YAGY यज्ञ

 

YAGY यज्ञ 

 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 

By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ओ३म् सहित चारों वेद :- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है, जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1.13.12 में ‘स्वाहा यज्ञं कृणोतन’ कहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है।

ऋग्वेद के मन्त्र 2.2.1 में ‘यज्ञेन वर्धत जातवेदसम्’ कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। 

यजुर्वेद के मन्त्र 3.1 में ‘समिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्’ कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने व घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है।

यजुर्वेद 3.2 में ‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो।

ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नासुव॥  [यजुवेद]

हे ईश्वर ! हमारे सारे दुर्गुणों को नष्ट कर दो और अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव प्रदान करो।

यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कार्य वा कर्म को कहते हैं। यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, हवन वा देवयज्ञ के लिए प्रयुक्त होता है। यज्ञ देवों की पूजा, संगति करण और सबको पात्रतानुसार दान देना है। माता, पिता, आचार्यों व विद्वानों का सम्मान व सेवा-सत्कार भी यज्ञ है। इनके साथ संगति कर उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त करना और उससे जन कल्याण व प्राणियों का हित करना भी यज्ञ है। अपनी सामर्थ के अनुसार सुपात्रों को अधिक से अधिक दान देकर देश व समाज को सम रस, एक रस व गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार यथाशक्ति सुख-सुविधायें प्रदान करना भी यज्ञ है।यज्ञ का आयोजन लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार से सभी के लिए हितकारी है। यज्ञ से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है, जिससे संसार का जीवन चलता है। वायुमंडल में मंत्रों का प्रभाव पड़ता है, जिससे भूकंप, ओलावृष्टि, हिंसात्मक जैसी प्राकृतिक घटनाओं का शमन होता है, क्योंकि यज्ञ शब्द ब्रह्म है।

यज्ञ शुभ कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सतकर्म, वेदसम्मत कर्म है। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्‍वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है। यह वेदों में निर्धारित अनुष्ठानों पर आधारित उपासना पद्धति है। यज्ञ का लक्ष्य ब्रह्मांड की स्वाभाविक व्यवस्था क़ायम रखने जैसी व्यापक भी है। इसमें अनुष्ठानों का सही निष्पादन और मंत्रों का शुद्ध उच्चारण अनिवार्य माने जाते हैं तथा निष्पादक और प्रयुक्त सामग्री का अत्यधिक पवित्र होना आवश्यक है। पाँच दैनिक घरेलू आहुतियाँ और महायज्ञ भी इसमें शामिल हैं। 

यज्ञ का अर्थ आग में घी, आहुति, भेंट, चढ़ावा डालकर मंत्र पढ़ना मात्र नहीं होता। यज्ञ में अग्नि और घी के प्रतीकात्मक प्रयोग में आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा वायु शोधन अग्नि से होने वाले धूम्र कणों द्वारा सम्पन्न होती है। 

यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं।

प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।

गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है। सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है। गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है। जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी।

यज्ञं जनयन्त सूरयः। [ऋग्वेद 10.66.2] 

हे विद्वानों! संसार में यज्ञ का प्रचार करो। 

अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः। [अथर्ववेद 9.15.14]

यह यज्ञ ही समस्त विश्व-ब्रह्मांड का मूल केंद्र है।

प्रांचं यज्ञं प्रणयता सखायः। [ऋग्वेद 10.101.2]

प्रत्येक शुभकार्य को यज्ञ के साथ आरंभ करो। 

सर्वा बाधा निवृत्यर्थं सर्वान्‌ देवान्‌ यजेद् बुधः। [शिवपुराण]

सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिए बुद्धिमान पुरुषों को देवताओं की यज्ञ के द्वारा पूजा करनी चाहिए। 

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। [शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5]

यज्ञ ही संसार का सर्वश्रेष्ठ शुभ कार्य है।

तस्मात्‌ सर्वगतं ब्रह्मा नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌। [श्रीमद्भगवद्गीता 3.15]

यज्ञ में सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी परमात्मा का सदैव वास होता है। 

अग्नि होत्रिणे प्रणुदे सपत्नश्र। [अथर्व वेद 9.2.6]

यज्ञ करने से शत्रु नष्ट हो जाते हैं। शत्रुता को मित्रता में बदल देने का सर्वोत्तम उपाय यज्ञ है।

सम्यंजोऽग्नि सपर्यत। [अथर्व वेद 3.30.6]

सबको मिलकर यज्ञानुष्ठान करना चाहिए। सामूहिक उपासना का महत्व असंख्य गुना अधिक है।

यज्ञं जनयुन्तु सूरयः। [ऋग्वेद 10.66.2]

हे विद्वानों, संसार में यज्ञ का प्रचार करो। विश्व-कल्याण करने वाले साधकों में यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है।

ईजानाः स्वर्गं यान्ति लोकम्। [अथर्व वेद 18.4.2]

यज्ञ करने वाले को स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। जिन्हें स्वर्गीय सुख प्राप्त करना अभीष्ट हो, वे यज्ञ किया करें।

प्राचं यज्ञं प्रणतया स्वसाय। [ऋग्वेद 10.101.2]

प्रत्येक शुभ कार्य यज्ञ के साथ आरंभ करो। यज्ञ के साथ आरम्भ किये हुए कार्य सफल और सुखदायक होते हैं।

सर्वेषाँ देवानाँ आत्मा यद् यज्ञः। [शतपथ 12.3.2.1]

सब देवताओं की आत्मा यह यज्ञ है। यज्ञ करने वाले देवताओं की आत्मा तक पहुँचते हैं।

अयज्ञियो हत वर्चो भवति। [अथर्व वेद]

यज्ञ रहित मनुष्य का तेज नष्ट हो जाता है। यदि तेजस्वी रहना है तो यज्ञ करते रहना चाहिए।

भद्रो नो अग्नि राहुतः। [यजुर्वेद 15.32]

यज्ञ में दी हुई आहुतियाँ कल्याणकारक होती है। जो अपना कल्याण चाहते हैं, वे यज्ञ किया करें।

मा सुनोतेति सोमम्। [ऋग्वेद 2.30.7]

यज्ञानुष्ठान की महान उपासना बन्द न करो। जहाँ यज्ञ बन्द हो जाते हैं वहाँ से सुख-शाँति चली जाती है।

कस्मैत्व विमुँचति तस्मैत्वं विमुँचति। [यजुर्वेद]

जो यज्ञ को त्यागता है उसे परमात्मा त्याग देता है। जिन्हें परमात्मा का अनुग्रह अभीष्ट हो, वे यज्ञ करना त्यागें।

अस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही।  [ऋग्वेद 1.3.8.8]

“यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म” [यजुर्वेद]

यज्ञ संसार के श्रेष्ठतम कार्यों में से एक है। 

अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृताम वर॥ [श्रीमद्भगवद्गीता 4.8] 

शरीर या देह के दासत्व को छोड़ देने का वरण या निश्चय करने वालों में, यज्ञ अर्थात जीव और आत्मा के योग की क्रिया या जीव का आत्मा में विलय, मुझ परमात्मा का कार्य है।

अनाश्रित: कर्म फलम कार्यम कर्म करोति य: स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥

 [श्रीमद्भगवद्गीता 1.6] 

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥ [यजुर्वेद 40.2]

इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष-आयु पर्यन्त, जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। कर्म निष्काम भाव से करने चाहिये, ताकि कर्म बन्धन के कारण न बनें।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र…समाचार।  [श्रीमद्भगवद्गीता 13.9]                        

यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के, लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।

  ‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’[शतपथ ब्राह्मण] 

जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं, अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं।

‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’[यजु 23.62]

इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। 

        अग्नौ प्रास्ताहुतिः… प्रजाः। [मनुस्मृति 3.76]

अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। 

        अन्नाद् भवन्ति…कर्मसमुद्भवः। [श्रीमद्भागवद गीता 3.14]

अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा। निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है, जिस के द्वारा हम यथोचित रुप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। 

        देवान्भावयतानेन …परमवाप्स्यथ। [श्रीमद्भागवद गीता 3.11]

इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषों को दूर करने का सामर्थ्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।

यज्ञ में चार आधार ::  (1). व्यक्ति, (2). अग्नि, (3). वाणी और (4). चरु। यदि ये चारों ही स्थूल रूप में प्रयुक्त किये जायें तो उनका यज्ञीय प्रयोजन पूरा न होगा और जो चमत्कारी परिणाम वर्णित किया गया है, वह हस्तगत न हो सकेगा।

(1). व्यक्ति :: इस प्रक्रिया में चार ऋत्विज् गण भाग लेते हैं :- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा। यह चारों किसी भी व्यक्ति का नामकरण करके नियुक्त नहीं कर दिये जाते। वरन् उन्हें अमुक समय तक अमुक स्तर का त्याग, तप करना पड़ता है। यदि तप साधना का उपक्रम न अपनाया गया हो तो वह प्रभाव उत्पन्न न हो सकेगा जो यज्ञ की सूक्ष्म एवं कारण शक्ति उभारने हेतु अभीष्ट है। 

प्रथम होता ज्ञानकाण्डी ऋग्वेद अनुशासनों पर चलने वाला होता है। अध्वर्यु कर्म काण्डी यजुर्वेदी एवं उद्गाता गायक सामवेदी होता है, साधारण गाने वाला नहीं वरन् भक्ति भाव का धनी समर्पित साधक। ब्रह्मा चतुर्वेदों का जानकार अथर्व वेदी जो सारी प्रक्रिया का नियमन करने वाला, प्रबन्ध निदेशक, व्यवस्था संयोजक है। याजक गणों ऋत्विजों को यह ज्ञान हस्तगत करना पड़ता है।

यज्ञ जैसे श्रेष्ठतम कर्म के चारों ऋत्विज् गण साधक स्तर के होने पर ही उस प्रयोजन को पूरा कर पाते हैं। महाराज दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न होना था। उसके लिये जिस स्तर के अध्वर्यु की अपेक्षा थी, वह शृंगी ऋषि के माध्यम से पूरा हुआ। इसके पूर्व उसके सभी प्रयास असफल रहे थे। संयम-तपोबल के धनी ऋत्विज् के ऋषि द्वारा यह कार्य सम्पन्न होते ही अभीष्ट कार्य पूरा हो गया। यह व्यक्तित्व के सूक्ष्मीकृत कारण रूप की फलश्रुति है।

(2). अग्नि-यज्ञाग्नि :: यह पवित्र है, उसे अभिमन्त्रित किया जाता है। अग्नि मन्त्र शक्ति द्वारा अभिमन्त्रित कर मन्थन के माध्यम से प्रकट की जाती है। अखण्ड दीप में जो अग्नि सतत् ज्वलनशील रहती है, वह यज्ञाग्नि का ही एक रूप है।

आहुति दी गयी सामग्री को अग्नि ऊपर ले जाती है एवं वायु उसे अंतरिक्ष में ले जाती है। भूमि पर होम होता है लेकिन यज्ञाग्नि की ऊर्ध्वीकरण की शक्ति उसे अंतरिक्ष में तथा फिर अग्नि के द्वितीय किन्तु अद्वितीय रूप विद्युत ऊर्जा के माध्यम से और भी ऊपर ले जाता है। आहुति दी गयी हवि, अग्नि और विद्युत से ऊँची उठती हुई स्थूल से सूक्ष्मतम होती हुई अपने दिव्य रूप को प्राप्त होती है। अपने इस सूक्ष्मीकृत रूप में यज्ञाग्नि न केवल मनुष्य, प्राणी जगत, वनस्पति जगत को प्रभावित करती है, वरन् समग्र पर्यावरण एवं परोक्ष वातावरण का नियमन, संशोधन एवं अनुकूलन का प्रयोजन पूरा करती है। यज्ञ ऊर्जा मात्र अग्निहोत्र से उत्पन्न ताप नहीं, अपितु एक अति सूक्ष्म सामर्थ्य सम्पदा है जो व्यक्ति एवं समग्र वातावरण पर प्रभाव डालकर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनाती है।

ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है। उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-

अग्नि हवन किये जाने वाले बहुमूल्य पदार्थ  सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग मनुष्य भी वैसा ही करें, जो यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग मनुष्य के लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।

जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है। 

अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, मनुष्य अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें।

अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती। उसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ बने रहना चाहिए।

यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए यह सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के हर पल के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।

(3). वाणी :: ज्ञान एवं कर्म की अपनी सीमा है, किन्तु भाव व उदात्तीकरण जब वाणी के माध्यम से मन्त्रों द्वारा होता है। तो वह मानवी काया के अन्तराल को ही नहीं, सारे वातावरण को झकझोर डालता है यज्ञ में वाणी का प्रयोग सूक्ष्म रूप में सामगान के रूप में होता है। भावप्रधान संगीत लहरी में गायी गयी ऋचाएँ सारे शरीर को स्पन्दित कर डालती हैं, साथ ही सारा वायुमण्डल आन्दोलित हो उठता है। सामवेद की इस प्राणदायिनी मधुर रस वर्षा को छान्दोग्योपनिषद् ने इस प्रकार कहा है- “वाचः ऋक् रसः, ऋचः साम रसः।”

वाक् शक्ति के विस्तृतीकरण हेतु यज्ञाग्नि का विस्तारक के रूप में प्रयोग होता है। परिष्कृत वाणी जब विशिष्ट व्यक्ति के मुख से विशिष्ट प्रयोजन के लिये निकलती है चहुँमुखी असर दिखाती है। 

शुकदेव जी ने जो कथा परीक्षित को सुनाई, वह किसी अन्य ऋषि  के माध्यम से सम्भव नहीं हो पाती, यद्यपि उनके पिता मन्त्रों के दृष्टा माने जाते हैं। कोई भी व्यक्ति अक्षरों का स्मरण कर, नाम जप द्वारा ऋषि या दृष्टा नहीं कहा जा सकता। इसलिये कुछेक अपवादों के अतिरिक्त पुरातन काल में हर ऋषि कुछ चुने हुए मन्त्रों के प्रवीण पारंगत एवं दृष्टा कहे जाते थे। इस सम्बन्ध में गायत्री मंत्र के ऋषि-दृष्टा विश्वमित्र का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका नाम विनियोग प्रसंग में लिया जाता है।

(4). हविष्य एवं चरु :: स्थूलतः यह पदार्थ परक होते हैं, किन्तु यज्ञ प्रक्रिया में इनकी कारण शक्ति को उभारा जाता है। उपयुक्त याजक द्वारा ही हविष्य का संग्रह, पवित्रीकरण एवं संस्कारीकरण किया जाता है। यज्ञाग्नि में पकाये गये चरु में ही उन अंश का समावेश होता है जो आनुवाँशिकी से लेकर कर्म प्रारब्ध के सूक्ष्म संस्कारों पर प्रभाव डालते हैं। होम किया जाने वाला पदार्थ कितना पवित्र है, शुद्ध है, उसी पर उसकी कारण शक्ति का प्रकटीकरण निर्भर है। पदार्थ तो अपने स्थूल रूप में मात्र एक वनस्पति, खाद्यान्न मेवा अथवा दुग्ध रूप में है। लेकिन यज्ञाग्नि का स्पर्श उसे परिवर्धित कर देता है। जिस प्रकार प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के रूप में तथा साधना द्वारा योगाग्नि का प्रकटीकरण ब्रह्मतेजस् के रूप में देखा जाता है। ठीक उसी प्रकार यज्ञ प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाली हर सामग्री की परिष्कृति चमत्कारी होती है। शरीर रोग एवं मनोविकारों के निवारण तथा जीवनी शक्ति सम्वर्धन में इनकी भूमिका को भली-भांति देखा जा सकता है। चरु जो कि मेवे, खाद्यान्न, दुग्ध, शर्करा का सम्मिश्रण होता है एवं यज्ञाग्नि में पकाया, संस्कारित किया जाता है विशेष रूप से महत्व है, क्योंकि इनका प्रभाव जीवकोश जैसे सूक्ष्मतम घटक पर पड़ता है।

इस प्रकार ऋत्विज, यज्ञाग्नि, वाक् शक्ति एवं हविष्य चरु में चारों ही यजन प्रक्रिया के ऐसे प्रसंग हैं जिनमें सूक्ष्मीकरण का प्राधान्य है। वस्तुतः यज्ञ एक ज्वलन प्रक्रिया भाव नहीं है वरन् चारों तत्वों की कारण शक्ति को उभारने की एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। इतना न किया जाय तो यज्ञ प्रयोजन में अभीष्ट सफलता नहीं प्राप्त होती।

यज्ञ के चार अंग ::  ‘स्नान’, ‘दान’, ‘होम’ तथा ‘जप’। 

यज्ञ का तात्पर्य :: त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। 

अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर मनुष्यों  के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है। यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा इससे बन पड़ती है। मनुष्य का जन्म यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है। प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की है कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें।

अश्वमेध यज्ञ :: यह यज्ञ प्रधानतः पूरे संसार में बलशाली सम्राटों द्वारा अपनी सत्ता को स्वीकार करने और व्यवस्था लागु करने के लिए था। पराजित राजाओं को सम्राट का अधिपत्य मानना पड़ता था और नियमित रुप से कर का भुगतान करना होता था। 

वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, कात्यायनीय श्रोतसूत्र, आपस्तम्ब:, आश्वलायन, शंखायन तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इनका विशद वर्णन प्राप्त होता है। महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवौं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात पाप मोचनार्थ, अश्वमेध यज्ञ का आयोजन भगवान् श्री कृष्ण के अद्शानुसार किया गया। ब्रह्म वैवर्त पुराण में सावित्री और यमराज संवाद में वर्णन आया है कि भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेध यज्ञ करता है, वह दीर्घकाल तक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है।

“राजा सार्वभौम: अश्वमेधेन यजेत्। नाप्यसार्वभौम:” [आपस्तम्ब:]

“सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं।” यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का द्योतक होता था।

