गुप्त सप्तशती और कुञ्जिका स्तोत्र

गुप्त सप्तशती और कुञ्जिका स्तोत्र
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नमः

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सात सौ मन्त्रों की “श्री दुर्गा सप्तशती”, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी गुप्त-सप्तशती का पाठ है। यह “गुप्त-सप्तशती” प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम :- प्रारम्भ में “कुञ्जिका-स्तोत्र”, उसके बाद “गुप्त-सप्तशती”, तदन्तर “स्तवन” का पाठ करें।
कुञ्जिका-स्तोत्र ::
पूर्व-पीठिका :-
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्। 
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्। 
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्। 
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति। 
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्॥ 4॥
अथ मंत्र ::
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा। 
इति मंत्रः। 
इस “कुञ्जिका-मन्त्र” का यहाँ दस बार जप करें। इसी प्रकार “स्तवन-पाठ” के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर “कुञ्जिका स्तोत्र” का पाठ करें।
कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ ::
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि। जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥ 
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥ 
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा। 
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा॥
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। 
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी। 
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥
मन्त्र ::
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, 
हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय,  त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा। 
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।
 म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये। 
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्। 
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्।
गुप्त-सप्तशती ::
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते॥1॥
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे॥
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते॥2॥
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते॥3॥
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते॥4॥
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे॥
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते॥5॥
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने॥
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते॥6॥
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते॥7॥
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते॥8॥
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री॥
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते॥9॥
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये॥
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि॥10॥
स्तवन ::
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥1॥
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥2॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥3॥
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥4॥
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥5॥
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन॥
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥6॥
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे॥
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥7॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते॥
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥8॥
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे॥9॥
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा॥
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते॥10॥
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा॥
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥11॥
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्॥
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्॥12॥
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा॥
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा॥13॥

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महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र

 महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र

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ॐ गं गणपतये नमः। अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदनुते गिरिवर विंध्य शिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते। भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥1॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते। दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥2॥
अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रिय वासिनि हासरते शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृंग निजालय मध्यगते। मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥3॥
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।  निज भुज दण्ड निपातित खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥4॥
अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभृते चतुर विचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते।
दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत कृतांतमते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥5॥
अयि शरणागत वैरि वधूवर वीर वराभय दायकरे त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि शिरोधि कृतामल शूलकरे। 
दुमिदुमि तामर दुंदुभिनाद महो मुखरीकृत तिग्मकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥6॥
अयि निज हुँकृति मात्र निराकृत धूम्र विलोचन धूम्र शते समर विशोषित शोणित बीज समुद्भव शोणित बीज लते। शिव शिव शुंभ निशुंभ महाहव तर्पित भूत पिशाचरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥7॥
धनुरनु संग रणक्षणसंग परिस्फुर दंग नटत्कटके कनक पिशंग पृषत्क निषंग रसद्भट शृंग हतावटुके।
कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥8॥
जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते झण झण झिञ्जिमि झिंकृत नूपुर सिंजित मोहित भूतपते। नटित नटार्ध नटीनट नायक नाटित नाट्य सुगानरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥9॥
अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते।
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥10॥
सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरते विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते। सितकृत पुल्लिसमुल्ल सितारुण तल्लज पल्लव सल्ललिते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥11॥
अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते।
अयि सुद तीजन लालसमानस मोहन मन्मथ राजसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥12॥
कमल दलामल कोमल कांति कलाकलितामल भाललते सकल विलास कलानिलयक्रम केलि चलत्कल हंस कुले। अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल मौलिमिलद्भकुलालि कुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥13॥
कर मुरली रव वीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुमते मिलित पुलिन्द मनोहर गुञ्जित रंजितशैल निकुञ्जगते। निजगुण भूत महाशबरीगण सद्गुण संभृत केलितले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥14॥
कटितट पीत दुकूल विचित्र मयूखतिरस्कृत चंद्र रुचे प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुल सन्नख चंद्र रुचे। जित कनकाचल मौलिपदोर्जित निर्भर कुंजर कुंभकुचे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥15॥
विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते कृत सुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते। सुरथ समाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥16॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्। तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥17॥
कनकलसत्कल सिन्धु जलैरनु सिञ्चिनुते गुण रङ्गभुवं भजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम्। तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवं जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥18॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते किमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥19॥
अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासिरते। यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपाकुरुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥20॥
इति श्रीमहिषासुरमर्दिनि स्तोत्रं संपूर्णम्॥
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श्री चण्डी ध्वज स्तोत्र

श्री चण्डी ध्वज स्तोत्र
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
विनियोग :: 
अस्य श्री चण्डी-ध्वज स्तोत्र मन्त्रस्य मार्कण्डेय ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रां बीजं, श्रीं शक्तिः, श्रूं कीलकं मम वाञ्छितार्थ फल सिद्धयर्थे विनियोगः। 
अंगन्यास :: श्रां, श्रीं, श्रूं, श्रैं, श्रौं, श्रः से हृदयादिन्यास व करन्यास करें। 
मूल पाठ ::
ॐ श्रीं नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै भूत्त्यै नमो नमः। 
परमानन्दरुपिण्यै नित्यायै सततं नमः॥1॥ 
नमस्तेऽस्तु महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥2॥ 
रक्ष मां शरण्ये देवि धन-धान्य-प्रदायिनि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥3॥ 
नमस्तेऽस्तु महाकाली पर-ब्रह्म-स्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥4॥ 
नमस्तेऽस्तु महालक्ष्मी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥5॥
नमस्तेऽस्तु महासरस्वती परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥6॥ 
नमस्तेऽस्तु ब्राह्मी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥7॥ 
नमस्तेऽस्तु माहेश्वरी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥8॥ 
नमस्तेऽस्तु च कौमारी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥9॥ 
नमस्ते वैष्णवी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥10॥ 
नमस्तेऽस्तु च वाराही परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥11॥ 
नारसिंही नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥12॥
 नमो नमस्ते इन्द्राणी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥13॥
नमो नमस्ते चामुण्डे परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥14॥
नमो नमस्ते नन्दायै परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥15॥ 
रक्तदन्ते नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥16॥
नमस्तेऽस्तु महादुर्गे परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥17॥
शाकम्भरी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥18॥
शिवदूति नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥19॥
नमस्ते भ्रामरी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥20॥ 
नमो नवग्रहरुपे परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥21॥
नवकूट महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥22॥
स्वर्णपूर्णे नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥23॥ 
श्रीसुन्दरी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥24॥
नमो भगवती देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥25॥
 दिव्ययोगिनी नमस्ते परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥26॥
नमस्तेऽस्तु महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥27॥
नमो नमस्ते सावित्री परब्रह्मस्वरुपिणि।
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥28॥  
जयलक्ष्मी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि।
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥29॥ 
मोक्षलक्ष्मी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि।
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥30॥
चण्डीध्वजमिदं स्तोत्रं सर्वकामफलप्रदम्।
राजते सर्वजन्तूनां वशीकरण साधनम्॥31॥ 
 
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LALITA SAHASTRA NAM STROTR ललिता सहस्र नाम स्तोत्र

LALITA SAHASTRA NAM STROTR 

ललिता सहस्र नाम स्तोत्र

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
श्री विद्यां जगतां धात्रीं सर्गस्स्थि लयेश्वरीम्। 
अगस्त्य उवाच :-
अश्र्वानन महाबुद्धे सर्वशास्त्र विशारद।
कथितं ललितादेव्याश्चरितं परमाद्भुतम्॥
पूर्वं प्रादुर्भवो मातुस्ततः पट्टाभिषेचनम्। 
भण्डासुरवधवैव विस्तरेण त्वयोदितः॥
वर्णितः श्रीपुरं चापि महाविभवविस्तरम्। 
श्रीमत्पञ्चदशाक्षर्या महिमा वर्णिस्तथा॥ 
षोढान्यासादयो न्यासा न्यासखण्डे समीरिताः।
अन्तर्यागक्रमश्चैव बहियार्गक्रमस्तथा॥
महायागक्रमश्वैव पूजाखण्डे प्रकीर्तितः। 
पुरश्वरखण्डे तु जपलक्षणमीरितम्॥
होमखण्डे त्वया प्रोक्तो होमद्रव्यविधिक्रमः। 
चक्रराजस्य विद्यायाः श्रीदेव्या देशिकात्मनोः॥
रहस्यखण्डे तदात्म्य परस्परमुदीतिम्। 
स्तोत्रखण्डे बहुविधाः स्तुतयः परिकीर्तिताः॥
मन्त्रिणीदण्डिनीदेव्योः प्रोक्तो नामसहस्रके। 
न तु श्री ललितादेव्याः प्रोक्ते नामसहस्रकम्॥
तत्र मे संशयो जातो हयग्रीव दयानिधे। 
किं वा त्वया विस्मृतं तज्ज्ञात्त्वा वा समुपेक्षितम्॥
मम वा योग्यता नास्ति श्रोतुं नामसहस्रकम्। 
किमर्थं भवता नोक्तं तत्र मे कारणं वद॥
सूत उवाच :- 
इति पृष्टो हयग्रीवो मुनिना कुम्भजन्मना। 
प्रह्ष्टो वचनं प्राह तापसं कुम्भसंभवम्॥
श्री हयग्रीव उवाच :- 
ळोपामुद्रापतेऽगस्त्य सावधानमनाः शुणृः। 
नाम्नां सहस्र यन्नोक्तं कारणं तद्वदामि ते॥
रहस्यमिति मत्वाऽहं नोक्तवास्ते न चान्यथा। 
पुन्श्च पृच्छते भक्त्या तस्मात्त्ते वदाम्यहम्॥
ब्रूयाच्छिष्याय भक्ताय रहस्यमपि देशिकः। 
भवता न प्रदेयं स्यादभक्ताय कदाचन॥
न शठाय न दुष्टाय नाविश्वासाय कर्हिचित्। 
श्रीमातृभक्तियुक्ताय श्रीविद्याराजवेदिने॥
उपासकाय शुद्धाय देयं नामसहस्रकम्।
यानि नाम सहस्रणानि सद्यः सिद्धिप्रदानि वै॥
तन्त्रेषु ललितादेव्यास्तुते मुख्यमिदं मुने।
श्रीविद्यैव तु मन्त्राणां तत्र कादिर्यथा परा॥
पुराणां श्रिरपुरमिव शक्तिनां ललिता यथा।
श्रीविद्योपासकानां च यथा देवो परः शिवः॥
तथा नाम सहस्रेषु वरमेतत् प्रकीर्तितम्।
यथाऽस्य पठनाद्देवी प्रीयते ललिताम्बिका॥
अन्यनामसहस्रस्य पाठान्न प्रीयते तथा।
श्रीमातुः प्रीयते तस्माददिशं कीर्तयेदिद्म॥
बिल्वपत्रैश्वक्रराजे योऽर्चयेल्ललिताम्बिकाम्।
पद्य्मैर्वा तुलसीपुष्पैरिभिर्नामसहस्रैः॥
सद्यः प्रसादं कुरुते तस्य सिंहासनेश्वरी।
चक्राधिराजमभ्यर्च्य जप्त्वा पञ्चदशाक्षरीम्॥ 
जपान्ते कीर्तियेन्नित्यमिदं नामसहस्रकम्।
जपपूजाद्यशक्तश्रेत् पठेन्नामसहस्रम्॥
साङ्गर्चने साङ्गजपे यत्फलं तदवाप्नुयात्।
उपासने स्तुतीरन्या पठेदभ्युदयो हि सः॥ 
इदं नामसहस्रं तु कीर्तियेन्नित्यकर्मवत्।
चक्रराजार्चनं देव्या जपो नाम्नां च कीर्तिनम्॥ 
भक्तस्य कृत्यमेतावदन्यदभ्युदयं विदुः।
भक्तस्यावश्यकमिदं नामसहस्रकीर्तिनम्॥ 
तत्र हेतुं प्रवक्ष्यामि शुणृ त्वं कुम्भसम्भव।
पुरा श्रीललितादेवी भक्तानां हितकाम्यया॥ 
वाग्देवीर्वशिनीमुख्याः समाहूयेदमब्रवीत।
वाग्देवता वशिन्याद्याः शुणृध्वं वचनं मम॥ 
भवत्यो मत्प्रसादेन प्रोल्लसद्वाग्विभूतयः। 
मद्भक्तानाम् वाग्विभूतिप्रदाने विनियाजिताः॥ 
मच्चक्रस्य रहस्यज्ञा मम नामपरायणाः। 
मम स्तोत्रविधानाय तस्मादाज्ञापयामि वः॥ 
कुरुध्वमंक्कितं स्तोत्रं मम नामसहस्रकैः। 
येन भक्तैः स्तुताया मे सद्यः प्रीतिः परा भवेत्॥ 
हयग्रीव उवाच :–
इत्याज्ञप्ता वचोदेव्यो देव्या श्रीललिताम्बया। 
रहस्यैर्नामभिर्दिव्यैश्र्वकुः स्तोत्रमनित्तमम्॥ 
रहस्यनामसाहस्रमिति तद्विश्रुतं परम्। 
ततः कदाचित् सदसि स्थित्वा सिंहासनऽम्बिका॥ 
स्वसेवासरं प्रदात् सर्वेषां कुम्भसम्भव। 
सेवार्थमागतास्तत्र ब्राह्माणी ब्रह्मकोटयः॥ 
लक्ष्मीनारायणानां च कोटयः समुपागताः।
गौरीकोटिसमेतानाम् रुद्राणां मपि कोटयः॥
मन्त्रिणीदण्डिनीमुख्याः सेवार्थ याः समागताः।
शक्तयो विविधाकारास्तासां संख्या न विद्यते॥ 
दिव्यौघा मानवौघाश्व सिद्धौघाश्व समागताः। 
तत्र श्री ललितादेवी सर्वेषां दर्शनं ददौ॥ 
तेषु दुष्टोपविष्टेषु स्वे स्वे स्थाने यथाक्रमम्। 
ततः श्रीललितादेवीकटाक्षाक्षेपचोदिताः॥ 
उत्थाय वशिनीमुख्या बद्धाञ्जलिपुटास्तदा। 
अस्तुवन्नामसाहस्रैः स्वकृतैर्ललिताम्बिकाम्॥ 
श्रुत्वा स्तवं प्रसन्नाभूल्ललिता परमेश्वरी। 
ते सर्वे विस्मयं जग्मुर्ये तत्र सदसि स्थिताः॥ 
ततः प्रोवाच ललिता सदस्यान् देवतागणान्। 
ममाज्ञयैव वाग्देव्यश्र्वक्रुः स्तोत्रमनुत्तमम्॥
अंक्कितं नामभिर्दिव्यैर्मम प्रीतिविधायकैः। 
तत्पठध्वं सदा यूयं स्तोत्रं मत्प्रीतिवृद्धये॥ 
प्रवर्तयध्वं भक्तेषु मम नामसहस्रकम्। 
इदं नामसहस्रं मे यो भक्तः पठते सकृत्॥
स मे प्रियतमो ज्ञेयस्तस्मै कामान् ददाम्यहम्। 
श्रीचक्रे मां समभ्यर्च्य जप्त्वा पञ्चदशाक्षरीम्॥ 
पश्चान्नामसहस्रं मे कीर्तियेन्मम तुष्टये। 
मामर्चयतु वा मा वा विद्यां जपतु वा ना वा॥ 
कीर्तियेन्नामसाहस्रमिदं मत्प्रीतये सदा। 
मत्प्रीत्या सकलान् मे कीर्तयध्वं सदाऽऽदरात्॥ 
इति श्रीललितेशानी शास्ति देवान् सहानुगान्। 
हयग्रीव उवाच :–
तदाज्ञया तदारभ्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। 
शक्तयो मन्त्रिणीमुख्या इदं नामसहस्रकम्॥ 
पठन्ति भक्तया सततं ललितापरितुष्टये। 
तस्मादवश्यं भक्तेन कीर्तिनीयमिदं मुने॥ 
आवश्यकत्वे हेतुस्ते मया प्रोक्तो मुनीश्वर। 
इदानीं नामसाहस्रं वक्ष्यामि श्रद्वया शुणृ॥ 
श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम् [सम्पाद्यताम्]।
न्यास ::
अस्य श्रीललितासहस्रनामस्तोत्रमाला मन्त्रस्य वशिन्यादि वाग्देवता ऋषयः।
अनुष्टुप् छन्दः। श्रीललितापरमेश्वरी देवता। श्रीमद्वाग्भवकूटेति बीजम्।
मध्यकूटेति शक्तिः। शक्तिकूटेतिकीलकम्।
श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरी प्रसादसिद्धिद्धारा चिन्तित फलावाप्त्यर्थे जपे विनियोगः। लमित्यादिञ्चपूजां कुर्यात्।
ध्यान ::
सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्ता रानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम्।
पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं रक्तोफळं बिभ्रतीं सौम्या रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत्पराम्बिकाम्॥ 

श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम् ::

ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी। 
चिदग्रि कुण्ड सम्भूता देवकार्य समुद्यता॥ 
उद्भानु सहस्राभा चर्तुबाहू समन्विता। 
रागस्वरुप पाशाढ्या क्रोधाकारांक्कुशोज्ज्वाळा॥ 
मनोरुपेक्षु कोदण्डा पञ्चतन्मात्र सायका। 
निजारुण प्रभापूर मज्जद्वह्याण्ड मण्डला॥ 
चम्पकाशोक पुन्नाग सौगन्धिक लसत्कचा। 
कुरुविन्द मणि श्रेणी कनत्कोटीर मण्डिता॥ 
अष्टमीचन्द्र विभ्राज दलिकस्थल शोभिता। 
मुखचन्द्र कलंक्काभ मृगनाभि विशेषका॥ 
वदनस्मर माङ्गळ्य गृहतोरण चिळ्लिका। 
वक्त्रलक्ष्मी परिवाह चलन्मीनाभ लोचना॥ 
नवचम्पक पुष्पाभ नासादण्ड विराजिता। 
ताराकान्ति तिरस्कारि नासाभरण भासुरा॥ 
कदम्बमञ्जरी क्लृप्त कर्णपूर मनोहरा। 
ताटङ्क युगली भूत तपनोडुप मण्डला॥ 
पद्य्मरागशिलादर्श परिभावि कपोलभूः। 
नवविद्रुम बिम्बश्री न्यक्कारि रदनच्छदा॥ 
शुद्धविद्यांकुराकार द्विजपंक्ति द्वयोज्ज्वला। 
कर्पूरवीटिकामोद समाकर्ष द्विगन्तरा॥ 
निज सळ्लाप माधुर्य विनर्भिर्त्सित कच्छपी। 
मन्दस्मित प्रभापूर मज्ज्तकामेश मानसा॥ 
अनाकालित सादृश्य चुबुकश्री विराजिता। 
कामेश बद्ध माङ्ग्ल्य सूत्र शोभित कन्धरा॥ 
कनकाङ्ग्द केयूर कमनीय भुजानविता। 
रत्नग्रैवेय चिन्ताक लोल मुक्ता फलान्विता॥
कामेश्वर प्रेमरत्न मणि प्रतिपण स्तनी। 
न्याभ्यालवाल रोमालि लता फल कुचद्वयी॥ 
लक्ष्यरोम लताधारता समुन्नेय मध्यमा। 
स्तनभार दलन्मध्य पट्टबन्ध वलित्रया॥ 
अरुणारुणकौसुम्भ वस्त्र भास्वत्क टीतटी। 
रत्न किङ्किणिका रम्य रशना दाम भूषिता॥ 
कामेश ज्ञात सौभाग्य मार्दुवोरु द्वयान्विता। 
माण्यिकामुकुटाकार जानुद्वय विराजिता॥ 
इन्द्रगोप परिक्षिप्तस्मरणतूनाभ जंघिका। 
गूढगुळ्फा कूर्मपृष्ठ ययिष्णु प्रपदान्विता॥ 
नख दीधित संछन्न नमज्जन तमोगुणा। 
पदद्वय प्रभाजाल पराकृत सरोरुहा॥ 
सिञ्जान मणिमञ्जीर मण्डित श्री पदाम्बुजा। 
मराली मन्दगमना महालावण्य शेवधिः॥
सर्वारुणाऽनवद्यांगी सर्वाभरण भूषिता। 
शिव कामेश्वराङ्कस्था शिवा स्वाधीन वल्लभा॥ 
सुमेरु मध्य शृङ्गत्था श्रीमन्नगर नायिका। 
चिन्तामणि गृहान्तस्था पञ्च ब्रह्मासन स्थिता॥ 
महापद्य्माटवी संस्था कदम्बवन वासिनी। 
सुधासागर मध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी॥ 
देवर्षि गण संघात स्तूयमानात्म वैभवा। 
भण्डासुर वधोद्युक्त शक्तिसेना समान्विता॥ 
सम्पत्करी समारुढ सिन्धुर वज्र सेविता। 
अश्र्वारुढाधिष्ठिताश्र कोटि कोटिभि रावृता॥ 
चक्रराज रथारुढ सर्वायुध परिष्कृता। 
गेयचक्र रथारुढ मंत्रिणी परिसेविता॥ 
किरिचक्र रथारुढ दण्डनाथा पुरस्कृता। 
ज्वालामालिनिकाक्षिप्त मह्निप्राकार मध्यगा॥ 
भण्डसैन्य वधोयुक्त शक्ति विक्रम हर्षिता। 
नित्या पराक्रमाटोप निरीक्षण समुत्सुका॥
भण्डपुत्र वधोद्युक्त बाला विक्रम नन्दिता। 
मन्त्रिण्यम्बा विरचित विषङ्ग  वध तोषिता॥ 
विशुक्र प्राणहरण वाराही वीर्य नन्दिता। 
कामेश्वर मुखालोक कल्पित श्रीगणेश्वर॥ 
महागणेश निभिन्न विघ्नयन्त्र प्रहर्षिता। 
भण्डासुरेन्द्र निर्मुक्त शस्त्र प्रयस्र वर्षिणी॥
कराङ्गुलि नखोत्पन्न नारायण दशाकृतिः। 
महा पाशुपतास्राग्रि निर्दग्धासुर सैनिका॥ 
कामेश्वरास्र निर्दग्ध सभण्डासुर शून्यका। 
ब्रह्मोपेन्द्र महेन्द्रादि देव संस्तुत वैभवा॥ 
हर नेत्राग्रि संदग्ध काम सञ्जीवनौषधिः। 
श्रीमद्वाग्भव कूटैक स्वरुप मुख पंक्कजा॥ 
कण्ठाधः कटि पर्यन्त मध्यकूट स्वरुपिणी। 
शक्तिकूटैकतापन्न कट्यधोभाग धारिणी॥ 
मूलमन्त्रात्मिका मूलकूटत्रय कलेवरा। 
कुलामृतैक रसिका कुलसंकेत पालिनी॥ 
कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी। 
अकुला समयान्तरस्था समयाचार तत्परा॥ 
मूलाधारैक-निलया ब्रह्माग्रन्थि विभेदिनी। 
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदनी॥ 
आज्ञाचक्रकान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि-विभेदनी। 
सहस्राम्बुजारुढा सुधासाराभिवर्षिणी॥ 
तडिलता समरुचिऋ षट्चक्रोपरि संस्थिता। 
महाशक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तु तनीयसी॥ 
भवानी भावनागम्या भवारण्य कुठारिका। 
भद्रप्रिया भद्रमूर्ति भक्त सौभाग्यदायिनी॥ 
भक्तिप्रिया भक्तिगम्या भक्तिवश्या भयापहा। 
शाम्भवी शारदाराध्या शर्वाणी शर्मदायिनी॥ 
शाक्करी श्रीकरी साध्वी शरचन्द्र निभानना।
शातोदरी शान्तिमती निराधारा निरञ्जना॥ 
निर्लेपा निर्मला नित्या निराकारा निराकुला। 
निर्गुणा निष्कला शान्ता निष्कामा निरुपप्लवा॥
नित्यमुक्ता निर्विकारा निष्प्रपञ्जा निराश्रया। 
नित्यशुद्धा नित्यबुद्धा निरवद्या निरन्तरा॥ 
निष्कारणा निष्कलङ्का निरुपाधि र्निरीश्वरा।
नीरागा रागथनी निर्मदा मदनाशिनी॥ 
निश्रिन्ता निरहङ्कारा निर्मोहा मोहनाशिनी। 
निमर्मा ममताहन्त्री निष्पापा पापनाशिनी॥ 
निष्क्रोधा क्रोधशमनी निर्लोभा लोभनाषिनी। 
निःसंशया संशयघ्नी निर्भवा भवनाषिनी॥ 
निर्विकल्पा निराबाधा निर्भेदा भेदनाशिनी। 
निर्नाशा मृत्युमथनी निष्क्रिया निष्परिग्रहा॥ 
निस्तुला नीलचिकुरा निरपाया निरत्यया। 
दुर्लभा दुर्गमा दुर्गा दुःखहन्त्री सुखप्रदा॥ 
दुष्टदूरा दुराचारशमनी दोष वर्जिता। 
सर्वज्ञा सान्द्रकरुणा समानाधिक वर्जिता॥ 
सर्वशक्तिमयी सर्वमाङ्ग्ला सद्गति-प्रदा। 
सर्वेश्वरी सर्वमयी सर्वमन्त्र सर्वरुपिणी॥ 
सर्व-यन्त्रात्मिका सर्व तन्त्ररुपा मनोन्मनी।
माहेश्वरी महादेवी महालक्ष्मी मृडप्रिया॥
महारुपा महापूज्या महापातक नाशिनी। 
महामाया महासत्वा महाशक्ति र्मकारतिः॥ 
महाभोगा महैश्वर्या महावीर्या महाबला। 
महाबुद्धि महासिद्धि र्महायोगेश्वरेश्वरी॥ 
महातन्त्रा महामन्त्रा महायन्त्रा महासना। 
महायाग महाक्रमाराध्या महाभैरव पूजिता॥ 
महेश्वर-महाकल्प महाताण्डव साक्षिणी। 
महाकामेश-महिषी महारात्रिपुरसुन्दरी॥ 
चतुष्टषष्ट्युपचाराढ्या चतुष्टषष्टकलामयी। 
महाचतुःषष्टकोटि-योगिनी-गणसेवीता॥ 
मनुविद्या चन्द्रविद्या चन्द्रमण्डल मध्यगा। 
चारुरुपा चारुहासा चारुचन्द्र कलाधरा॥ 
चराचर-जगन्नाथा चक्ररात निकेतना। 
पार्वती पद्य्मनयना पद्य्मराग समप्रभा॥ 
पञ्चप्रेतासनासीना पञ्चब्रब्मस्वरुपिणी। 
चिरमयी परमानन्दा विज्ञानज्ञनस्वरुपिणी॥ 
ध्यान ध्यातृ ध्येयरुपा धर्माधर्मविवर्जिता। 
विश्वरुपा जागरणी स्वपन्ती तैजसात्मिका॥ 
सुप्ता प्राज्ञात्मिका तुर्या सर्वावस्था विवर्जिता। 
सृष्टिकर्त्री ब्रह्मरुपा गोप्त्री गोविन्दरुपिणी॥ 
संहारिणी रुद्ररुपा तिरोधानकरीश्वरी। 
सदाशिवाऽनुग्रहदा पञ्चकृत्यपरायणा॥ 
भानुमण्डल मध्यस्था भैरवी भगमालिनी। 
पद्य्मासना भगवती पद्य्मनाभ सहोदरी॥ 
उन्मेष निमिषोत्पन्न विपन्न भुवनावलिः। 
सहस्रशीर्षवदना सहस्राक्षी सहस्रपात्॥ 
आब्रह्मकीटजननी वर्णाश्रम विधायनी। 
निजाज्ञारुप निगमा पुण्यापुण्य फलप्रदा॥ 
श्रुति सिमन्त सिन्दुरी कृत पादाब्जधूलिका। 
सकलागम सन्दोह सूक्ति सम्पुट मौक्तिका॥ 
पुरुषार्थ प्रदा पूर्णा भोगिनी भुवनेश्वरी। 
अम्बिकाऽनादि निधना हरिब्रह्मेनदु सेविता॥ 
नारायणी नादरुपा नामरुप-विवर्जिता। 
ह्रीं कारी ह्रीमती ह्रया हेयोपादेय वर्जिता॥ 
राजराजार्चिता राज्ञी रम्या राजीव लोचना। 
रञ्जनी रमणी रस्या रणत्किङ्किणी-मेखला॥ 
रमा राकेन्दु-वदना रतिरुपा रतिप्रिया। 
रक्षाकरी राक्षसघ्नी रामा रमणलम्पटा॥ 
काम्या कामकलारुपा कदम्ब कुसुम प्रिया। 
कल्याणी जगती कन्दा करुणा रस सागरा॥ 
कलावती कलालापा कान्ता कादम्बरी-प्रिया। 
वरदा वामनयना वारुणी मद विह्वला॥ 
विश्वाशिका वेदवेद्या विन्ध्याचल-निवासनी। 
विधात्री वेदजननी विष्णुमाया विलासनी॥ 
क्षेत्रस्वरुपा क्षेत्रेशी क्षेत्र क्षेत्र्यज्ञ पालिनी। 
क्षयवृद्धि विर्निमुक्ता क्षेत्रपाल समर्जिता॥  
विजया विमला वन्ध्या वन्दारु जन वत्सला।
वाग्वादिनी वामकेशी वह्मिमण्डल वासिनी॥
भक्तिमय कल्पलतिका पशुपाश विमोचनी। 
संह्रताशेष पाषण्डा सदाचार प्रवर्तिका॥
तापत्रयाग्रि सन्तप्त समाह्वदन चन्द्रिका। 
तरुणी तापसा राध्या तनुमध्या तमोऽपहा॥ 
चिति स्ततपद लक्ष्यार्थी चिदेकरस रुपिणी। 
स्वात्मानन्द लयाभूत ब्रह्माद्यानन्द सन्तति॥ 
परा प्रत्यक चित्तरुपा पश्यन्ती परदेवता। 
मध्यमा वैखरी रुपा भक्तृमानस हंसिका॥ 
कामेश्वर प्राणनाडी कृतज्ञा कामपूजिता। 
श्रृंगार रस सम्पूर्णा जया जालन्धर स्थिता॥ 
ओड्यपाण पीठ विलया बिन्दु माण्डलवासिनी। 
रहायोग क्रमाराध्या रहस्तपर्ण तर्पिता॥ 
सद्यः प्रसादिनी विश्वसाक्षिणी साक्षिवर्जिता। 
षडङ्गदेवता युक्ता षाड्गुण्य परिपूरिता॥ 
नित्या-क्लिन्ना निरुपमा निर्वाण सुख दायिनी। 
नित्याषोडशिका रुपा श्रीकण्ठार्ध शरीरिणी॥ 
प्रभावती प्रभारुपा प्रसिद्धा परमेश्वरी। 
मूलप्रकृति रव्यक्ता व्यक्ताव्यक्त स्वरुपिणी॥ 
व्यापिनी विविधाकारा विद्याऽविद्या स्वरुपिणी। 
महाकामेश नयन कुमुदाह्वाद कौमुदी॥ 
भक्त हार्द तमो भेद मद्भानु संततिः। 
शिवदूती शिवराध्या शिवमूर्तिः शिवक्करि॥ 
शिवप्रिया शिवपरा शिष्टेष्टा शिष्टपूजिता। 
अप्रमेया स्वप्रकाशा मनो वाचामगोचरा॥ 
च्छिछक्ति श्चेतना रुपा जडशक्ति र्जडात्मिका। 
गायत्री व्याह्रती संध्या द्विजबृन्द निषेविता॥ 
तत्वासना तत्तवमयी पञ्चकोशान्तर स्थिता। 
निःसीम महिमा नित्य यौवना मदशालिनी॥ 
मद्घूर्णित रक्ताक्षी मदपाट्ल गण्डभूः। 
चन्दन द्रव दिग्धाङ्की चाम्पेय कुसुम प्रिया॥ 
कुशला कोमलाकारा कुरुकुल्ला कुलेश्वरी।
कुलकुण्डलया कौलमार्ग तत्पर सेविता॥ 
कुमार  गणनाशाम्बा तुष्टिः पुष्टिर्मति धृतिः। 
शान्तिः स्वस्तिमयी कान्तिर्नन्दिनी विघ्ननाशिनी॥ 
तेजोवती त्रिनयना लोलाक्षी कामरुपिणी। 
मालिनी हंसिनी माता मलयाचल-वासिनी॥ 
सुमुखी नलिनी सुभ्रूः शोभना सुरनायिका। 
कालकण्ठी कान्तिमयी क्षोभिणी सूक्ष्मरुपिणी॥ 
वज्रेश्वरी वामदेवी वयोवस्था विवर्जिता। 
सिद्धेश्वरी सिद्धविद्या सिद्धमाता यशस्वनी॥ 
विशुद्धि चक्र निलयाऽऽरक्तवर्णा त्रिलोचना। 
खट्वाङ्गदि प्रहरणा वदवैक समन्विता॥ 
पायसान्न प्रिया त्वकस्था पशुलोक भयंक्करी। 
अमृतादि महाशक्ति संवृता डाकिनीश्वरी॥ 
अनाहाताब्ज-निलया श्यामाभा वदनद्वया। 
दंष्ट्रोज्ज्वलाक्षमालादि धरा रुधिर संस्थिता॥  
कालरात्र्यादि शक्त्यौघ वृता स्न्गिधौदन प्रिया। 
महावीरेन्द्र वरदा राकिण्यम्बा स्वरुपिणी॥  
मणिपूराब्ज निलया वदहत्रय संयुता। 
वज्राधिकायुधोपेता डामर्यादिभि रावृता॥
रक्तिवर्णा मांसनिष्ठा गुडान्न प्रीत मानसा। 
समस्तभक्त-सुखदा लाकिन्यम्बा स्वरुपिणी॥
स्वाधिष्ठानाम्बुजकता चर्तुवक्त्र मनोहरा। 
शूलाद्यायुद्ध सम्पन्ना पीतवर्णाऽतिगर्विता॥
मेदो निष्ठा मधुप्रीता बन्धिन्यादि समन्विता। 
दध्यन्नासक्त ह्रदया काकिनी रुप धारिणी॥ 
मूलाधाराम्बुजारुढा पञ्चवक्त्रास्थि संस्थिता। 
अङ्कुशादि प्रहरणा वरदादि निषेविता॥
मुद्गौदनासक्त चित्ता साकिन्यम्बा स्वरुपिणी। 
आज्ञा चक्राब्ज निलया शुक्लवर्णा षडानना॥
मज्जा संस्था हंसवती मुख्य शक्ति समान्विता। 
हरिद्रान्नैक रसिका हाकिनी रुप धारिणी॥
सहस्रदल पद्य्मस्था सर्व वर्णोप शोभिता। 
सर्वायुध धरा शुक्ल संस्थिता सर्वतोमुखी॥
सर्वौदन प्रीतचित्ता याकिन्यम्बा स्वरुपिणी। 
स्वाहा स्वधाऽमति र्मेधा श्रुति स्मृति रन्नुमत्ता॥ 
पुण्यकीर्तिः पुण्यलभ्या पुण्यश्रवण कीर्तिना। 
पुलोमजार्चिता बन्धमोचनी बन्धुरालका॥ 
विमर्शरुपिणी विद्या वियदादि जगत्प्रसूः। 
सर्वव्याधि प्रशमनी सर्वमृत्यु निवारणी॥ 
अग्रगण्याऽचिन्त्यरुपा कलिकल्मष नाशिनी। 
कात्यायनी कालहन्त्री कमलाक्ष निषेविता॥
ताम्बूल पूरित मुखी दाडिमी कुसुम प्रभा। 
मृगाक्षी मोहिनी मुख्या मृडानी मित्ररुपिणी॥
नित्य-तृप्ता भक्तिनिधि र्नियन्त्री निखिलेश्वरी। 
मैत्र्यादि-वासनालभ्या महाप्रलय साक्षिणी॥
पराशक्तिः परानिष्ठा प्रज्ञानघन रुपिणी। 
माध्वीपानालसा मत्ता मातृका वर्ण रुपिणी॥
महाकैलास निलया मृणाल मृदु दोर्लता। 
महनीया दयामूर्तिर्महासाम्राज्य शालिनी॥ 
आत्मविद्या महाविद्या श्रीविद्या कामसेविता। 
श्रीषोडाशाक्षरीविद्या त्रिकुटा कामकोटिका॥  
कटाक्ष-किंक्करी भूत कमला कोटि सेविता। 
शिरःस्थिता चन्द्रनिभा भालस्थेन्द्रु धनुः प्रभा॥  
ह्दयास्था रविप्रख्या त्रिकोणान्तर दीपिका। 
दाक्षायणी दैन्त्यहन्त्री दक्षयज्ञविनाशनी॥ 
दरान्दोलित दीर्घाक्षी दरहासोज्ज्वलमुखी। 
गुरु मूर्ति गुण निधि र्गोमाता गुहजन्म भूः॥
देवेशी दण्डनीतिस्था दहराकाश रुपिणी। 
प्रतिपन्मुख्य राकान्त तिथि मण्डल पूजिता॥ 
कलात्मिका कलानाथा काव्यालाप विनोदनी। 
सचामर रमा वाणी सव्य दक्षिण सेविता॥
आदिशक्ति रमेयाऽऽत्मा परमा पावनाकृतिः। 
अनेक कोटि ब्रह्माण्ड जननी दिव्य विग्रहा॥  
क्लीं कारी केवला गुह्या कैवल्य पद दायिनी। 
त्रिपुरा त्रिजगद्वन्द्या त्रिमूर्ति स्रिदशेश्वरी॥
त्र्यक्षरी दिव्य गन्धाढ्या सिन्दुर तिलकाञ्जिता। 
उमा शैलेन्द्रतनया गौरी गन्धर्व सेविता॥
विश्वगर्भा स्वर्णगर्भाऽवरदा वागधीश्वरी। 
ध्यानगम्याऽपरिच्छेद्या ज्ञानदा ज्ञानविग्रहा॥ 
सर्व वेदान्त सम्यवेद्या सत्यानन्द स्वरुपिणी। 
लोपामुदार्चिता लीलाक्लृप्त ब्रह्माण्ड मण्डला॥ 
अदृश्या दृश्यरहिता विज्ञात्री वैद्य वर्जिता। 
योगिनी योगदा योग्या योगानन्दा युगन्धरा॥ 
इच्छाशक्ति ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति स्वरुपिणी। 
सर्वाधारा सुप्रतिष्ठा सदसद्रूप धारिणी॥ 
अष्टमूर्ति रजाजैत्री लोकयात्रा विधायि। 
एकाकिनी भूमरुपा निर्द्वैता द्वैतवर्जिता॥ 
अन्नदा वसुदा वृद्वा ब्रह्मात्मैक्य स्वरुपिणी। 
बृहती ब्राह्मणी ब्राह्मी ब्रह्मानन्दा बलिप्रिया॥
भाषारुपा बृहत्सेना भावाभाव विवर्जिता। 
सुखाराध्या शुभकरी शोभनासुलभागतिः॥ 
राजराजेश्वरी राज्यदायिनी राज्यवल्लभा। 
राजत्कृपा राजपीठ निवेशित निजाश्रिता॥ 
राज्यलक्ष्मीः कोशनाथा चतुपङ्ग बलेश्वरी। 
साम्राज्य दायिनी सत्यसन्धा सागरमेखला॥ 
दीक्षिता दैत्यशमनी सर्वलोकवशंक्करी। 
सर्वार्थदात्री सावित्री सच्चिदानन्द रुपिणी॥ 
देशकालापरिच्छिन्ना सर्वगा सर्वमोहिनी। 
सरस्वती शास्रमयी गुहाम्बा गुह्यारुपिणी॥ 
सर्वोपाधि विर्निमुक्ता सदाशिव पतिव्रता। 
सम्प्रदायेश्वरी साध्वी गुरुमण्डल रुपिणी॥ 
कुलोत्तीर्णा भगाराध्या माया मधुमती मही। 
गणाम्बा गुह्यकाराध्या कोमलांगी गुरुप्रिया॥ 
स्वतन्त्रा सर्वतन्त्रेशी दक्षिणामूर्ति रुपिणी। 
सनकादि-समाराध्या शिवज्ञान प्रदायिनी॥ 
चित्कलाऽऽनन्द कलिका प्रेमरुपा प्रियंक्करी। 
नामपारायण-प्रीता नन्दिविद्या नटेश्वरी॥ 
मिथ्या-जगदधिष्ठाना मुक्तिदा मुक्तिरुपिणी। 
लास्यप्रिया लयकरी लज्जा रम्भादिवन्दिता॥ 
भवदाव सुधावृष्टिः पापारण्य दवानला। 
दौर्भाग्य तूलवातुला जराध्वान्तरविप्रभा॥ 
भाग्याब्धि चन्द्रिका भक्त चित्त केकि घनाघना।
 रोगपर्वत दम्भोलि र्मृत्युदारु कुठारिका॥ 
महेश्वरी महाकाली महाग्रासा महाशना। 
अपर्णा चण्डिका चण्डमुण्डासुर निषूदनी॥ 
क्षराक्षरात्मिका सर्वलोकेशी विश्वधारिणी। 
त्रिवर्गदात्री सुभगा त्र्यम्बका त्रिगुणात्मिका॥ 
स्वर्गापवर्गदा शुद्धा जपापुष्प निभाकृतिः। 
ओजोवती द्युतिधरा यज्ञरुपा प्रियव्रता॥ 
दुराराध्या दुराधर्षा पाटली कुसुम प्रिया। 
महती मेरुनिलया मन्दार कुसुम प्रिया॥ 
वीराराध्या विराड्रुपा विरजा विश्वतोमुखी। 
प्रत्यग्रु पा पराकाशा प्राणदा प्राणरुपिणी॥ 
मार्ताण्ड भैरवाराध्या मन्त्रिणी न्यस्त राज्यधूः। 
त्रिपुरेशी जयत्सेना निस्रैगुण्या परापरा॥ 
सत्यज्ञानान्द रुपा सामरस्य परायणा। 
कपर्दिनी कलामाला कामधु क्काम रुपिणी॥ 
कलानिधिः काव्यकला रसज्ञा रसशेवधिः। 
पुष्टा पुरातना पूज्या पुष्करा पुष्करेक्षणा॥ 
परञ्ज्योतिः परन्धाम परमाणुः परात्परा। 
पाशहत्सा पाशहन्त्री परमन्त्र विभेदनी॥ 
मूर्ताऽमूर्ता नित्यतृप्ता मुनिमानस हंसिका। 
सत्यव्रता सत्यरुपा सर्वान्तर्यामिनी सती॥ 
ब्रह्माणी ब्रह्मजननी बहुरुपा बुधार्चिता। 
प्रसवित्री प्रचण्डाऽऽज्ञा प्रतिष्ठा प्रकटाकृतिः॥ 
प्राणेश्वरी प्राणदात्री पञ्चाशत्पीठ-रुपिणी। 
विश्वृंखला विवित्तस्था वीरमाता वियत्सप्रसुः॥ 
मुकुन्दा मक्तिनिलया मूलविग्रह रुपिणी। 
भावज्ञा भवरोगघ्नी भवचक्र प्रवर्तिनी॥ 
छन्दः सारा शास्रसारा मन्त्रसारा तलोदरी। 
उदारकीर्ति रुद्दामवैभवा वर्णरुपिणी॥ 
जन्ममृत्यु जरातप्त जन विश्रांति दायिनी। 
सर्वोप्निष-दुद्घुष्टा शान्त्यतीत कलात्मिका॥ 
गम्भीरा गगनान्तस्था गर्विता गानलोलुपा। 
कल्पना रहिता काष्ठाऽकान्ता कान्तार्ध विग्रहा॥ 
कार्यकारण निर्मुक्ता कामकेलि तरङ्गिता। 
कनत्कनक ताटंक्का लीला विग्रह धारिणी॥ 
अजा क्षयविर्निर्मुक्ता मुग्धा क्षिप्र प्रसादिनी। 
अन्तर्मुख समाराध्या बहिर्मुख-सुदुर्लभा॥ 
त्रयी त्रिवर्ग निलया त्रिस्था त्रिपुर मालिनी। 
निरामया निरालम्बा स्वात्मारामा सुधासृतिः॥ 
संसारपङ्क निमर्ग्र समुद्धरण पण्डिता। 
यज्ञप्रिया यज्ञकर्त्री यजमान स्वरुपिणी॥ 
धर्माधारा धनाध्यक्षा धनधान्य विवार्धिनी। 
विप्रप्रिया विप्ररुपा विश्वभ्रमण कारिणी॥ 
विश्वग्रासा विद्रुमाभा वैष्णवी विष्णुरुपिणी। 
अयोनि र्योनि निलया कूटस्था कुलरुपिणी॥ 
वीरगोष्ठी-प्रिया वीरा नैष्कर्म्या नादरुपिणी। 
विज्ञानकलना कल्या विदग्धा बैन्दवासना॥ 
तत्तवाधिका तत्वमयी त्तत्वमर्थ स्वरुपिणी। 
सामगन प्रिया सोम्या सदाशिव कुटुम्बिनी॥ 
सव्यापसव्य मार्गस्था सर्वापद्धिनिवारिणी। 
स्वस्था स्वभावमधुरा धीरा धीरसमर्चिता॥ 
चैतन्यार्ध्य समाराध्या चैतन्य कुसुम प्रिया। 
सदोदिता सदातुष्टा तरुणादित्य पाटला॥ 
दक्षिणा-दक्षिणाराध्या दरस्मेर मुखाम्बुजा। 
कौलिनी केवऽनर्घ्य कैवल्य पद दायिनी॥ 
स्तोत्र प्रिया स्तुतिमती श्रुति संस्तुत वैभवा।
मन्स्विनी मानवती महेशी मंङ्ग्लाकृतिः॥ 
विश्वमाता जगद्धात्री विशालाक्षी विरागिणी।
प्रगल्भा परमोदारा परामोदा मनोमयी॥ 
व्योमकेशी विमानस्था वज्रिणी वामकेश्वरी।
पञ्चयज्ञ प्रिया पञ्चप्रेत मञ्चाधिशायिनी॥ 
पञ्चमी पञ्चभूतेशी पञ्चसंख्योपचारिणी।
शाश्वती शाश्वतैश्वर्या शर्मदा शम्भुमोहिनी॥ 
धरा धरसुता धन्या धर्मिणी धर्मवर्धिनी।
लोकातीता गुणातीता सर्वातीता शमात्मिका॥ 
बन्धुक कुसुम प्रख्या बाला लीला विनोदिनी।
सुमङ्गली सुखकरी सवेषाढ्या सुवासिनी॥ 
सुवासिन्यर्चन प्रीताऽऽशोभना शुद्ध मानसा।
बिन्दु तर्पण सन्तुष्टा पूर्वजा त्रिपुराम्बिका॥
दशमुद्रा समाराध्या त्रिपुराश्रीवशंक्करी।
ज्ञानमुद्रा ज्ञानगम्या ज्ञान ज्ञेय स्वरुपिणी॥ 
योनिमुद्रा त्रिखण्डेशी त्रिगुणाम्बा त्रिकोणगा।
अनघाऽद्भुत चारिता वाञ्छितार्थ प्रदायिनी॥ 
अभ्यासातिशय ज्ञाता षडध्वातीत रुपिणी। 
अव्याज करुणा मूर्ति रज्ञान ध्वान्त दीपिका॥ 
आबाल गोप विदिता सर्वानुल्लंघ्य शासना। 
श्रीचक्रराज निलया श्रीमत्त्रि पुरसुन्दरी॥ 
श्री शिवा शिव शक्त्यैक्य रुपिणी ललिताम्बिका। 
एवं श्रीललितादेव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः॥
श्रीब्रह्माण्डपुराणे उत्तरखण्डे श्रीहयग्रीवागस्त्य संवादे श्री ललितासहस्रनाम स्तोत्रं सम्पूर्णम्।
ललिता सहस्रनाम (ब्रहमाण्ड पुराण) ::
(1). विविधाकारा :- विविध आकार या रूपोंवाली माँ, (2). विद्याविद्यास्वरूपिणी :- विद्या और अविद्या का स्वरूप माँ, (3). महाकामेशनयनकुमुदाल्हादकौमुदी :- भक्तके कुमुद जैसे आखोंको अपने दर्शनमात्रसे आनंद देकर खिलाने वाली माँ, (4). भक्तहार्दतमोभेदभानुमदभानुसंततिः :- भक्तों के अविद्यारूपी अन्धकार को भगाने के लिये सूर्य रूपी माँ, (5) शिवदूती :- भगवान श्री शंकर को दूत बना कर कल्याण और शांति का संदेश भेजने वाली माँ, (6). शिवाराध्या :- भगवान श्री शंकर से आराधित माँ, (7). शिवमूर्ति :- भगवान श्री शंकर के रूप में विराजित माँ, (8). शिवकरी :- कल्याण करनेवाली माँ, (9). शिवप्रिया :- भगवान श्री शंकर को प्रिय माँ, (10). शिवपरा :- भगवान श्री शंकरसेभी परे माँ, (11). शिष्टेष्टा :- सदाचार, सदविचार और शिष्टचारसे प्रसन्न होनेवाली माँ, (12). शिष्टपूजिता :- विद्वान, सदाचारी और महात्माओं से पूजीत माँ, (13). अप्रमेया :- किसी भी तर्क, शास्त्र या प्रमाणसे जाननेमे न आनेवाली माँ, (14). स्वप्रकाशा :- अपनेही प्रकाशमे आप स्थित माँ, (15). मनोवाचामगोचरा :- मन और वाणिसे अगोचर माँ, (16). चिच्छक्ति :- अविद्याका नाश करनेवाली चैतन्य शक्तिरूप माँ, (17). चेतनरूपा :- भक्तके अन्दर चेतन रूप माँ, (18) जडशक्ति :- निर्जीव जगत और वस्तुओं की शक्ति जो चैतन्यकोभी क्षोभित कर डालती है उस शक्ति स्वरूप माँ, (19). जडात्मिका :- निर्जीवोंकी आत्मा स्वरूप माँ, (20). गायत्री :- गायत्री मन्त्रस्वरूप माँ, (21). व्याह्रती :- भक्त के पुकारने पर या बुलाने पर आने वाली माँ, (22). सन्ध्या :- गायत्री सन्ध्या का स्वरूप माँ, (23). द्विजवृंदनिषेविता :- ब्राह्मण, वैश्य आदि समूहों से पूजित होनेवाली माँ, (24). तत्वासना :- जिनके आसनके नीचे सब तत्व है या तत्वोंके आसनपर आरूढ होनेवाली माँ, (25-26). तत्, त्वम :- तत्वमसी महावाक्यका चिंतन करते समय जीवात्मा अपने को त्वम समझता है और अपनी आत्मा को छोडकर बाकी सब कुछ तत् समझता है और तत् और त्वम की एकता को सिद्द करता है उसी प्रयास में  तत् भी माँ है ओर त्वम भी माँ है और एकता सिध्द करता है। उसी प्रयोग में  तत् भी माँ है और त्वम भी माँ है और एकता सिध्द भी माँ ही है, यही तत् स्वरूप माँ है और एकता स्वरूप माँ  है, (27). अयी :- प्रेम के जोश से पुकार से बुलाई जानेवाली मा । तत् – सर्वस्व, त्वं – मा, अयी – सर्व माई स्वरूप है, माई सब में है और सब माई में है, उसके अस्तित्वके सिवा कुछ भी नही है, (28). पंचकोषांतरस्थिता :- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय इन पाच कोषोमें विराजित माँ, (29). निःसीममहिमा :- जिसकी महिमाकी सीमा ही नहीं  वह माँ, (30). नित्ययौवना :- सदा जवानीसे भरपूर माँ, (31). मदशालिनी :- मद और आनंदसे युक्त माँ, (32). मदघूर्णितरक्ताक्षी :- मदके आनंदसे भरी हुई रक्तवर्ण आखोवाली  माँ, (33). मदपाटलगण्डभूः :- मद और लज्जा से जिनका मुख और गाल गुलाबी रंग का हो गया है वह माँ, (34). चंदनद्रवदिग्धांगी :- चंदन का लेप जिनके शरीर पर है, वह माँ, (35). चाम्पेयकुसुमप्रिया :- जिन्हें चंपक का फूल प्रिय है वह माँ, (36). कुशला :- सब प्रकारके कार्यो में, व्यवहार में  कुशल माँ, (37). कोमलाकारा :- कोमल स्वरूप माँ, (38). कुरूकुल्ला :- श्रीचक्रके बीचमें स्थित माँ, (39). कुलेश्वरी :- ब्रह्मा, विष्णु और महेशके कुल की माँ, (40). कुलकुण्डालया :- मुलाधार चक्र के बीच में स्थित माँ, (41). कौलमार्गत्तपरसेविता :- कौलाचार मार्गियोंसे सेवित माँ, (42). कुमरगणनाथांबा :- कार्तिकेय और गणपती जिनके पुत्र हैं, वह पार्वती जिनका अंश है वह माँ, (43). तुष्टिः :- भक्तके ह्रदयमे संतुष्टताके रूपमे रहने वाली माँ, (44). पुष्टिः :- भक्त का पोषण करने वाली  माँ, (45) मतिः :- भक्तके कल्याणके लिये उसको सद् बुध्दी देने वाली माँ, (46). धृतिः :- दुःख्ख सहन करने की शक्ति देने वाली माँ, (47). शान्तिः :- शान्ति देने वाली माँ, (48) स्वतिमतिः :- मंगल स्वरुप, मंगल करनेवाली देने वाली माँ, (49). कान्तिः :- प्रकाश स्वरूप माँ, (50) नन्दिनी – नन्दके घर जन्मी हुई श्रीकृष्णकी बहन  के रुपमे शक्तिस्वरूप माँ, (51). विघ्ननाशिनी :- विघ्नोंका नाश करनेवाली माँ, (52) तेजोवती :- तेजसे परिपूर्ण माँ, (53). त्रिनयना – सुर्य, चन्द्र और अग्नि रूप तीन नेत्रोंवाली माँ, (54) लोलाक्षीकामरुपिणी :- तिरछी, खोजनेवाली और डोलती हुई आखों वाली माँ, (55). मालिनी :- असंख्य हारों से सुशोभित माँ, (56). हंसिनी :- हंसिनी जैसे चाल वाली माँ, (57). माता :- सृष्टि माता के रुप में माँ, (58). मलयाचलवासिनी :- सुगन्धी मलयाचल पर्वत में रहने वाली माँ, (59). सुमुखी ::- संदर मुख वाली माँ, (60). नलिनी :- कमल जैसी कोमल माँ, (61). सुभ्रुः :- सुंदर भौंहो वाली माँ, (62). शोभना :- शोभायमान मा। शोभना बढाने वाली माँ, (63). सुरनायका :- देवताओं का कल्याण और दैत्योंसे बचनेका उपाय बताने वाली माँ, (64). कालकण्ठी :- जिनके कण्ठ में  कालका निवास है, वह माँ, (65). कान्तिमति :- कान्तिकी तेज से भर पुर माँ, (66). क्षोभिणी :- मन में  क्षोभ या जोश उत्पन्न करने वाली माँ, (67). सुक्ष्मरुपिणी :- सूक्ष्म रुप वाली माँ, (68). वज्रेश्वरी :- इन्द्रको वज्र अस्त्रका प्रदान करने वाली माँ, (69). वामदेवी :- वाममार्ग से देवी की उपासना करनेवाले वाम-मार्गियों की माँ, (70). वयोवस्थाविवर्जिता :- सब अवस्थाओंसे मुक्त माँ, (71). सिध्देश्वरी :- सिध्दोंकी इश्वरी और सब सिध्दीया देनेवाली माँ, (72). सिध्दविद्या :- सिद्दी और सिद्दीकी विद्या रुप माँ, (73). सिध्दमाता :-सिध्दोंकी माता माँ, (74). यशस्विनी :- यश प्रदान करनेवाली माँ, (75). विशुध्दचक्रनिलया  :- कण्ठमें स्थित विशुध्द चक्रमे स्थित माँ, (76). आरक्तवर्णा :- गुलाबी रंगकी चेहरेवाली माँ, (77). त्रिलोचना  :-  तीन आखोवाली माँ, (78). खट्वांगादिप्रहरणा :- चारपाइ के पांव जैसे मामुली अस्त्रोंसे भी दुष्मनोंको दुर भगानेवाली माँ, (79). वदनैकसमन्विता :- एक वदनवाली माँ, (80). पायसान्नप्रिया :- जिन्हे दूध और खीर जैसे अन्न प्रिय है, वह माँ, (81). त्वकस्था :- त्वचाकी अध्यक्षा माँ, (82). पशुलोकभयंकरी :- पशुवृत्तियोंके लोगोंको भय दिखाने वाली  माँ, (83). अमृतादिमहाशक्तिसंंवृता :- अमृत आदि महाशक्तियोंसे घिरी हुई माँ, (84). डाकिनीश्वरी :- डाकिनीश्वरीके रूप में  माँ, (85). अनाहताब्जनिलया :- बारह दल कमल जो ह्रदयमे स्थित होता है उस अनाहत चक्रमे निवास करनेवाली माँ, (86). श्यमाभा :-श्याम रंगवाली माँ, (87). वदनद्वया :- दो मुखवाली माँ, (88). दंष्ट्रोज्वला :- उज्वल दाँतों वाली माँ, (89). अक्षमालादिधरा :- अक्षमाला धारण की हुई माँ, (90). रूधिरसंस्थिता :- रुधिरमें अध्यक्षरुप माँ, (91). कालरात्र्यादिशक्त्यौकवृत्ता :- कालरात्री आदि शक्तियों से सेवित माँ, (92). स्निग्धौदनप्रिया :- घीसे बनाये जानेवाले अन्न जिन्हे प्रिय है वह माँ, (93). महावीरेन्द्रवरदा :- महावीरोंको वर प्रदान करनेवाली माँ, (94) राकिण्यम्बास्वरूपिणी :- राकिणि अम्बाके स्वरुपमे माँ, (95). मणिपूराब्जनिलया :- नाभीमें स्थित मणिपूर चक्रमे स्थित माँ, (96) वदनत्रयसंयुता :- तीन वदनवाली माँ, (97).  वज्रादिकयुधोपेता :- व्रज आदि आयुध जिन्हे धारण किये है, वह माँ; (98). डामर्यादिभिरावृता :- डामरी आदी शक्तियोंसे सेवित माँ; (99). रक्तवर्णा :- लाल रंगवाली माँ और (100). माँस निष्ठा :- माँस की अधिष्ठात्री स्वरूप में माँ।
श्री ललिता चिन्ता मणि माला स्तोत्र ::

