर उस जल को सिर पर छिड़क लें।
ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलदिव। 
पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
विनियोग ::
ऋतञ्चेति त्र्यृचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिः 
अनुष्टुप् छन्दो भाववृत्तं दैवतमघमर्षणे विनियोगः।
अब दाहिने हाथ में जल लेकर नाक से लगाकर, नीचे लिखे मन्त्र को तीन या एक बार पढ़ें, फिर अपनी बाईं ओर जल पृथ्वी पर छोड़ दें। (मन में यह भावना करें कि यह जल नासिका के बायें छिद्र से भीतर घुसकर अन्तःकरण के पाप को दायें छिद्र से निकाल रहा है, फिर उस जल की ओर दृष्टि न डालकर अपनी बायीं ओर शिला की भावना करके उस पर पाप को पटक कर नष्ट कर देने की भावना से जल उस पर फेंक दें।)
अघमर्षण  ::
 ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रात्र्यजायत। 
ततः समुद्रो अर्णवः। 
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्यमिषतोवशी। 
सूर्याचन्द्रमसैाधाता यथा  पूर्वमकल्पयत। दिवं च पृथिवींचांतरिक्षोमथो स्वः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
विनियोग :: 
अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्छन्दः 
आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः। 
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
आचमन :: 
ॐ अन्तश्चरसिभूतेषु गुहायांविश्वतोमुखः।  
त्वम् यज्ञस्त्वं वषट्कार आपोज्योतिरसोऽमृतम्॥
निम्न विनियोग और मंत्र  केवल पढ़े जल न  छोडें :–
विनियोग :: 
ॐ कारस्य  ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, भूर्भुवः स्वरीति महाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता सूर्यार्घ्यदाने विनियोगः। 
अब प्रातःकाल की सँध्या में सूर्य के सामने खड़ा हो जाए। एक पैर की एड़ी उठाकर तीन बार गायत्री मंत्र का जप करके पुष्प मिले हुए जल से सूर्य को तीन अंजलि जल दें। प्रातःकाल का अर्घ्य जल में देना चाहिए यदि जल न हो तो स्थल को अच्छी तरह जल से धो कर उस पर अर्घ्य का जल गिराए।
गायत्री मन्त्र ::
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्।
इस मंत्र को पढ़कर ब्रह्मस्वरूपिणे सूर्यनारायणाय इदमर्घ्यं नमः  कह कर प्रातःकाल अर्घ्य समर्पण करे।
अब निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें।
विनियोग ::
उद्वयमित्यस्य प्रस्कण्व ऋषिरनुष्टुप्छन्दः सूर्योदेवता, उदुत्यमित्यस्य प्रस्कण्वऋषिः निचृद्गायत्री छन्दः सूर्योदेवता, चित्रमित्यस्य कौत्सऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दः सूर्योदेवता, तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्थर्वण ऋषिरक्षरातीतपुर उष्णिक्छन्दः सूर्योदेवता सूर्योपस्थाने विनियोगः। 
प्रातःकाल की सँध्या में अँजलि बाँधकर यदि सम्भव हो तो सूर्य भगवान् को खड़े होकर देखते हुए निम्न मंत्र पढ़ते हुए प्रणाम करें :–
ॐ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्। 
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥
ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्॥
ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं। 
ॐ शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः 
शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥
अब बैठ कर अंगन्यास करें, दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से “हृदय” आदि का स्पर्श करें।
ॐ हृदयाय नमः। (हृदय का स्पर्श)
ॐ भूः शिरसे स्वाहा। (मस्तक का स्पर्श)
ॐ भुवः शिखायै वषट्। (शिखा का स्पर्श)
ॐ स्वः कवचाय हुम्। (दाहिने हाथ की उँगलियों से बायें कंधे का और बायें हाथ की उँगलियों से दायें कंधे एक साथ स्पर्श करे)
ॐ भूर्भुवः नेत्राभ्यां वौषट्। (दोनों नेत्रों और ललाट के मध्य भाग का स्पर्श)