राजसूय यज्ञ :: ऐतरेय ब्राह्मण इस यज्ञ के करने वाले महाराजाओं की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाता था। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। यह यज्ञ चक्रवर्ती राजा बनने के लिए किया जाता था। सम्राट युधिष्टर के द्वारा किये गए राजसूय यज्ञ में भगवान् श्री कृष्ण का चरण पूजन प्रथम पुरुष-अति विशिष्ठ व्यक्ति के रूप में किया गया। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है।

यज्ञ के पाँच प्रकार :: लोक क्रिया, सनातन, गृहस्थ, पंचभूत और मनुष्य। 

गृहस्थ धर्म के यज्ञ :: इन पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।

(1). ब्रह्मयज्ञ :: जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है, मनुष्‍य। मनुष्‍य से बढ़कर है पितर (दिवंगत पूर्वज) अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पांच शक्तियां, देवी-देवता और देव से बढ़कर है। ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्‍वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात ‘ऋषि ऋण’ चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य..इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्‍ट होता है। इसमें गायत्री विनियोग होता है। प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है। मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी-हितैषी परिजन एक साथ बैठें। मृतात्मा के स्नेह-उपकारों का स्मरण करें।उसकी शान्ति-सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूवर्क पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अपिर्त करने का भाव करें-यह न्यूनतम है। यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल-जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें। ब्रह्ययज्ञ को उसकी पूणार्हुति मानें। संकल्प बोलें:-

नामाहं…नाम्नः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा, ब्रह्मलोकावाप्तये…

परिमाणं गायत्री महामन्त्रानुष्ठानपुण्यं श्रद्धापूवर्कम् अहं समपर्यिष्ये।

(2). देवयज्ञ :: यह सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी..संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे ‘देव ऋण’ चुकता होता है।  

हवन करने को ‘देवयज्ञ’ कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएं (लकड़ियां) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं।इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है। 

इसमें देवप्रवृत्तियों का पोषण, देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना आता है। दुष्प्रवृत्तियों के त्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभ्यास का उपक्रम अपनाने से देवशक्तियाँ तुष्ट होती हैं, देववृत्तियाँ पुष्ट होती हैं। श्राद्ध के समय संस्कार करने वाले प्रमुख परिजन सहित उपस्थित सभी परिजनों को इस यज्ञ में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए। अपने स्वभाव के साथ जुड़ी दुष्प्रवृत्तियों को सदैव के लिए या किसी अवधि तक के लिए छोड़ने, परमार्थ गतिविधियों को अपनाने का संकल्प कर लिया जाए, उसका पुण्य मृतात्मा के हितार्थ अपिर्त किया जाए। संकल्प बोलें:-

नामाहं… नामकमृतात्मनः देवगतिप्रदानाथर्…दिनानि यावत् मासपयर्न्तं-वषर्पयर्न्तं…दुष्प्रवृत्त्युन्मूलनैः …

सत्प्रवृत्तिसंधारणैः जायमानं पुण्यं मृतात्मनः समुत्कषर्णाय श्रद्धापूवर्कं अहं समपर्यिष्ये।

(3). पितृयज्ञ :: सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है।यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से ‘पितृ ऋण’ भी चुकता होता है।:: यह कृत्य पितृयज्ञ के अंतगर्त किया जाता है। ‘श्राद्ध’ और ‘तर्पण’ करना ही पितृ-यज्ञ है। जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए। मरणोत्तर संस्कार में 12 पिण्डदान किये जाते हैं :- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग एक-एक छटाँक आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए। संकल्प के बाद एक-एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए। छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक-एक पिण्ड है। सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है। अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, उच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समपिर्त हैं। ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं। मछलियों को चुगाये जा सकते हैं। पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें :-

ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निमिर्तः पुरा।  त्वय्यचिर्तेऽ चिर्तः सोऽ स्तु, यस्याहं नाम कीतर्ये।

मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है। काया की समाप्ति के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है। आगे का क्रम भी भलीप्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। सूक्ष्म विद्युत तरंगों के माध्यम से वैज्ञानिक दूरस्थ उपकरण का संचालन कर लेते हैं। श्रद्धा उससे भी अधिक सशक्त तरंगें प्रेषित कर सकती है। उसके माध्यम से पितरों-को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा सकती है। मरणोत्तर संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है। पितृ-यज्ञ हेतु मनीषियों ने हमारे यहाँ आश्विन या कुआर के कृष्ण-पक्ष के पूरे पन्द्रह दिन (मतान्तर से 16 दिन) विशेष रूप से सुरक्षित किए हैं।

पितृ-यज्ञ वार्षिक श्राद्ध क्रमांक विधि :: 

(3.1). पितृ-पक्ष के दिनों में अपने स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह तथा वृद्ध प्रपितामह और स्वर्गीय माता, मातामह, प्रमातामह एवं वृद्ध-प्रमातामह के नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए अपने हाथों की अञ्जुली से जल प्रदान करना चाहिए (यदि किसी कारण-वश किसी पीढ़ी के पितर का नाम ज्ञात न हो सके, तो भावना से स्मरण कर जल देना चाहिए)।

(3.2). पितरों को जल देने के लिए विशेष वस्तुओं के प्रबन्ध की आवश्यकता नहीं है। केवल (3.2.1). कुश, (3.2.2). काले तिल, (3.2.3). अक्षत (चावल), (3.2.4). गंगा-जल और (3.2.5). श्वेत-पुष्प पर्याप्त हैं। इन्हीं से श्रद्धा-पूर्वक जल प्रदान से पितर अल्प समय में सन्तुष्ट हो जाते हैं और कल्याण हेतु आशीर्वाद देते हैं।

(3.3). स्कन्द महापुराण में भगवान् शिव पार्वती जी से कहते हैं कि “हे महादेवि ! जो ‘श्राद्ध नहीं करता, उसकी पूजा को मैं ग्रहण नहीं करता। भगवान हरि भी नहीं ग्रहण करते हैं”।

(3.4). यदि किसी को किसी कारण-वश माता-पिता की मृत्यु-तिथि का ज्ञान न हो, तो उसे ‘अमावस्या’ को ही वार्षिक-श्राद्ध करना चाहिए।

(3.5) श्राद्ध-कर्त्ता को केवल एक समय भोजन करना चाहिए अर्थात रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिए। श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। 

(4). वैश्वदेवयज्ञ-भूतयज्ञ-पञ्चबलि :: पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।इसके निमित्त पञ्चबलि प्रक्रिया की जाती है।‘बलि’ और ‘वैश्व देव’ की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे ‘भूत-यज्ञ’ कहते हैं। विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है। अलग-अलग पत्तों या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं। उरद-दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है। पाँचों भाग रखें। क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक-एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समपिर्त करें।

(4.1). गोबलि :- पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त 

ॐ सौरभेय्यः सवर्हिताः, पवित्राः पुण्यराशयः। प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥ 

इदं गोभ्यः इदं न मम।

(4.2). कुक्कुरबलि :- कत्तर्व्यनिष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त

ॐ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ। ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ॥ 

इदं श्वभ्यां इदं न मम॥

(4.3). काकबलि :- मलीनता निवारक काक के निमित्त

ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा। वायसाः प्रतिगृह्णन्तु, भमौ पिण्डं मयोज्झतिम्। 

इदं वायसेभ्यः इदं न मम॥

(4.4). देवबलि :- देवत्व संवधर्क शक्तियों के निमित्त

 ॐ देवाः मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः। 

प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥ इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम।

पिपीलिकादिबलि :- श्रमनिष्ठा एवं सामूहिकता की प्रतीक चींटियों के निमित्त

 ॐ पिपीलिकाः कीटपतंगकाद्याः, बुभुक्षिताः कमर्निबन्धबद्धाः। 

तेषां हि तृप्त्यथर्मिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम।

बाद में गोबलि गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादिबलि चींटी आदि को खिला दिया जाए।

 (5). अतिथि यज्ञ-मनुष्य यज्ञ-श्राद्ध संकल्प :: अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है। इसके अन्तगर्त दान का विधान है। इसके अन्तर्गत ‘अतिथि-सत्कार’ आता है। दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निवार्ह के लिए अनिवार्य हो-कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए। असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर ऋण से मुक्ति का प्रयास किया जाना अनिवार्य है। 

पूवर्जों के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है। पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पयार्प्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं। श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूवर्जों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मो के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए। अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए।

प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था। उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निवार्ह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे। अपना निवार्ह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था। 

मृतकभोज का निर्वाह कर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है। कन्या भोजन, दीन-अपाहिज, अनाथों को ज़रूरत की चीज़ें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमाथिर्क कार्यो (वृक्षारोपण, विद्यालय निर्माण) के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध संकल्प के साथ की जानी चाहिए। 

संकल्प :: 

नामाहं…नामकमृतात्मनः शान्ति-सद्गति-निमित्तं लोकोपयोगिकायार्थर्…

परिमाणे धनदानस्य कन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूवर्कं संकल्पम् अहं करिष्ये॥ 

संकल्प के बाद निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत-पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ। 

ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहि, उशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशतऽ आ वह, पितृन्हविषेऽअत्तवे॥ 

ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वाऽवतु बृहत्साम, पञ्चदशस्तोमो ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥

पञ्चयज्ञ पूरे करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री-यज्ञ सम्पन्न करें, फिर लिखे मन्त्र से 3 विशेष आहुतियाँ दें।

ॐ सूयर्पुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं यमाय इदं न मम॥

इसके बाद स्विष्टकृत-पूणार्हुति आदि करते हुए समापन करें। विसजर्न के पूर्व पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अपिर्त करें, फिर क्रमशः क्षमा-प्राथर्ना, पिण्ड विसजर्न, पितृ विसजर्न तथा देव विसजर्न करें।

भगवान् विष्णु का यज्ञ :: सम्पूर्ण यज्ञों से इस यज्ञ को श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान शंकर ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला।

पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुव ने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हज़ारों राजसूय यज्ञों का फल निश्चित रूप से मिल जाता है। वह पुरुष अवश्य ही अनेक कल्पों तक जीवन धारण करने वाला तथा जीवन्मुक्त होता है।

जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णव पुरुषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरुषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में भगवती मूल प्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती देवी, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्ण पत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में ‘विष्णु यज्ञ’ श्रेष्ठ माना जाता है।

अग्निहोत्र :: इस प्रक्रिया में अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियाँ दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं :- (1). गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, (2). मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, (3). शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा (4). ओषधियाँ व वनस्पतियाँ जो स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। अग्निहोत्र का मुख्य प्रयोजन इन सभी पदार्थों को अग्नि की सहायता से सूक्ष्मातिसूक्ष्म बनाकर उसे वायुमण्डल व सुदूर आकाश में फैलाया जाता है।जब कोई वस्तु जलती है तो वह सूक्ष्म हल्के कणों में परिवर्तित हो जाती है और वायु मण्डल में सर्वत्र वा दूर-दूर तक फैल जाती है। वायु मण्डल में फैलने से उनका वायु पर लाभप्रद प्रभाव होता है। जिस प्रकार दुर्गन्धयुक्त वायु स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद व मन के लिए अप्रिय होती है उसी प्रकार से गोघृत व केसर, कस्तूरी आदि नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों के जलने से वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित, स्वास्थ्यप्रद व रोगनाशक हो जाती है। इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप यज्ञ से पूर्व की वायु के गुणों में वृद्धि होकर वह स्वास्थ्यवर्धक, रोगनिवारक, वर्षाजल को शुद्ध करने वाली, प्रदुषण निवारक, वर्षा जल पर आश्रित अन्न व वनस्पतियों को स्वास्थ्यप्रद करने, यहां तक की अच्छी सन्तानों को जन्म देने में भी सहायक होती है।   

अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए यज्ञकुण्ड वा हवनकुण्ड का प्रयोग करते है जो तली में छोटा व ऊपर की ओर बड़ा व खुले मुख वाला होता है। यह पूरा यज्ञ कुण्ड टीन, लोहे व ताम्बे का बना होता है। भूमि खोद कर भी यज्ञ कुण्ड बनाया जा सकता है। आम, पीपल, गुग्गल, कपूर व पलाश आदि अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व पर्यावरण के हितकर काष्ठों की समिधाओं को यज्ञ कुण्ड के आकार में काट कर उन्हें यज्ञकुण्ड में रखा जाता है। कपूर को यज्ञ में प्रयुक्त घृताहुति वाली चम्मच में रखकर उसे दीपक के द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते हुए वेद मन्त्र को बोलकर अग्नि का आधान यज्ञकुण्ड के बीच समिधाओं में किया जाता है। जब अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है तो यज्ञ के विधान के अनुसार परिवार का एक व अधिक सदस्य घृत की और कुछ हवन सामग्री वा साकल्य जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, को लगभग पांच-पांच ग्राम या कुछ अधिक मात्रा में लेकर उसकी आहुतियां वेद मन्त्रों को बोलकर यज्ञ की अग्नि में डाली जाती हैं, जिससे अग्नि में पड़ कर वह आहुतियां पूर्णतया जलकर व सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जायें। जिन मन्त्रों को शुद्ध उच्चारित कर आहुतियां दी जाती हैं, उनके अन्त में स्वाहा: बोला जाता है। मन्त्र बोलने का प्रयोजन यह है कि इससे यज्ञ करने के लाभ यजमान वा यज्ञकर्ता को विदित हो जाये और साथ ही उन मन्त्रों के कण्ठस्थ हो जाने से उनकी रक्षा व सुरक्षा हो सके। इस प्रकार न्यून से न्यून प्रतिदिन प्रातः व सायं सोलह-सोलह व अधिक आहुतियां देने का विधान पूर्वजों व ऋषियों ने किया है। इस प्रकार से यज्ञ-अग्निहोत्र करने में मात्र 10 से 15 या अधिकतम 20 मिनट का समय लगता है। इस प्रक्रिया से वायु मण्डल शुद्ध हो जाता है। यज्ञ की गर्मी से घर का वायु हल्का होकर ऊपर व खिड़कियों-रोशन दानों से बाहर चला जाता है और बाहर का शुद्ध व हितकर वायु घर के अन्दर प्रवेश करता है। इससे घर में रहने वाले सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा वा निरोग रहता है। परिवार के किसी भी सदस्य को रोग नहीं होते और यदि किसी कारण से हों भी जायें तो अल्प मात्रा में उपचार करने से वह शीघ्र ठीक हो जाते हैं। घृत एवं यज्ञ सामग्री के अनेक पदार्थ कीटाणु नाशक भी हैं। यज्ञ करने से जल, वायु आदि में व घर में यत्र-तत्र जो सूक्ष्म हानिकारक कीटाणु छिपे होते हैं, वह भी नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध वायु मिलने से मनुष्यों का स्वास्थ्य अच्छा होता है व उनके शरीर बलवान, रोगमुक्त व स्वस्थ होते हैं। यज्ञ करने के अनेक अदृश्य लाभ भी होते हैं जो यज्ञ में वेद मन्त्रों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने अपनी गवेषणा व अनुसंधान से यहां तक कहा कि यज्ञ करने वाले के अगले पुनर्जन्म में यह आहुतियां उसको अनेकविध लाभ पहुंचाती हैं। यह लाभ ईश्वर जीवात्मा को प्रदान करता है। 

वेद मन्त्र ईश्वर के द्वारा प्रदत्त व निर्मित है। वेदों की कोई भी बात अज्ञान व असत्य नहीं है। वेद मन्त्रों में असम्भव प्रार्थनायें भी नहीं है जो उसके अनुरूप व्यवहार करने से पूर्ण वा सिद्ध न हों। वेद की प्रार्थनायें सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण हैं। अतः वेदों में जो कहा गया है वह जीवन में अवश्य प्राप्त होता है अथवा वह सभी लाभ उसको प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति यज्ञ को करता है। यज्ञ को करते समय जब यज्ञकुण्ड की अग्नि मन्द होने लगे तो उसमें आवश्यकतानुसार समिधायें रखते रहना चाहिये जिससे हमारी आहुतियां तेज वा प्रचण्ड अग्नि से सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में दूर दूर तक पहुंचती रहे।  

योग यज्ञ :: योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा प्राण वायु में अपान वायु का हवन करते हैं, जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन। कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं, जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम। कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं।

ज्ञान यज्ञ :: यज्ञों द्वारा काम, क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी, यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान से परमात्मा को जान लेते हैं। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है, वह ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं, परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में। इस प्रकार बहुत प्रकार की यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं। यह यज्ञ विधियाँ  कर्म से ही उत्पन्न होती हैं। इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव मुक्त हो जाता है। 

द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है। द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं, परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है। सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता। प्रज्ज्वलित अग्नि जिस प्रकार काष्ठ को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को; उनके प्रति आसक्ति को भस्म कर देती है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है, क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है। ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है, क्योंकि आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है। जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर उन्हें वश में रखता है, जो निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है, जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में। ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, लोभ मोह से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त होता है। ज्ञान से आसक्ति को नष्ट करें। ज्ञान का संयोग संयम और भक्ति से होने पर प्राणी मुक्ति-मोक्ष माह प्रयाण की ओर बढ़ जाता है। 

यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभ :: यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन का सामर्थ्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिशा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले-दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।

अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है, जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी को करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान न होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबको करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है।

यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामर्थ्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है।

यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।

प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायु शुद्धि, जल शुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामर्थ्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है।

दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान के इच्छा, प्रेरणाग्रहण एवं प्रयत्न पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर के एवं परमेश्वररचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्षप्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।

यदि कोई व्यक्ति इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है। जहाँ तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियाँ रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्र–चिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है।