ॐ अस्य श्रीललिता चिन्तामणिमाला स्तोत्र महामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिर्भगवान् ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीचिन्तामणि महाविद्येश्वरी ललिता महाभट्टारिका देवता ऐं बीजं क्लीं शक्तिः सौः कीलकं श्रीललिताम्बिका प्रसादसिद्धर्थे जपे विनियोगः॥ 

ध्यानम् :: 

बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। 
पाशाङ्कुशधनुर्बाणान् धारयन्तीं शिवां भजे॥ 
“ऐं ह्रीं श्रीं” 
ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी। 
चिदग्निकुण्डसम्भूता देवकार्यसमुद्यता॥ 
उद्यद्भानुसहस्राभा चतुर्बाहुसमन्विता। 
रागस्वरूपपाशाढ्या क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला॥ 
मनोरूपेक्षुकोदण्डा पञ्चतन्मात्रसायका। 
निजारुणप्रभापूरमज्जद्ब्रह्माण्डमण्डला॥ 
चम्पकाशोकपुन्नागसौगन्धिकलसत्कचा। 
कुरुविन्दमणिश्रेणीकनत्कोटीरमण्डिता॥ 
अष्टमीचन्द्रविभ्राजदलिकस्थलशोभिता। 
मुखचन्द्रकलङ्काभमृगनाभिविशेषका॥ 
वदनस्मरमाङ्गल्यगृहतोरणचिल्लिका। 
वक्त्रलक्ष्मीपरीवाहचलन्मीनाभलोचना॥ 
नवचम्पकपुष्पाभनासादण्डविराजिता। 
ताराकान्तितिरस्कारिनासाभरणभासुरा॥ 
कदम्बमञ्जरीकॢप्तकर्णपूरमनोहरा। 
ताटङ्कयुगलीभूततपनोडुपमण्डला॥ 
पद्मरागशिलादर्शपरिभाविकपोलभूः। 
नवविद्रुमबिम्बश्रीन्यक्कारिरदनच्छदा॥
शुद्धविद्याङ्कुराकारद्विजपङ्क्तिद्वयोज्ज्वला। 
कर्पूरवीटिकामोदसमाकर्षद्दिगन्तरा॥
निजसल्लापमाधुर्यविनिर्भर्त्सितकच्छपी। 
मन्दस्मितप्रभापूरमज्जत्कामेशमानसा॥ 
अनाकलितसादृश्यचिबुकश्रीविराजिता। 
कामेशबद्धमाङ्गल्यसूत्रशोभितकन्धरा॥ 
कनकाङ्गदकेयूरकमनीयभुजान्विता। 
रत्नग्रैवेयचिन्ताकलोलमुक्ताफलान्विता॥ 
कामेश्वरप्रेमरत्नमणिप्रतिपणस्तनी। 
नाभ्यालवालरोमालिलताफलकुचद्वयी॥
लक्ष्यरोमलताधारतासमुन्नेयमध्यमा। 
स्तनभारदलन्मध्यपट्टबन्धवलित्रया॥
अरुणारुणकौसुम्भवस्त्रभास्वत्कटीतटी। 
रत्नकिङ्किणिकारम्यरशनादामभूषिता॥ 
कामेशज्ञातसौभाग्यमार्दवोरुद्वयान्विता। 
माणिक्यमुकुटाकारजानुद्वयविराजिता॥
इन्द्रगोपपरिक्षिप्तस्मरतूणाभजङ्घिका। 
गूढगुल्फा कूर्मपृष्ठजयिष्णुप्रपदान्विता॥
नखदीधितिसंछन्ननमज्जनतमोगुणा। 
पदद्वयप्रभाजालपराकृतसरोरुहा॥ 
शिञ्जानमणिमञ्जीरमण्डितश्रीपदाम्बुजा। 
मरालीमन्दगमना महालावण्यशेवधिः॥ 
सर्वारुणाऽनवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता। 
शिवकामेश्वराङ्कस्था शिवा स्वाधीनवल्लभा॥ 
सुमेरुमध्यशृङ्गस्था श्रीमन्नगरनायिका। 
चिन्तामणिगृहान्तस्था पञ्चब्रह्मासनस्थिता॥ 
महापद्माटवीसंस्था कदम्बवनवासिनी। 
सुधासागरमध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी॥ 
देवर्षिगणसंघातस्तूयमानात्मवैभवा। 
भण्डासुरवधोद्युक्तशक्तिसेनासमन्विता॥
सम्पत्करीसमारूढसिन्धुरव्रजसेविता। 
अश्वारूढाधिष्ठिताश्वकोटिकोटिभिरावृता॥
चक्रराजरथारूढसर्वायुधपरिष्कृता। 
गेयचक्ररथारूढमन्त्रिणीपरिसेविता॥
किरिचक्ररथारूढदण्डनाथापुरस्कृता। 
ज्वालामालिनिकाक्षिप्तवह्निप्राकारमध्यगा॥
भण्डसैन्यवधोद्युक्तशक्तिविक्रमहर्षिता। 
नित्यापराक्रमाटोपनिरीक्षणसमुत्सुका॥ 
भण्डपुत्रवधोद्युक्तबालाविक्रमनन्दिता। 
मन्त्रिण्यम्बाविरचितविषङ्गवधतोषिता॥ 
विशुक्रप्राणहरणवाराहीवीर्यनन्दिता। 
कामेश्वरमुखालोककल्पितश्रीगणेश्वरा॥
महागणेशनिर्भिन्नविघ्नयन्त्रप्रहर्षिता। 
भण्डासुरेन्द्रनिर्मुक्तशस्त्रप्रत्यस्त्रवर्षिणी॥
कराङ्गुलिनखोत्पन्ननारायणदशाकृतिः। 
महापाशुपतास्त्राग्निनिर्दग्धासुरसैनिका॥
कामेश्वरास्त्रनिर्दग्धसभण्डासुरशून्यका। 
ब्रह्मोपेन्द्रमहेन्द्रादिदेवसंस्तुतवैभवा॥
हरनेत्राग्निसंदग्धकामसञ्जीवनौषधिः। 
श्रीमद्वाग्भवकूटैकस्वरूपमुखपङ्कजा॥ 
कण्ठाधःकटिपर्यन्तमध्यकूटस्वरूपिणी। 
शक्तिकूटैकतापन्नकट्यधोभागधारिणी॥
मूलमन्त्रात्मिका मूलकूटत्रयकलेबरा। 
कुलामृतैकरसिका कुलसंकेतपालिनी॥ 
कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी। 
अकुला समयान्तस्था समयाचारतत्परा॥ 
मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थिविभेदिनी। 
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थिविभेदिनी॥
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थिविभेदिनी। 
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी॥
तटिल्लतासमरुचिः षट्चक्रोपरिसंस्थिता। 
महासक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तुतनीयसी॥ 
श्रीशिवा शिवशक्त्यैक्यरूपिणी ललिताम्बिका॥ 

इति शिवम्।

 
 