ॐ भूर्भुवः स्वः अस्त्राय फट्। (यह मंत्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा उँगलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजायें।)
नीचे लिखे मंत्र को पढ़कर इसके अनुसार गायत्री देवी का ध्यान करें :–
ॐ श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा। 
श्वेतैर्तिलेपनैः पुष्पैरलंकारैश्च भूषिता॥
आदित्यमण्डलस्था च ब्रह्मलोकगताथवा। 
अक्षसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबृगुष्णिहौ 
छन्दसी सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोगः।
नीचे लिखे मंत्र से विनयपूर्वक गायत्री देवी का आवाहन करें :–
ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि। 
धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषिः स्वराण्महापङ्क्तिश्छन्दः 
परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः।
अब नीचे लिखे मंत्र से गायत्री देवी को प्रणाम करें :–
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि। 
न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ कारस्य  ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, भूर्भुवः स्वरीति महाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता जपे विनियोगः।
फिर सूर्य की ओर मुख करके, कम से कम 108 बार गायत्री-मंत्र का जप करें :–
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ 
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दो 
विश्वकर्मा देवता सूर्यप्रदक्षिणायां विनियोगः।
अब नीचे लिखे मन्त्र से अपने स्थान पर खड़े होकर सूर्य देव की एक प्रदक्षिणा करें :–
ॐ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।
सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमि जनयन् देव एकः॥
निम्न विनियोग और मंत्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोडें :–
ॐ देवा गातुविद इति मनसस्पतिर्ऋषिर्विराडनुष्टुप् छन्दो वातो देवता जपनिवेदने विनियोगः।
अब नमस्कार करें :–
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित 
मनसस्पत इमं देव यज्ञ  ॐ स्वाहा व्वाते धाः।
अब विसर्जन के विनियोग का मंत्र पढ़ें :–
उत्तमे शिखरे इति वामदेव ऋषिः अनुष्टुप् 
छन्दः गायत्री देवता गायत्रीविसर्जने विनियोगः।
विसर्जन मंत्र :–
ॐ उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि। 
ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम॥
ॐ श्रीविष्णवे नमः॥ ॐ श्रीविष्णवे नमः॥ ॐ श्रीविष्णवे नमः॥
तिलक :: यह हिन्दु की एक पहचान है। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
कुमकुम :: हल्दी चुना मिलकर बना होता है जो आज्ञा चक्र की शुद्धि करते हुए, ज्ञान चक्र को प्रज्वलित करता है।
केसर ::  शीतल मस्तिष्क को केसर का तिलक प्रज्वलित करता है।
चन्दन  :: दिमाग को शीतलता प्रदान करते हुए मानसिक शान्ति भी देता है।
भस्मी :: वैराग्य की अग्रसर करते हुए मस्तिष्क के रोम कूपों के विषाणुओं को भी नष्ट करता है।
शैव :: शैव परंपरा में ललाट पर चन्दन की आड़ी रेखा या त्रिपुण्ड लगाया जाता है।
शाक्त :: शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
वैष्णव :: वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक हैं, जिनमें निम्न प्रमुख हैं :-
लाल श्री तिलक :- इसमें आसपास चन्दन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।
विष्णुस्वामी तिलक :- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।
रामानन्दी तिलक :- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानन्दी तिलक बनता है।
श्याम श्री तिलक :- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपी चन्दन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।
अन्य तिलक :- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।
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SARASWATI VANDANA सरस्वती वन्दना 