यज्ञ करने की विधि ::  प्रातःकाल यज्ञ से पूर्व तथा सायंकाल यज्ञ के पश्चात “सन्ध्योपासना” करने का विधान है। सन्ध्या का अर्थ है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना। सन्ध्या के बाद तथा जब सूर्योदय हो गया हो, तब अग्निहोत्र किया जाता है। सबसे पहले गायत्री का मन्त्र का पाठ कर लेना चाहिये जिससे मन यज्ञ करते समय इधर-उधर न भागे और यज्ञ में ही एकाग्र रहे। इसके बाद तीन आचमन अर्थात् अल्प मात्रा में जल पीने का विधान है जो आचमन के मन्त्रों को बोलकर किये जाते हैं। इससे कफ आदि की निवृत्ति होकर वाणी का उच्चारण शुद्ध होता है। इसके पश्चात बायें हाथ की अंजलि में जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से शरीरस्थ इन्द्रियों के स्पर्श करने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर से इन्द्रियों व शरीर के स्वस्थ, निरोग व बलवान होने की प्रार्थना है। तत्पश्चात 8 स्तुति-प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का उनके अर्थ को विचार करते हुए या पृथक से बोल कर गायन वा उच्चारण करने का विधान है। इसके बाद दीपक जला कर उससे कपूर को प्रज्जवलित कर यज्ञ कुण्ड में उस कपूर की अग्नि का आधान मन्त्रों को बोलकर किया जाता है जो मात्र 25 से 30 सेकंड में हो जाता है। अग्न्याधान के बाद चार मन्त्रों को बोलकर काष्ठ की 3 समिधायें प्रदीप्त अग्नि पर रखने का विधान है। समिदाधान के बाद एक ही मन्त्र को पांच बार बोल कर घृत की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात चारों दिशाओं में जल सिंचन का विधान है। यह सभी कार्य पृथक पृथक मन्त्रों को बोल कर किये जातें हैं। जल सिंचन के बाद घृत की दो आघाराज्य व दो आज्यभाग आहुतियां दी जाती हैं। इसके बाद दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं। प्रातः काल की 12 आहुतियां एवं सायं काल की भी 12 आहुतियां हैं। इनके बाद यज्ञकर्त्ता यजमान यदि अधिक आहुति देना चाहें तो गायत्री मन्त्र को बोलकर देने का विधान है। इसके बाद पूर्णाहुति तीन बार ‘ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।’ बोलकर की जाती है। इससे पूर्व यदि यजमान स्विष्टकृदाहुति व प्राजापत्याहुति देना चाहे तो सम्बन्धित मन्त्रों को बोल कर दे सकता है। इस प्रकार से दैनिक यज्ञ सम्पन्न होता है। बहुत से लोग प्रातः व सायं यज्ञ न कर सायंकाल के 4 मन्त्रों को भी प्रातःकाल के यज्ञ में सम्मिलित कर आहुतियां दे देते हैं। इस प्रकार से यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यज्ञ के बाद, “यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छल कपट को छोड़ देवें, मानसिक बल दीजिए’ यह यज्ञ प्रार्थना भी की जा सकती है और उसके बाद शान्तिपाठ का मन्त्र बोलकर यज्ञ समाप्त हो जाता है। यह अग्निहोत्र वा देवयज्ञ करने की विधि व विधान है। यज्ञ पूर्णतः अंहिसात्मक कर्म है, इसमें किंचित किसी प्राणी की हिंसा निषिद्ध है। ऐसा होने यज्ञ यज्ञ न होकर पापकर्म बन जाता है।   

रोग व दुःखों से बचने व अन्यों को बचाने के लिए वायु, जल व प्रकृति को शुद्ध रखें व यज्ञ आदि क्रिया कर सबको शुद्ध करें। जो मनुष्य, स्त्री व पुरूष, ऐसा नहीं करता वह पाप का भागी होता है। यज्ञ न करना पाप करना है क्योंकि इससे किये गये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों से अन्य प्राणियों को दुःख होता है। यदि मनुष्य इस जन्म व परजन्मों में सुखी होना चाहता है तो उसे यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ का अन्य कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं करेगा तो कालान्तर में परिणाम ईश्वर की व्यवस्था से इसके सम्मुख अवश्य आता है। इसके साथ ही यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी अनेक प्रकार से भी वंचित हो जाता है।   

धर्म की एक शब्द की एक परिभाषा है ‘‘सत्याचरण”। सत्याचरण में माता-पिता की सेवा सुश्रुषा सहित प्राणिमात्र पर दया व उनके भोजन का प्रबन्ध करने के साथ, विद्वान अतिथियों की सेवा, उनसे सद्व्यवहार, उनका अन्न, धन, वस्त्र दान द्वारा सम्मान एवं यथासमय ईश्वरोपासना-सन्ध्या व अग्निहोत्र कल्याण के हितैषी सब मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। जो करेगा वह ईश्वर से इन कर्मों का लाभ व फल पायेगा और जो नहीं करेगा वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होगा। 

यज्ञ-हवन कुंड का प्रकार ::

सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ति के लिए प्रधान चतुरस्त्र कुंड का महत्व होता है। 

पुत्र प्राप्ति के लिए योनि कुंड का पूजन जरूरी है।

ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य कुंड यज्ञ का आयोजन जरूरी होता है।

शत्रु नाश के लिए त्रिकोण कुंड यज्ञ फलदाई होता है। 

व्यापार में वृद्धि के लिए वृत्त कुंड करना लाभदाई होता है। 

मन की शांति केमन की शांति के लिए अर्द्धचंद्र कुंड किया जाता है। 

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए समअष्टास्त्र कुंड, विषम अष्टास्त्र कुंड, विषम षडास्त्र कुंड का विशेष महत्व होता है। 

दैनिक यज्ञ-हवन  विधि

॥ अथ अग्निहोत्रमंत्र:॥

जल से आचमन करने के मंत्र ::

(1). ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।

हे सर्व रक्षक अमर परमेश्वर! यह सुख प्रद जल प्राणियों का आश्रयभूत है, यह हमारा कथन शुभ हो। यह मैं सत्य निष्ठा पूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।

  (2). ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।

 हे सर्व रक्षक अविनाशि स्वरूप, अजर परमेश्वर! आप हमारे आच्छादक वस्त्र के समान अर्थात सदा-सर्वदा सब और से रक्षक हों, यह सत्य वचन मैं सत्य निष्ठा पूर्वक मान कर कहता हूँ और सुष्ठू क्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।

(3). ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा।

हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण, यश एवं प्रतिष्ठा. विजय लक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझ में स्थित हों, यह मैं सत्य निष्ठा पूर्वक प्रार्थना करता हूँ और सुष्ठू क्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।

जल से अंग स्पर्श करने के मंत्र का उद्देश्य शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश करना तथा अंतः करण की चेतना को जगाना है ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।

इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें :: ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु॥

इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग :: ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥

हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।

इस मंत्र से दोनों आँखें :: ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥

हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।

इस मंत्र से दोनों कान :: ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥

हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।

इस मंत्र से दोनों भुजाऐं :: ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु॥

हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे।

इस मंत्र से दोनों जंघाएं :: ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु॥

हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे।

इस मंत्र से सारे शरीर पर जल का मार्जन करें :: ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु॥

हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें।

ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना–उपासना के मंत्र ::

ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद भद्रं तन्न आ सुव॥

हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।

हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।

स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा:।

यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्ष सुख दायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजा पालक शुद्ध एवं प्रकाश स्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।

य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक:।

यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

जिस परमात्मा ने तेजो मय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाश स्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव।

यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥

हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त॥

वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।

अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम॥

हे ज्ञान प्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक, दिव्य सामर्थ युक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याण कारी मार्ग से ले चलें। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।

 दीपक जलाने का मंत्र :: ॐ भूर्भुव: स्व:॥

हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब के उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को दूर करने वाले सुखस्वरूप एवं सुखदाता हैं। आपकी कृपा से मेरा यह अनुष्ठान सफल होवे। अथवा हे ईश्वर आप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकी कृपा से यह यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में विस्तीर्ण होकर लोकोपकारक सिद्ध होवे।

 यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मंत्र :: 

ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥

हे सर्वरक्षक सबके उत्पादक और प्राणाधार दुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता परमेश्वर! आपकी कृपा से मैं महत्ता या गरिमा में द्युलोक के समान, श्रेष्ठता या विस्तार में पृथिवी लोक के समान हो जाऊं । देवयज्ञ की आधारभूमि पृथिवी! के तल पर हव्य द्रव्यों का भक्षण करने वाली यज्ञीय अग्नि को, भक्षणीय अन्न एवं धर्मानुकूल भोगों की प्राप्ति के लिए तथा भक्षण सामर्थ्य और भोग सामर्थ्य प्राप्ति के लिए यज्ञकुण्ड में स्थापित करता हूँ ।

अग्नि प्रदीप्त करने का मंत्र :: 

ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च।

अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥

मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुअ यहाँ कामना करता हूँ कि हे यज्ञाग्ने ! तू भलीभांति उद्दीप्त हो, और प्रत्येक समिधा को प्रज्वलित करती हुई पर्याप्त ज्वालामयी हो जा। तू और यह यजमान इष्ट और पूर्त्त कर्मों को मिल्कर सम्पादित करें। इस अति उत्कृष्ट, भव्य और अत्युच्च यज्ञशाला में सब विद्वान और यज्ञकर्त्ता जन मिलकर बैठें।

घृत की तीन समिधायें रखने के मंत्र :: 

इस मंत्र से प्रथम समिधा रखें :-

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान् प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन

समेधय स्वाहा। इदमग्नेय जातवेदसे–इदं न मम॥

मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह समिधा तेरे जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस समिधा से तू प्रदीप्त हो, सबको प्रकाशित कर और सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर, और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा।ब्रह्मतेज ( विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन-ऐश्वयर् तथा भक्षण एवं भोग- सामथ्यर् से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ।  यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नही है। 

इन दो मन्त्रों से दूसरी समिधा रखें :-

ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम्। आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम ॥

मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यो! समिधा के द्वारा यज्ञाग्नि की सेवा करो-भक्ति से यज्ञ करो। घृताहुतियों से गतिशील एवं अतिथ के समान प्रथम सत्करणीय यज्ञाग्नि को प्रबुद्ध करो, इसमें हव्यों को भलीभांति अपिर्त करो।मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ। यह आहुति यज्ञाग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है। 

सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥

मैं सर्वरक्षक परमेश्वर के स्मरणपूर्वक वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यों! अच्छी प्रकार प्रदीप्त ज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्नि के लिए वस्तुमात्र में व्याप्त एवं उनकी प्रकाशक अग्नि के लिए उत्कृष्ट घृत की आहुतियाँ दो . मैं त्याग भाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ यह आहुति जातवेदस् संज्ञक माध्यमिक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं।

 इस मन्त्र से तीसरी समिधा रखें :-

तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा। इदमग्नेऽङिगरसे इदं न मम॥

मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए यह कथन करता हूँ कि हे तीव्र प्रज्वलित यज्ञाग्नि! तुझे हम समिधायों से और धृताहुतियों से बढ़ाते हैं।हे पदार्थों को मिलाने और पृथक करने की महान शक्ति से सम्पन्न अग्नि ! तू बहुत अधिक प्रदीप्त हो, मैं त्यागभाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ। यह अंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है।

नीचे लिखे मन्त्र से घृत की पांच आहुति देवें ::

ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान् प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन

समेधय स्वाहा।इदमग्नये जातवेदसे-इदं न मम॥

मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह धृत जो जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस धृत से तू प्रदीप्त हो और ज्वालाओं से बढ़ तथा सबको प्रकाशित कर सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा। विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन ऐश्वर्य तथा भक्षण एवं भोग सामर्थ्य से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह धृत प्रदान करता हूँ ।यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है।

जल प्रसेचन के मन्त्र ::

इस मन्त्र से पूर्व दिशा में :-

ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥ 

हे सर्व रक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पूर्व दिशा में, जलसिञ्चन के सदृश, मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार प्रसार निबार्ध रूप से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।

इस मंत्र से पश्चिम दिशा में :-

ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥

हे सर्व रक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे अथवा पश्चिम दिशा में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से कर सकूं, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।

इस मंत्र से उत्तर दिशा में :-

ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व॥ 

हे सर्वरक्षक प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि से मेरा यह यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से सम्पन्न होता रहे।अथवा, उत्तर दिशा में जलसिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से करता रहूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।

इस मन्त्र से वेदी के चारों और जल छिड़कावें :- 

ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय दिव्यो

गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥ 

हे सर्वरक्षक दिव्यगुण शक्ति सम्पन्न सब जगत के उत्पादक परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म को बढाओ । आनन्द, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए याग्यकर्त्ता को यज्ञकर्म की अभिवृद्धि के लिए और अधिक प्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञान के प्रकाशक हैं पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र ज्ञान के आश्रय हैं, ज्ञान-विज्ञान से बुद्धि मन को पवित्र करने वाले हैं, अतः हमारे बुद्धि-मन को पवित्र कीजिये।आप वाणी के स्वामी हैं, अतः हमारी वाणी को मधुर बनाइये। अथवा, चारों दिशायों में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार कर सकूँ, इस कार्य के लिए मुझे उत्तम ज्ञान, पवित्र आचरण और मधुर-प्रशस्त वाणी में समर्थ बनाइये।

चार घी की आहुतियाँ ::

इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें।

ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये-इदं न मम॥ 

सर्व रक्षक प्रकाश स्वरूप दोष नाशक परमात्मा के लिए मैं त्याग भावना से धृत की हवि देता हूँ।यह आहुति अग्नि स्वरूप परमात्मा के लिए है, यह मेरी नहीं है अथवा, यज्ञाग्नि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।

इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें :-

ओम् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय-इदं न मम॥ 

सर्व रक्षक, शांति-सुख-स्वरूप और इनके दाता परमात्मा के लिए त्याग भावना से धृत की आहुति देता हूँ अथवा आनन्द प्रद चन्द्रमा के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।

इन दो मन्त्रों से यज्ञ कुण्ड के मध्य में दो आहुति देवें :- 

ओम् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये-इदं न मम॥ 

सर्व रक्षक प्रजा अर्थात सब जगत के पालक, स्वामी, परमात्मा के लिए मैं त्याग भाव से यह आहुति देता हूँ अथवा प्रजापति सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। 

ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदं इन्द्राय-इदं न मम॥ 

सर्वरक्षक परमऐश्वर्य-सम्पन्न तथा उसके दाता परमेश्वर के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ अथवा ऐश्वयर्शाली, शक्ति शाली वायु व विद्युत के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।

दैनिक अग्निहोत्र की प्रधान आहुतियां-प्रातः कालीन आहुति के मन्त्र :-

इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री आदि अन्य होम द्रव्यों की भी आहुतियां दें।

ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा॥

सर्व रक्षक, सर्व गति शील सबका प्रेरक परमात्मा प्रकाश स्वरूप है और प्रत्येक प्रकाश स्वरूप वस्तु या ज्योति परमात्ममय  परमेश्वर से व्याप्त है।उस परमेश्वर अथवा ज्योतिष्मान उदय कालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूँ।

ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥

 सर्व रक्षक, सर्व गति शील और सबका प्रेरक परमात्मा तेज स्वरूप है, जैसे प्रकाश तेज स्वरूप होता है, उस परमात्मा अथवा तेजःस्वरूप प्रातःकालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूँ।

ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योति स्वाहा॥

सर्व रक्षक, ब्रह्म ज्योति ब्रह्म ज्ञान परमात्म मय है परमात्मा की द्योतक है परमात्मा ही ज्ञान का प्रकाशक है। मैं ऐसे परमात्मा अथवा सबके प्रकाशक सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूं।

ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यता जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥

सर्व रक्षक, सर्व व्यापक, सर्वत्र गति शील परमात्मा सर्वोत्पादक, प्रकाश एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला, तथा ऐश्वयर्शाली प्रसन्न्ता, शक्ति तथा धनैश्वर्य देने वाली प्राणमयी उषा से प्रीति रखने वाला है अर्थात प्रीति पूर्वक उनको उत्पन्न कर प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो  हमारी आत्मा में प्रकाशित हो।उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूं।अथवा सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्रसन्नता, शक्ति, ऐश्वयर्युक्त उषा से संयुक्त प्रातः कालीन सूर्य हमारे द्वारा आहुतिदान का सम्यक् प्रकार भक्षण करे और उनको वातावरण में व्याप्त कर दे, जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ हो।

प्रातः कालीन आहुति के समान मन्त्र :: 

ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नये प्राणाय-इदं न मम॥

सर्व रक्षक, सबके उत्पादक एवं सत स्वरूप, सर्वत्र व्यापक, प्राण स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति देता हूं।यह आहुति अग्नि और प्राणसंज्ञक परमात्मा के लिए है। यह मेरी नही हैअथवा परमेश्वर के स्मरण पूर्वक, पृथिवी स्थानीय अग्नि के लिए और प्राणवायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।

ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम॥

सर्व रक्षक, सब दुखों से छुड़ाने वाले और चित्तस्वरूप सर्वत्र गतिशील दोषों को दूर करने वाले परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ। यह आहुति वायु और अपान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक अन्तिरक्ष स्थानीय वायु के लिए और अपान वायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।

ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम॥

सर्वरक्षक, सुखस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप अखण्ड और प्रकाशस्वरूप सर्वत्र व्याप्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा सर्वरक्षक परमात्मा के स्मरणपूवर्क, द्युलोकस्थानीय सूर्य के लिए और व्यान वायु की शुद्धि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान वायु के लिए है, यह मेरी नही है।

ओम् भूभुर्वः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदं न मम॥

सर्वरक्षक, सबके उत्पादक एवं सतस्वरूप दुखों को दूर करने वाले एवं चित्तस्वरूप सुख-आनन्द स्वरूप सर्वत्र व्याप्त गतिशील प्रकाशक, सबके प्राणाधार, दोषनिवारक व्यापक स्वरूपों वाले परमात्मा के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूँ। यह आहुति उक्तसंज्ञक परमात्मा के लिए है, मेरी नहीं है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूवर्क, पृथिवीअन्तिरक्षद्युलोकस्थानीय अग्नि वायु और आदित्य के लिए तथा प्राण, अपान और व्यान संज्ञक प्राणवायुओं की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूँ।

ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूभुर्वः स्वरों स्वाहा॥

हे सर्वरक्षक परमेश्वर आप सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशस्वरूप एवं प्रकाशक, उपासकों द्वारा रसनीय, आस्वादनीय, आनन्द हेतु उपासनीय, नाशरिहत, अखण्ड, अजरअमर, सबसे महान, प्राणाधार और सतस्वरूप, दुखों को दूर करने वाले और चितस्वरूप, सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता और आनन्दस्वरूप, सबके रक्षा करनेवाले हैं।ये सब आपके नाम हैं, इन नामों वाले आप परमेश्वर की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ।

ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! जिस धारणावती ज्ञान, गुण, उत्तम विचार आदि को धारण करने वाली बुद्धि की दिव्य गुणों वाले विद्वान और पालक जन माता-पिता आदि ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध जन उपासना करते हैं अर्थात चाहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये यत्नशील रहते हैं उस मेधा बुद्धि से मुझे आज मेधा बुद्धि वाला बनाओ।इस प्रार्थना के साथ मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।।

ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा॥

हे सर्व रक्षक दिव्य गुण शक्ति सम्पन्न, सबके उत्पादक और प्रेरक परमात्मन्! आप कृपा करके हमारे सब दुगुर्ण, दुव्यर्सन और दुखों को दूर कीजिए और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव हैं उनको हमें भली भांति प्राप्त कराइये।

अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम स्वाहा॥

हे ज्ञान प्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मन् ! हमको ज्ञानविज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए धमर्युक्त कल्याण कारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानविज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं हमसे कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना-सत्कार नम्रता पूर्वक करते हैं।

सायं कालीन आहुति के मन्त्र ::

ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥

सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक परमात्मा ज्योति स्वरूप व प्रकाश स्वरूप है, और प्रत्येक ज्योति या ज्योतियुक्त पदार्थ अग्निसंज्ञक परमात्मा से व्याप्त है। मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा ज्योतिःस्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।

ओम् अग्निवर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥

सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक परमात्मा तेज स्वरूप है, जैसे प्रत्येक प्रकाशयुक्त वस्तु या प्रकाश तेज स्वरूप होता है, मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा तेजः स्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।

इस तीसरे मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें :-

ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥

ज्ञानविज्ञान अग्निसंज्ञक परमात्मा से उत्पन्न अथवा उसका द्योतक है मैं उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु और सबको प्रकाशित करने वाले अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।

ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजुरात्र्येन्द्रवत्या जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥

सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक, प्रकाश स्वरूप परमात्मा प्रकाश स्वरूप एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला तथा प्राणमयी एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से प्रीति रखने वाला है अर्थांत प्रीतिपूवर्क उनको उत्पन्न कर, प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया जाता हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो। हमारी आत्मा में प्रकाशित हो। उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूँ।

अधिदैवत पक्ष में सबके प्रकाशक सूर्य से और सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्राण एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से संयुक्त भौतिक अग्नि हमारे द्वारा आहुतिदान से प्रशंसित किया जाता हुआ हमारी आहुतियों का सम्यक प्रकार भक्षण करे और उन्हे वातावरण में व्याप्त कर दे जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ पहुँचे।

सायं कालीन आहुति के शेष समान मन्त्र ::

ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम॥

ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम॥

ओम् भूर्भुवः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदं न मम॥

ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा॥

ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥

ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा॥

अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा॥

अब तीन बार गायत्री मन्त्र से आहुति देवें :-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा॥

उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

पूर्णाहुति :-

इस मन्त्र से तीन बार घी से पूर्णाहुति करें :-

ओम् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥

हे सर्वरक्षक, परमेश्वर ! आप की कृपा से निश्चयपूर्वक मेरा आज का यह समग्र यज्ञानुष्ठान पूरा हो गया है मैं यह पूर्णाहुति प्रदान करता हूँ।

पूर्णाहुति मन्त्र को तीन बार उच्चारण करना इन भावनाओं का द्योतक है कि शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तथा पृथिवी, अन्तिरक्ष और द्युलोक के उपकार की भावना से, एवं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु किया गया यह यज्ञानुष्ठान पूर्ण होने के बाद सफल सिद्ध हो।इसका उद्देश्य पूर्ण हो।

॥इति अग्निहोत्रमन्त्राः॥

संक्षिप्त हवन विधि :: इस तरह करें तैयारी घर में पहले किसी स्थान को धो-पोंछकर साफ कर लें। फिर पूर्व या उत्तर दिशा (भौतिक कार्य के लिए पूर्व और आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए उत्तर श्रेष्ठ) की ओर मुँह कर बैठ जायें। सामने हवन कुंड रखें। आम की लकड़ी मिल सके तो बेहतर नहीं तो अन्य लकड़ी से भी काम चलाया जा सकता है। काला तिल, चावल, चीनी, जौ एवं घी को मिलाकर सामग्री तैयार कर किसी साफ पात्र में रख लें। इसके साथ ही एक साफ पात्र में घी, दूसरे साफ पात्र में जल एवं घी देने के लिए साफ बड़े चम्मच  को लेकर बैठें। 

इसके बाद निम्न कार्य करें :-

(1). हवन कुंड में तीन छोटी लकड़ी से अपनी ओर नोंक वाला त्रिकोण बनाएं। उसे “अस्त्राय फट” कहते हुए तर्जनी व मध्यमा से घेरें।

(2). फिर मुट्ठी बंद कर तर्जनी उंगली निकाल कर “हूं फट” मंत्र पढ़ें।

(3). इसके बाद लकड़ी डालकर कर्पूर व धूप देकर :-“ह्रीं सांग सांग सायुध सवाहन सपरिवार” गायत्री मंत्र  पढ़कर, नम: कहें।

(4). आग जलाकर :- “ह्रीं क्रव्यादेभ्यो: हूं फट” कहते हुए तीली या उससे लकड़ी का टुकड़ा जलाकर हवन कुंड से किनारे नैऋत्य (उत्तर-पूर्व, North-East) कोण में फेंकें।

(5). तदन्तर :- “रं अग्नि अग्नेयै वह्नि चैतन्याय स्वाहा” मंत्र सेअग्नि में थोड़ा घी डालें।

(6). फिर हवन कुंड को स्पर्श करते हुए “ह्रीं अग्नेयै स्वेष्ट देवता नामापि” मंत्र पढ़ें।

(7). इसके बाद पढ़ें :- “ह्रीं सपरिवार स्वेष्ट रूपाग्नेयै नम:”।

(8). तदन्तर घी से चार आहुतियां दें और जल में बचे घी को देते हुए निम्न चार मंत्र पढ़ें :-

अग्नि में :- ह्रीं भू स्वाहा; पानी में :- इदं भू, 

अग्नि में :- ह्रीं भुव: स्वाहा; पानी में :- इदं भुव:,

अग्नि में :- ह्रीं स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं स्व:,

अग्नि में :- ह्रीं भूर्भुव:स्व: स्वाहा; पानी में :-इदं भूर्भुव: स्व:। 

(9). तदन्तर मूल मंत्र से हवन शुरू करने हुए 9 से 108 आहुतियाँ दें।

(10). मूल मंत्र से हवन के बाद पुन: निम्न मंत्रों से आहुतियां दें :-

अग्नि में :- ह्रीं भू स्वाहा; पानी में :- इदं भू ,

अग्नि में :- ह्रीं भुव: स्वाहा; पानी में :-इदं भुव:,

अग्नि में :- ह्रीं स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं स्व:,

अग्नि में :- ह्रीं भूर्भुव:स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं भूर्भुव: स्व:। 

(11). अंत में सुपारी या गोला से पूर्णाहुति के लिए मंत्र पढ़ें :-

ह्रीं यज्ञपतये पूर्णो भवतु यज्ञो मे ह्रीस्यन्तु यज्ञ देवता फलानि सम्यग्यच्छन्तु सिद्धिं दत्वा प्रसीद मे स्वाहा क्रौं वौषट।

यज्ञ करने वाले सरवा में यज्ञ की राख लगाकर रख दें।

(12). :ह्रीं क्रीं सर्व स्वस्ति करो भव” मंत्र से तिलक करें।

(13). अंत में :-

ह्रीं यज्ञ यज्ञपतिम् गच्छ यज्ञं गच्छ हुताशन स्वांग योनिं गच्छ यज्ञेत पूरयास्मान मनोरथान अग्नेयै क्षमस्व। 

इसके बाद जल वाले पात्र को उलट कर रख दें।

हवन कुंड की अग्नि के पूरी तरह शांत होने के बाद बची सामग्री को समेट कर किसी नदीं, जलाशय या आज के परिप्रेक्ष्य में भूमि में गड्ढा खोदकर डालकर ढंक दें। यदि इसकी राख को खेतों में डाला जाए तो निश्चय ही उसकी उर्वरा शक्ति में भारी बढ़ोतरी होगी।

मंत्र, जप और हवन-यज्ञ करते समय सावधानियाँ ::

यदि जप के समय काम-क्रोधादि सताए तो काम सताएँ तो भगवान नृसिंह का चिन्तन करें। लोभ के समय दान-पुण्य करें। मोह के समय कौरवों को याद करें। सोचें कि कौरवो का कितना लम्बा-चैड़ा परिवार था, किन्तु अंत क्या हुआ। अहं सताए तो जो अपने से धन, सत्ता एवं रूप में बड़े हों, उनका चिन्तन करें। इस प्रकार इन विकारों का निवारण करके, अपना विवेक जाग्रत रखकर जो अपनी साधना करता है, उसका इष्ट मन्त्र जल्दी फलीभूत होता है। विधिपूर्वक किया गया गुरूमन्त्र का अनुष्ठान साधक के तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को सूक्ष्म लीन करके मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है।

अपनी रूचि के अनुसार जप करते समय भगवान् के सगुण अथवा निर्गुण स्वरूप में मन को एकाग्र किया जा सकता है। सगुण का विचार करेंगे तब भी अन्तिम प्राप्ति तो निर्गुण की ही होगी।

जप में साधन और साध्य एक ही हैं जबकि अन्य साधना में अलग हैं। योग में अष्टांग योग का अभ्यास साधना है और निर्विकल्प समाधि साध्य है। वेदांत में आत्मविचार साधन है और तुरीयावस्था साध्य है। किन्तु जप-साधना में जप के द्वारा ही अजपा स्थित को सिद्ध करना है अर्थात् सतर्कतापूर्वक किए गए जप के द्वारा सहज जप को पाना है। मन्त्र के अर्थ में तदाकार होना ही सच्ची साधना है। एक समय में एक ही मन्त्र और वह भी सद्गुरू प्रदत्त मन्त्र का ही जप करना श्रेष्ठ है। यदि भगवान् श्री कृष्ण के भक्त हैं तो भगवान् श्री राम, भगवान् शिव, दुर्गा माता, गायत्री इत्यादि में भी भगवान् श्री कृष्ण के ही दर्षन होंगे। सब एक ही ईश्वर के रूप हैं। भगवान् श्री कृष्ण की उपासना ही भगवान् श्री राम की या देवी की उपासना है। सभी को अपने इष्टदेव के लिए इसी प्रकार समझना चाहिए। भगवान् शिव की उपासना करते हैं तो सब में भगवान् शिव का ही स्वरूप देखें। 

सामान्यतया गृहस्थ के लिए केवल प्रणव यानि “ऊँ“ का जप करना उचित नहीं है। किन्तु यदि वह साधन-चतुष्ट्य से सम्पन्न है, मन विक्षेप से मुक्त है और उसमें ज्ञानयोग साधना के लिए प्रबल मुमुक्षुत्व है तो वह “ऊँ“ का जप कर सकता है। नमः शिवाय पंचाक्षरी मन्त्र है एवं “ऊँ नमः शिवाय”पडाक्षरी मऩ्त्र। अतः इसका अनुष्ठान तद्नुसार ही करें।  जब जप करते-करते मन एकदम शान्त हो जाता है एवं जप छूट जाता है तो समझें कि जप का फल ही है शान्ति और ध्यान। यदि जप करते-करते जप छूट जाए एवं मन शान्त हो जाए तो जप की चिन्ता न करें। 

ध्यान में से उठने के पश्चात पुनः अपनी नियत संख्या पूरी कर लें।

कई बार साधक को ऐसा अनुभव होता है कि पहले इतना काम-क्रोध नहीं सताता था जितना मन्त्रदीक्षा के बाद सताने लगा है। इसका कारण है पूर्वजन्म के संस्कार। जैसे घर की सफाई करने से कचरा निकलता है, ऐसे ही मन्त्र का जाप करने से कुसंस्कार निकलते हैं। न घबराना है और न ही  मन्त्र जाप छोड़ना है।ऐसी स्थिति में दो-तीन घूँट पानी पीकर थोड़ा चल-फिर लें, प्रणव का दीर्घ उच्चारण करें एवं प्रभु से प्रार्थना करें। तुरन्त इन विकारों पर विजय पाने में सहायता मिलेगी। जप तो किसी भी अवस्था में त्याज्य नहीं है। 

जब स्वप्न में मन्त्रदीक्षा मिली हो किसी साधक को पुनः प्रत्यक्ष रूप् से मन्त्रदीक्षा लेना भी अनिवार्य है। जब आप पहले किसी मन्त्र का जप करते थे तो वही मन्त्र यदि मन्त्रदीक्षा के समय मिले, तो आदर से उसका जप करना चाहिए। इससे उसकी महानता और बढ़ जाती है। जप का अर्थ होता है, मन्त्राक्षरों की मानसिक आवृत्ति के साथ मन्त्र अक्षरों के अर्थ की भावना और स्वयं का उसके प्रति समर्पण। तथ्यातः जप, मन पर अधिकार करने का अभ्यास है जिसका मुख्य उद्देश्य है मन को केन्द्रित करना क्योंकि मन व्यक्तित्व के विकास को संयम के द्वारा केन्द्रित करता है। जप के लक्ष्य में मनोनिग्रह की ही महत्ता है। जप के द्वारा मनोनिग्रह करके मानवता के मंगल में अभूत पूर्व सफलता प्राप्त की जा सकती है।

जप करने की विधियाँ वैदिक मन्त्र का जप करने की चार विधियाँ :: (1). वैखरी, (2). मध्यमा, (3). पष्चरी और (4). परा शुरु।  

शुरु में उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मन्त्र जप कहते हैं। दूसरी है, मध्यमा। इसमें होंठ भी नहीं हिलते एवं दूसरा कोई व्यक्ति मन्त्र को सुन भी नहीं सकता। तीसरी, पश्यन्ति। जिस जप में जिव्हा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता एवं जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है उसे पश्यन्ति मन्त्र जप कहते हैं। चौथी है परा। मन्त्र के अर्थ में  वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मन्त्र जप करते-करते आनन्द आने लगे एवं बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मन्त्र जप कहते हैं। वैखरी जप है तो अच्छा लेकिन वैखरी से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता है।

मध्यमा से दस गुना प्रभाव पश्यन्ति में एवं पश्यन्ति से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव परा में होता है। इस प्रकार परा में स्थिर होकर जप करें तो वैखरी का हजार गुना प्रभाव ज्यादा हो जाएगा। जप-पूजन-साधना-उपासना में सफलता के लिये ध्यान रखें। 

मन्त्र-जप, देव-पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कतिपय विषिष्ट शब्दों का अर्थ नीचे लिखे अनेसार समझना चाहिए।

 (1). पंचोपचार :- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को “पंचोपचार“ कहते हैं।

 (2). पंचामृत :- दूध, दही, घृत, मधु (शहद) तथा शक्कर इनके मिश्रण को “पंचामृत“ कहते हैं।

 (3). पंचगव्य :- गाय के दूध, घृत, मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में “पंचगव्य“ कहते है।

 (4). षोडषोपचार :- आव्हान, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, ताम्बुल, तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को “षोडषोपचार“ कहते है। 

(5). दषोपचार :- पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय, मधुपक्र, आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने की विधि को “दषोपचार“ कहते है। 

(6). त्रिधातु :- सोना, चाँदी, लोहा। कुछ आचार्य सोना, चांदी और तांबे के मिश्रण को भी त्रिधातु कहते हैं। 

(7). पंचधातु :- सोना, चाँदी, लोहा, तांबा और जस्ता। 

(8). अष्टधातु :- सोना, चांदी, लोहा, तांबा, जस्ता, रांगा, कांसा और पारा। 

(9). नैवेद्य :- खीर, मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएँ। 

(10). नवग्रह :- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु। 

(11). नवरत्न :- माणिक्य, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, और वैदूर्य। 

(12). अष्टगन्ध :- (12.1). अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, ष्वेत चन्दन लाल चन्दन और सिन्दूर (देव पूजन हेतु)। (12.2). अगर लालचन्दन, हल्दी, कुंकुम, गोरोचन, जटामांसी, षिलाजीत और कपूर (देवी पूजन हेतु)। 

(13). गन्धत्रय :- सिन्दूर, हल्दी, कुंकुम। 

(14). पड्चांग :- किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल और जड़। 

(15).दशांश :- दसवाँ भाग। 

(16). सम्पुट :- मिट्टी के दो षकोरों को एक-दूसरे के मुँह से मिला कर बन्द करना। 

(17). भोजपत्र :- एक वृक्ष की छाल (यह पंसारियो के यहाँ मिलती है) मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकड़ा लेना चाहिए, जो कटा-फटा न हो (इसके बड़े-बड़े टुकड़े भी आते हैं) 

(18). मन्त्र धारण :- किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरूष दोनों ही कण्ठ में धारण कर सकते हैं, परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहे तो पुरूष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए। 

(19). ताबीज :- यह तांबे के बने हुए बाजार में बहुतायत से मिलते हैं। ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं। सोना, चांदी, त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज सुनारों से कहकर बनवाये जा सकते हैं। 

(20). मुद्राएँ :- हाथों की अंगुलियों को किसी विषेष स्थिति में लाने की क्रिया को “मुद्रा“ कहा जाता है। मुद्राएं अनेक प्रकार की होती हैं। 

(21). स्नान :- यह दो प्रकार का होता है। बाह्य तथा आन्तरिक, बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान मन्त्र जप द्वारा किया जाता है। 