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सूक्त SUKT

सूक्त SUKT
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj 
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ॐ गं गणपतये नमः।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो देवस्तुति एवं विभिन्न यज्ञों के समय पढ़ा जाता है। अभिलाषा प्रकट करने वाले मंत्रों तथा गीतों का संग्रह होने से संहिताओं को संग्रह कहा जाता है। इन संहिताओं में अनेक देवताओं से सम्बद्ध सूक्त प्राप्त होते हैं।
“सम्पूर्णमृषिवाक्यं तु सूक्तमित्यSभिधीयते”
मन्त्रद्रष्टा ऋषि के सम्पूर्ण वाक्य को सूक्त कहते हैँ, जिसमेँ एक अथवा अनेक मन्त्रों में देवताओं के नाम दिखलाई पडते हैं। सूक्त के चार भेद:- देवता, ऋषि, छन्द एवं अर्थ हैं।
पुराण, उपनिषदों में वर्णित मन्त्रों, सूक्तों को वेदों से लिया गया है।
गुरू अपने इष्ट की पूजा-अर्चना कर उसे संतुष्ट करे। प्रत्येक गुरू को अपनी गुरू परम्परा में मिला हुआ मन्त्र पहले स्वयं सिद्ध करना चाहिये और फिर वही मंत्र अपने आने वाले शिष्यों को देना चाहिये। शिष्यों को भी अपने इष्ट को ध्यान में रख कर ऐसे गुरू की तलाश करनी चाहिये जो कि उसके  इष्ट के अनुरूप उसेदीक्षित कर सके।वेदों के मंत्रों एवं सूक्तों का जाप पूरी तरह शारीरिक स्वच्छता के साथ करना चाहिये। इनका पाठ संध्या काल में भी किया जा सकता है।
पूर्व जन्म के कर्मों, सत्-असत्, पाप-पुण्य के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। उसका वर्तमान जन्म भी उन्हें के अनुरूप योनि, कुल, गोत्र, धर्म, जाति, देश में होता है। सुख-दुःख, धन-दौलत, हारी-बीमारी की उपलब्धि भी इसी प्रकर होती है।
दुःख, हारी-बीमारी, परेशानियों. कठिनाइयों से मुक्ति के लिए साधक-जातक को सूक्तों का श्रवण, अध्ययन, पठन-पाठन पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ करना चाहिये।

सवितृ सूक्त ::  सूक्त संख्या :- 11, ऋषि :- गृत्समद एवं हिरण्यस्तूप, निवास :- द्युस्थानीय। 
पवित्र गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता है। सविता शब्द की निष्पत्ति सु धातु से हुई है, जिसका अर्थ है उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। इसीलिए इसे स्वर्ण नेत्र, स्वर्ण हस्त, स्वर्ण पाद एवं स्वर्ण जिव्य की संज्ञा दी गई है। उनका रथ स्वर्ण की आभा से युक्त है, जिसे दो या अधिक लाल घोड़े खींचते हैं। इस रथ पर बैठकर वे सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करते हैं। इसे असुर नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। प्रदोष तथा प्रत्यूष दोनों से इसका सम्बन्ध है। हरिकेश, अयोहनु, अंपानपात्, कर्मक्रतु, सत्यसूनु, सुमृलीक, सुनीथ आदि इनके विशेषण हैं।

गलद् रक्तमण्डावलीकण्ठमाला महाघोररावा सुदंष्ट्रा कराला। 
विवस्त्रा श्मशानलया मुक्तकेशी महाकालकामाकुला कालिकेयम्॥1॥ 
भुजे वामयुग्मे शिरोSसिं दधाना वरं दक्षयुग्मेSभयं वै तथैव। 
सुमध्याSपि तुङ्गस्तनाभारनम्रा लसद् रक्तसृक्कद्वया सुस्मितास्या॥2॥ 
शवद्वन्द्वकर्णावतंसा सुकेशी लसत्प्रेतपाणिं प्रयुक्तैककाञ्ची। 
शवाकारमञ्चाधिरूढा शिवाभि-श्चर्दिक्षुशब्दायमानाSभिरेजे॥3॥ 

स्तुति: ::

विरञ्च्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन् समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवु:। 
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥4॥ 
जगन्मोहनीयं तु वाग्वादिनीयं सुहृत्पोषिणीशत्रुसंहारणीयम्। 
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥5॥ 
इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली मनोजांस्तु कामान् यथार्थं प्रकुर्यात्। 
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥6॥ 
सुरापानमत्ता सभुक्तानुरक्ता लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवत्ते। 
जपध्यानपूजासुधाधौतपङ्का स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥7॥ 
चिदान्दकन्दं हसन् मन्दमन्दं शरच्चन्द्रकोटिप्रभापुञ्जबिम्बम्। 
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥8॥ 
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा कदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया। 
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥9॥ 
क्षमस्वापराधं महागुप्तभावं मया लोकमध्ये प्रकाशीकृत यत्। 
तव ध्यानपूतेन चापल्यभावात् स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥10॥
फलश्रुति: ::

यदि ध्यानयुक्तं पठेद् यो मनुष्य-स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च। 
गृह चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ति: स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥11॥ 

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम्।

सूर्य-सूक्त (1) :: ऋग्वेदीय 1.11.5, ऋषि :- कुत्स आङ्गिरस, देवता :- सूर्य, छन्द :- त्रिष्टुप्। 

इस सूक्त के देवता सूर्य सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र, जगत की आत्मा,  और प्राणी को सत्कर्मों में प्रेरित करनेवाले देव हैं। देव मण्डल में इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, कि ये जीव के लिये प्रत्यक्ष गोचर हैं। ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करने वाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं; अतः समस्त प्राण धारियों के लिये स्तवनीय हैं, वन्दनीय हैं। 
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुण स्याग्ने:।    
आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ँ ् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥1॥
प्रकाशमान रश्मियों का समूह अथवा राशि-राशि देवगण सूर्य मण्डल के रूप में उदित हो रहे हैं। ये मित्र, वरुण, अग्नि और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं। इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है। इस मण्डल में जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक परमात्मा हैं तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं।
Groups of rays or the group of demigods are rising in the form of the solar system with constellations. He forms the eyes of Mitr, Varun and the entire universe. He has lit the entire space, earth and the cosmos. The Sun who is present in this group is omniscient, immanent, all knowing & is the motivating force-Almighty for all sorts of organism and the stable-stationary objects.
सूर्यों देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्चात्।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम्॥2॥ 
सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान उषा देवी के पीछे-पीछे चलते हैं, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग-सुन्दरी युवती का अनुगमन करे! जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना करने के लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्म का सम्पादन करते हैं। सूर्य कल्याणरूप हैं और उनकी आराधना से कर्तव्य कर्म के पालन से कल्याण की प्राप्ति होती हैं।
Sun follows Usha (day break) just like a man who follows an extremely beautiful woman. The devoted humans begins with their work-endeavours with the appearance of Usha, to pray to the deity of light i.e., Sun. Sun is a form of welfare of all and with his worship one enables himself to achieve welfare.
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परिद्यावा पृथिवी यन्ति सद्यः॥3॥
सूर्य का यह रश्मि-मण्डल अश्व के समान उन्हें सर्वत्र पहुँचाने वाला चित्र-विचित्र एवं कल्याणरूप है। यह प्रतिदिन तथा अपने पथ पर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय है। यह सबको नमन की प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोक के ऊपर निवास करता है। यह तत्काल द्युलोक और पृथ्वी का परिमन्त्रण कर लेता है।
The aura-brightness of Sun moves like a horse to take him all around in various curious ways-forms. It always moves over its own path everyday is deserve worship. It inspire everyone to pray and remains it self above the heavens. It immediately covers the entire universe i.e., the heavens, earth (& the nether world).
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्वंततं सं जभार। 
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥4॥
सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्य का यह ईश्वरत्व और महत्त्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किंतु अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्म को ज्यों का त्यों छोड़कर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणों को इस लोक से अपने-आप में समेट लेते हैं। साथ ही उसी समय अपने रसाकर्षी किरणों और घोड़ों को एक स्थान से खींचकर दूसरे स्थान पर नियुक्त कर देते हैं। उसी समय रात्रि अन्धकार के आवरण से सबको आवृत्त कर देती है।
Its Godly-eternal character of the Sun that he leaves the work (to be taken up next day) as such at the time of Sun set and sucks his rays as well & moves-deploy his horses, which pulls his charoite else where. It leads to darkness all around i.e., night falls.
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥5॥ 
प्रेरक सूर्य प्रात:काल मित्र, वरुण और समग्र सृष्टि को सामने से प्रकाशित करने के लिये प्राची के आकाशीय क्षितिज में अपना प्रकाशक रूप प्रकट करते हैं। इनकी रसभोजी रश्मियाँ अथवा हरे घोड़े बलशाली रात्रिकालीन अन्धकार के निवारण में समर्थ विलक्षण तेज धारण करते हैं। उन्हीं के अन्यत्र जाने से रात्रि में काले अन्धकार की सृष्टि होती है।
प्राची ::  पूर्व; orient, the east.
विलक्षण :: Grotesque, Fantabulous.
The Sun rises in the east to illuminate Mitr, Varun & the entire living world in the front, at the horizon. Its rays of light which sucks the liquids-extracts and the green horses removes the darkness of the night and with its aura-energy, which is grotesque, fantabulous. Their movement elsewhere causes night.
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्।
तन्नोमित्रोवरुणोमामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥6॥ 
हे प्रकाशमान सूर्य-रश्मियो! आज सूर्योदय के समय इधर-उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापों से निकालकर बचा लो। न केवल पाप से ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख-दारिद्रय  है, सबसे हमारी रक्षा करो। जो कुछ हमने कहा है; मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और धुलोक के अधिष्ठातृ देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें।
गर्हणीय :: निंदनीय, तिरस्करणीय, घृणाजनक, गर्हणीय, घृणित, गर्हणीय, नीच, अधम; inaccessible, condemnable, detestable, execrable.
Hey the bright Sun rays! Protect us from sins by spreading all around. Not only the sins but protect us from every thing which is condemnable, inaccessible, pains-sorrow & the poverty. What has been said by us be respected (approved, sanctioned) by Mitr, Varun, Aditi, Sindhu, earth and the worshipped deities of the heavens, protecting us.
सूर्य-सूक्त (2) :: ऋषि :- विभ्राड्, देवता:- सूर्य, छन्द :- जगती।    
ये सूर्य मण्डल के प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका दर्शन सब प्राणियों को नित्य-निरन्तर होता है। पञ्च देवों में भी सूर्य नारायण की पूर्ण ब्रह्म के रूप में उपासना होती है। भगवान् सूर्य नारायण को प्रसन्न करने के लिये प्रति दिन के उपस्थान एवं  प्रार्थना में सूर्य-सूक्त के पाठ करने की परम्परा है। शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति पाने में सूर्य सूक्त अपूर्व शक्ति रखता है।
विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम्। 
वातजूतो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति॥1॥
वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा जो महान् दीप्तिमान् सूर्य प्रजा की रक्षा तथा पालन-पोषण करता है और अनेक प्रकार से शोभा पाता है, वह अखण्ड आयु प्रदान करते हुए मधुर सोमरस का पान करे।
शोभा :: सौंदर्य, सुंदरता, शोभा, सौम्यता, सौष्ठव, चमक, द्युति, आभा, आलोक, तेज, महिमा, प्रताप, प्रतिष्ठा, गर्व, यश;  beauty, grace, glory, lustre.
The Sun which is brilliant-lustrous, protects & nurses the populace, whose soul is inspired by Pawan (deity-demigod), is glorified in numerous ways, may grant us unbroken life span (good health) and drink Somras.
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्॥2॥ 
विश्व की दर्शन-क्रिया सम्पादित करने के लिये अग्रिज्वाला-स्वरूप उदीयमान सूर्य देव को ब्रह्म ज्योतियाँ ऊपर उठाये रखती हैं।
The Brahm Jyoti keeps the Sun, which like a ball of burning gases, elevated in the sky to make the universe visible.
The flow of energy from the Almighty raises the Sun to its orbital status, moving round another star, along with its solar system.
येना पायक चक्षसा भुरण्यन्तंजनाँ अनु। त्वं वरुण पश्यसि॥3॥ 
हे पावक रूप एवं वरुण रूप सूर्य! तुम जिस दृष्टि से ऊर्ध्व गमन करने वालों को देखते हो, उसी कृपा दृष्टि से सब जनों को देखो।
Hey Sun enjoying the status of Agni-fire & Varun-water! Please look at the masses-populace with the same pleasing-soothing eyes-attitude, with which you see those who are rising upwards.
Water is a compound of hydrogen & oxygen. Hydrogen burns in Oxygen to produce water. Hydrogen is the basic element which can be converted to any other element like Gold. Hydrogen in plasmic state produces enormous energy. Normally, it burns to produces-synthesise Helium.
दैव्यावध्वर्यूआ गत ँ ् रथेन सूर्यत्वचा।मध्या यज्ञ ँ ् समञ्जा थे। 
तं प्रत्रथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम्॥4॥
हे दिव्य अश्विनीकुमारो! आप भी सूर्य की सी कान्तिवाले रथ में आयें और हविष्य से यज्ञ को परिपूर्ण करें। उसे ही जिसे ज्योतिष्मानों में चन्द्रदेव ने प्राचीन विधि से अद्भुत बनाया है।
Hey divine Ashwani Kumars! You should also come in the charoite (aeroplane) having aura (lustre, brilliance) like the Sun-your father & make offerings to complete the Yagy. One which has been made amazing-glittering by the Moon with ancient methods, procedures.
तंप्रत्नथा पूर्वथा विश्वधेमथा न्येषनातिं बर्हिषद ँ ् स्वर्विदम्। 
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे॥5॥
यज्ञादि श्रेष्ठ क्रियाओं में अग्रणी रहने वाले और विपरीत पापादि का नाश करने वाले, श्रेष्ठ विस्तार वाले, श्रेष्ठ आसन पर स्थित, स्वर्ग के ज्ञाता आपको हम पुरातन विधि से, पूर्ण विधि से, सामान्य विधि से और इस प्रस्तुत विधि से वरण करते हैं।
You being first in excellent endeavours like Yagy and destroying the sins, has excellent extensions, occupying excellent throne, knowing the heaven through the ancient methods, complete-comprehensive methods, normal methods and the other offered methods, we select-choose.
अयं वेनश्चोदयत् पृश्रिगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने। 
इममपा ँ ्संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति॥6॥
जल के निर्माण के समय ज्योतिर्मण्डल से चन्द्रमा अन्तरिक्षीय जल को प्रेरित करता है। इस जल समागम के समय ब्राह्मण सरल वाणी से वेन (चन्द्रमा) की स्तुति करते हैं।
At the moment water is formed, the Moon inspires (enhances the process) the water in the universe (as a catalyst). At the moment the water from the outer space mixes with the one already present the Brahmns pray to the Moon.
चित्रं देवनामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 
आ प्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष ँ ्सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपश्च॥7॥
क्या ही आश्चर्य है कि स्थावर-जंगम जगत की आत्मा, किरणों का पुञ्ज, अग्नि, मित्र और वरुण का नेत्र रूप यह सूर्य भूलोक, द्युलोक तथा अन्तरिक्ष को पूर्ण करता हुआ उदित होता है।
पुञ्ज :: समूह; agglomerate, group, constellation, cluster, accumulation, clump, bunch.
The Sun which constitutes the soul of the universe including inertial-stationary and movable-dynamic world, rises with the agglomerate-group of Sun rays; Agni-fire, Mitr & Varun (demigods) constituting their eyes-like their eyes, lightens-lit the earth, heavens and the space.
आ नइडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु। 
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा॥8॥ 
सुन्दर अन्नों वाले हमारे प्रशंसनीय यज्ञ में सर्वहितैषी सूर्यदेव आगमन करें। हे अजर देवो! जैसे भी हो, आप लोग तृप्त हों और आगमनकाल में हमारे सम्पूर्ण गौ आदि को बुद्धिपूर्वक तृप्त करें।
Sun (Sury Dev-deity) should bless-come in our appreciable Yagy in which excellent grains are used as offerings. Hey immortal demigods-deities! You should be satisfied-content in all possible ways and satisfy our cows prudently-intelligently at the time of your arrival.
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य। सर्वं तदिन्द्र ते वशे॥9॥ 
हे इन्द्र! हे सूर्य! आज तुम जहाँ-कहीं भी उदीयमान हो, वे सभी प्रदेश तुम्हारे अधीन हैं।
Hey Indr! Hey Sury! Where ever you rise all places should be under your control (they should be blessed by you).
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसिसूर्य। विश्वमा भासिरोचनम्॥10॥
देखते-देखते विश्व का अतिक्रमण करनेवाले हे विश्व के प्रकाशक सूर्य! इस दीप्तिमान् विश्व को तुम्हीं प्रकाशित करते हो।
Hey Sun Dev! You cross-pass over the whole world lightening it with your light-Aura brilliance! Its you, who lightens the world.
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं संजभार। 
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥11॥
सूर्य का देवत्व तो यह है कि ये ईश्वर-सृष्ट जगत् के मध्य स्थित हो समस्त ग्रहों को धारण करते हैं और आकाश से ही जब हरित वर्ण की किरणों से संयुक्त हो जाते हैं तो रात्रि सब के लिये अन्धकार का आवरण फैला देती है।
Godly function of the Sun lies in retaining the planets by occupying the central position (located at the focus). When the Sun combines the green rays in the sky, it spreads the cover of darkness-night all around.
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। 
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः संभरन्ति॥12॥
धुलोक के अङ्क में यह सूर्य मित्र और वरुण का रूप धारण कर सबको देखता है। अनन्त शुक्ल-देदीप्यमान इसका एक दूसरा अद्वैत रूप है। कृष्णवर्ण का एक दूसरा द्वैतरूप है, जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं।
The Sun keep on watching by residing in the lap-womb in the form of Mitr & Varun (Dev, demigods-deities). Its another form is infinite, visible, shinning-lustrous which is monistic. Its dark form has two forms which is perceived by the sense organs.
बण्महाँ असि सूर्य बडादित्य महाँ असि। 
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि॥13॥
हे सूर्यरूप परमात्मन्! तुम सत्य ही महान् हो। आदित्य! तुम सत्य ही महान् हो। महान् और सद्रूप होने के कारण आपकी महिमा गायी जाती है। आप सत्य ही महान् हैं।
सद्रूप :: सुन्दर शरीर वाला, सुडौल आकार वाला, अच्छे आचरणवाला, सदाचारी, सज्जन; beautiful.
Hey Sun-a form of the Almighty! Hey Adity! Indeed you are great. Being great & beautiful your glory is chanted. Indeed you are great.
बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सन्ना देव महाँ असि। 
ह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम्॥14॥ 
हे सूर्य! तुम सत्य ही यश तथा महिमा से महान् हो। देवों के हितकारी एवं अग्रणी और अदम्य व्यापक ज्योतिवाले हो।
अदम्य :: न बदनेवाला, अजेय; indomitable, untamed, unconquerable.
Hey Sury! You are truly greater than honour & glory. You remain forward for the welfare of the demigods-deities (who in turn look to the welfare of humans) blessed with all pervading light being broad-wide & indomitable.
श्रायन्त इव सूर्य विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत। 
वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम॥15॥
जिन सूर्य का आश्रय करने वाली किरणें इन्द्र की सम्पूर्ण वृष्टि-सम्पत्ति का भक्षण करती हैं और फिर उनको उत्पन्न करने अर्थात् वर्षण करने के समय यथाभाग उत्पन्न करती हैं, उन सूर्य को हम हृदय में धारण करते हैं।
धारण करना :: अंगीकार करना; accept, wear, contain.
We accept-wear the Sury Dev who sucks the whole rains showered by Indr Dev and release it.
अद्या देवा उदित सूर्यस्य निर ँ ् हसः पिपृता निरवद्यात्।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धु: पृथिवी उत अद्यौः॥16॥ 
हे देवो! आज सूर्य का उदय हमारे पाप और दोष को दूर करे और मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी तथा स्वर्ग सब के सब मेरी इस वाणी का अनुमोदन करें।
Hey demigods-deities! Let today’s Sun rise vanish all our sins and defects; Mitr, Varun, Aditi, Sindhu, Prathvi & heavens support-follow my these words.
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं  च। 
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥17॥
सबके प्रेरक सूर्यदेव स्वर्णिम रथ में विराजमान होकर अन्धकार पूर्ण अन्तरिक्ष-पथ में विचरण करते हुए देवों और मानवों को उनके कार्यों में लगाते हुए लोकों को देखते हुए चले आ रहे हैं।
All inspiring Sury Dev riding his charoite is moving over the dark path making demigods-deities & humans perform their jobs, looking over the various abodes.

विष्णु सूक्त :: ऋषि :- दीर्घतमा, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, सूक्त सँख्या :- 5.