SARASWATI VANDANA

सरस्वती वन्दना 

 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 

By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
SARASWATI PUJA-BASANT PANCHMI सरस्वती पूजा-बसन्त पञ्चमी :: Basant Panchami is celebrated on the fifth day of  Magh (end of January) and is dedicated to Maa Bhagwati Saraswati’s Puja-worship. Maa Saraswati
SARASWATI PUJA-BASANT PANCHMI सरस्वती पूजा-बसन्त पञ्चमी :: Basant Panchami is celebrated on the fifth day of  Magh (end of January) and is dedicated to Maa Bhagwati Saraswati’s Puja-worship. Maa Saraswati appeared prior of Maa Radha from the left half of Bhagwan Shri Krashn, in Gou Lok. She is one of the Tri Devi’s, worshipped along with Maa Laxmi and Mata Parvati. Vasant Panchami, is celebrated as the day for the worship of Kam Dev and his wife Rati as well.
वसंत पंचमी या श्री पंचमी के अवसर पर विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और अन्य कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन पीले वस्त्र धारण किये जाते हैं। 
वसंत ऋतु में मौसम बहुत अच्छा रहता है। वसंत आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। इस दौरान हर दिन, नयी उमंग से उदय होता है और नयी चेतना प्रदान करता है। सभी तरफ फूलों की बहार आती है। सरसों फूलने लगती है। गेहूँ की बालियाँ खिलतीं हैं। आम के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है और  भगवान् विष्णु और कामदेव की पूजा होती। यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता है। शास्त्रों में बसंत पंचमी का वर्णन ऋषि पंचमी के नाम से भी मिलता है। 
SARASWATI MANTR सरस्वती मंत्र ::
ऐं॥1॥
Aem.
ऐं लृं॥2॥
Aem Lram॥
ऐं रुं स्वों॥3॥
Aem Rum Svom.
वद वद वाग्वादिनी स्वाहा॥4॥
Vad Vad Vagvadini Svaha.
ॐ ऐं नमः॥5॥
Om Aem Namah.
ॐ ऐं क्लीं सौः॥6॥
Om Aem Kleem Sauh.
ॐ ऐं महासरस्वत्यै नमः॥7॥
Om Aem Maha Sarasvatyae Namah.
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वाग्देव्यै सरस्वत्यै नमः॥8॥
Om Aem Hreem Shreem Vagdevyae Sarasvatyae Namah॥
ॐ अर्हं मुख कमल वासिनी पापात्म क्षयम्कारी वद वद वाग्वादिनी सरस्वती ऐं ह्रीं नमः स्वाहा॥9॥
Om Arham Mukh Kamal Vasini Papatm Kshaymkari Vad Vad Vagvadini Saraswati Aim Hreem Namah Svaha.
या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥10॥
Ya Devi Sarv Bhuteshu Vidyarupen Sansthita; 
Namastasyae Namastasyae Namastasyae Namo Namah.
ॐ ऐं वाग्देव्यै विद्महे कामराजाय धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्॥11॥
Om Aim Vagdevyae Vidmahe Kamarajay Dhimahi; Tanno Devi Prachodayat.
सरस्वती नमस्तुभ्यं वर्दे कामरूपिणी विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु में सदा॥12॥
हे सबकी कामना पूर्ण करने वाली माता सरस्वती, आपको नमस्कार करता हूँ। मैं अपनी विद्या ग्रहण करना आरम्भ कर रहा हूँ, मुझे इस कार्य में सिद्धि मिले।
सरस्वती महाभागे विद्ये कमललोचने विद्यारूपा विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तुते॥13॥
या देवी सर्वभूतेषू, मां सरस्वती रूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥14॥
ऐं ह्रीं श्रीं वाग्वादिनी सरस्वती देवी मम जिव्हायां। 
सर्व विद्यां देही दापय-दापय स्वाहा॥15॥
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः॥16॥
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। 
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ॥17॥
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:। 
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च। सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने 
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते॥18॥
प्रथम भारती नाम, द्वितीय च सरस्वती तृतीय शारदा देवी, चतुर्थ हंसवाहिनी
पंचमम् जगतीख्याता, षष्ठम् वागीश्वरी तथा सप्तमम् कुमुदीप्रोक्ता, अष्ठमम् ब्रह्मचारिणी नवम् बुद्धिमाता च दशमम् वरदायिनी एकादशम् चंद्रकांतिदाशां भुवनेशवरी द्वादशेतानि नामानि त्रिसंध्य य: पठेनर: जिह्वाग्रे वसते नित्यमं
ब्रह्मरूपा सरस्वती सरस्वती महाभागे विद्येकमललोचने विद्यारूपा विशालाक्षि॥19॥ 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥20॥
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अंधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ।  
ध्यान मंत्र :: 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। 
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। 
सा माम् पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥21॥
जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें। 
जो कुन्द-पुष्प और हिम-माला के समान उज्जवल-वर्णा हैं, जो उज्जवल वस्त्र-धारिणी हैं, जो सुन्दर वीणा-दण्ड से सुशोभित कर-कमलों वाली हैं और जो सदा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं द्वारा वन्दिता हैं, वे जड़ता को निर्मूल करनेवाली भगवती सरस्वती मेरी रक्षा करें। 
Ya Kundendu-Tushar-Har-Dhavala, Ya Shubhra-Vastravrita, 
Ya Vina-Vara-Danda-Mandita-Kara, Ya Shweta-Padmasana. 
Ya Brahmachyuta-Shankara-Prabhritibhirdevaih Sada Vandita, 
Sa Mam Patu Saraswati Bhagwati Nihshesha-Jadyapaha.
शुक्लाम् ब्रह्मविचार सार परमाम् आद्यां जगद्व्यापिनीम्। 
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌॥
हस्ते स्फटिकमालिकाम् विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्‌। 