(22). तर्पण :- नदी, सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अड्जलि द्वारा जल गिराने की क्रिया को “तर्पण” कहा जाता है। जहाँ नदी, सरोवर आदि न हो, वहाँ किसी पात्र में पानी भरकर भी “तर्पण“ की क्रिया सम्पन्न कर ली जाती है। 

(23). आचमन :- हाथ में जल लेकर उसे अपने मुँह में डालने की क्रिया को “आचमन“ कहते है। 

(24). करन्यास :- अंगूठा, अंगुली, करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को “करन्यास“ कहा जाता है। 

(25). हृदययविन्यास :- हृदय आदि अंगों को स्पर्ष करते हुए मन्त्रोच्चारण को “हृदयाविन्यास“ कहते हैं। 

(26). अंगन्यास :- हृंदय, षिर, षिखा, कवच, नेत्र, एवं करतल- इन छः अंगो से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को अंगन्यास कहते है। 

(27). अर्ध्य  :- षंख, अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्ध्य देना कहा जाता है। घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्ध्य-स्थापन कहते है। अध्र्यपात्र में दूध, तिल, कुषा के टुकड़े, सरसौं, जौ, पुष्प, चावल एवं कुंकुम इन सबको डाला जाता है। 

(28). पंचायतन पूजा :- पंचायतन पूजा में पाँच देवताओं “विष्णु, गणेश, सूर्य, शक्ति तथा शिव” का पूजन किया जाता है। 

(29). काण्डानुसमय :- एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर, अन्य देवता की पूजा करने का “कण्डानुसमय“ कहते हैं। 

(30). उद्वर्तन :- उबटन। 

(31). अभिषेक :- मन्त्रोच्चारण करते हुए षंख से सुगन्धित जल छोड़ने को अभिषेक कहते हैं। 

(32). उत्तरीय :- वस्त्र। 

(33). उपवीत :- यज्ञोपवीत (जनेऊ)। 

(34). समिधा :- जिन लकडि़यों में अग्नि प्रज्ज्वलित कर होम किया जाता है, उन्हें समिधा कहते हैं। समिधा के लिए आक, पलाष, खदिर, अपामार्ग, पीपल, उदुम्बर, षमी, कुषा तथा आम की लकडि़यों को ग्राह्य माना गया है। 

(35). प्रणव :- ऊँ।

(36). मन्त्र ऋषि :- जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम षिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत् सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धपूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है। 

(37). छन्द :- मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को “छन्द“ कहते है। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मन्त्र का उच्चारण चूंकि मुख से होता है अतः छनद का मुख से न्यास किया जाता है। 

(38). देवता :- जीवमात्र के समस्त क्रिया-कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणषक्ति को देवता कहते हैं। यह षक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है, अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है। 

(39. बीज :- मन्त्र षक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यागं में किया जाता है।

(40). षक्ति :- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व षक्ति कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

(41). विनियोग :- मन्त्र को फल की दिषा का निर्देष देना विनियोग कहलाता है। 

(42). उपांषु जप :- जिह्ना एवं होठ को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनायी पड़ने योग्य मन्त्रोच्चारण को उपांषु जप कहते हैं। 

(43). मानस जप :- मन्त्र, मन्त्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन्त्र का उच्चारण करने को मानस जप कहते हैं।

(44). अग्नि की 7  जिह्नाएँ :- (44.1.1) हिरण्या, (44.1.2). गगना, (44.1.3). रक्ता, (44.1.4). कृष्णा, (44.1.5). सुप्रभा, (44.1.6). बहुरूपा एवं (44.1.7). अतिरिक्ता। 

कतिपय आचार्याें ने अग्नि की सप्त जिह्नाओं के नाम इस प्रकार बताये हैं :- (44.2.1). काली, (44.2.2). कराली, (44.2.3). मनोभवा, (44.2.4). सुलोहिता, (44.2.5). धूम्रवर्णा, (44.2.6). स्फुलिंगिनी तथा (44.2.7). विष्वरूचि। 

(45). प्रदिक्षणा :- देवता को साष्टांग दण्डवत् करने के पष्चात इष्टदेव की परिक्रमा करने को प्रदक्षिणा कहते हैं। विष्णु, षिव, षक्ति, गणेष और सूर्य आदि देवताओं की 4, 1, 2, 1, 3 अथवा 7 परिक्रमाएँ करनी चाहिए। 

(46). 5 प्रकार की साधना :-

(46.1). अभाविनी :- पूजा के साधना तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जलमात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहते हैं। 

(46.2). त्रासी :- जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से या मानसापचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है। 

(46.3). दोर्वोधी :- बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जानी वाली पूजा दाबांधी कही जाती है। 

(46.4). सौतकी :- सूत की व्यक्ति मानसिक सन्ध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को भौतिकी कहा जाता है। 

(46.5). आतुरो :- रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ायें। फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरू तथा ब्राम्हणों की पूजा करके पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगें-ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करे तो इस साधना को आतुर कहा जाएगा। अपने श्रम का महत्व- पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है तथा अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गए साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

खण्ड (2).  :: यज्ञ, दान और तप धर्म के तीन स्तम्भ हैं। पहला आधार स्तम्भ यज्ञ है। देवताओं के हेतु द्रव्य का त्याग ही यज्ञ है। देवता से तात्पर्य अग्नि-इन्द्रादि देवता, द्रव्य से तात्पर्य धन-धान्य, दही, चावल, जौं तथा सोम इत्यादि तथा त्याग से तात्पर्य है, उन देवताओं के उद्देश्य से किया जाने वाला ऐसा कृत्य जिसमें अपने स्वत्व की निवृत्ति हो।

यज्ञों के मुख्यतया दो विभाग :- (1). श्रौत तथा (2). स्मार्त्त। 

श्रुति प्रति पादित यज्ञों को श्रौत यज्ञ तथा स्मृति प्रति पादित यज्ञों को स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत यज्ञों में केवल श्रुति प्रति पादित मन्त्रों का प्रयोग होता है तथा स्मार्त्त यज्ञों में वैदिक, पौराणिक तथा तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग होता है।

स्मृतियों में तथा गृह्य सूत्रों में औपासन होम, वैश्व देव, पार्णव, अष्टका, मासिक श्राद्ध, श्रवणा तथा शूलगव इन सात यज्ञों का वर्णन किया गया है। अतः ये स्मार्त्त यज्ञ हैं। इन्हीं को पाक यज्ञ भी कहते हैं। वैवाहिक चतुर्थी होम के अनन्तर विधि पूर्वक सम्पादित अग्नि को ही स्मार्त्ताग्नि कहते हैं। इसी अग्नि में औपासन होम, वैश्वदेव आदि स्मार्त्त यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है।

श्रौत यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोमयज्ञ हैं।

हविर्यज्ञ :- अग्नि होत्र, दर्श पूर्ण मास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ।

सोम याग :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम।

कुल 21 यज्ञों में औपासन होम आदि सात यज्ञ स्मार्त्त यज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौत यज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ जो अग्नि होत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौत यज्ञ सोम यज्ञ हैं।

जिन यज्ञों में चावल, जौ आदि की आहुति दी जाती हैं, वे हवि र्यज्ञ हैं तथा जिन यज्ञों में सोम की आहुति दी जाती है, उन्हें सोम यज्ञ कहते हैं।

जिस प्रकार स्मार्त्त यज्ञों के लिए स्मार्त्ताग्नि की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार श्रौत यज्ञों के लिए श्रौताग्नि की स्थापना की जाती है। ये श्रौताग्नि मुख रूपसे तीन हैं :- गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि। इन्हीं तीन अग्नियों में समस्त श्रौत यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है अर्थात् अग्निहोत्र आदि सात हविर्यज्ञों का भी अनुष्ठान तथा अग्निष्टोमादि सात सोमयागों का भी अनुष्ठान।

श्रौत यज्ञों में सबसे पहले अग्निहोत्र है। अग्नि को उद्देश्य करके सायं तथा प्रातः जो होम किया जाता है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं। दूध ही इस यज्ञ का द्रव्य है। यदि काम्य अग्नि होत्र किया जाता है, तब कामनानुसार तैल, दही, दूध, सोम, चावल, घी, फल, जल आदि अग्निहोत्र के द्रव्य होते हैं। इस सायं काल अग्निहोत्र के मुख्य देवता अग्नि तथा अङ्गदेवता प्रजापति तथा प्रातः अग्निहोत्र के मुख्य देवता सूर्य तथा प्रजापति अङ्ग देवता होते हैं।

यह अग्निहोत्र यजमान के द्वारा ही किया जाता है। यदि यजमान न कर सके तो एक ऋत्विज अर्थात् अध्वर्यु के द्वारा भी यजमान के अग्निहोत्र को किया जा सकता है।[तैत्तिरीय संहिता]

अग्नि होत्र सायं एवं प्रातः प्रति दिन किया जाता है। इसके पश्चात् दर्शपौर्णमासेष्टिका उल्लेख किया गया है जो प्रत्येक 15 दिनके बाद की जाती है। दर्श आमावास्या को कहते हैं अतः दर्शेष्टि आमावास्या को तथा पौर्णमासेष्टि पूर्णिमा को की जाती है।

दर्शेष्टिमें तीन याग किए जाते हैं :- आग्नेय पुरोडाश, इन्द्रदेवताक, दधिद्रव्यक याग तथा इन्द्रदेवताक पयोद्रव्यक याग।

इसी प्रकार पौर्णमासेष्टि में आग्नेय अष्टाकपाल पुरोडाशयाग, आज्यद्रव्यक अग्निषोमीय उपांशु याग तथा अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाशयाग। इस प्रकार कुल 6 याग किए जाते हैं।

यह दर्शपौर्णमासेष्टि समस्त काम्य इष्टियोंकी प्रकृति है। इस दर्शपौर्णमासेष्टि का अनुष्ठान यजमान अपनी पत्नी के साथ करता है तथा सहायक के रूप में अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता तथा आग्नीध्र ये चार ऋत्विज होते हैं।

खेतों से नया-नया अन्न आने के समय आग्रयणेष्टि की जाती है। शरद ऋतु में तथा वसन्त ऋतु में यह इष्टि की जाती है। नया चावल अथवा जौ इस इष्टि का प्रधान द्रव्य है, जो इन्द्राग्नी तथा द्यावा पृथिवी इन दोनों देवताओं के लिए होता है। टूटे हुए जिस रथ की मरम्मत की गई है, वह रथ इस इष्टि की दक्षिणा होती है। इसके अतिरिक्त रेशमी वस्त्र, मधुपर्क तथा वर्षा में पहनने योग्य वस्त्र दक्षिणा के रूप में दिया जाता है।

इसको किए जाने के बाद ही याज्ञिकों द्वारा नये अन्न का प्रयोग किया जाता है।

प्रत्येक चौथे महीने जो याग किया जाता है, उसका नाम चातुर्मास्य है। इसमें चार पर्व हैं :- वैश्व देव पर्व, वरुण प्रघास पर्व, साकमेध पर्व तथा शुनासारीय। पहला पर्व वैश्वदेव फाल्गुन मास की पूर्णिमा को किया जाता है। अग्नि, सोम, सविता, सरस्वती, पूषा, मरुत्, स्वतवान् तथा द्यावापृथिवी ये वैश्वदेव पर्व के देवता हैं। पुरोडाश, चरु, पयस्या, सोम ये द्रव्य हैं, जिनकी आहुति दी जाती है। इसका फल भी है। सन्तति के उद्देश्य से वैश्व देव पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।

आषाढ मास की पूर्णिमा को वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें दो वेदी बनाई जाती हैं, एक उत्तर वेदी तथा दूसरी दक्षिण वेदी। अध्वर्यु उत्तर वेदी पर अनुष्ठान करता है तथा प्रति प्रस्थाता दक्षिण वेदी पर कार्य करता है।

वरुण प्रघास पर्व के लिए करम्भ पात्र का निर्माण किया जाता है तथा उसके लिए एक होम भी होता है। यह करम्भ पात्र गोल, दीपक की आकृति का तथा जौ से बनाया जाता है।  चतुर्दशी के दिन अध्वर्यु के द्वारा चार करम्भ पात्र बनाए जाते हैं।

पूर्णिमा के दिन अध्वर्यु मेष तथा प्रति प्रस्थाता मेषी बनाता है। धेनु, अश्व तथा छह अथवा बारह गौवें दक्षिणा में दी जाती है।

वरुण पाश, जलोदर रोग तथा वात रोग से मुक्ति के लिए वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।

अग्नि, सोम, इन्द्राग्नी तथा वरुण इसके देवता हैं, जिनके लिए पुरोडाश, चरु तथा पयस्या की आहुति दी जाती है।

कार्त्तिक माह की पूर्णिमा को साकमेध पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। यह दो दिन में पूरा होता। चतुर्दशी से इसका अनुष्ठान प्रारम्भ होता है। इसमें अनीकवतीष्टि, सान्तपनीयेष्टि, गृहमेधीयेष्टि, दर्वी होम, क्रीडनीयेष्टि, अदितीष्टि, महाहवि, पित्रयेष्टि तथा त्रयम्बकेष्टि आदि अनुष्ठान किए जाते हैं।

अग्नि, मरुत्, अदिति, ऐन्द्राग्न, विश्वकर्मा, त्रयम्बक तथा पितर आदि देवता इस पर्व में होते हैं जिनके लिए चरु, सान्नाय्य, आज्य, धना आदिकी आहुति दी जाती है।

घर में जो कन्याएँ  विवाह के योग्य होती हैं, उनके विवाह के लिए साकमेध पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।

साकमेध के तुरन्त बाद शुनासीरीय पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। वायु और आदित्य ये दो देवता इस पर्व में होते हैं। अतः इस पर्व का नाम शुनासीरीय है।

वैश्वदेव पर्व के समान यहाँ भी पाँच हवि दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त शुनासीर के लिए द्वादशक पाल, वायु के लिए दूध तथा सूर्य के लिए एक कपाल पुरोडाश। इसकी दक्षिणा 6 बैलों से युक्त हल अथवा दो बैल। इसके अतिरिक्त सूर्य के लिए सफेद घोड़ा अथवा गाय दक्षिणा के रूप में दी जाती है।

चातुर्मास्य यज्ञ के बाद निरूढ पशुबन्ध्याग किया जाता है, जिसके ऐन्द्राग्न सूर्य मुख्य देवता हैं तथा एकादश कपाल पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसका अनुष्ठान वर्ष में एक या दो बार श्रावण अथवा भाद्रपद माह में किया जाता है। इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए अध्वर्यु, होता, मैत्रावरुण तथा प्रति प्रस्थाता का वरण किया जाता है। दक्षिणा के रूप में यजमान ऋत्विजों को हिरण्य तथा पूर्णपात्र देता है।

इन्द्र देवता के लिए सौत्रामणी याग किया जाता है। इस यज्ञ के लिए अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रति प्रस्थाता तथा मैत्रावरुण ये छह ऋत्विज होते हैं।

ऋद्धि की कामना से ब्राह्मणों के द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूप से किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों के द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करने का विधान है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकार का आसव बनाया जाता है, जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़े के सहित गाय इस यज्ञ की दक्षिणा होती है।

इस यज्ञ में वाजपेय तथा राजसूय के समान यजमान का तीर्थों, नदियों तथा समुद्रों के जल से अभिषेक किया जाता है।

पितरों के लिए पिण्ड पितृ यज्ञ किया जाता है। दर्शेष्टिका अङ्ग होनेसे यह अमावास्याको दर्शेष्टिसे पहले ही किया जाता है। दक्षिणाग्नि में चरु पकाया जाता है। पितरों के लिए पिण्ड दान होता है तथा छह बार हाथ जोड़कर पितरों को प्रणाम किया जाता है।

पाक यज्ञ के अतिरिक्त श्रौतयागों में जिन अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशु बन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ का उल्लेख गौतम धर्म सूत्र में किया गया है।

शेष 7 यज्ञ सोमयाग की श्रेणी में आते हैं। इन सात सोमयागों के नाम इस प्रकार हैं :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम। इन सातों सोमयागों में अग्निष्टोम सबसे प्रथम आता है।

प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से बहुत होने की कामना की और ऐसी कामना करते हुए ही उन्होंने प्रजनन साधन रूप अग्निष्टोम का दर्शन किया। इसके पश्चात् उन्होंने यह सारी सृष्टि उत्पन्न की।

यज्ञ-वराह के उठे हुए कपोल से लेकर कर्ण मूल तक के भाग से अग्निष्टोम की उत्पत्ति हुई। [कालिका पुराण]

देवताओं ने तपस्या करके अग्निष्टोम का विधान प्राप्त किया, जिसके द्वारा उन्होंने असुरों का विरोध् किया।[शतपथ ब्राह्मण]

अग्निष्टोम साक्षात् अग्नि ही है। उस क्रतुरूप अग्नि की देवों ने स्रोतों के द्वारा स्तुति की, इसलिए उसका नाम अग्निस्तोम हुआ।[ ऐतरेय ब्राह्मण]

अग्निस्तोम होते हुए उस नाम से युक्त क्रतु को परोक्ष रूप में व्यवहार करने के लिए सकार को षकार में, तकार को टकार में बदलकर उसको अग्निष्टोम कहना प्रारम्भ किया। अतः अग्निस्तोम अग्निष्टोम कहलाने लगा।

अग्निष्टोम नामक यज्ञायज्ञीय साम का गायन सबसे अन्त में किया जाता है, इसीलिए इसका नाम अग्निष्टोम हुआ।

अग्निष्टोम का अनुष्ठान सत्रह ऋत्विजों के द्वारा सम्पन्न होता है। सत्रहवाँ ऋत्विज स्वयं यजमान होता है, जो कि स्वयं यज्ञका स्वामी है। यजमानातिरिक्त इन सोलहों ऋत्विजों को चार वर्गों में विभक्त किए गया है।

ताण्ड्य ब्राह्मण ने दक्षिणा में दी जाने वाली 10 वस्तुओं का उल्लेख किया है। इनमें गौओं की संख्या 112 ही निश्चित की गई है।