विष्णु शब्द विष् धातु से बना है, जिसका अर्थ है व्यापनशील या क्रियाशील होना अर्थात समस्त लोकों में अपनी किरणों को फैलाने वाला। भगवान् विष्णु देवताओं  सहायक हैं। वृत्र वध के समय भगवान् विष्णु ने इन्द्र की सहायता की थी। भगवान् श्री हरी विष्णु ने तीन पगों में तीनों लोकों को नापकर राजा बाहुबली को सुतल लोक प्रदान किया और देवताओं को भी मुक्त किया। 
भगवान् विष्णु के लिए त्रिविक्रम शब्द का प्रयोग भी किया जाता है, जिसका अर्थ है सूर्य रूप विष्णु पृथ्वीलोक, द्युलोक और अंतरिक्ष में अपनी किरणों का प्रसार करते हैं तथा उनके प्रकाश से जरायुज, अण्डज, उद्भिज और स्वेदज सभी प्रकार की सृष्टि का विस्तार होता है। भगवान् विष्णु शरीर के अधिष्ठातृ देवता हैं। उनका उच्चलोक परमपद है, जहाँ मधु उत्सव है। पक्षियों में पक्षीराज गरुड इनके वाहन हैं। भगवान् विष्णु को उरुक्रम, उरगाय भीम गिरिष्ठा, वृष्ण, गिरिजा, गिरिक्षत, सहीयान् नामों से भी सम्बोधित किया गया है।

विष्णु सूक्त के द्रष्टा दीर्घतमा ऋषि हैं। भगवान् श्री हरी विष्णु के विविध रूप, कर्म हैं। अद्वितीय परमेश्वर रूप में उन्हें महाविष्णु-विराट पुरुष कहा  गया है, यज्ञ एवं जलोत्पादक सूर्य भी उन्हीं का रूप है। वे पुरातन हैं, जगत्स्रष्टा हैं। नित्य-नूतन एवं चिर-सुन्दर हैं। संसार को आकर्षित करने वाली माता भगवती लक्ष्मी उनकी भार्या हैं। उनके नाम एवं लीला के संकीर्तन से परमपद की प्राप्ति होती है जो कि मानव जीवन का परम् उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य है।  जो व्यक्ति उनकी ओर उन्मुख होता है, उसकी ओर वे भी उन्मुख होते हैं और साधक को मनोवाञ्छित फल प्रदान कर अनुगृहीत करते हैं।
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पाशसुरे स्वाहा॥1॥ 
सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने इस जगत को धारण किया हुआ है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अन्तरिक्ष और तीसरे धुलोक में तीन पदों को स्थापित करते हैं अर्थात् सर्वत्र व्याप्त हैं। इन विष्णु देव में ही समस्त विश्व व्याप्त है। हम उनके निमित्त हवि प्रदान करते हैं।
All pervaded Bhagwan Shri Hari Vishnu, is supporting this universe. He created-established the earth, space and the higher abodes. We make offerings to HIM.
Trinity constitutes of HIM. HE is Brahma, Vishnu & Mahesh. HE is the nurturer.
इरावती धेनुमती हि भूत सूयवसिनी मनवे दशस्या।
व्यस्कनारोदसीविष्णवेतेदाधर्थपृथिवीमभितोमयूखैः स्वाहा॥2॥
यह पृथ्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गाय से युक्त, खाद्य-पदार्थ देने वाली तथा हित के साधनों को देने वाली है। हे विष्णुदेव! आपने इस पृथ्वी को अपनी किरणों के द्वारा सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है। हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं।
This earth provides food rains, cows who gives all sorts of eatables & other goods for the welfare of humans. Hey Bhagwan Shri Hari Vishnu! You are supporting this earth with your strength & power. We makes offerings to you (in holi fire i.e., Yagy, Hawan Agni Hotr).
देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम्। 
स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः॥3॥
आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें :- इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनायें, अध:पतित न करें। देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें। जब तक आयु है, तब तक धनादि से सम्पन्न बनायें। संततियों पर अनुग्रह करें। इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें।
Please say in the Dev Sabha (council of Demigods) that they-the demigods-deities should move to the east and make the Yagy a success. You should be present in the cows of your cowshed in the heavens. Support the humans with riches, amenities, wealth and be present at that comfortable place.
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजाःसि। 
योअस्कभायदुत्तर सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥4॥
जिन सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपने सामर्थ्य से इस पृथ्वी सहित अन्तरिक्ष, धुलोकादि स्थानों का निर्माण किया है तथा जो तीनों लोकों में अपने पराक्रम से प्रशंसित होकर उच्चतम स्थान को शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा के किन-किन यशों का वर्णन करें।
Let us sing the glory of Bhagwan Shri Hari Vishnu who has created the earth, heavens and the space and occupies the highest seat-position in three abodes :- earth, heavens & the nether world.
दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात्। 
उभा हि हस्ता हस्ता वसुना पृणस्वा प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा॥5॥ 
हे विष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त जगत को सुखों से पूर्ण कीजिये और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें। हे सर्वान्तर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं।
Hey Vishnu! Please provide all sorts of comforts (amenities, luxuries) in this world. The goods grown over the earth & received-obtained from the outer space, should grant us pleasure. Hey all pervading Almighty, who provide comforts, amenities with both of your forwards hands (HE has four hands) we honour-worship you!
प्रतद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। 
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा॥6॥
भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रम के कारण स्तुति-योग्य हैं। सर्वव्यापक विष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।
Hey all pervading Shri Hari! You roam in the mountains like a furious lion. Your valour, strength, power deserve worship. Living beings are present in all the three abodes supported by HIM.
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्ने स्थो विष्णोः स्यूरसि। 
विष्णोर्ध्रुवोऽसि। वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥7॥ 
इस विश्व में व्यापक देव विष्णु का प्रकाश निरन्तर फैल रहा है। विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही प्रभु व्याप्त हैं। जगत की उत्पत्ति करने वाले हे प्रभु! हम आपकी अर्चना करते हैं।
The glory-energy of the all pervading Bhagwan Shri Hari is spreading all over the universe which is fixed (the position & location of all universes, galaxies & the stars is fixed in a certain place which is not disturbed) by HIM and the universe extended further.
This is a well knit structure having 64 dimensions. The heavenly objects can move in a fixed place but can not leave that position.
नारायण सूक्त :: ऋषि नारायण, देवता आदित्य-पुरुष,  छन्द भूरिगार्षी त्रिष्टुपु, निच्यदार्षी त्रिष्टुप् एवं आष्-र्यनुष्टुप्। 
इस सूक्त में सृष्टि के विकास और व्यक्ति के कर्तव्य का बोध होता है। इसमें आदि पुरुष (महाविष्णु, विराट पुरुष) की महिमा की अभिव्यक्ती है। इस मंत्र की सिद्धि से सभी देवता जातक के पक्ष में हो जाते हैं। 
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्ने। 
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मत्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥1॥
पृथ्वी आदि की सृष्टि के लिये अपने प्रेम के कारण वह पुरुष जल आदि से परिपूर्ण होकर पूर्व ही छा गया। उस पुरुष के रूप को धारण करता हुआ सूर्य उदित होता है, जिसका मनुष्य के लिये प्रधान देवत्व है।
The Adi Purush-first one to evolve, pervaded the water prior to his appearance and his first form showed off as Sun, who is a demigod-deity & is essential for life-humans.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। 
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥2॥ 
मैं अज्ञानान्धकार से परे आदित्य-प्रतीकात्मक उस सर्वोत्कृष्ट पुरुष को जानता हूँ। मात्र उसे जानकर ही मृत्यु का अतिक्रमण होता है। शरण के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं। 
I am aware of the presence of Adi Purush, Maha Vishnu, Virat Purush. He is away from ignorance. One who knows him, i.e., worship does not fear death, rebirth. He can be availed through worship.  
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा॥3॥ 
वह परमात्मा आभ्यन्तरमें विराजमान है। उत्पन्न न होनेवाला होकर भी नाना प्रकार से उत्पन्न होता है। संयमी पुरुष ही उसके स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं। सम्पूर्ण भूत उसी में सन्निविष्ट हैं।
HE was present at all points of time i.e., in the past, present and the future as well. HE is unborn yet HE reveals HIMSELF in many ways. Only those who who exercise self restraint-self control can visualise HIM. Every thing-event that has occurred in the past resides in HIM.
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः। 
पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मे॥4॥ 
जो देवताओं के लिये सूर्य रूप से प्रकाशित होता है, जो देवताओं का कार्य साधन करने वाला है और जो देवताओं से पूर्व स्वयं भूत है, उस देदीप्यमान ब्रह्म को नमस्कार है।
We worship the Brahm bearing aura, who shines as Sun for the demigods-deities, accomplish their endeavours,  who is present prior to the demigods-deities. 
रुचं ब्राह्मं जनयन्तो देवा अग्रे तदब्रुवन्। 
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा असन् वशे॥5॥
उस शोभन ब्रह्म को प्रथम प्रकट करते हुए देवता बोले, “जो ब्राह्मण तुम्हें इस स्वरूप में जाने, देवता उसके वश में हों”।
The demigods-deities at HIS first appearance said, “All the demigods-deities may be under the control of the Brahmn (Indr Dev) who recognises YOU in this form”.
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पल्यावहोरात्रे पार्श्निक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। 
म इष्णन्निषाणामुं इषाण सर्वलोकं म इषाण॥6॥
समृद्धि और सौन्दर्य तुम्हारी पत्नी के रूप में हैं, दिन तथा रात तुम्हारे अगल-बगल हैं, अनन्त नक्षत्र तुम्हारे रूप हैं, द्यावा-पृथ्वी तुम्हारे मुख स्थानीय हैं। इच्छा करते समय परलोक की इच्छा करो। मैं सर्वलोकात्मक हो जाऊँ-ऐसी इच्छा करो, ऐसी इच्छा करो।
All amenities and beauty exists as YOUR wife (Maa Lakshmi), day & night are by YOUR side, infinite Nakshtr (star, solar systems) are YOUR forms-incarnations, the earth is YOUR mouth. If one has a desire, he should think of the betterment of his next abode. I should be positive in thoughts & ideas.
श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं नारायणस्तोत्रं :: 
नारायण नारायण जय गोविंद हरे। 
नारायण नारायण जय गोपाल हरे॥
करुणापारावारा वरुणालयगम्भीरा। 
घननीरदसंकाशा कृतकलिकल्मषनाशा॥
यमुनातीरविहारा धृतकौस्तुभमणिहारा।  
पीताम्बरपरिधाना सुरकल्याणनिधाना॥
मंजुलगुंजाभूषा मायामानुषवेषा। 
राधाऽधरमधुरसिका रजनीकरकुलतिलका॥
मुरलीगानविनोदा वेदस्तुतभूपादा। 
बर्हिनिवर्हापीडा नटनाटकफणिक्रीडा॥
वारिजभूषाभरणा राजिवरुक्मिणिरमणा। 
जलरुहदलनिभनेत्रा जगदारम्भकसूत्रा॥
पातकरजनीसंहर करुणालय मामुद्धर।
अधबकक्षयकंसारे केशव कृष्ण मुरारे॥
हाटकनिभपीताम्बर अभयं कुरु मे मावर।
दशरथराजकुमारा दानवमदस्रंहारा॥
गोवर्धनगिरिरमणा गोपीमानसहरणा।
शरयूतीरविहारासज्जनऋषिमन्दारा॥
विश्वामित्रमखत्रा विविधपरासुचरित्रा। 
ध्वजवज्रांकुशपादा धरणीसुतस्रहमोदा॥
जनकसुताप्रतिपाला जय जय संसृतिलीला।  
दशरथवाग्घृतिभारा दण्डकवनसंचारा॥
मुष्टिकचाणूरसंहारा मुनिमानसविहारा। 
वालिविनिग्रहशौर्या वरसुग्रीवहितार्या॥
मां मुरलीकर धीवर पालय पालय श्रीधर। 
जलनिधिबन्धनधीरा रावणकण्ठविदारा॥
ताटीमददलनाढ्या नटगुणविविधधनाढ्या। 
गौतमपत्नीपूजन करुणाघनावलोकन॥
स्रम्भ्रमसीताहारा साकेतपुरविहारा। 
अचलोद्घृतिञ्चत्कर भक्तानुग्रहतत्पर॥
नैगमगानविनोदा रक्षःसुतप्रह्लादा।
भारतियतिवरशंकर नामामृतमखिलान्तर॥
इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं नारायणस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌।
SHREE SUKT श्री सूक्त :: ऋषि :- आनन्दकर्दम चिक्लीत जातवेद, देवता :- स्त्री, छन्द :- अनुष्टुप प्रस्तार पंक्ति एवं त्रिष्टुप।
यह सभी ऐश्वर्यों को देने में समर्थ है। सुखों की प्राप्ति हेतु सँध्या के समय अपने इष्ट के सम्मुख बैठकर या किसी देवालय में या फिर किसी शक्ति-पीठ में बैठकर इसका कम से कम 3 पाठ प्रतिदिन पाठ करने चाहिये। यह मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है।
ऐश्वर्य एवं समृद्धि की कामना से इस सूक्त के मन्त्रों का जप तथा इन मन्त्रों से हवन, पूजन अमोध अभीष्ट फल दायक है।
One who conduct Yagy-Hawan with the desire for amenities, comforts, luxuries recite the following Mantr may be able to attain the goal.
हिरण्यवर्णा हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम्। 
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥1॥
हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण-जैसी रंगवाली, किञ्चित् हरितव्ण विशिष्टा, सोने और चाँदी के हार पहनने वालो, चन्द्रवत प्रसन्न कान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी को मेरे लिये आवाहन करो।
Hey all knowing Agni Dev! Please invite Maa Laxmi, who has a golden colour with the tinge of slight green colour, wears golden & silver necklaces, with the  aura  like the Moon on my behalf
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥
अग्ने! उन लक्ष्मी देवी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिये आवाहन करो।
Hey Agni Dev! Please invite imperishable Maa Laxmi Devi, with the arrival of whom I may get cows, horses and sons; on my behalf
अश्वपूर्वा रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥3॥
जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्री देवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मी देवी मुझे प्राप्त हों।
I invite the Goddess-Shri Devi (Maa Laxmi, Goddess of riches, wealth) who has horses in her front and chariots behind, who become happy by listening to the voice-sound of elephants, should accompany me.
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारा मार्द्रां  ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 
पद्येस्थितां पद्मवर्णा तामिहोप ह्वये श्रियम्॥4॥
जो साक्षात् ब्रह्म रूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयामयी, तेजोमयी, पूर्णकामा, भक्तानुग्रह कारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ।
I invite Maa Laxmi at this place, who is like the Brahm, has little smile, decorated with gold, kind, wearing aura, kind to the devotees, sitting over lotus and has the colour of Padm (Kamal, Lotus).
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। 
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥5॥ 
मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर द्युतिशालिनी (lustre, चमक), यश से दीप्तिमती, स्वर्ग लोक में देव गणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मी देवी की शरण ग्रहण करता है। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्ये रूप में वरण करता हूँ।
I seek protection (shelter, asylum) under Maa Bhagwati Laxmi who has the aura of Moon, who is beautiful & lustrous, shinning with glory, revered by the demigod-deities of the heavens, having the hands like the lotus. Hey Maa Laxmi! Let my poverty be abolished. I accept-bear you my the protector.

आदित्यवर्णे तस्य तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ विल्यः। तस्य फलानि तमसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥6॥ 