वन्दे ताम् परमेश्वरीम् भगवतीम् बुद्धिप्रदाम् शारदाम्‌॥22॥

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
ये परम चेतना हैं। माँ सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। भगवान् श्री कृष्ण ने माँ सरस्वती वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन उनकी आराधना की जाएगी।
कवि, लेखक, गायक, वादक, नाटककार, नृत्यकार अपने साज़ और उपकरणों की पूजा और माँ सरस्वती की वंदना करते हैं। वसंत पंचमी के दिन ही भगवान् श्री राम शबरी की कुटिया में आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि भगवान् श्री राम वहीं आकर यहीं बैठे थे। वहीं शबरी माता का मंदिर भी है।
पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद ग़ोरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया। सत्रहवीं बार पृथ्वीराज चौहान पराजित हुआ, तो मोहम्मद ग़ोरी ने उसे अफगानिस्तान ले गया और उसकी आँखें फोड़ दीं। मोहम्मद ग़ोरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर ग़ोरी ने ऊँचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया :-

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। 
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूकै चौहान॥

Vasant Panchami is associated with the sensuality-passions, in Kutchh (Gujarat) and celebrated by preparing bouquet and garlands of flowers set with mango leaves, as a gift. People dress in saffron, pink or yellow and visit each other. Songs pertaining to Bhagwan Shri Krashn & Maa Radha are sung with festivity-fervour. Kam Dev and his wife Rati are considered by them as incarnation of Bhagwan Shri Krashn & Radha Ji.
People in Maharashtr, Madhy Pradesh, Chhattis Garh and Uttar Pradesh, worship Bhagwan Shiv and Maa Parvati on this day. Offerings of mango flowers and the ears of wheat are traditionally made.
The temple devoted to Sury Bhagwan located  in Aurangabad district of  Bihar is called Sury Dev temple and it was established on Basant Panchami. The day is celebrated to commemorate the founding of the shrine by King Ala of Allahabad. The statues are washed and old red clothes on them are replaced with new ones on Basant Panchami. Devotees sing, dance and play musical instruments.