कात्यायन ने निर्धरित 100 गौओं का वितरण यज्ञ के सोलहों ऋत्विजों में इस प्रकार किया है :-ब्रह्मा, उद्गाता, होता एवं अध्वर्यु को 12-12 गौवें; अर्ध्दिनः संज्ञक ऋत्विज ब्राह्मणाच्छंसि, प्रस्तोता, मैत्रावरुण एवं प्रतिप्रस्थाता को 6-6 गौवें, तृतीयिनः संज्ञक ऋत्विक् पोता, प्रतिहर्त्ता, अच्छावाक् तथा नेष्टा को 4-4 तथा पादिनः संज्ञक ऋत्विज् आग्नीध्र, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत तथा उन्नेता को 3-3 गौवें।

अग्निष्टोम के अन्तर्गत सवन कर्म में गाए जाने वाले स्तोत्रोंकी संख्या 12 एवं शंसन किए जाने वाले शस्त्रों की भी संख्या 12 ही है।

प्रातः श्रवण में त्रिवृत्स्तोमात्मकबहिष्पवमानस्तोत्रतथा पञ्चदशस्तोमात्मकचार आज्य स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में आज्य शस्त्र, प्रउग शस्त्र, मैत्रा वरुण शस्त्र, ब्रह्मणाच्छंसि शस्त्र तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।

माध्यन्दिन श्रवण में पञ्चदशस्तोमात्मक माध्यन्दिन पवमान स्तोत्र तथा सप्तदशस्तोमात्मक चार पृष्ठ स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में मरुत्वतीय शस्त्र, निष्वेफवल्य, मैत्रा वरुण, ब्राह्मणाच्छंसि तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।

तृतीय श्रवण में आर्भव पवमान तथा अग्निष्टोम स्तोत्र का गायन तथा वैश्वदेव एवं अग्निमारुत शस्त्रका शंसन किया जाता है।

जिस प्रकार हविर्यागों की प्रकृति दर्श पौर्णमासेष्टि है, उसी प्रकार समस्त सोम यागों की प्रकृति अग्निष्टोम यज्ञ है। उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम ये छहों सोम याग, अग्निष्टोम की विकृति हैं।

उक्थ्य नामक सोम याग में अग्निष्टोम के स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त अन्य तीन स्तोत्र (उक्थ्य स्तोत्र) एवं शस्त्र (उक्थ्य शस्त्र) पाये जाते हैं। इस प्रकार सायंकालीन सोमर स निकालते समय गाये जाने वाले (स्तोत्र) एवं कहे जाने वाले शस्त्र कुल मिलाकर 15 होते हैं। पशु, शक्ति, सन्तति की कामना से उक्थ्य नामक सोम योग का अनुष्ठान किया जाता है।

षोडशी यज्ञ में 15 स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त एक अन्य स्तोत्र एवं शस्त्र का गायन एवं पाठ होता है, जिसे तृतीय श्रवण में षोडशी के नाम से पुकारा जाता है। इसकी दक्षिणा लोहित-पिंगल घोड़ा या मादा खच्चर होती है।

अतिरात्र का नाम ऋग्वेद (7.103.7) में भी आया है। यह एक दिन और रात्रि में होता है। अतिरात्र में 29 स्तोत्र और 29 शस्त्र होते हैं। इसमें आश्विन नामक शस्त्र गाये जाते हैं किन्तु इसके पूर्व रात्रि में 6 आहुतियाँ दी जाती हैं। ऐब्रा।(14.3, 16.5-7), आश्वश्रौसू. (6.4-5), सत्याषाढ (9.7) तथा आपस्तम्ब (15.3.8-14.4.11) में अतिरात्र के कर्म काण्ड का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है।

अप्तोर्याम अतिरात्रके ही सदृश है केवल अतिरात्रकी अपेक्षा विस्तृत है। इसमें चार अतिरिक्त स्तोत्र (कुल मिलाकर 33 स्तोत्र) और चार अतिरिक्त शस्त्र होता एवं उसके सहायकों द्वारा पढ़े जाते हैं। अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव और विष्णुके लिए क्रमसे एक एक अर्थात् कुल मिलाकर चार चमस होते हैं। आश्वश्रौसू. (9.11.1) के मतसे यह यज्ञ उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है, जिनके पशु जीवित नहीं रहते या जो अच्छी जातिके पशुके आकांक्षी होते हैं। अप्तोर्याम की दक्षिणा सहस्त्रों गौवें होती है। होता को रजत जटित तथा गदहियों से खींचा जाने वाला रथ मिलता है। तांब्रा. 20.3.4-5) का कहना है कि इसका नाम अप्तोर्याम इसलिए पड़ा है क्योंकि इसके द्वारा अभिकांक्षित वस्तु प्राप्त होती हैं।

आध्पित्य यज्ञ :: समृद्धि या स्वराज्य-निर्विरोध राज्य अथवा इन्द्र की स्थिति, का अभिलाषी ही वाजपेय का अनुष्ठान करता है। इसमें षोडशी की विधि पायी जाती है और यह ज्योतिष्टोम का ही रूप है। किन्तु इसकी अपनी पृथक् विशेषताएँ हैं। अधिकांश पदार्थों की संख्या 17 है, उदाहरण के लिए स्तोत्रों एवं शस्त्रोंकी संख्या 17 है। दक्षिणा में 17 वस्तुएँ दी जाती हैं। यूप 17 अरत्नियों वाला होता है। यूप में जो परिधान बाँधा जाता है, वह भी 17 टुकड़ों वाला होता है। 17 दिनों तक ही यह वाजपेय यज्ञ चलता है। प्रजापति के लिए सुरा 17 पात्रों में भरी जाती है। सोमरस भी 17 पात्रों से ही भरा जाता है। 17 रथ होते हैं, जिनमें घोडे़ जोते जाते हैं तथा जिनकी दौड़ की जाती है। वेदी की उत्तरी श्रोणी पर 17 ढोलकें रखी जाती हैं, जिन्हें बजाया जाता है। [आश्वश्रौसू. 9.9.1; आपश्रौसू. 18.1.1]

वाजपेय यज्ञ::  इस यज्ञ का सम्पादन शरद् ऋतु में किया जाता है। इसका सम्पादन केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय ही कर सकता है, वैश्य नहीं।  [तैब्रा. 1.3.2, लाट्यायनश्रौसू. 8.11.1, काश्रौसू. 14.1.1 एवं आपश्रौसू. 18.1.1]

दक्षिणा के रूपमें 1700 गौएँ, 17 रथ (घोड़ों सहित), 17 घोडे़, पुरुषों के चढ़ने योग्य 17 पशु, 17 बैल, 17 गाडि़याँ, सुनहरे परिधनों-झालरोंसे सजे हुए 17 हाथी दिए जाने चाहिए। ये वस्तुएँ पुरोहितों में बाँट दी जाती हैं। वाजपेय के पश्चात् राजा राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होता है और ब्राह्मण बृहस्पति सव करने का अधिकारी होता है [आश्वलायन-आश्वश्रौसू॰ 9.9.29]

राजसूय यज्ञ :: यह एक लम्बी अवधि तक चलने वाला यज्ञ है। यह यज्ञ केवल क्षत्रिय द्वारा ही किया जाता है। राजसूय करनेसे व्यक्ति राजा होता है तथा वाजपेय करने से सम्राट् होता है। [शब्रा.9.3.4.8]

राजसूय के ही पश्चात् वाजपेय किया जाता है, क्योंकि सम्राट् की स्थिति राजा के ऊपर  है। राजसूय की समाप्ति के एक मास उपरान्त सौत्रामणि नामक इष्टि की जाती है। निम्न ग्रंथों में राजसूय का निरूपण विस्तार पूर्वक किया गया है।[तैत्तिरीय संहिता 1.8.1-17, तैत्तिब्रा. (1.4.9-10, शब्रा. 5.2.3-5, ऐब्रा. 7.13,  8.0, तांब्रा. 18.8-11, आपश्रौसू. 18.8.22, काश्रौसू. 15.1-9, आश्वश्रौसू. 9.3-4, लाट्याश्रौसू. 9.1-3, शांखाश्रौसू. 15.12, बौधश्रौसू. 12]

सृष्टिके आदि काल से स्मार्त्त एवं श्रौतयज्ञों के अनुष्ठान की परम्परा अखण्ड रूप से चली आ रही है।

श्रीमद्भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्धके तीसरे अध्याय में दक्ष प्रजापति के द्वारा किए गए वाजपेय यज्ञ तथा बृहस्पति सव नाम के महायज्ञ का वर्णन आता है। भागवत में वर्णन है कि दक्ष प्रजापति ने ऐसा यज्ञोत्सव किया, जिसकी चर्चा आकाश मार्ग से जाते हुए देवताओं ने की। चतुर्थ स्कन्ध के 19वें अध्याय में महाराज पृथु के द्वारा किए जाने वाले 100 अश्वमेध् की दीक्षा लिए जानेका उल्लेख है। जब महाराज पृथु 99 अश्वमेध् कर चुके तो यज्ञेश्वर भगवान्, इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित हो गए।

महाराज नाभि के विषय में जो लोकोक्ति प्रसिद्ध थी, उसका उल्लेख शुकदेव ने परीक्षित के सम्मुख इस प्रकार किया, यथा –

ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः। यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा।। [भागपु. (5.4.7द्ध]

अर्थात् महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त कौन हो सकता है, जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने अपने मन्त्र बल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् भगवान्  विष्णु  के दर्शन करा दिए।

अष्टम स्कन्ध के 18वें अध्याय में भगवान् वामन के उपनयन संस्कार का वर्णन हुआ है। इस अवसर पर कहा गया है कि जब भगवान् वामन ने सुना कि बलि बहुत से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं तो उन्होंने वहाँ की यात्रा की और नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘‘भृगुकच्छ’’ नामक सुन्दर स्थान पर पहुँच गए।

श्रौतयागों का अनुष्ठान वैदिक श्रौती सोमयाजी विद्वानों आज भी भारत वर्ष में अनेक वैदिक कुल-परिवारों में नित्य अनुष्ठान के रूप में अग्निदेव की आराधना हेतु निरन्तर किया  जाता है।

यज्ञ की प्रमुख शैलियाँ :: प्राणियों के ज्ञान, शक्ति, विद्या, बुद्धि, बल आदि की न्यूनाधिकता के कारण अधिकारानुरूप प्राणि-कल्याण के जो साधन हैं, उनमें यज्ञ भी एक प्राणि-कल्याण का उत्कृष्ट साधन है।

भगवान् श्री कृष्ण ने सभी कर्मों को बन्धन स्वरूप बतलाया है, परन्तु यज्ञ को बन्धन कारक नहीं बताया है। अतएव इसे बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले पावनानि मनीषिणाम् कार्यों में परिगणित किया है।

कर्म-कार्य की 4 श्रेणियों :- प्रशस्त, अप्रशस्त, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म है। [आचार्य महीधर और श्रुति]

यज्ञ की श्रौत (वैदिक), स्मार्त (तान्त्रिक) और पौराणिक (मिश्र) ये तीन मुख्य शैलियाँ हैं।

श्रौतयज्ञ :: श्रुति अर्थात् वेद के मंत्र और ब्राह्मण नाम के दो अंश हैं। इन दोनों में या दोनों में से किसी एक में सांगोपांग रीति से वर्णित यज्ञों को श्रौतयज्ञ कहते हैं। श्रौत कल्प में यज्ञ और होम दो शब्द हैं। जिसमें खड़े होकर वषट् शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है और याज्या पुरोनुवाक्या नाम के मंत्र पढ़े जाते हैं, वह कार्य यज्ञ माना जाता है। जिसमें बैठकर स्वाहा शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है यह होम कहा जाता है। श्रौतयज्ञ :- इष्टियाग, पशुयाग और सोमयाग, नामक तीन भागों में विभक्त है।

श्रौतयज्ञों के विधान का जिस कार्य में पूर्ण तया उल्लेख हो, उसे प्रकृतियाग कहते हैं और जिस कार्य में विशेष बातों का उल्लेख और शेष बातें प्रकृति योग से जानी जाएँ उसे विकृतियाग कहते हैं। अतएव श्रौतयज्ञों के तीन मुख्य भेदों में क्रमशः दर्शपूर्णमासेष्टि, अग्नीपोमीय पशुयाग और ज्योतिष्टोम सोमयाग ये प्रकृतियाग हैं; अर्थात् इन कर्मों में किसी दूसरे कर्म से विधि का ग्रहण नहीं होता। इन प्रकृतियागों के जो धर्म ग्राही विकृतियाग हैं, वे अनेक हैं। उनकी इयत्ता का संकलन भिन्न-भिन्न शाखाओं के श्रौतसूत्रों में किया गया है। 

श्रौतयज्ञ आह्वनीय, गार्ह्यपतय और दक्षिणाग्रि, इन तीन अग्नियों में होते हैं; इसलिए इन्हें त्रेताग्नियज्ञ भी कहते हैं। प्रायः सभी श्रौत-यज्ञों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से, कम या अधिक रूप से तीनों ही वेदों के मंत्रों का उच्चारण होता है। अतः श्रौतयज्ञ त्रयी साध्य हैं। इनमें यजमान स्वयं शरीर क्रिया में उतना व्यस्त नहीं रहता, जितने अन्य ब्राह्मण जिन्हें ‘ऋत्विज्’ कहते हैं, संलग्न रहते हैं। श्रौतयज्ञ का इष्टियाग प्रायः 4 वैदिक विधान कुशल ब्राह्मण विद्वानों के सहयोग से हो सकता है। पशुयाग में 6 ऋत्विज् होने आवश्यक हैं। सोमयाग में 16 ऋत्विज् होते हैं ।

इष्टियाग में अन्नयम प्रधान रूप से हवि अर्थात् देवताओं के लिए देय द्रव्य हैं। पशुयाग में प्रधान रूप से पशु हवि है। सोमयाग में प्रधान हवि सोम होती है। सोमयाग के महान् यज्ञ सत्र और अहीन कहलाते हैं। सत्रयाग होते हैं, और इन्हीं में से 16 व्यक्तियों को ऋत्विज् का कार्य करना पड़ता है, इसमें दक्षिणा नहीं दी जाती और यज्ञ का फल सब यजमानों को बराबर पूरा मिलता है। अहीनयाग में एक या अनेक अग्निहोत्री यजमान हो सकते हैं, परन्तु इसमें ऋत्विज् अलग होते हैं, जिन्जें दक्षिणा दी जाती है। इस अहीनयाग का फल केवल यजमानों को ही मिलता है।

श्रौतयाग करने का वही अधिकारी है, जिसने विधिपूर्वक श्रौत अग्नियों का आधार लिया है और प्रतिदिन साँय प्रातः अग्निहोत्र में श्रद्धापूर्वक विधानुकूल समय लगाता है। श्रौताग्रिहोत्री को अग्नि की निरन्तर रक्षा करनी पड़ती है। अग्नियों के रखने के लिये एक सुन्दर अग्निहोत्रशाला चाहिए। यज्ञ में प्रयुक्त दूध, दही, घी अग्निहोत्री द्वारा स्वयं घर पर गौ रखकर पूरी शुद्धि के साथ तैयार किया जाना चाहिये।

प्रत्येक पन्द्रहवें दिन प्रतिपद् तिथि को इष्टियाग करना आवश्यक है जिसमें हवनीय द्रव्य तथा ऋत्विजों की दक्षिणा आदि भी आवश्यक है। वेद की याज्ञिक परम्परा का समुचोट और प्रायोगिक ज्ञान अत्यावश्यक है। 

स्मार्त यज्ञ :: इनका श्रौत सूत्र कारों ने पाक यज्ञ तथा एकाग्नि शब्द से व्यवहार किया है। इनके मुख्यतया-हुत, अहुत, प्रहुत और प्राशित ये चार भेद हैं। जिन कार्यों में अग्नि में किसी विहित द्रव्य का हवन होता हो, वह हुत यज्ञ हैं। जिससे हवन न होता हो, केवल क्रिया मात्र हो, वह अहुत यज्ञ है। जिसमें हवन और देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य का बलि संज्ञा से त्याग हो, वह प्रहुत यज्ञ है और जिसमें भोजन मात्र ही हो वह प्राशित यज्ञ है। [प्रा.गृ. 1.4.1]

स्मार्त यज्ञ का आधार भूत अग्नि शास्त्रीय और लौकिक दोनों प्रकार का होता है। शास्त्रीय अर्थात् आधान विधि के द्वारा स्वीकृत अग्नि औपासन, आवसथ्य, गृह्य, स्मार्त आदि शब्दों से कहा जाता है। इस अग्नि में जिसने उसको स्वीकार किया है, उसके सम्बंध का ही हवन हो सकता है। साधारण अग्नि लौकिक अग्नि है। इसे संस्कारों द्वारा परिशाधित भूमि में स्थापित करके भी स्मार्त यज्ञ होते हैं। स्मार्त यज्ञों की सँख्या श्रौत यज्ञों की भाँति अत्यधिक नहीं हैं। इन यज्ञों की विधि और इयत्ता बताने वाले ग्रन्थ को गृह्यसूत्र या स्मार्त सूत्र कहते हैं। पंचमहायज्ञ, षोडशसंस्कार और और्ध्वदैहिक (प्रचलित मृत्यु के बाद की क्रिया) प्रधानतया स्मार्त हैं। स्मृति ग्रन्थों में उपदिष्ट कार्य जिनका (विनायक शान्ति आदि का) पूर्ण विधान उपलब्ध गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता, वे भी याज्ञिकों की परम्परा में स्मार्त ही कहलाते हैं। स्मार्त यज्ञ में प्रायः अकेला व्यक्ति सभी कार्य कर सकता है। हवन वाले कार्यों में एक ब्राह्मण की तथा भोजनादि में अनेक ब्राह्मणों की आवश्यकता होती है। गृह्यसंग्रहकार ने स्मार्त यज्ञों में यजमान, ब्राह्मण और आचार्य; इन तीन की आवश्यकता बताई है। 