हे सूर्य के समान प्रकाश स्वरूपे! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मङ्गलमय बिल्व वृक्ष (wood apple) उत्पन्न हुआ। उसके फल हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्रय को दूर करें।
Hey (Maa Bhagwati Laxmi) of the form of glittering Sun! Bilv Vraksh-Bel Patthar-the excellent & pious, was born as a result of your asceticism. Its fruits may remove our external & internal poverty.
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।  
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेSस्मिन् कीर्तिमुद्धिं ददातु मे॥7॥
देवि! देव सखा कुबेर और उनके मित्र मणि भद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र-देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि (संपन्नता, सफलता) प्रदान करें।
Hey Goddess (Maa Bhagwati Laxmi-Lakshmi)! You should be available to me like the friends of demigods-deities Kuber, his friend Mani Bhadr and the daughter of Daksh Prajapati, which means that I may get glory and wealth. I am born in this country. Bless me with glory-name & fame, riches and success.
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। 
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद में गृहात्॥8॥ 
लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रताकी अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा (प्यास, तृष्णा, इच्छा, लोभ) से मलिन-क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमङ्गल को दूर करो।
I want to abolish the elder sister of Maa Laxmi who is known as Alaxmi, who is always weak due to hunger & thirst (extreme unreasonable desires, greed). Hey Devi! Kindy remove all sorts of poverty and inauspiciousness from my house.
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।  
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम्॥9॥
जो दुराधर्षा तथा नित्यपुष्टा हैं तथा गोबर से (पशुओं से) युक्त गन्ध गुणवती पृथ्वी ही जिनका स्वरूप है, सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ-अपने घर में आवाहन करता हूँ।
दुर्धर्ष :: जिसे वश में करना कठिन हो, जिसे परास्त करना या हराना कठिन हो, प्रबल, प्रचंड, उग्र, जिसे दबाया न जा सके, दुर्व्यवहारी, हस्तिनापुर सम्राट धृतराष्ट्र का एक पुत्र, रावण की सेना का एक राक्षस; who is difficult to control, difficult to defeat, strong-powerful, a son of Dhratrashtr, a demon in Ravan’s army.
I invite Maa Lakshmi to my house, who is difficult to control & defeat,  mother earth is her replica with the smell of dung and who the master of all that has happened in the past.
मनसः काममाकूर्तिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥10॥ 
मनोकामनाएँ और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों, गौ आदि पशुओं एवं विभिन्न अन्नों-भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश  में श्री देवी का हमारे यहाँ आगमन हो।
Maa Laxmi may be present in our house in the form of cows, different food grains-items, honour & glory & ascertain accomplishment of our all desires, resolution and the speech.
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम। 
श्रियं वासथ मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥11॥ 
लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। हे कर्दम ऋषि! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्यों की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मी देवी को हमारे कुल में स्थापित करें।
We are the progeny of Kardam Rishi, the son of Maa Lakshmi. Hey Kardam! Please take birth in our family and establish Maa Lakshmi, who wears the garland of Lotus flowers in our family.
आय: सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस में गृहे। 
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥12॥
जल स्निग्ध पदार्थो की श्रष्टि करें। लक्ष्मी पुत्र  चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मी देवी का मेरे कुल में निवास करायें।
स्निग्ध :: स्नेह युक्त, प्रेममय (स्निग्ध दृष्टि), चिकना (स्निग्ध पदार्थ); aliphatic, balsamic, lubricated.
Let water create lubricated goods. Hey Maa Lakshmi’s Chiklit! Please stay in our house along with Maa Laxmi.
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टि पिङ्गलां  पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥13॥ 
अग्ने! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे यहाँ आवाहन करें।
आर्द्र :: गीला, तरल, नम, द्रवित; wet, moist.
Hey Agni! Please invite Maa Laxmi, who is soft by nature, nourishing, yellow coloured, wearing the garland of Lotus flowers, having the aura like he Moon & is like gold in our house.
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णा हेममालिनीम्। 
सूर्या हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥14॥
अग्ने! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मङ्गल दायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्ण माला धारिणी, सूर्य स्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिये आवहन करें।यष्टि :: छड़ी,  डंडा या लाठी, झंडे का डंडा, पेड़ की टहनी, डाल, शाखा, बाँह, लता, मुलेठी, ताँत; stick.
Hey Agni Dev! Please invite Maa Laxmi to my house, who is soft by nature, auspicious, supporting, like a stick, beautiful coloured, like the Sun and gold.
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। 
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥15॥ 
अग्ने! कभी नष्ट न होने वाली उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिये आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत सा धन, गौएँ, दासियाँ, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।
Hey Agni Dev! Please invite the imperishable Maa Lakshmi for us, arrival of whom may bless us with plenty of cows, women workers-slaves, horses and sons.
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।  
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥16॥ 
जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओंवाले ‘श्री-सूक्त’ का निरन्तर पाठ करें।
One who is desirous of Lakshmi-wealth, should make offerings in Holi fire every day after becoming pure-pious with the 15 verse written above regularly everyday.
श्री सूक्त का जाप प्रयोग हृदय अथवा आज्ञाचक्र में या सामान्य पूजा प्रकरण से ही संपन्न करें।
देवी-सूक्त :: ऋग्वेद के दशम मण्डल का 125 वां सूक्त वाक् सूक्त है। इसे आत्मसूक्त भी कहते हैं। इसमें अम्भृण ऋषि की पुत्री वाक् ब्रह्म साक्षात्कार से सम्पन्न होकर अपनी सर्वात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त कर रही हैं।   
अहं रुद्रे भिर्वसुभिश्च राम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा विभम्र्य हमिन्द्राग्नी अहमश्चिनोभा॥1॥
ब्रह्म स्वरूपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्व देवता के रुप में विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन-उन रूपों में भास रही हूँ। मैं ही ब्रह्म रूप से मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ। मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ। मैं ही दोनों अश्विनी कुमारों का भी धारण-पोषण करती हूँ। 
I roam as a form of the Brahm as Rudr, Vasu, Adity & Vishw Dev. I bear Mitr & Varun as a form of Brahm (Almighty-Par Brahm Parmeshwar). I am at the root of Indr and Agni. I bear the Ashwani Kumars and nurture, support them.
Mata Bhagwati is better half of the Almighty. She is the mother nature. Without her, nothing can be done in this universe or else where. 
It means that every thing that exits, we see is mirage-illusionary, perishable. Its only the God who is everlasting, ever since, for ever.
अहं सोममाहनसं विभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्। 
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्यते॥2॥
मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाह्वाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का भरण-पोषण करती हूँ। मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती हूँ। जो यजमान यज्ञ में सोमाभिषक के द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने वाली मैं ही हूँ।
सुख :: आनन्द, आराम, चैन,  अनुकूल और प्रिय; happiness, pleasure. 
I am the slayer of the enemy, remover of the defects caused by lasciviousness (wandering, wavering mind), giver of extreme pleasure-bliss and supporter of Yagy, moon, innerself and the Shiv. I bear Twasta, Pusha & Bhag. I grant happiness to the host-devotee who conduct Yagy for the contentment of the demigods-deities by making offerings, in this & the next abodes.
द्रविड :: वर्ण के ब्रात्य से उत्पन्न पुत्र को झल्ल, मल्ल, लिच्छिवि, नट, करण, खस और द्रविड कहते हैं; The son born out of Braty wing of the Kshatriy is called Jhall, Mall, Lichchhivi, Nat, Karan, Khas or Dravid. Dravid used as a synonym for the South Indians, Tamils-Dravidians as well.
द्रविण :: द्रविण कर्मफल और सांसारिक धन-सम्पत्ति का पर्याय है। कर्मफल दाता मायाधिपति ईश्वर हैं। ब्रह्म ही फलदाता है। यह ईश्वर-ब्रह्म अपनी आत्मा ही है। 
Dravid is a word which means the result-outcome of the deeds and the wealth-riches. Its only the God (Maya Pati-master of Maa Bhagwati) who award the outcome of deeds. This Ishwar-God resides in our body as the soul.  
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। 
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥
मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी हूँ। मैं उपासकों को उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ। जिज्ञासुओं के साक्षात् कर्तव्य परब्रह्म को अपनी आत्मा के रूप में मैंने अनुभव कर लिया है। जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। सम्पूर्ण प्रपञ्च के रूप में अनेक सी होकर विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीव रूप में, मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ। भिन्न-भिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझ में मेरे लिये ही किया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व के रूप में अवस्थित होने के कारण जो कोई, जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हैं।
अवस्थित :: अवस्थान, टिकाव, विद्यमानता; location, locality.
I am Rashtri-the female God, Goddess of the whole universe.  I make available the desired wealth-riches. I have felt-experienced the Ultimate-Par Brahm Parmeshwar in my soul, who is the object of curiosity for the devotees-practitioners. I am the best-excellent among those for whom the Yagy are conduced-performed. I am present in the living beings as a fraction in all illusionary objects-multiple forms. I am penetrating in all organisms. Every thing they do is due to me, for me, in me. Whatever is done to make the universe localise (at a specific place, point of time) by anyone is due to me since I am present in each object-matter.
Mother Bhagwati-Nature (Adi Shakti, Para Shakti), has cast her spell over all organism, pervading the entire universe. She is the body and Almighty is the soul.
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ई शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥ 
जो कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्री की शक्ति से ही भोगता है। जो देखता है, जो श्वासोच्छास रूप व्यापार करता है और जो कही हुई बात सुनता है, वह भी मुझ से ही। जो इस प्रकार अन्तर्यामि रूप से स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण हो जाते हैं। मेरे प्यारे सखा! मेरी बात सुनो, “मैं तुम्हारे लिये उस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ, जो श्रद्धा-साधनसे उपलब्ध होती है”।
अंतर्यामी :: अंतःकरण या मन की बात जानने वाला, वह सर्वोच्च सत्ता जिसे सृष्टि का स्वामी माना जाता है, सबके मन में रहने और सबके मन की बात जानने वाला ईश्वर; immanent, omniscient, all Knowing.
Whatever, pleasure-pain, good-bad, trouble-comfort one experiences is due to me. Whatever he sees or respire-breath, listen is all due to me. Those who do not recognise me as omniscient those ignorant remain poverty stricken and become weak in  moment of second. Let me describe you the gist of Brahm, which is attained by virtue to faith, devotion and shelter (asylum, protection under HIM) only.
“श्रद्धि” शब्द का अर्थ श्रद्धा है। श्रत् पद में उपसर्गवत् वृत्ति होने के कारण “कि” प्रत्यय हो जाता है। “व” प्रत्यय मत्वर्थीय है। इसका अर्थ हुआ परब्रह्म अर्थात् परमात्मा का साक्षात्कार श्रद्धा, प्रयत्न से होता है। श्रद्धा आत्मबल है और यह वैराग्य से स्थिर होती है। अपनी बुद्धि से ढूढ़ने पर जो वस्तु सौ वर्षों में भी प्राप्त नहीं हो सकती, वह श्रद्धा से क्षण भर में मिल जाती है। यह प्रज्ञा की अन्धता नहीं है, जिज्ञासुओं का शोध और अनुभवियों के अनुभव से लाभ उठाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
Shraddha-faith in the Almighty make those things available within seconds, which one can not get by making efforts in hundreds of years. Devotion to God grants inner strength.
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः। 
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
मैं स्वयं ही इस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ। देवताओं और मनुष्यों ने भी इसी का सेवन किया है। मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ। मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूँ, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, मैं चाहूँ तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूं, अतीन्द्रियार्थ ऋषि बना दूँ और उसे बृहस्पति के समान सुमेधा (समझदार, विवेकशील, चतुर) बना दूँ। मैं स्वयं अपने स्वरूप ब्रह्मभिन्न आत्मा का गान कर रही हूँ।
Let me describe-preach the gist of Brahm. Demigods-deities too have followed it. I am Brahma, myself. I make one excellent if I desire to protect him. I may turn one into Brahma or grant him into a Rishi having deep insight. I can make him Sumedha (intelligent, prudent) like Brahaspati (Dev Guru). I am explaining my self my true identity which is different from the Brahm.
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥6॥ 
मैं ही ब्रह्म ज्ञानियों के द्वेषी हिंसारत त्रिपुर वासी त्रिगुणाभिमानी अहंकार, असुर का वध करने के लिये, संहारकारी रुद्र के धनुष पर ज्या (प्रत्यञ्चा) चढ़ाती हूँ। मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओं के विरोधी शत्रुओं के साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूँ। मैं ही द्युलोक और पृथ्वी  में अन्तर्यामि रूप से प्रविष्ट हूँ।
इस मन्त्र में भगवान् रुद्र द्वारा त्रिपुरा सुरकी विजय की कथा बीज रूपसे विद्यमान है।
I stretch the bow string of Bhagwan Shiv to kill-destroy the Tripur occupied by the demons and its inhabitants spreading violence under arrogance-pride. Its me who destroys the enemy of the devotees-hosts who perform Yagy. I am present over the earth and the space-heavens, nether world as omniscient.
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। 
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वष्र्मणोप स्पृशामि॥7॥ 
इस विश्व के शिरोभाग पर विराजमान द्युलोक अथवा आदित्य रूप पिता का प्रसव में ही करती रहती हूँ। उस कारण में ही में ही तन्तुओं में पट के समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दिख रहा है। दिव्य कारण, वारिरूप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थों का उदय होता रहता है, वह ब्रह्म चैतन्य ही मेरा निवास स्थान है। यही कारण है कि सम्पूर्ण भूतों में अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारणभूत मायात्मक स्वशरीर से  सम्पूर्ण दृश्य कार्य  स्पर्श करती हूँ।
Its me who activate the Sun leading to light all round, making everything visible. The ocean occupied by the Almighty, where evolution takes place is may abode-residence. I am present in all happenings in the past and observes all the current activities all over the universe with my own causative illusionary body.
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव॥8॥
जैसे वायु किसी दूसरे से प्रेरित न होने पर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरे के द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होने पर भी स्वयं ही कारण रूप से सम्पूर्ण भूतरूप कार्यों का आरम्भ करती हूँ। मैं आकाश से भी परे हूँ और इस पृथ्वी से भी। अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारों से परे, असङ्ग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्म चैतन्य हूँ। अपनी महिमा से सम्पूर्ण जगत के रूप में मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ।
कूटस्थ :: ईश्वर-परमात्मा जो  कूट अर्थात सबसे ऊँचे स्थान पर स्थित हो; जिसकी स्थिति सर्वोपरि हो; आला दर्जे का; उच्चतम, जिसमें कुछ अदल-बदल न हो सके, अटल, अचल, विकार रहित, निर्विकार, अविनाशी, विनाशरहित, छिपा हुआ, गुप्त; embroidered.
The way air flows by itself, I too act of my own depending over the cause & effect of the past events. I am away from the sky-space & the earth as well. Though, I am neutral, maintains equanimity yet I am embroidered-active as well. I am pervading the entire universe with my powers.
रुद्र सूक्त :: ऋषि :- गृत्समद, निवास स्थान :- अन्तरिक्ष, सूक्त सँख्या :- 3.
ऋग्वेद में परमपिता-परमब्रह्म परमेश्वर की स्तुति रूद्र के रूप में की गई है। भगवान् रुद्र शक्तिशाली तथा भयंकर-रौद्र रूप में चित्रित किये गये हैं। दृढ़ अंगों से युक्त, यमराज आदि आठ मूर्तियों वाला प्रचण्ड पालन पोषण करने वाला व भूरे रंग के वे रुद्र दीप्तिमान् स्वर्णलंकारो से चमकते हैं। उनके पास विशेष आयुध हैं। शस्त्र के रूप में वे धनुष बाण धारण करते हैं। रुद्र रथ पर आसीन होकर नित्य युवा सिंह के समान भंयकर शत्रुओं को मारने वाले और उग्र स्वरूप वाले हैं। ऋग्वेद में रुद्र को मरुतों का पिता एवं स्वामी भी कहा गया है। रुद्र ने मरुतों को पृश्नि नाम की गौओं के थनों से उत्पन्न किया था। 
भूत-भावन भगवान् सदाशिव की प्रसन्नता के लिये इस सूक्त के पाठ का विशेष महत्त्व है। पूजा में भगवान् शिव को सबसे प्रिय जलधारा है। इसलिये भगवान् शिव के पूजन में रुद्राभिषेक की परम्परा है और अभिषेक में इस रुद्र सूक्त की ही प्रमुखता है। रुद्राभिषेक के अन्तर्गत रुद्राष्टाध्यायी के पाठ में ग्यारह बार इस सूक्त की आवृत्ति करने पर पूर्ण रुद्राभिषेक माना जाता है। फल की दृष्टि से इसका अत्यधिक महत्त्व है। यह रुद्र सूक्त आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक त्रिविध तापों से मुक्त कराने तथा अमृतत्व की ओर अग्रसर करने का अन्यतम उपाय है। 
नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥1॥
हे रुद्र! आपको नमस्कार है, आपके क्रोध को नमस्कार है, आपके बाण को नमस्कार है और आपकी भुजाओं को नमस्कार है।
Hey Rudr! We offer tributes, salute (respect, regard) to you, your anger, arrows and hands.
नमस्कार :: अभिवादन, शुभकामना, नमस्कार, अभिनंदन, मुबारकबाद, सत्कार, वन्दना, प्रणाम, नमस्ते, आराधना, श्रद्धा, नमस्कार, भक्ति, पूजा, आराधन; greeting, salutation, adoration, accost, hello, adoration, bonjour, bow, regard, respect, salutation, salute, compliment, court, greeting.
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी। 
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि॥2॥
हे गिरिशन्त! अर्थात् पर्वत पर स्थित होकर सुख का विस्तार करने वाले रुद्र! हमें अपनी उस मङ्गलमयी मूर्ति द्वारा अवलोकन करें, जो सौम्य होने के कारण केवल पुण्य का फल प्रदान करने वाली है।
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, सौम्य, प्रशम्य; benign, kindly, placable.
Hey Indr! You stay over the mountain and expand comforts as Rudr (Bhagwan Shiv). Kindly observe-visualise us with that form of yours, which is placable and grants us the favourable results of our virtuous acts.
यामिषुं गिरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे। 
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हि ँ ्सीः पुरुषं जगत्॥3॥ 
हे गिरिशन्त! हे गिरीश! अर्थात पर्वत पर स्थित होकर त्राण करनेवाले आप प्रलय करने के लिये जिस वाण को हाथ में धारण करते हैं, उसे सौम्य कर दें और जगत के जीवों की हिंसा न करें। 
Hey the resident of mountain-Girishant-Girish! Please make the arrow used by you to destroy-annihilation placable and do not kill the living beings.
Evolution and annihilation are two acts of God which occur periodically. Annihilation is the job of Bhagwan Shiv as Mahesh-Rudr.
शिवेन बचसा त्वा गिरिशाच्या बदामसि। 
यथा नः सर्वमिज्जगद यक्ष्म ँ ् सुमना असत्॥4॥
हे गिरीश! हम आपको प्राप्त करने के लिये मङ्गलमय स्तोत्र से आपकी प्रार्थना करते हैं, जिससे हमारा यह सम्पूर्ण जगत् रोग रहित एवं प्रसन्न हो। 
Hey Girish! We pray to you with the help of this verse (stanza) which is auspicious, so that our universe-world (earth) becomes free from diseases and happy. 
अध्ययोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्। 
अहिं श्च  सर्वांञ्जम्भय यन्त्सर्वाश्च यातुधान्यो ऽधराची: परासुव॥5॥
शास्त्र सम्मत वचन बोलने वाले, देव हितकारी, परम रोग नाशक, प्रथम पूज्य रुद्र हमें श्रेष्ठ कहें और सर्पादि का  विनाश करते हुए सभी अधोगामिनी राक्षसियों आदि को भी हमसे दूर करें।
The Rudr who has to be prayed first, speaks only those words which are in accordance with the scriptures-Ved, who is the ultimate for the welfare of demigods-deities, who removes all diseases-illness, should make us excel and wipe off snakes (poisonous, reptiles, insects etc.) and keep the demonesses facing downfall away from us. 
EXCEL :: बढ़ जाना, उत्तमतर होना, श्रेष्ठ होना, अन्यों से बढ़कर होना, विशिष्ट होना, अग्रगण्य होना। 
असौ यस्ताप्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गल:। 
ये चैन ँ ्रुद्रा  अभितोदिक्षु श्रिताः सहस्त्रशोऽवैषा ँ ्हेडईमहे॥6॥
ये जो ताम्र, अरुण और पिङ्गल वर्ण वाले मङ्गलमय सूर्य रूप रुद्र हैं और जिनके चारों ओर ये सहस्रों किरणों के रूप में रुद्र हैं, हम भक्ति द्वारा उनके क्रोध का निवारण करते हैं।
पिङ्गल :: भूरापन लिये हुए पीला या लाल, ताँबे के रंग का, भैरव राग का एक पुत्र, ताँबे और जस्ते के मेल से बनी हुई एक मिश्र धातु, एक खनिज पदार्थ जो लगभग पीले रंग का होता है, वर्षा और वसन्त ऋतु में सुरीली ध्वनि में बोलने वाला एक पक्षी; an alloy with yellow, red and grey tinge.
We wish to calm down  the Rudr who is of the colour of bright yellow-orange, yellow, red & grey tinge, has thousands of rays around him with our devotion.
असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 
उतैनंगोपा अदृनभन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः॥7॥
ये जो विशेष रक्तवर्ण सूर्यरूपी नीलकण्ठ रुद्र गतिमान् हैं, जिन्हें गोप देखते हैं, जल-वाहिकाएँ देखती हैं, वह हमारे द्वारा देखे जाने पर हमारा मङ्गल करें।
Neelkanth Rudr, having red tinge like the Sun, is in motion, is viewed by the Gops, carriers of water view him, should do our welfare when seen by us. 
 नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीदुषे।
अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः॥8॥ 
सेचनकारी सहस्रों नेत्र वाले पर्जन्य रूप नीलकण्ठ रुद्र को हमारा नमस्कार है। इनके जो अनुचर हैं, उन्हें भी हमारा नमस्कार है।
सेचन :: भूमि को पानी से सींचना, सिंचाई; irrigation. 
पर्जन्य :: गरजता तथा बरसता हुआ बादल,  मेघ, इंद्र, विष्णु, कश्यप ऋषि के एक पुत्र जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है; clouds causing rains.
अनुचर :: जमीदार, अनुरक्षक, सेवक, आश्रित; retainer, squire, followers.
We revere-salute to Neelkanth who nourishes us by causing rains from the clouds. We honour-salute his dependents-followers as well. 
प्रमुञ् धन्वनस्त्वमुभयोराल्र्योज्र्याम्। 
याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप॥9॥
हे भगवन्! आपके धनुष की कोटियों के मध्य यह जो ज्या है, उसे आप खोल दें तथा आपके हाथ में ये जो बाण हैं, उन्हें आप हटा दें और इस प्रकार हमारे लिये सौम्य हो जायें।
Hey God! Please remove the cord from the bow, keep the arrows away and become placable for us. 
दिज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो बाणवाँ उत।
अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य निषङ्गधिः॥10॥ 
जटाधारी रुद्र का धनुष ज्या रहित, तूणीर फलक हीन, बाण रहित, बाण दर्शन रहित और म्यान खड्ग रहित हो जायें।
Let the bow Rudr become cordless, quiver without sharp edged arrows, arrows invisible and the sheath without sword for Rudr to become placable.
The devotees should not be afraid by seeing armed Rudr. His posture wearing arms create fear in anyone who looks at him.
या ते हेतिमीं हेतिर्मीदुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः। 
तयाऽस्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज॥11॥
हे संतृप्त करने वाले रुद्र! आपके हाथ में जो आयुध हैं और आपका जो धनुष है, उपद्रव रहित उस आयुध या धनुष द्वारा आप हमारी सब ओर से रक्षा करें।
Hey fear causing Rudr! Please protect us with your weapons and the bow from all sides-directions.
 परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः।
अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम्॥12॥ 
आप धनुर्धारी का यह जो आयुध है, वह हमारी रक्षा करने के लिये हमें चारों ओर से घेरे रहे, किंतु यह जो आपका तरकस है, उसे आप हम से दूर रखें।
Hey bow wearing your weapons should surround us from all sides to protect us but keep your quiver 
अवतत्य धनुष्ट ँ ्सहस्त्राक्ष शतेषुधे। 
निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव॥13॥ 
हे सहस्रों नेत्र वाले, सैकड़ों तरकस वाले रुद्र! आप अपने धनुष को ज्यारहित और वाणों  के मुखों को फलक रहित करके हमारे लिये सुप्रसन्न एवं कल्याणमय हो जायें। 
Hey thousands of eyes bearing, hundred of quiver owning Rudr! You should become placable & happy causing our welfare, by keeping away the uncorded bow and the sharp edged arrows.
नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे।
उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने॥14॥ 
हे रुद्र! धनुष पर न चढ़ाये गये आपके बाण को नमस्कार है, आपकी दोनों भुजाओं को नमस्कार है एवं शत्रु-संहारक आपके धनुष को नमस्कार है।
Hey Rudr! We salute-revere your arrows which have not been put over the bow, your hands and the bow which destroy the enemy.
मानो महान्तमुत मा नो अभर्कं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। 
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः॥15॥
हे रुद्र! हमारे बड़ों को मत मारो। हमारे बच्चों को मत मारो। हमारे तरुणों को मत मारो। हमारे पिता और माता की हिंसा न करो। हमारे प्रियजनों की हिंसा न करो।  हमारे पुत्र-पौत्रादिकों की हिंसा न करो।
Hey Rudr! Do not kill our elders, children, young ones, mother & father and our near & dear.
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषुरीरिषः।
मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधीर्हविष्पन्तः सदमित्वा हवामहे॥16॥
हे रुद्र! हमारे पुत्रों और पौत्रों पर क्रोध न करें। हमारी गायों पर तथा हमारे घोड़ों पर क्रोध न करें। हमारे क्रोध युक्त वीरों को न मारें। हम हविष्य लिये हुए निरन्तर यज्ञार्थ आपका आवाहन करते हैं।
Hey Rudr! Please don’t be angry with our son and grandsons, cows & horses, angry soldiers. We invite you for the Yagy with the offerings.
भगवान् रुद्र को स्वास्थ्य के देवता भी हैं, यथा :-
मा त्वा रुद्र चुक्रुधामा नमोभिर मा दुष्टुती वृषभ मा सहूती।
उन्नो वीरां अर्पय भेषजेभिर् भिषकतमं त्वा भिषजां श्रंणोमि॥
रुद्र के अधृष्म, द्रुतगामी, प्रचेतस्, इणाश, विश्वनियंता, भिषसमम्, मीढ़वान, नीलोदर, नीलकंठ, लोहितपृष्ठ, चेकितान आदि विशेषण हैं।
Rudr-Bhagwan Shiv has the titles like :- Adhrashm, Drutgami, Prachetas, Ishan, Vishwniyanta, Bhishsamm, Meedhvan, Nilodar, Neelkanth, Lohitprashth, Chekistan etc.
यम सूक्त, ऋग्वेद के दशम मण्डल का 14वाँ सूक्त :: ऋषि :- यमो वैवस्वत,  देवता :: 1-5 यम, 6 :- पित्रथर्वभृगुसोम, 7-9  लिङ्गोक्त पितर, 10-12  श्वानौ है। छन्द :- 1-12 त्रिष्टुप, 13-14, 16  अनुष्टुप,  15 बृहती। निम्न यम सूक्त तीन भागों में विभक्त है। ऋचा 1-6 तक के पहले भाग में यम एवं उनके सहयोगियों की सराहना की गयी है और यज्ञ में उपस्थित होने के लिये उनका आवाहन किया गया है। ऋचा 7-12 तक के दूसरे भाग में नूतन मृतात्मा को श्मशान को दहन-भूमि से निकलकर यमलोक जाने का आदेश दिया गया है। 13-16 तक तक की ऋचाओं में यज्ञ की हवि को स्वीकार करने के लिये यम का आवाहन किया गया है।
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः पन्थामनुपस्परशानम्। 
वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य॥1
उत्तम पुण्य-कर्मो को करने वालों को सुखद स्थान में ले जाने वाले, बहुतों के हितार्थ योग्य मार्ग के द्रष्टा, विवस्वान के पुत्र यम को हवि अर्पण करके उनकी सेवा करें, जिनके पास मनुष्यों को जाना ही पड़ता है। 
Let us make offerings to Yam, the son of Vivasvan, to whom every one is bound to go (after death), who shows the right path for the benefit-welfare of many and who carries those who perform virtuous, righteous, pious deeds to places of comforts.
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः॥2॥ 
पाप-पुण्य के ज्ञाता सब में प्रमुख यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता। पहले जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार हम सब जायँगे।
No one can change the working (path, method, procedure) of Yam Raj. The way-path the ancestors left (died), will be followed by the descendants as per their deeds.
मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्व्वभिर्वाबृधान:। 
याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान् त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति॥3॥
इन्द्र कव्यभुक् पितरों की सहायता से, यम अंगिरसादि पितरों की सहायता से और बृहस्पति ऋक्वदादि पितरों की सहायता से उत्कर्ष पाते हैं। देव जिनको उन्नत करते हैं, जो देवों को बढ़ाते हैं। उनमें से कोई स्वाहा के द्वारा (देव) और कोई स्वधा से (पितर) प्रसन्न होते हैं।
उत्कर्ष :: महानता, महत्ता, विस्तार, अधिकता, विपुलता, शिखर, पराकाष्ठा, चरम उत्कर्ष, ऊँचा शिखर, उच्चतम शिखर; flourishing, climax, greatness, growth, moving to the top.
Dev Raj Indr attained peak (heights in a carrier, rise) with the help of Kavybhuk Pitr, Yam Raj (Dharm Raj) due to Angirsadi Pitr, Dev Guru Brahaspati Rikadi Pitr. Those who are promoted by the demigods-deities (Almighty), they too help demigods-deities scales peaks-heights.
इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाऽङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। 
आ त्वा मन्त्राः कविशस्ता वहन्त्वेना राजन् हविषा मादयस्व॥4॥
हे यम! अङ्गिरादि पितरों के साथ इस श्रेष्ठ यज्ञ में आकर बैठें। विद्वान् लोगों के मन्त्र आपको बुलावें। हे राजा यम! इस हवि से संतुष्ट होकर हमें प्रसन्न कीजिये।
Hey Yam! Come and sit-participate in this Yagy with the Pitr like Angiras. The Mantr enchanted by the learned-enlighten invites you. Hey Yam, the king! Be satisfied with the offerings and make us happy. 
अङ्गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम वैरूपैरिह मादयस्व। 
विवस्वन्तं हुवे यः पिता तेऽस्मिन् यज्ञे बर्हिष्या निषद्य॥5॥
हे यम! यज्ञ में स्वीकार करने योग्य अङ्गिरस ऋषियों को साथ लेकर आयें। वैरूप नामक पूर्वजों के साथ यहाँ आप भी प्रसन्न हों। आपके पिता विवस्वान को मैं यहाँ निमंत्रित करता हूँ (और प्रार्थना करता हूँ) कि इस यज्ञ में वह कुशासन पर बैठकर हमें संतुष्ट करें। 
Hey Yam! Bring the acceptable Rishis like Angiras. Please be with the ancestors like Vaerup, here. I invite your father Vivisman (Sury Bhagwan-Sun) and request him to sit over the Kushasan and satisfy us. 
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भगवः सोम्यासः।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम॥6॥ 
अङ्गिरा, अथर्वा एवं ऋग्वादि हमारे पितर अभी ही आये हैं और ये हमारे ऋषि सोमपान के लिये योग्य ही हैं। उन सब यज्ञार्ह पूर्वजों की कृपा तथा मङ्गलप्रद प्रसन्नता हमें पूरी तरह प्राप्त हो। 
Angira, Atharva and Rigvadi Pitr have just come and they deserve drinking Somras. Blessings of all these ancestors, acceptable for the Yagy and auspicious pleasure-happiness be available to us. 
प्रेहि ग्रेहि पथिभि: पूर्व्येभिर्यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः।
उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यासि वरुणं  च देवम्॥7॥ 
हे पिता! जहाँ हमारे पूर्व पितर जीवन पार कर गये है, उन प्राचीन मार्गों से आप भी जायें। स्वधाकर अमृतान्न से प्रसन्न-तृप्त हुए राजा यम और वरुण देव से जाकर मिलें।
Hey father! The abode where our ancestors have gone, you should also the available to you following the same track. Being satisfied with the Swadhakar-the food grains,  which are like nectar-elixir, you should meet the king Yam and Varun Dev. 
सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन्। 
हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा:॥8॥
हे पिता! श्रेष्ठ स्वर्ग में अपने पितरों के साथ मिलें। वैसे ही अपने यज्ञ, दान आदि पुण्य कर्मो के फल से भी मिलें। अपने सभी दोषों को त्याग कर इस (शाश्वत) घर की ओर आयें और सुन्दर तेज से युक्त होकर (संचरण करने योग्य नवीन) शरीर धारण करें।
शाश्वत :: विरल, चिरंतन, सदैव के लिए; which is eternal and for ever, perpetual-in perpetuity, sempiternal.
Hey father! You should join-meet the Pitr-ancestors through excellent track-path. Meet them as per result-merit (rewards)  of the virtuous deeds like Yagy, donations-charity. Come to the this sempiternal place, after rejecting all defects, sins, vices and have a new body associated with aura.
अपेत वीत वि च सर्पतातो ऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन्।
अहोभिरद्भिरक्तुभिव्र्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै॥9॥ 
है भूत-पिशाचो!। यहाँ से चले जाओ, हट जाओ, दूर चले आओ। पितरों  ने यह स्थान इस मृत मनुष्य के लिये निश्चित किया है। यह स्थान दिन-रात और जल से युक्त है। यम ने इस स्थान को मृत मनुष्य को दिया है (इस ऋचा में श्मशान के भूत-पिशाचों से प्रार्थना की गयी है कि वे मृत व्यक्ति के अन्तिम विश्राम स्थल के मार्ग में बाधा न उपस्थित करें)।
Hey evil spirits, devil  spectre (Dracula)! Move away from here. Pitr have given this place (cremation ground) to the deceased. This place has water during day & night. Yam has granted this place to the dead.
अति द्रव सारमेयौ श्वनौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा।
अथा पिदृतन्  त्सुविदत्राँ उपहि यमेन ये सधमादं मदन्ति॥10॥    
हे सद्यः मृत जीव! चार नेत्रों वाले चित्रित शरीर के सरमा के दोनों श्वान-पुत्र हैं। उनके पास अच्छे मार्ग उत्पन्न शीघ्र गमन करो। यमराज के साथ एक ही पंक्ति में प्रसन्नता से (अन्नादिका) उपभोग करने वाले अपने अत्यन्त उदार पितरों के पास उपस्थित हो जाओ (मृत व्यक्ति से कहा गया है कि उचित मार्ग से आगे बढ़कर सभी बाधाओं को हटाते हुए यम लोक ले जाने वाले दोनों श्वानों के साथ वह जल्द जा पहुँचे)।
Hey deceased! Move with the two sons of Sarma with spotted-painted body, who remain in the form of dog. To dine with Yam Raj in the same row present yourself in front of liberal Pitr.
यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पशिरक्षी नृचक्षसौ।
ताभ्यामेनंपरिदेहि राजन्  त्स्वस्ति चास्मा  अनमीवं च धेहि॥11॥ 
हे यमराज! मनुष्यों पर ध्यान रखने वाले, चार नेत्रों वाले,  मार्ग के रक्षक ये जो आपके रक्षक श्वान हैं, उनसे इस मृतात्मा को रक्षा करें। हे राजन्! इसे कल्याण और आरोग्य प्राप्त करायें। 
Hey Yam Raj! Please protect the deceased from the four eyed dogs protecting the way, keeping an eye (watching) over the humans. Hey king! Kindly grant his welfare and health.
उरूणसावसुसूतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु। 
तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम्॥12॥
यम के दूत, लम्बी नासिका वाले, (मुमूर्षु व्यक्ति के) प्राण अपने अधिकार में रखने वाले, महा पराक्रमी (आपके) दोनों श्वान मर्त्य लोक में भ्रमण करते रहते हैं। वे हमें सूर्य के दर्शन के लिये यहाँ आज कल्याणकारी उचित प्राण दें।
The mighty dogs who are the agents of Yam Raj, who have long nose, take possession of the dying person, keep on roaming in the perishable world. They should provide us beneficial Pran-life for seeing the Sun.
यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहुना हविः। 
यमं ह यज्ञो गच्छत्यदग्निदूतो अरंकृतः॥13॥
यम के लिये सोम का सेवन करो तथा यम के लिये (अग्नि में) हवि का हवन करो। अग्नि उसका दूत है,  इसलिये अच्छी तरह तैयार किया हुआ यह हमारा यज्ञ हवि यम के पास पहुँच जाता है। 
Drink Somras for Yam and make offering in the fire. Agni is his agent, so finely prepared our offerings meant for the Yagy reach him.
यमाय घुतवद्धविर्जुहोत प्र च तिष्ठत।
स नो देवेष्या यमद् दीर्घमायुः प्र जीवसे॥14॥ 
घृत से मिश्रित यह हव्य यम के लिये (अग्नि में) हवन करो और यम की उपासना करो। देवों के बीच यम हमें दीर्घ आयु दें, ताकि हम जीवित रह सकें।
Use the offerings mixed with Ghee-clarified butter in Agni-fire for Yam and pray to him. Let Yam Raj occupying seat amongest the demigods-deities, grant us long life to let us survive. 
यमाय मधुमत्तमं राजे हव्यं जुहोतन।
इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पश्चि कृद्भ्यः॥15॥ 
अत्यधिक माधुर्य युक्त यह हव्य राजा यम के लिये के अग्नि में हवन करो। (हे यम!) हमारा यह प्रणाम अपने पूर्वज के ऋषियों को, अपने पुरातन मार्ग दर्शकों को समर्पित हो जाय।
Make this sweet offering in fire for the king Yam. Hey Yam! Our salutations should reach the Rishis-sages of our ancestors and our ancient path should be offered to the viewers.
त्रिकद्रुकेभिः पतति पळुर्वीरेक मिद्बृहत्।
त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा ता यम आहिता॥16॥ 
त्रिकद्रुक नामक यज्ञों में हमारा यह (सोमरूपी सुपर्ण) उड़ान ले रहा है। यम छ: स्थानों :- धुलोक, भूलोक, जल, औषधि, ऋक् और सुनृत में रहते हैं। गायत्री तथा अन्य छन्द, ये सभी इन यम में ही सुप्रतिष्ठित किये गये हैं।
सुपर्ण :: गरुड़, मुरण, पक्षी-चिड़िया, किरण, एक असुर का नाम, देवगंधर्व, एक पर्वत का नाम, घोड़ा, अश्व, सोम, वैदिक मंत्रों की एक शाखा का नाम, अंतरिक्ष का एक पुत्र, सेना की एक प्रकार की व्यूहरचना, नागकेसर, नागपुष्प, अमलतास, स्वर्णपुष्प, ज्ञानस्वरूप, कोई दिव्य पक्षी, सुंदर पत्र या पत्ता, (सुंदर किरणों से युक्त होने के कारण इस शब्द का प्रयोग चंद्रमा और सूर्य के लिये भी होता है), सुंदर दलों या पत्तोंवाला, सुंदर परोंवाला, भगवान्  विष्णु के वाहन गरुड़ का एक नाम, भगवान्  विष्णु का एक नाम।
ऋक् :: ऋचा, स्तुति, पूजा; Blood.
Our Suparn is flying in the Yagy named Trikdruk. Yam resides in six places :- space-sky, earth, water, medicines, Rik-blood and Sunrat.
अश्विनौ सूक्त :: ऋषि :- कक्षीवान् एवं वसिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय। 
अश्विनी कुमार सूर्य देव-विवस्वान् और त्वष्टा की पुत्री सरण्यू के पुत्र और देवताओं के चिकित्सक हैं, जो कि सुनहरी चमक सौन्दर्य और कमल की मालाओं से सदा विभूषित रहते हैं। इनका मार्ग स्वर्णमय है। अश्विनी कुमारों को मधु अति प्रिय है। इनके रथ में तीन पहिए हैं और उनका वेग पवन से भी अधिक तेज है। इसमें सुनहरी पंखों वाले घोडे़ जुते हैं। इस रथ को ऋभु नामक देवताओं ने बनाया था। वे उषा के प्रकट होने के अनन्तर और सूर्योदय के मध्य प्रकट होते हैं। अश्विनौ के निचेतास, हिरण्यवर्तनी, रुद्रवर्तनी, पुरुशाकतमा, मधुपाणि, तमोहन्ता, शुभ्रस्पति, दिवोनपात् अश्वमद्या, वृष्णा आदि नाम भी  हैं।
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम्॥1॥