बीज मन्त्र :: ऐं 
सरस्वती मन्त्र :: ॐ ह्रां ऐं ह्रीं सरस्वतयै नमः।
मानस पूजा :: 
ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः। 
शुक्लां ब्रह्म-विचार-सार-परमां आद्यां जगद्-व्यापिनीम्। 
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्॥ 
हस्ते स्फाटिक-मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्। 
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि-प्रदां शारदाम्॥1॥ 
या कुन्देन्दु-तुषार-हार-धवला या शुभ्र-वस्त्रावृता, 
या वीणा वर-दण्ड-मण्डित-करा या श्वेत-पद्मासना।
या ब्रह्माऽच्युत-शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा सेविता, 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष-जाड्यापहा॥2॥ 
ह्रीं ह्रीं ह्रीं हृद्यैक-बीजे शशि-रुचि-कमले कल-विसृष्ट-शोभे, 
भव्ये भव्यानुकूले कुमति-वन-दवे विश्व-वन्द्यांघ्रि-पद्मे।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणत-जनो मोद सम्पादयित्री, 
प्रोत्फुल्ल-ज्ञान-कूटे हरि-निज-दयिते देवि! संसार तारे॥3॥ 
ऐं ऐं दृष्ट-मन्त्रे कमल-भव-मुखाम्भोज-भूत-स्वरुपे, 
रुपारुप-प्रकाशे सकल-गुण-मये निर्गुणे निर्विकारे।
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदित-विभवे नापि विज्ञान-तत्त्वे, 
विश्वे विश्वान्तराले सुर-वर-नमिते निष्कले नित्य-शुद्धे॥4॥ 
इन मंत्रों का 5,00,000  बार जाप करने से सरस्वती कण्ठ में वास करती है।
सरस्वती स्त्रोत्र ::
ॐ रवि-रुद्र-पितामह-विष्णु-नुतं, हरि-चन्दन-कुंकुम-पंक-युतम्!
मुनि-वृन्द-गजेन्द्र-समान-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥1॥ 
शशि-शुद्ध-सुधा-हिम-धाम-युतं, शरदम्बर-बिम्ब-समान-करम्।
बहु-रत्न-मनोहर-कान्ति-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥2॥ 
कनकाब्ज-विभूषित-भीति-युतं, भव-भाव-विभावित-भिन्न-पदम्।
प्रभु-चित्त-समाहित-साधु-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥3॥ 
मति-हीन-जनाश्रय-पारमिदं, सकलागम-भाषित-भिन्न-पदम्।
परि-पूरित-विशवमनेक-भवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥4॥ 
सुर-मौलि-मणि-द्युति-शुभ्र-करं, विषयादि-महा-भय-वर्ण-हरम्।
निज-कान्ति-विलायित-चन्द्र-शिवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥5॥ 
भव-सागर-मज्जन-भीति-नुतं, प्रति-पादित-सन्तति-कारमिदम्।
विमलादिक-शुद्ध-विशुद्ध-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥6॥ 
परिपूर्ण-मनोरथ-धाम-निधिं, परमार्थ-विचार-विवेक-विधिम्।
सुर-योषित-सेवित-पाद-तमं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥7॥ 
गुणनैक-कुल-स्थिति-भीति-पदं, गुण-गौरव-गर्वित-सत्य-पदम्।
कमलोदर-कोमल-पाद-तलं,तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥8॥ 
सरस्वती की पूर्ण कृपा  एवं मोक्ष प्राप्त करने हेतु इस स्तोत्र का प्रतिदिन कम से कम तीन बार अवश्य पाठ करें।
फल-श्रुति ::
इदं स्तोत्रं महा-पुण्यं, ब्रह्मणा परिकीर्तितं। 
यः पठेत् प्रातरुत्थाय, तस्य कण्ठे सरस्वती॥ 
त्रिसंध्यं यो जपेन्नित्यं, जले वापि स्थले स्थितः। 
पाठ-मात्रे भवेत् प्राज्ञो, ब्रह्म-निष्ठो पुनः पुनः॥ 
हृदय-कमल-मध्ये, दीप-वद् वेद-सारे। 
प्रणव-मयमतर्क्यं, योगिभिः ध्यान-गम्यकम्॥ 
हरि-गुरु-शिव-योगं, सर्व-भूतस्थमेकम्। 
सकृदपि मनसा वै, ध्यायेद् यः सः भवेन्मुक्त॥ 
सरस्वती चालीसा ::
जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि। 
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु। 
दुष्जनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥1॥
रूप चतुर्भुज धारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
जग में पाप बुद्धि जब होती। तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥2॥
तब ही मातु का निज अवतारी। पाप हीन करती महतारी॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा। तव प्रसाद जानै संसारा॥3॥
रामचरित जो रचे बनाई। आदि कवि की पदवी पाई॥
कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥4॥
तुलसी सूर आदि विद्वाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा। केव कृपा आपकी अम्बा॥5॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥
पुत्र करहिं अपराध बहूता। तेहि न धरई चित माता॥6॥
राखु लाज जननि अब मेरी। विनय करउं भांति बहु तेरी॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥7॥
मधुकैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥
समर हजार पाँच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥8॥
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला। बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥9॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता। क्षण महु संहारे उन माता॥
रक्त बीज से समरथ पापी। सुरमुनि हदय धरा सब काँपी॥10॥
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा। बारबार बिन वउं जगदंबा॥
जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा। क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥11॥
भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई। रामचन्द्र बनवास कराई॥
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा। सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥12॥
को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥13॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी। नाम अपार है दानव भक्षी॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा। दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥14॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
नृप कोपित को मारन चाहे। कानन में घेरे मृग नाहे॥15॥
सागर मध्य पोत के भंजे। अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में। हो दरिद्र अथवा संकट में॥16॥
नाम जपे मंगल सब होई। संशय इसमें करई न कोई॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई। सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥17॥
करै पाठ नित यह चालीसा। होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥18॥
भक्ति मातु की करैं हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥
बंदी पाठ करें सत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥19॥
रामसागर बाँधि हेतु भवानी। कीजै कृपा दास निज जानी॥20॥
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप।
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप॥
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु।
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु॥
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