पौराणिक यज्ञ :: श्रुति स्मृति कथित कार्यों के अधिकारी अनाधिकारी सभी व्यक्तियों के लिए पौराणिक कार्य उपयोगी है। पौराणिक यज्ञों को हवन, दान, पुरश्चरण, शान्तिकर्म, पौष्टिक, इष्ट, पूर्त्त व्रत, सेवा, आदि के रूप से अनके श्रेणियों में विभक्त किया गया है। जिन जातियों को वेद के अध्ययन का अधिकार है, वे पौराणिक यज्ञों को वेदमंत्रों सहित करते हैं और जिन्हें वेद का अधिकार नहीं है, वे उनको पौराणिक मंत्रों से ही करते हैं।

पौराणिक यज्ञों में गणपति पूजन, पुण्याहवाचन, षोडशमातृका पूजन, वसोर्धारा पूजन, नान्दी श्राद्ध इन पाँच स्मार्त अंगों के साथ ग्रहयाग प्रधानपूजन आदि विशेष रूप से होता है। इनमें एक से लेकर हजारों तक कार्यक्षम व्यक्ति कार्य के अनुसार ऋत्विज् बनाए जा सकते हैं। जैसे भगवान् अनन्त, अपार हैं, वैसे ही उनके स्वरूप भूत वेद तथा तत्प्रतिपाद्य यज्ञ की महिमा भी अनन्त अपार है।

कौषीतकिब्राह्मणम् ::

(4.1). अनुनिर्वाप्येष्टिः ::

अनुनिर्वाप्यया वै देवा असुरान् अपाघ्रत।

तथो एव एतद् यजमानो अनुनिर्वाप्यया एव द्विषतो भ्रातृव्यान् अपहते। (विकृति इष्टयः)

स वा इन्द्राय विमृध एकादश कपालम् पुलोडाशम् निर्वपति।

इन्द्रो वै मृधाम् विहन्ता। (विकृति इष्टयः)

स एव अस्य मृधो विहन्ति।

अथो आमावास्यम् एव एतत् प्रत्याहरति यत् पौर्णमास्याम् इन्द्रम् यजति। (विकृति इष्टयः)

अत्र संस्थित दर्श पूर्ण मासौ यजमानो यद्य् अपर पक्षे भङ्गम् नीयात्। (विकृति इष्टयः)

न अस्य यज्ञ विकर्षः स्यात्। अथ यद् अमावास्यायाम् अदितिम् यजति। यज्ञस्य एव सभारतायै।

सा सम्याज्यातो विमृद्वती भवति। (विकृति इष्टयः)

 (4.2).  अभ्युदितेष्टिः ::

अथातो अभ्युदितायाः।

एहि ह वा एष यज पथात्।

यस्य उपवसथे पुरस्ताच् चन्द्रो दृश्यते। (विकृति इष्टयः)

सो अग्नये दात्रे अष्टा कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।

अग्निर् वै दाता। (विकृति इष्टयः)

स एव अस्मै यज्ञम् ददाति।

इन्द्राय प्रदात्रे सायम् दोहितम् दधि।

इन्द्रो वै प्रदाता। (विकृति इष्टयः)

स एव अस्मै यज्ञम् प्रयच्छति ।

विष्णवे शिपि विष्टाय प्रातर् दोहिते पयसि चरुम् । (विकृति इष्टयः)

यज्ञो वै विष्णुः।

स एव अस्मै यज्ञम् ददाति।

तद् यद् एता देवता याति। (विकृति इष्टयः)

न इद् यज्ञ पथाद् अयानि इति।

तिसृधन्वम् दक्षिणा।

तत् स्वस्त्ययनस्य रूपम्। (विकृति इष्टयः)

(4.3). अभ्युद्दृष्टेष्टिः ::

अथातो अभ्युद्रष्टायाः।

एहि ह वा एष यज्ञ पथात्।

यस्य उपसवथे पश्चाच् चन्द्रो दृश्यते। (विकृति इष्टयः)

सो अग्नये पथि कृते अष्टा कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।

अग्निर् वै पक्षिकृत्। (विकृति इष्टयः)

स एव एनम् यज्ञ पथम् अपिपातयति।

इन्द्राय वृत्रघ्न एकादश कपालम्।

इन्द्रो वै वृत्रहा। (विकृति इष्टयः)

स एव एनम् पुनर् यज्ञ पथम् अपिपातयति।

वैश्वानरीयम् द्वादश कपालम्। (विकृति इष्टयः)

असौ वै वैश्वानरो यो असौ तपति।

एष एव एनम् पुनर् यज्ञ पथम् अपिपातयति ।

तद् यद् एता देवता यजति। (विकृति इष्टयः)

न इद् यज्ञ पथाद् अयानि इति।

दण्ड उपानहम् दक्षिणा।

तद् अभयस्य रूपम्। (विकृति इष्टयः)

(4.4). दाक्षायणयज्ञः ::

अथातो दाक्षायण यज्ञस्य।

दाक्षायण यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते। (विकृति इष्टयः)

मुखम् वा एतत् संवत्सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी।

तस्मात् तस्याम् अदीक्षित अयनानि प्रयुज्यन्ते। (विकृति इष्टयः)

अथो दक्षो ह वै पार्वतिर् एतेन यज्ञेन इष्ट्वा सर्वान् कामान् आप।

तद् यद् दाक्षायण यज्ञेन यजते। (विकृति इष्टयः)

सर्वेषाम् एव कामानाम् आप्त्यै।

नाशने कामम् आपयीत।

सोमम् राजानम् चन्द्रमसम् भक्षयानि इति मनसा ध्यायन्न् अश्नीयात्। (विकृति इष्टयः)

तद् असौ वै सोमो राजा विचक्षणश् चन्द्रमाः।

तम् एतम् अपर पर्क्षम् देवा अभिषुण्वन्ति। (विकृति इष्टयः)

तद् यद् अपर पक्षम् दाक्षायण यज्ञस्य व्रतानि चरन्ति।

देवानाम् अपि सोम पीथो असानि इति। (विकृति इष्टयः)

अथ यद् उपवसथे अग्नीषोमीयम् एकादश कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।

य एव असौ सोमस्य उपवसथे अग्नीषोमीयः। (विकृति इष्टयः)

तम् एव अस्य तेन आप्नोति।

अथ यत् प्रातर् आमावास्येन यजते।

ऐन्द्रम् वै सुत्यम् अहः। (विकृति इष्टयः)

तत् सुत्यम् अहर् आप्नोति ।

अथ यद् अमावास्याया उपवसथ ऐन्द्राग्नम् द्वादश कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति। (विकृति इष्टयः)

ऐन्द्राग्नम् वै सामतस् तृतीय सवनम्।

तत् तृतीय सवनम् आप्नोति। (विकृति इष्टयः)

अथ यन् मैत्रावरुणी पयस्या।

मैत्रावरुणी वा अनूबन्ध्या।

तद् अनूबन्ध्याम् आप्नोति। (विकृति इष्टयः)

स एष सोमो हविर् यज्ञान् अनुप्रविष्टः।

तस्माद् अदीक्षितो दीष्कित व्रतो भवति। (विकृति इष्टयः)

(4.5). इळादधेष्टिः ::

अथातः इडादधस्य ।

इडादधेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

स एष पशु कामस्य अन्न अद्य कामस्य यज्ञः।

तेन पशु कामो अन्न अद्य कामो यजेत। (विकृति इष्टयः)

तत्र तथा एव व्रतानि चरति।

दाक्षायण यज्ञस्य हि समासः।

(4.6). शौनकयज्ञः ::

अथ अतः सार्वसेनि यज्ञस्य। (विकृति इष्टयः)

सार्वसेनि यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

स एष तु स्तूर्षमाणस्य यज्ञः।

स य इच्छेद् द्विषन्तम् भ्रातृव्यम् स्तृण्वीय इति। (विकृति इष्टयः)

स एतेन यजने स्तृणुते ह।

(4.7). सार्वसेनियज्ञः ::

अथातः शौनक यज्ञस्य।

शौनक यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

स एष प्रजाति कामस्य यज्ञः।

तेन प्रजाति कामो यजेत।

तद् यद् अध्वर्युर् हवींषि प्रजनयति तत् प्रजात्यै रूपम्। (विकृति इष्टयः)

(4.8). वसिष्ठयज्ञः ::

अथातो वसिष्ठ यज्ञस्य।

वसिष्ठ यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् अमावास्यायाम् प्रयुङ्क्ते। (विकृति इष्टयः)

ब्रह्म वै पौर्णमासी।

क्षत्रम् अमावास्या।

क्षत्रम् इव एष यज्ञः। (विकृति इष्टयः)

क्षत्रेण शत्रून्त् सहा इति।

वसिष्ठो अकामयत हत पुत्रः प्रजायेन प्रजया पशुभिर् अभि सौदासान् भवेयम् इति। (विकृति इष्टयः)

स एतम् यज्ञ क्रतुम् अपश्यद् वसिष्ठ यज्ञम् ।

तेन इष्ट्वा प्राजायत प्रजया पशुभिर् अभि सौदासान् अभवत्। (विकृति इष्टयः)

तथो एव एतद् यजमानो यद् वसिष्ठ यज्ञेन यजने।

प्रजायते प्रजया पशुभिर् अभि द्विषतो भ्रातृव्यान् भवति। (विकृति इष्टयः)

(4.9). साकंप्रस्थाय्ययज्ञः ::

अथातः साकम् प्रस्थाय्यस्य।

साकम् प्रस्थाय्येन इष्यन्न् एतस्याम् एव अमावास्यायाम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

स एष श्रैष्ठ्य कामस्य पौरुष कामस्य यज्ञः।

तेन श्रैष्ठ्य कामः पौरुष कामो यजते। (विकृति इष्टयः)

तद् यत् साकम् सम्प्रतिष्ठन्ते।

साकम् सम्प्रयजन्ते।

साकम् सम्भक्षयन्ते।

तस्मात् साकम् प्रस्थाय्यः। (विकृति इष्टयः)

(4.10). मुन्ययनेष्टिः

अथातो मुन्ययनस्य।

मुन्ययनेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

स एष सर्व कामस्य यज्ञः ।

तेन सर्व कामो यजेत ।

(4.11). तुरायणयज्ञः

अथातस् तुरायणस्य । (विकृति इष्टयः)

तुरायणेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम् । (विकृति इष्टयः)

स एष स्वर्ग कामस्य यज्ञः ।

ब्रह्मणा एव तद् आत्मानम् समर्धयति । (विकृति इष्टयः)

तानि वै त्रीणि हवींषि भवन्ति।

त्रयो वा इमे लोकाः।

इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति। (विकृति इष्टयः)

(4.12). श्यामाकेष्टिः

अथात आग्रयणस्य।

आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये। (विकृति इष्टयः)

श्यामाकान् उद्धर्तव आह।

सा या तस्मिन् काले अमावास्या उपसम्पद्येत। (विकृति इष्टयः)

तया इष्ट्वा अथ एतया इष्ट्या यजेत। यदि पौरुणमासी। एतया इष्ट्वा अथ पौर्णमासेन यजेत। (विकृति इष्टयः)

यद्य् उ नक्षत्रम् उपेप्सेत्। पूर्व पक्षे नक्षत्रम् उदीक्ष्य यस्मिन् कल्याणे नक्षत्रे कामयेत तस्मिन् यजेत। (विकृति इष्टयः)

तस्यै सप्तदश सामिधेन्यः सद्वान्ताव् आज्य भागौ विराजौ सम्याज्ये तस्य उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

सौम्यश् चरुः। सोमो वै राजा ओषधीनाम्। तद् एनम् स्वया दिशा प्रीणाति। (विकृति इष्टयः)

अथ यन् मधु पर्कम् ददाति। एष ह्य् आरण्यानाम् रसः। (विकृति इष्टयः)

(4.13).  वेणुयवेष्टिः

अथ वसन्त आगते पक्वेषु वेणु यवेषु। वेणु यवान् उद्धर्तव आह। तस्या एतद् एव पर्व एतत् तन्त्रम् एषा देवता एषा दक्षिणा एतद् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः)

ताम् ह एक आग्नेयीम् वा वारुणीम् वा प्राजापत्याम् वा कुर्वन्त्य् एतत् तन्त्राम् एव एतद् ब्राह्मणाम् । (विकृति इष्टयः)

(4.14).  आग्रयणेष्टिः

अथ व्रीहि सस्ये वा यवसस्ये वा आगते। आग्रयणीयान् उद्धर्तव आह। (विकृति इष्टयः)

तस्या एतद् एव पर्व एतत् तन्त्रम्। अथ यद् ऐन्द्राग्नो द्वादश कपालः। (विकृति इष्टयः)

इन्द्राग्नी वै देवानाम् मुखम्। मुखत एव तद् देवान् प्रीणाति। (विकृति इष्टयः)

अथ यद् वैश्वदेवश् चरुः। एते वै सर्वे देवा यद् विश्वे देवाः। सर्वेषाम् एव देवानाम् प्रीत्यै। (विकृति इष्टयः)

अथ यद् द्यावा पृथिवीय एक कपालः।

द्यावा पृथिवी वै सस्यस्य साधयित्र्यै। (विकृति इष्टयः)

प्रतिष्ठा पृथिवी ओद्म्ना असाव् अनुवेद। तद् यद् एता देवता यजति। एताभिर् देवताभिः शान्तम् अन्नम् अत्स्यामि इति। (विकृति इष्टयः)

अथ य प्रथजम् गाम् ददाति। पथम कर्म ह्य् एतत्। यद्य् एतस्यै ग्लायात्। (विकृति इष्टयः)

पौर्णमासम् वा अमावास्यम् वा हविष् कुर्वीत नवानाम् उभयस्य आप्त्यै। (विकृति इष्टयः)

अपि वा पौर्णमासे वा अमावास्ये वा हवींष्य् अनुवर्तयेद् देवतानाम् अपरिहाणाय। (विकृति इष्टयः)

अपि वा यवाग् वा एव सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयान् नवानाम् उभयस्य आप्त्यै। (विकृति इष्टयः)

अपि वा स्थाली पाकम् एव गार्हपत्ये श्रपयित्वा नवानाम् एताभ्य आग्रयण देवताभ्य आहवनीये जुहुयात् स्विष्टकृच् चतुर्थीभ्यो अमुष्यै स्वाहा अमुष्यै स्वाहा इति देवतानाम् अपरिहाणाय। (विकृति इष्टयः)

अपि वा अग्निहोत्रीम् एव नवान् आदयित्वा तस्यै दुग्धेन सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयाद् उभयस्य आप्त्यै। (विकृति इष्टयः)

एत एतावन्तः पाताः। तेषाम् येन कामयेत तेन यजेत। (विकृति इष्टयः)

त्रिहविस् तु स्थिता। त्रयो वा इमे लोकाः। इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति। (विकृति इष्टयः)

NAKSHATR SUKT-NAKSHATRESHTI :: 

***ॐ ***

अ॒ग्निर्नः॑ पातु॒ कृत्ति॑काः। नक्ष॑त्रं दे॒वमि॑न्द्रि॒यम्। इ॒दमा॑सां विचक्ष॒णम्। ह॒विरा॒सं जु॑होतन। यस्य॒ भान्ति॑ र॒श्मयो॒ यस्य॑ के॒तवः॑। यस्ये॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ सर्वा॓। स कृत्ति॑काभिर॒भिस॒ंवसा॑नः। अ॒ग्निर्नो॑ दे॒वस्सु॑वि॒ते द॑धातु॥1॥

प्र॒जाप॑ते रोहि॒णीवे॑तु॒ पत्नी॓। वि॒श्वरू॑पा बृह॒ती चि॒त्रभा॑नुः। सा नो॑ य॒ज्ञस्य॑ सुवि॒ते द॑धातु। यथा॒ जीवे॑म श॒रद॒स्सवी॑राः। रो॒हि॒णी दे॒व्युद॑गात्पु॒रस्ता॓त्। विश्वा॑ रू॒पाणि॑ प्रति॒मोद॑माना। प्र॒जाप॑तिग्ं ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्ती। प्रि॒या दे॒वाना॒मुप॑यातु य॒ज्ञम्॥2॥

सोमो॒ राजा॑ मृगशी॒र्॒षेण॒ आगन्न्॑। शि॒वं नक्ष॑त्रं प्रि॒यम॑स्य॒ धाम॑। आ॒प्याय॑मानो बहु॒धा जने॑षु। रेतः॑ प्र॒जां यज॑माने दधातु। यत्ते॒ नक्ष॑त्रं मृगशी॒र्॒षमस्ति॑। प्रि॒यग्ं रा॑जन् प्रि॒यत॑मं प्रि॒याणा॓म्। तस्मै॑ ते सोम ह॒विषा॑ विधेम। शन्न॑ एधि द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे॥3॥

आ॒र्द्रया॑ रु॒द्रः प्रथ॑मा न एति। श्रेष्ठो॑ दे॒वानां॒ पति॑रघ्नि॒याना॓म्। नक्ष॑त्रमस्य ह॒विषा॑ विधेम। मा नः॑ प्र॒जाग्ं री॑रिष॒न्मोत वी॒रान्। हे॒ति रु॒द्रस्य॒ परि॑णो वृणक्तु। आ॒र्द्रा नक्ष॑त्रं जुषताग्ं ह॒विर्नः॑। प्र॒मु॒ञ्चमा॑नौ दुरि॒तानि॒ विश्वा॓। अपा॒घशग्ं॑ सन्नुदता॒मरा॑तिम्॥4॥

पुन॑र्नो दे॒व्यदि॑तिस्पृणोतु। पुन॑र्वसूनः॒ पुन॒रेतां॓ य॒ज्ञम्। पुन॑र्नो दे॒वा अ॒भिय॑न्तु॒ सर्वे॓। पुनः॑ पुनर्वो ह॒विषा॑ यजामः। ए॒वा न दे॒व्यदि॑तिरन॒र्वा। विश्व॑स्य भ॒र्त्री जग॑तः प्रति॒ष्ठा। पुन॑र्वसू ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्ती। प्रि॒यं दे॒वाना॒-मप्ये॑तु॒ पाथः॑॥5॥