हे क्षिप्रबाहु, सुकर्मपालक और विस्तीर्ण-भुज-संयुक्त अश्विद्वय! तुम लोग यज्ञीय अन्न को ग्रहण करो।

अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया। धिष्ण्या वनतं गिरः॥2॥

हे विविध कर्मा, नेता और पराक्रमशाली अश्विद्वय! आदरयुक्त बुद्धि के साथ हमारी स्तुति सुनो।

दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः। आ यातं रुद्रवर्तनी॥3॥

हे शत्रुनाशन, सत्यभाषी और शत्रुदमनकारी अश्विद्वय! सोमरस तैयार कर छिन्न कुशो पर रक्खा हुआ है; तुम आओ।

इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः। अण्वीभिस्तना पूतासः॥4॥

हे विचित्र-दीप्तिशाली इन्द्र! अँगुलियों से बनाया हुआ नित्य-शुद्ध यह सोमरस तुम्हें चाहता है; तुम आओ।

इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः॥5॥

हे इन्द्र! हमारी भक्ति से आकृष्ट होकर और ब्राह्मणो द्वारा आहूत होकर सोम-संयुक्त वाघत नाम के पुरोहित की प्रार्थना ग्रहण करने आओ।

इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः। सुते दधिष्व नश्चनः॥6॥

हे अश्वशाली इन्द्र! हमारी प्रार्थना सुनने शीघ्र आओ। सोमरस-संयुक्त यज्ञ में हमारा अन्न धारण करो।

ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत। दाश्वांसो दाशुषः सुतम्॥7॥

हे विश्वे देवगण! तुम रक्षक हो तथा मनुष्यों के पालक हो। तुम हव्यदाता यजमान के प्रस्तुत सोमरस के लिए आओ। तुम यज्ञ-फल-दाता हो।

विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः। उस्रा इव स्वसराणि॥8॥

जिस तरह सूर्य की किरणें दिन में आती हैं, ऐसी तरह वृष्टिदाता विश्वेदेव! शीघ्र प्रस्तुत सोमरस के लिए आगमन करें।

विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः। मेधं जुषन्त वह्नयः॥9॥

विश्वे देवगण अक्षय, प्रत्युत्पन्नमति, निर्वैर और धन-वाहक हैं। वे इस यज्ञ में पधारें।

पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः॥10॥

पतितपावनी, अन्न-युक्त और धनदात्री सरस्वती धन के साथ हमारे यज्ञ की कामना करें।

चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती॥11॥

सत्य की प्रेरणा करनेवाली, सुबुद्धि पुरुषों को शिक्षा देनेवाली सरस्वती हमारा यज्ञ ग्रहण कर चुकी हैं।

महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति॥12॥

प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि उत्पन्न की है और इसके सिवा समस्त ज्ञानों का भी जागरण किया है।

अग्नि :: देवताओं में अग्नि का सबसे प्रमुख स्थान है और इन्द्र के पश्चात अग्नि देव का ही पूजनीय स्थान है। अग्निदेव नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न, यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करने वाले तथा तेज एवं प्रकाश के अधिष्ठाता हैं। मातरिश्वा भृगु तथा अंगिरा इन्हें भूतल पर लाये। अग्नि पार्थिव देव हैं। यज्ञाग्नि के रूप में इनका मूर्तिकरण प्राप्त होता है। अतः ये ही ऋत्विक, होता और पुरोहित हैं। ये यजमानों के  द्वारा विभिन्न देवों के उद्देश्य से अपने में प्रक्षिप्त हविष् को उनके पास ऋग्वेद में अग्नि को धृतपृष्ठ, शोचिषकेश, रक्तश्मश्रु,रक्तदन्त, गृहपति, देवदूत, हव्यवाहन, समिधान, जातवेदा, विश्वपति, दमूनस, यविष्ठय, मेध्य आदि नामों से सम्बोधि्ात किया गया है।
‘मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत’ पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवां भाई हैं। उनका रथ सोने के समान चमकता है और दो मनोजवा एवं मनोज्ञ वायुप्रेरित लाल घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। अग्नि का प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक, अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आह्वान किया जाता है :-

अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत्॥

अग्नि-सूक्त ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है। इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र हैं। इसके देवता अग्नि हैं। इसका छन्द गायत्री-छन्द है। इस सूक्त का स्वर षड्जकृ है। गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं। इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का है। इसमें कुल नौ मन्त्र है।सँख्या की दृष्टि से इऩ्द्र (250 श्लोक) के बाद अग्नि (200 श्लोक) का ही स्थान है, किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है।स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है। सामूहिक रूप से अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है। अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है। इनका पृथ्वी लोक में प्रमुख स्थान है।

अग्नि का स्वरूप :: अग्नि शब्द “अगि गतौ” (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है। गति के तीन अर्थ हैंः – ज्ञान, गमन और प्राप्ति। इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता  है :- “अग्निर्वै सर्वा देवता।” [ऐतरेय-ब्राह्मण 1.1, शतपथ 1.4.4.10] अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है। अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा है :- अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा।[शतपथ-ब्राह्मण 14.3.2.5]
निरुक्ति :- अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति  हैं :-
(1). अग्रणीर्भवतीति अग्निः। मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(2). अयं यज्ञेषु प्रणीयते। यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(3). अङ्गं नयति सन्नममानः । अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(4). अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः। न क्नोपयति न स्नेहयति। निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं।
(5). त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।” शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से “अ”, अञ्जू से या दह् से “ग” और णीञ् से “नी” लेकर बना है [आचार्य यास्क, निरुक्तः 7.4.15]
कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है। याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैं :- गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि। गार्हपत्याग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है। शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है।
अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है।
(1). अग्नि का रूप :- अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है :- घृतपृष्ठ।  इनका मुख घृत से युक्त है :–घृतमुख। इनकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान हैं। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इनके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इनके नेत्र घृतयुक्त हैं :- घृतम् में चक्षुः। इनका रथ युनहरा और चमकदार है जिसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वे अपने उपासकों के सदैव सहायक हैं।
(2). अग्नि का जन्म :- अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है। ये स्वतः-अपने आप, उत्पन्न होते हैं। अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होते हैं। इनके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि अग्नि का जन्म, अग्नि से ही हुआ है। प्रकृति के मूल में अग्नि  है। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में अग्नि की उत्पत्ति विराट्-पुरुष के मुख से बताई गई है :- मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च। अग्नि द्यावापृथ्वी के पुत्र हैं। 
(3). भोजन :- अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है। आज्य उनका प्रिय पेय पदार्थ है। ये यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करते हैं।
(4). अग्नि कविक्रतु है :- अग्नि कवि तुल्य है। वे अपना कार्य विचारपूर्वक करते हैं। कवि का अर्थ है :- क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी। वे ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी हैं। उनमें अन्तर्दृष्टि है। अग्निर्होता कविक्रतुः। [ऋग्वेदः 1.1.5]
(5). गमन :- अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है। विद्युत् रथ पर सवार होकर चलते हैं। जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है। वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है, जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है।
(6). अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक हैं :- अग्नि रोग-शोक, पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह व्यक्ति पराजित नहीं होता :-देवम् अमीवचातनम्।[ऋग्वेदः 1.12.7] और प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः। [यजुर्वेदः-1.7]
(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। उसे यज्ञ का ऋत्विक् कहा जाता है। वह पुरोहित और होता है। वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता है :-अग्निमीऴे पुरोहितम्। [ऋग्वेदः 1.1.1]
(8). देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं। मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि  विस्तार है। अश्विनी प्राण-अपान वायु हैं। इनसे ही मानव जीवन चलता है। इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं। अग्नि वायु के मित्र हैं। जब अग्नि प्रदीप्त है, तब वायु उनका साथ देते हैं :- आदस्य वातो अनु वाति शोचिः। [ऋग्वेदः 1.148.4]
(9). मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि मनुष्य के रक्षक पिता हैं :- स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव। [ऋग्वेदः 1.1.9] उन्हें दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।
(10). पशुओं से तुलना :- आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होते हैं। ये हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहते हैं। ये उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करते हैं :- हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः। [ऋग्वेदः 1.65.5]
(11). अग्नि अतिथि है :- अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहते हैं और सत्यनिष्ठा से रक्षा करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी है, वे उसकी सदैव रक्षा करते हैं। ये अतिथि के समान शरीर में रहते हैं, जब उनकी इच्छा होती है, तब प्रस्थान कर जाते हैं :- अतिथिं  मानुषाणाम्। [ऋग्वेदः 1.127.8]
(12). अग्नि अमृत है :- संसार नश्वर है। इसमें अग्नि ही अजर-अमर है। यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है। अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है। जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता है :- विश्वास्यामृत भोजन। [ऋग्वेदः 1.44.5]
(13). अग्नि के तीन शरीर हैं :– स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। मानव शरीर अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला स्थूल शरीर है। मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है। आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर है :- तिस्र उ ते तन्वो देववाता। [ऋग्वेदः- 3.20.2]

अग्नि सूक्त (1) ::  ऋग्वेद संहिता 1.1.1-9,  ऋषि :- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र, देवता :- अग्नि, छन्द :-गायत्री।
वेद में अग्नि देवता का विशेष महत्व है। ऋग्वेद संहिता में दो सौ सूक्त अग्नि के स्तवन में उपलब्ध है। ऋग्वेद के सभी मण्डलों के आदि में अग्नि सूक्त के अस्तित्व से अग्नि देव की प्रधानता  प्रकट होती है। सर्वप्रधान और सर्वव्यापक होने के साथ अग्नि सर्वप्रथम, सर्वाग्रणी भी हैं। इनका जातवेद नाम इसको विशेषता का द्योतक है। भूमण्डल के प्रमुख तत्वों से अग्नि का सम्बन्ध बताया का जाता है। प्राणि मात्रके सर्वविध कल्याण के लिये इस सूक्त गायन किया जाता है।
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥1॥
सबका हित करने वाले, यज्ञ के प्रकाशक, सदा अनुकूल यज्ञ कर्म करने वाले, विद्वानों के सहायक अग्नि की मैं प्रशंसा करता हूँ।
I praise-appreciate Agni Dev, who is always helpful to all, lit-lightens the Yagy, always perform favourite deeds and is helpful to the learned Brahmns-Pandits.

हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुती करते हैं। आप यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं। 
Hey Agni Dev-the demigod of fire! We glorify (adore, pray, worship) you as the highest priest of sacrifice, the divine, one who invites the demigods, who is the offeror and possessor of greatest wealth.

अग्निः पूर्वेर्भिऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥2॥
सदैव से प्रशंसित अग्नि देव का आवाहन करते हैं। अग्नि के द्वारा ही देवता शरीर में प्रतिष्ठित रहते हैं। शरीर से अग्नि देव के निकल जाने पर समस्त देव इस शरीर को त्याग देते हैं।
We invite Agni Dev who is always appreciable. Its the Agni Dev who hold the deities-demigods in the body. Demigods-deities leave the body as soon as Agni Dev moves out of it.

जो अग्नि देव पूर्व कालिक ऋषियों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित हैं। जो वर्तमान काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें। 
देव आवाहन मंत्र :- 

आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरो भव। 
यावत्पूजां करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव

May that Agni, who is worthy to be praised by ancient and modern sages, gather the deities-demigods here.

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्॥3॥
अग्नि ही पुष्टि कारक, बल युक्त और यशस्वी अन्न प्रदान करते हैं। अग्नि से ही पोषण होता है, यश बढ़ता है और वीरता से धन प्राप्त होता है।
Agni provides nourishing, strengthening and glorifying grains. Agni is nourishing and glorifying leading to earning through valour.

स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर; यश बढ़ाने वाले अग्नि देव मनुष्यों-यजमानों को प्रतिदिन विवर्धमान-बढ़ने वाला धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि, वीर पुरूष आदि प्रदान करनेवाले हैं। 
Agni Dev, the deity of fire grants wealth to the devotees, which keeps on enhancing-increasing day by day along with the devotee’s name fame-honour. He is blessed with able progeny.

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद् देवेषु गच्छति॥4॥
हे अग्नि! जिस हिंसा रहित यज्ञ को सब ओर से आप सफल बनाते हैं, वही देवों के समीप पहुँचता है।
Hey Agni! The Yagy free from violence becomes successful and reaches the demigods-deities.