बृह॒स्पतिः॑ प्रथ॒मं जाय॑मानः। ति॒ष्यं॑ नक्ष॑त्रम॒भि सम्ब॑भूव। श्रेष्ठो॑ दे॒वानां॒ पृत॑नासुजि॒ष्णुः। दि॒शो‌नु॒ सर्वा॒ अभ॑यन्नो अस्तु। ति॒ष्यः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॑। बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑पातु प॒श्चात्। बाधे॑ता॒न्द्वेषो॒ अभ॑यं कृणुताम्। सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यस्याम॥6॥

इ॒दग्ं स॒र्पेभ्यो॑ ह॒विर॑स्तु॒ जुष्टम्॓। आ॒श्रे॒षा येषा॑मनु॒यन्ति॒ चेतः॑। ये अ॒न्तरि॑क्षं पृथि॒वीं क्षि॒यन्ति॑। ते न॑स्स॒र्पासो॒ हव॒माग॑मिष्ठाः। ये रो॑च॒ने सूर्य॒स्यापि॑ स॒र्पाः। ये दिवं॑ दे॒वीमनु॑स॒ञ्चर॑न्ति। येषा॑मश्रे॒षा अ॑नु॒यन्ति॒ कामम्॓। तेभ्य॑स्स॒र्पेभ्यो॒ मधु॑मज्जुहोमि॥7॥

उप॑हूताः पि॒तरो॒ ये म॒घासु॑। मनो॑जवसस्सु॒कृत॑स्सुकृ॒त्याः। ते नो॒ नक्ष॑त्रे॒ हव॒माग॑मिष्ठाः। स्व॒धाभि॑र्य॒ज्ञं प्रय॑तं जुषन्ताम्। ये अ॑ग्निद॒ग्धा ये‌न॑ग्निदग्धाः। ये॑‌मुल्लो॒कं पि॒तरः॑ क्षि॒यन्ति॑। याग्‍श्च॑ वि॒द्मयाग्म् उ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म। म॒घासु॑ य॒ज्ञग्ं सुकृ॑तं जुषन्ताम्॥8॥

गवां॒ पतिः॒ फल्गु॑नीनामसि॒ त्वम्। तद॑र्यमन् वरुणमित्र॒ चारु॑। तं त्वा॑ व॒यग्ं स॑नि॒तारग्ं॑ सनी॒नाम्। जी॒वा जीव॑न्त॒मुप॒ संवि॑शेम। येने॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ सञ्जि॑ता। यस्य॑ दे॒वा अ॑नुस॒ंयन्ति॒ चेतः॑। अ॒र्य॒मा राजा॒‌जर॒स्तु वि॑ष्मान्। फल्गु॑नीनामृष॒भो रो॑रवीति॥9॥

श्रेष्ठो॑ दे॒वानां॓ भगवो भगासि। तत्त्वा॑ विदुः॒ फल्गु॑नी॒स्तस्य॑ वित्तात्। अ॒स्मभ्यं॑ क्ष॒त्रम॒जरग्ं॑ सु॒वीर्यम्॓। गोम॒दश्व॑व॒दुप॒सन्नु॑दे॒ह। भगो॑ह दा॒ता भग इत्प्र॑दा॒ता। भगो॑ दे॒वीः फल्गु॑नी॒रावि॑वेश। भग॒स्येत्तं प्र॑स॒वं ग॑मेम। यत्र॑ दे॒वैस्स॑ध॒मादं॑ मदेम॥10॥

आया॒तु दे॒वस्स॑वि॒तोप॑यातु। हि॒र॒ण्यये॑न सु॒वृता॒ रथे॑न। वह॒न्॒, हस्तग्ं॑ सुभग्ं॑ विद्म॒नाप॑सम्। प्रयच्छ॑न्तं॒ पपु॑रिं॒ पुण्य॒मच्छ॑। हस्तः॒ प्रय॑च्छ त्व॒मृतं॒ वसी॑यः। दक्षि॑णेन॒ प्रति॑गृभ्णीम एनत्। दा॒तार॑म॒द्य स॑वि॒ता वि॑देय। यो नो॒ हस्ता॑य प्रसु॒वाति॑ य॒ज्ञम्॥11॥

त्वष्टा॒ नक्ष॑त्रम॒भ्ये॑ति चि॒त्राम्। सु॒भग्ं स॑संयुव॒तिग्ं राच॑मानाम्। नि॒वे॒शय॑न्न॒मृता॒न्मर्त्याग्॑श्च । रू॒पाणि॑ पि॒ग्॒ंशन् भुव॑नानि॒ विश्वा॓। तन्न॒स्त्वष्टा॒ तदु॑ चि॒त्रा विच॑ष्टाम्। तन्नक्ष॑त्रं भूरि॒दा अ॑स्तु॒ मह्यम्॓। तन्नः॑ प्र॒जां वी॒रव॑तीग्ं सनोतु। गोभि॑र्नो॒ अश्वै॒स्सम॑नक्तु यज्ञम्॥12॥

वा॒युर्नक्ष॑त्रम॒भ्ये॑ति॒ निष्ट्या॓म्। ति॒ग्मशृं॑गो वृष॒भो रोरु॑वाणः। स॒मी॒रय॒न् भुव॑ना मात॒रिश्वा॓ । अप॒ द्वेषाग्ं॑सि नुदता॒मरा॑तीः। तन्नो॑ वा॒यस्तदु॒ निष्ट्या॑ शृणोतु। तन्नक्ष॑त्रं भूरि॒दा अ॑स्तु॒ मह्यम्॓। तन्नो॑ दे॒वासो॒ अनु॑जानन्तु॒ कामम्॓। यथा॒ तरे॑म दुरि॒तानि॒ विश्वा॓॥13॥

दू॒रम॒स्मच्छत्र॑वो यन्तु भी॒ताः । तदि॑न्द्रा॒ग्नी कृ॑णुतां॒ तद्विशा॑खे। तन्नो॑ दे॒वा अनु॑मदन्तु य॒ज्ञम्। प॒श्चात् पु॒रस्ता॒दभ॑यन्नो अस्तु । नक्ष॑त्राणा॒मधि॑पत्नी॒ विशा॑खे। श्रेष्ठा॑विन्द्रा॒ग्नी भुव॑नस्य गो॒पौ। विषू॑च॒श्शत्रू॑नप॒बाध॑मानौ। अप॒क्षुध॑न्नुदता॒मरा॑तिम्॥14॥

पू॒र्णा प॒श्चादु॒त पू॒र्णा पु॒रस्ता॓त्। उन्म॑ध्य॒तः पौ॓र्णमा॒सी जि॑गाय। तस्यां॓ दे॒वा अधि॑स॒ंवस॑न्तः। उ॒त्त॒मे नाक॑ इ॒ह मा॑दयन्ताम्। पृ॒थ्वी सु॒वर्चा॑ युव॒तिः स॒जोषा॓ः। पौ॒र्ण॒मा॒स्युद॑गा॒च्छोभ॑माना। आ॒प्या॒यय॑न्ती दुरि॒तानि॒ विश्वा॓। उ॒रुं दुहां॒ यज॑मानाय य॒ज्ञम्॥15॥

ऋ॒द्ध्यास्म॑ ह॒व्यैर्नम॑सोप॒सद्य॑। मि॒त्रं दे॒वं मि॑त्र॒धेयं॑ नो अस्तु। अ॒नू॒रा॒धान्, ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्तः। श॒तं जी॑वेम॒ श॒रदः॒ सवी॑राः। चि॒त्रं नक्ष॑त्र॒मुद॑गात्पु॒रस्ता॓त्। अ॒नू॒रा॒धा स॒ इति॒ यद्वद॑न्ति; तन्मि॒त्र ए॑ति प॒थिभि॑र्देव॒यानै॓ः। हि॒र॒ण्ययै॒र्वित॑तैर॒न्तरि॑क्षे॥16॥

इन्द्रो॓ ज्ये॒ष्ठामनु॒ नक्ष॑त्रमेति। यस्मि॑न् वृ॒त्रं वृ॑त्र॒ तूर्ये॑ त॒तार॑। तस्मि॑न्व॒य-म॒मृतं॒ दुहा॑नाः। क्षुध॑न्तरेम॒ दुरि॑तिं॒ दुरि॑ष्टिम् । पु॒र॒न्द॒राय॑ वृष॒भाय॑ धृ॒ष्णवे॓। अषा॑ढाय॒ सह॑मानाय मी॒ढुषे॓। इन्द्रा॑य ज्ये॒ष्ठा मधु॑म॒द्दुहा॑ना। उ॒रुं कृ॑णोतु॒ यज॑मानाय लो॒कम्॥17॥

मूलं॑ प्र॒जां वी॒रव॑तीं विदेय। परा॓च्येतु॒ निरृ॑तिः परा॒चा। गोभि॒र्नक्ष॑त्रं प॒शुभि॒स्सम॑क्तम्। अह॑र्भूया॒द्यज॑मानाय॒ मह्यम्॓। अह॑र्नो अ॒द्य सु॑वि॒ते द॑दातु। मूलं॒ नक्ष॑त्र॒मिति॒ यद्वद॑न्ति। परा॑चीं वा॒चा निरृ॑तिं नुदामि। शि॒वं प्र॒जायै॑ शि॒वम॑स्तु॒ मह्यम्॓॥18॥

या दि॒व्या आपः॒ पय॑सा सम्बभू॒वुः। या अ॒न्तरि॑क्ष उ॒त पार्थि॑वी॒र्याः। यासा॑मषा॒ढा अ॑नु॒यन्ति॒ कामम्॓। ता न॒ आपः॒ शग्ग् स्यो॒ना भ॑वन्तु। याश्च॒ कूप्या॒ याश्च॑ ना॒द्या॓स्समु॒द्रिया॓ः। याश्च॑ वैश॒न्तीरुत प्रा॑स॒चीर्याः। यासा॑मषा॒ढा मधु॑ भ॒क्षय॑न्ति । ता न॒ आपः॒ शग्ग् स्यो॒ना भ॑वन्तु॥19 ॥

तन्नो॒ विश्वे॒ उप॑ शृण्वन्तु दे॒वाः । तद॑षा॒ढा अ॒भिसंय॑न्तु य॒ज्ञम्। तन्नक्ष॑त्रं प्रथतां प॒शुभ्यः॑। कृ॒षिर्वृ॒ष्टिर्यज॑मानाय कल्पताम्। शु॒भ्राः क॒न्या॑ युव॒तय॑स्सु॒पेश॑सः। क॒र्म॒कृत॑स्सु॒कृतो॑ वी॒र्या॑वतीः। विश्वा॓न् दे॒वान्, ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्तीः। अ॒षा॒ढाः काम॒मुपा॑यन्तु य॒ज्ञम्॥20॥

यस्मि॒न् ब्रह्मा॒भ्यज॑य॒त्सर्व॑मे॒तत्। अ॒मुञ्च॑ लो॒कमि॒दमू॑च॒ सर्वम्॓। तन्नो॒ नक्ष॑त्रमभि॒जिद्वि॒जित्य॑। श्रियं॑ दधा॒त्वहृ॑णीयमानम् । उ॒भौ लो॒कौ ब्रह्म॑णा॒ सञ्जि॑ते॒मौ। तन्नो॒ नक्ष॑त्रमभि॒जिद्विच॑ष्टाम्। तस्मि॑न्व॒यं पृत॑ना॒स्सञ्ज॑येम। तन्नो॑ दे॒वासो॒ अनु॑जानन्तु॒ कामम्॓॥21॥

शृ॒ण्वन्ति॑ श्रो॒णाम॒मृत॑स्य गो॒पाम्। पुण्या॑मस्या॒ उप॑शृणोमि॒ वाचम्॓ । म॒हीं दे॒वीं विष्णु॑पत्नीमजू॒र्याम्। प्र॒तीची॑ मेनाग्ं ह॒विषा॑ यजामः। त्रे॒धा विष्णु॑रुरुगा॒यो विच॑क्रमे। म॒हीं दिवं॑ पृथि॒वीम॒न्तरि॑क्षम्। तच्छ्रो॒णैति॒श्रव॑-इ॒च्छमा॑ना। पुण्य॒ग्ग्॒ श्लोकं॒ यज॑मानाय कृण्व॒ती॥22॥

अ॒ष्टौ दे॒वा वस॑वस्सो॒म्यासः॑। चत॑स्रो दे॒वीर॒जराः॒ श्रवि॑ष्ठाः। ते य॒ज्ञं पा॓न्तु॒ रज॑सः पु॒रस्ता॓त् । स॒ंव॒त्स॒रीण॑म॒मृतग्ग्॑ स्व॒स्ति। य॒ज्ञं नः॑ पान्तु॒ वस॑वः पु॒रस्ता॓त्। द॒क्षि॒ण॒तो॑‌भिय॑न्तु॒ श्रवि॑ष्ठाः। पुण्य॒न्नक्ष॑त्रम॒भि संवि॑शाम। मा नो॒ अरा॑तिर॒घश॒ग्ं॒सा‌गन्न्॑॥23॥

क्ष॒त्रस्य॒ राजा॒ वरु॑णो‌धिरा॒जः। नक्ष॑त्राणाग्ं श॒तभि॑ष॒ग्वसि॑ष्ठः। तौ दे॒वेभ्यः॑ कृणुतो दी॒र्घमायुः॑ । श॒तग्ं स॒हस्रा॑ भेष॒जानि॑ धत्तः। य॒ज्ञन्नो॒ राजा॒ वरु॑ण॒ उप॑यातु। तन्नो॒ विश्वे॑ अ॒भि संय॑न्तु दे॒वाः। तन्नो॒ नक्ष॑त्रग्ं श॒तभि॑षग्जुषा॒णम्। दी॒र्घमायुः॒ प्रति॑रद्भेष॒जानि॑॥24॥

अ॒ज एक॑पा॒दुद॑गात्पु॒रस्ता॓त्। विश्वा॑ भू॒तानि॑ प्रति॒ मोद॑मानः। तस्य॑ दे॒वाः प्र॑स॒वं य॑न्ति॒ सर्वे॓ । प्रो॒ष्ठ॒प॒दासो॑ अ॒मृत॑स्य गो॒पाः। वि॒भ्राज॑मानस्समिधा॒ न उ॒ग्रः। आ‌न्तरि॑क्षमरुह॒दग॒न्द्याम्। तग्ं सूर्यं॑ दे॒वम॒जमेक॑पादम्। प्रो॒ष्ठ॒प॒दासो॒ अनु॑यन्ति॒ सर्वे॓॥25॥

अहि॑र्बु॒ध्नियः॒ प्रथ॑मा न एति। श्रेष्ठो॑ दे॒वाना॑मु॒त मानु॑षाणाम्। तं ब्रा॓ह्म॒णास्सो॑म॒पास्सो॒म्यासः॑। प्रो॒ष्ठ॒प॒दासो॑ अ॒भिर॑क्षन्ति॒ सर्वे॓। च॒त्वार॒ एक॑म॒भि कर्म॑ दे॒वाः। प्रो॒ष्ठ॒प॒दा स॒ इति॒ यान्, वद॑न्ति। ते बु॒ध्नियं॑ परि॒षद्यग्ग्॑ स्तु॒वन्तः॑। अहिग्ं॑ रक्षन्ति॒ नम॑सोप॒सद्य॑॥26॥

पू॒षा रे॒वत्यन्वे॑ति॒ पन्था॓म्। पु॒ष्टि॒पती॑ पशु॒पा वाज॑बस्त्यौ। इ॒मानि॑ ह॒व्या प्रय॑ता जुषा॒णा। सु॒गैर्नो॒ यानै॒रुप॑यातां य॒ज्ञम्। क्षु॒द्रान् प॒शून् र॑क्षतु रे॒वती॑ नः। गावो॑ नो॒ अश्वा॒ग्॒म् अन्वे॑तु पू॒षा। अन्न॒ग्ं॒ रक्ष॑न्तौ बहु॒धा विरू॑पम्। वाजग्ं॑ सनुतां॒ यज॑मानाय य॒ज्ञम्॥27॥

तद॒श्विना॑वश्व॒युजोप॑याताम्। शुभ॒ङ्गमि॑ष्ठौ सु॒यमे॑भि॒रश्वै॓ः। स्वं नक्ष॑त्रग्ं ह॒विषा॒ यज॑न्तौ। मध्वा॒सम्पृ॑क्तौ॒ यजु॑षा॒ सम॑क्तौ। यौ दे॒वानां॓ भि॒षजौ॓ हव्यवा॒हौ। विश्व॑स्य दू॒ताव॒मृत॑स्य गो॒पौ। तौ नक्ष॒त्रं जुजुषा॒णोप॑याताम्। नमो॒‌श्विभ्यां॓ कृणुमो‌श्व॒युग्भ्या॓म्॥28॥

अप॑ पा॒प्मानं॒ भर॑णीर्भरन्तु। तद्य॒मो राजा॒ भग॑वा॒न्॒, विच॑ष्टाम्। लो॒कस्य॒ राजा॑ मह॒तो म॒हान्, हि। सु॒गं नः॒ पन्था॒मभ॑यं कृणोतु। यस्मि॒न्नक्ष॑त्रे य॒म एति॒ राजा॓ । यस्मि॑न्नेनम॒भ्यषिं॑चन्त दे॒वाः। तद॑स्य चि॒त्रग्ं ह॒विषा॑ यजाम। अप॑ पा॒प्मानं॒ भर॑णीर्भरन्तु॥29॥

नि॒वेश॑नी स॒ङ्गम॑नी॒ वसू॑नां॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ वसू॓न्यावे॒शय॑न्ती । स॒ह॒स्र॒पो॒षग्ं सु॒भगा॒ ररा॑णा॒ सा न॒ आग॒न्वर्च॑सा संविदा॒ना। यत्ते॑ दे॒वा अद॑धुर्भाग॒धेय॒ममा॑वास्ये स॒ंवस॑न्तो महि॒त्वा। सा नो॑ य॒ज्ञं पि॑पृहि विश्ववारे र॒यिन्नो॑ धेहि सुभगे सु॒वीरम्॓॥30॥

[तैत्तिरीय ब्रह्मणम् अष्टकम् 3 प्रश्नः 1; तैत्तिरीय संहिताः  काण्ड 3 प्रपाठकः 5 अनुवाकम् 1]

ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