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।  
Hey Agni Dev! You are capable of protecting everyone. You keep on surrounding the Hawan Kund-sacrificial pot free from violence (Animal sacrifice, meat) from all sides. These offerings reach the demigods-deities through you.
This verse clearly states that the Yagy-Hawan-Agni Hotr does not allow animal sacrifice, eating of meat.

अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः देवो देवेभिरा गमत्॥5॥
देवों का आवाहन करने वाला, यज्ञ-निष्पादक, ज्ञानियों की कर्म शक्ति का प्रेरक, सत्य परायण, विविध रूपों वाला और अतिशय कीर्ति युक्त यह तेजस्वी अग्नि, देवों के साथ इस यज्ञ में आयें।
The Agni who is brilliant, glorious, having vivid forms, truthful, directing the enlightened to endeavours-Yagy performances, inviting the demigods-deities, should come to the Yagy along with the demigods-deiteis.

हे अग्निदेव! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त है। आप देवों के साथ इस यज्ञ में पधारें। 
O Agni Dev! You provide us with the material for offerings-sacrifices, knowledge-enlightenment and power-strength, inspiration for performing deeds-duties and you are an embodiment of truth, unique in qualities. Kindly oblige us by arriving here at the site of the Yagy along with the demigods-deities.

यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत् तत् सत्यमङ्गिरः॥6॥
हे अग्नि! आप दान शील का कल्याण करते हैं। हे शरीर में व्यापक अग्नि! यह आपका नि:संदेह एक सत्य कर्म है।
Hey Agni! You resort to the welfare of the person who is a donor. Hey body pervading Agni! Its definitely a truthful deed.

हे अग्निदेव! आप यज्ञ करने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओं की समृद्धि करके, जो भी कल्याण करते हैं, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है। 
Hey Agni Dev! What ever welfare you do-bestow to the devotee-the person performing Yagy; in the form of wealth, live stock (animals), progeny and residence is returned to you through various sacrifices performed by the devotee in his life time-span.

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि॥7॥
हे अग्नि! प्रति दिन, दिन और रात बुद्धि पूर्वक नमस्कार करते हुए हम आपके समीप आते हैं अर्थात् अपनी स्तुतियों द्वारा हमेशा उस प्रकाशक एवं तेजस्वी अग्नि का गुणगान करना चाहिये, दिन और रात्रि के समय उनको सदा प्रणाम करना चाहिये।
Hey Agni! We always seek your shelter-protection (asylum) every day, during the day & night. One should always seek his blessings.

हे जाज्वलयमान अग्निदेव! हम आपके सच्चे उपासक हैं। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो। 
O Agni Dev possessor of Aura-brilliance! We are your devotees, performing the worship with pure intentions and keep on reciting your praise (qualities, traits) through day & night.

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे॥8॥
दीप्यमान, हिंसा रहित यज्ञों के रक्षक, अटल सत्य के प्रकाशक और अपने घर में बढ़ने वाले अग्नि के पास हम नमस्कार करते हुए आते हैं।
We have come to the Agni who is bright-brilliant, protector of the Yagy, favours the truth and is lit in our homes, to honour him.

हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञों के रक्षक, सत्य वचन रूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञ स्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट, स्तुति पूर्वक आते हैं। 
We, the house holds leading a family life come to seek asylum (patronage, protection) under you at the site of the Yagy to have growth; you being the illuminator of the Yagy site and our protector requesting you again and again politely.

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव। सचस्वा नः स्वस्तये॥9॥
हे अग्नि! जिस प्रकार पिता-पुत्र के कल्याणकारी काम में सहायक होता है, उसी प्रकार आप हमारे कल्याण में सहायक हों।
Hey Agni! You should be helpful to us, just like the father who is protective to the son.

हे गाहर्पत्य अग्ने! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार आप भी (हम यजमानों के लिये) बाधा रहित होकर सुख पूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहें। 
O Gaharpaty Agni! The convenience with which a son can approach his father without tension (trouble, hesitation), you should also be accessible to us for our welfare, around-near us.

अग्नि सूक्त (2) ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 27 :: ऋषि :- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता :- 1-12 अग्नि, 13 देवतागण। छन्द 1-12  गायत्री, 13 त्रिष्टुप।]
अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥
तमोनाशक, यज्ञों के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियों के द्वारा आपकी वन्दना करते हैं। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालों से मक्खी-मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओं से हमारे विरोधियों को दूर भगायें।[ऋग्वेद 1.27.1]
Hey Agni Dev-the destroyer (remover) of darkness, the king of Yagy! We pray to you with the help of hymNs. Please repel our opponents with your flames just like the horse who chase-throws away misquotes and flies.
HYMNS :: भजन, स्तोत्र, स्तवन; ode, psalm, prayer, eulogy, panegyric, praise, song of praise.
स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते हैं। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमें अभिष्ट सुखों को प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.27.2]
We pray to Agni Dev with the best procedures. Agni Dev, who was born by force, is fast moving may kindly grant us all comforts, amenities.
Fire is produces when two pieces of wood are rubbed together with force or stones are struck or rubbed with each other with force (force of friction).
स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥
हे अग्निदेव! सब मनुष्यों के हित चिन्तक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिन्तन से सदैव हमारी रक्षा करें।[ऋग्वेद 1.27.3]
Hey Agni Dev! Please always protect us from the ill will of everyone-humans (colleagues, friend, relatives etc.)
इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥
हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रों एवं नवीन अन्न (हव्य) को देवों तक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये।[ऋग्वेद 1.27.4]
Hey Agni Dev! Please carry forward our offerings (food grains) and the life protecting hymns  of Gayatri to the demigods-deities. 
आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥
हे अग्निदेव! आप हमें श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम (आधिदैविक) एवं कनिष्ठ (आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.27.5]
Hey Agni Dev! Kindly bless us with all amenities of life, ranging from lower to highest level.
विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥
सात ज्वालाओं से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक हैं। नदी के पास आने वाली जल तरंगों के सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करते हैं।[ऋग्वेद 1.27.6]
Hey Agni Dev glittering with 7 flames! You provide wealth (gold, money) to the worshippers. You grant the best out come-rewards of the deeds-endeavours to the host-one performing Yagy, just like the waves in the river waters, reaching the banks.
यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥
हे अग्निदेव! आप जीवन संग्राम में जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्वयं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नों की पूर्ति भी करते हैं।[ऋग्वेद 1.27.7]
Hey Agni Dev! One inspired by in the struggles of life, is protected by you. You provide him with sufficient food grains for his nourishment.
नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥
हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी (आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है।[ऋग्वेद 1.27.8]
Hey enemy defeating Agni Dev! No one can defeat your worshipers, since they possess the energy-power granted by you.
स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥
सब मनुष्यों के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम में अश्व रूपी इन्द्रियों द्वारा विजयी बनाने वाले हैं। मेधावी पुरुषों द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमें अभीष्ट फल प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.27.9]
The Agni Dev, who benefit all humans, help us with the help of our organs-which are like the horse, let us win in the war of life-struggles. Appreciated by the genius, Let Agni Dev grant us the desired rewards-out put of our endeavours.
जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥
स्तुतियों से देवों को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता, विनाश हेतु आपका आवाहन करते हैं।[ऋग्वेद 1.27.10]
Hey Agni Dev! The hosts invite you with the help of highly esteemed hymns-prayers, at the Yagy site to vanish the wicked, depraved, sinners, viceful.
स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥
अपरिमित धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्द प्रद, महान वे अग्निदेव हमें ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें।[ऋग्वेद 1.27.11]
Agni Dev associated with the flag of smoke, pleasure granting highly esteemed may give us enlightenment and amenities-wealth.
स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥
विश्व पालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणों से युक्त दूर दर्शी वे अग्नि देव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियों को ग्रहण करें।[ऋग्वेद 1.27.12]
Let Agni Dev who is the nurturer of the whole world, extremely energetic-possessing aura-brilliance, possessing the characterice of flag, far sighted-visionary accept our prayers-hymns to him.
नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः।
यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥
बड़ों, छोटों, युवकों और वृद्धों को हम नमस्कार करते हैं। सामर्थ्य के अनुसार हम अग्नि देव सहित देवों का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान में हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो।[ऋग्वेद 1.27.13]
We salute the elders, youngers, youth and the aged. We honour Agni Dev & the demigods-deities as per our capability. Kindly ensure that no mistake is committed by us in honouring our elders (Pitr Gan, Dev Gan, Rishi Gan Deities & the ALMIGHTY)
इन्द्र सूक्त (1) :: ऋग्वेद :- मण्डल 1, ऋषि :- मधुच्छन्दा:, देवता :- इन्द्र:, छन्द :- गायत्री, अनुवाक :- 2. 

इन्द्रमिद गाथिनो बर्हदिन्द्रमर्केभिरर्किणः। इन्द्रं वाणीरनूषत॥1॥ 

साम वेदियों ने साम-गान द्वारा, ऋग्वेदियों ने वाणी द्वारा और यजुर्वेदियों ने वाणी द्वारा इन्द्र की स्तुति की है। 

Dev Raj Indr has been prayed-felicitated by the practitioners of Sam Ved with the verses of Sam Ved, those of Rig Ved with Rig Ved verses & the Yajur Ved practitioners with the verses of Yajur Ved.

इन्द्र इद धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्रीहिरण्ययः॥2॥ 

इन्द्र अपने दोनों घोड़ों को बात की बात में जोत कर सबके साथ मिलते हैं। इन्द्र वज्रयुक्त और हिरण्यमय हैं।

Dev Raj Indr glittering like gold, holding Vajr-thunder volt, deploy his horses in the chariot and joins others quickly.
इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत॥3॥

दूरस्थ मनुष्यों को देखने के लिए ही इन्द्र ने सूर्य को आकाश में रक्खा है। सूर्य अपनी किरणों द्वारा पर्वतों को आलोकित किये हुए हैं।

Dev Raj Indr hold Sun (Bhagwan Sury) in the sky to see those humans, who are away from him. Sun is lightening the mountains with his rays. 

इन्द्र वाजेषु नो अव सहस्रप्रधनेषु च। उग्र उग्राभिरूतिभिः॥4॥ 

उग्र इन्द्र! अपनी अप्रतिहत रक्षण-शक्ति द्वारा युद्ध और लाभकारी महासमर में हमारी रक्षा करो। 

अप्रतिहत :: जिसे कोई रोक न सके, निर्बाध, अप्रभावित, अंकुश; continuous, who can not be blocked by any one.
Hey furious Indr! Protect us with your unblock able power, in the big gainful-productive war.
इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे। युजं वर्त्रेषु वज्रिणम॥5॥ 

इन्द्र हमारे सहायक और शत्रुओं के लिए वज्रधर हैं; इसलिए हम धन और महाधन के लिए इन्द्र का आह्वान करते हैं।

Since, Indr is our associate and thunder volt holder for the enemy, we invite him for riches and ultimate comforts. 

स नो वर्षन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वर्धि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥6॥ 

अभीष्ट फलदाता और वृष्टिप्रद इन्द्र! तुम हमारे लिए इस मेघ को भेदन करो। तुमने कभी भी हमारी प्रार्थना अस्वीकार नहीं की। 

Hey desired results producing and rain showering Indr Dev! You should make these clouds rain. You never rejected our prayers.

तुञ्जे-तुञ्जे य उत्तरे सतोमा इन्द्रस्य वज्रिणः। न विन्धेस्य सुष्टुतिम॥7॥

जो विवध स्तुति वाक्य विभिन्न देवताओं के लिए प्रयुक्त होते हैं, सो सब वज्रधारी इन्द्र के हैं। इन्द्र की योग्य स्तुति मैं नहीं जानता। 

All those prayers meant for the other demigods-deities are used for praying Dev Raj Indr. I do not know a suitable prayer meant for the thunder volt wearing-holding, Dev Raj Indr.

वर्षा यूथेव वंसगः कर्ष्टीरियर्त्योजसा। ईशानो अप्रतिष्कुतः॥8॥

जिस तरह विशिष्ट गतिवाला बैल अपने गो बल को बलवान करता है, उसी प्रकार इच्छित वितरण करता इन्द्र मनुष्य को बलशाली करते हैं। इन्द्र शक्ति संपन्न हैं और किसी की याचना को अग्राह्य नहीं करते।

The manner in which a bull having a special speed (breed) strengthen his flock of cows, Dev Raj Indr makes the humans (who pray to him) strong & powerful. He never reject the requests-prayers of anyone.   

य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति। इन्द्रः पञ्च कसितीनाम॥9॥

इन्द्र मनुष्यों, धन और पञ्चक्षिति के ऊपर शासन करने वाले हैं।

 Indr rules humans, wealth-riches and the five horizons.

इन्द्रं वो विश्वतस परि हवामहे जनेभ्यः। अस्माकमस्तु केवलः॥10॥

सबके अग्रणी इन्द्र को तुम लोगों के लिए हम आह्वान करते हैं। इन्द्र हमारे ही हैं।

We invite Dev Raj Indr who stands first for you. Indr belongs to us.
इन्द्र-सूक्त (2) :: ऋषि :- अप्रतिरथ, देवता :- इन्द्र तथा आर्षी,  छन्द :- त्रिष्टुप्। इन्द्र वेद के प्रमुख देक्ता है। इन्द्र के विषय में अन्य देवताओं की अपेक्षा अधिक कथाएँ प्रचलित हैं। इनका समस्त स्वरूप स्वर्णिम तथा अरुण है। ये सवाधिक सुन्दर रूपों को धारण करते हैं तथा सूर्य की अरुण  आभा को धारण करते हैं। अतः इन्हें हिरण्य कहा जाता है।
आशु: शिशानोवृषभो न भीमो धनाधन: क्षोभणश्चर्षणीनाम्
संक्रन्दनोSनिमिष एकवीरशत ँ ् सेना अजयत् साकमिन्द्रः॥1॥ 
वेगगामी, वज्रतीक्ष्णकारी, वर्षण (Precipitation, Testis) की उपमा वाले, भयंकर, मेघ तुल्य वृष्टि करनेवाले, मानवों के मोक्षकर्ता, निरन्तर गर्जना युक्त, अपलक, अद्वितीय वीर इन्द्र ने शत्रुओं की सैकड़ों सेनाओं को एक साथ जीत लिया है।
Indr is fast moving, strikes hard with thunderbolt, has the title of Varshan (sperm producing-too sexy), makes having-furious rains, grants Salvation-Moksh to humans, roaring continuously, un parallel warrior-brave (valour) and wins hundreds of armies at a time.
संक्रन्दनोSनिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना। 
तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा॥2॥
हे योद्धाओ! गर्जन कारी, अपलक, जयशील, युद्धरत, अपराजेय, प्रतापी, हाथ में वाण सहित, कामनाओं की वृष्टि करने वाले इन्द्र की कृपा से शत्रु को जीतो और उसका संहार करो।
Hey warriors! Win the enemy by the grace of Indr Dev who is roaring stunning, thundering), do not blink his eyes, winning, engaged in war, undefeated, glorious, has arrows in his hands, showers desires-amenities.
सइषुहस्तैः सनिषङ्गिभिर्वशी ँ ् स्रष्टा सयुधइन्द्रोगणेन। 
 ँ ् सृष्टजित्सोमपा बाहुशर्ध्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता॥3॥
वह संयमी, युद्धार्थ उपस्थितों को जीतने वाला, शत्रु समूहों से युद्ध करने वाला, सोम पान करने वाला, बाहुबल से युक्त, कठोर धनुष वाला इन्द्र, बाण धारी एवं तूणीर धारी शत्रुओं से भिड़ जाता है और अपने फेंके गये बाणों से उन्हें परास्त करता है।
संयमी :: कड़ा, चुप्पा, अल्पभाषी, उपवास करनेवाला, शांत, गम्भीर, सादा, परहेज़गार, उद्वेग रहित; One who practice self restraint, self control. Spartan, abstinent, sober.
He is self controlled-restrained, wins those who have come to fight, fights with groups of enemies, drinks Somras, possessed with muscle power, wears a hard-strong bow & arrows, strike the enemies and defeat them by his arrows.
बृहस्यते परिदीया रथेन रक्षोहामित्राँ अपबाधमानः। 
प्रभञ्जन्सेनाः प्रमणो युधा जयन्न स्माकमेध्यविता रथानाम्॥4॥ 
हे व्याकरण कर्ता! तुम रथ से संचरण करने वाले, राक्षस-विनाशक, शत्रु पीड़ा कारक, उनकी सेनाओं के विध्वंस कर्ता एवं युद्ध द्वारा हिंसाकारियों के विजेता हो। हमारे रथों के रक्षक बनो।
Hey Indr (grammarian)! You control the war in a charoite, kills the demons-giants, causes pain to the enemy, destroys their armies and is winner of the violent traitors in the war. Please protect our chariots.
बनविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः सहस्वान् वाजी सहमान उग्रः।
अभिवीरो अभित्त्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा तिष्ठ गोवित्॥5॥ 
हे दूसरों के बल को जानने वाले, पुरातन शासक, शूर, साहसी, अन्रवान्, उग्र, वीरों से युक्त, परिचरों से युक्त, सहज ओजस्वी, स्तुति के ज्ञाता एवं शत्रुओं के तिरस्कर्ता इन्द्र! तुम अपने जयशील रथ पर आरूढ हो जाओ।
तिरस्कार :: घृणा, अवहेलना, घृष्टता, निन्दा, परिवाद, धिक्कार, भला-बुरा, घिन, हँसी, नफ़रत, मज़ाक; disdain, reproach, scorn.
Hey Indr! You assess the power-strength of the enemy, ancient ruler, brave possessing valour, possess food grain, fiery (violent, furious), possess aura, aware of prayers (of the Almighty), subjects the enemy to humiliation-reproach. Please ride your winning charoite.
गोत्रभिदं गोविदं वजबाहु जयन्तमज्म प्रमुणन्तमोजसा। 
इम ँ ् सजाता अनुवीरयध्वमिन्द्र ँ ् सखायो अनुस ँ ् रभव्यम्॥6॥
है तुल्य जन्मा इन्द्र सखा देवो! इस असुर संहारक, वेदज्ञ, वज्रबाहु, रणजेता, बलपूर्वक शत्रु-संहर्ता इन्द्र के अनुरूप ही तुम लोग भी शौर्य दिखाओ और इसकी ओर से तुम भी आक्रमण करो।
Hey demigods with the equivalent origin-ancestry! You should join Indr, who destroys the demons-giants, enlightened in Veds, wears thunder volt-Vajr, wins the war, kills the enemies with force-might and show bravery just like him and raid the enemies.
अभिगोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्र।  
दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माक ँ ् सेना अवतु प्र युत्सु॥7॥ 
शत्रुओं को निर्दयतापूर्वक, विविध क्रोधयुक्त हो और सहसा मर्दित करनेवाला और अडिग होकर उनके आक्रमणों को झेलने वाला वीर इन्द्र हमारी सेना की सर्वथा रक्षा करे।
Brave Indr, who faces-tolerates the enemies without fear, unmoved, possess vivid angers (means to strike), grants honours at once should protect our armies completely-thoroughly.
इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः।
देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम्॥8॥ 
शत्रुओं का मानमर्दन करनेवाली, विजयोन्मुखी, इन देव सेनाओं का नेता वेदज्ञ इन्द्र है। विष्णु इसके दाहिने ओर से आयें, सोम सामने से आयें तथा गण देवता आगे-आगे चलें।
Indr is the leader of the winning mighty demigods-deities armies which destroys the pride of the enemies. Let Bhawan Shri Hari Vishnu by his right side, Som-Chandr Dev in front the Gan Devta moves ahead-forward.
इन्द्रस्य वृष्णोवरुणस्य राज्ञआदित्यानां मरुता ँ ् शर्धउग्रम्।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्॥9॥
वर्षण शील इन्द्र की, राजा वरुण की, महामनस्वी आदित्यों और मरुतों की तथा भुवनों को दबाने वाले  विजयी देवताओं की सेना का उग्र घोष हुआ।
The winning-striking armies of the demigods-deities, which targets-presses the abodes of the demons-enemies, ready to shower Indr Dev, king Varun Dev, enlightened Adity Gan and the Marud Gan  made winning sound.
उद्धर्षय मधवन्नायुधान्युत्सत्वनां मामकानां मना ँ ्सि। 
उदवृत्रहन्वाजिनां वाजिनान्युद्रधानां जयतां यन्तु घोषाः॥10॥
हे इन्द्र! आयुधों को उठाकर चमका दो। हमारे जीवों के मन प्रसन्न कर दो। हे इन्द्र! घोड़ों की गति तीव्र कर दो और जयशील रथों के घोष तुमुल (Boisterous) हों।
Hey Indr! Let the weapons be polished making our hearts fill with pleasure & let the horses run fast making boisterous sound of the chariots.
अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु। 
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु॥11॥
हमारी ध्वजाओं के शत्रु ध्वजाओं से जा मिलने पर इन्द्र हमारी रक्षा करें। हमारे बाण विजयी हों। हमारे वीर शत्रु वीरों से उत्कृष्ट हों तथा युद्ध में देवता हमारी रक्षा करें।
Let Dev Raj Indr protect us if our flags joins the flags of the enemy i.e., we are defeated. Our arrows should be victorious. Our soldiers should be better than those of the enemy. Let demigods-deities protect us in war.
अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि। 
अभि प्रेहिनिर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम्॥12॥
हे व्याधि देवि! इन शत्रुओं के चित्तों को मोहित करती हुई पृथक् हो जा। चारों ओर से अन्यान्य शत्रुओं को भी समेटती हुई पृथक् हो जा। उनके हृदयों को शोकाकुल कर दो और वे हमारे शत्रु तामस अहंकार से ग्रस्त हो जायँ।
Hey Vyadhi Devi-deity causing trouble! Please cast your spell over the enemy move away. Surround the enemy from all sides and move away. Let their hearts be filled with pain-sorrow. Let our enemy be over powered by Tamas (making them lazy-immovable) proud-arrogance.
अवसृष्टा परापत शरव्ये ब्रह्मस ँ ्शिते।गच्छामित्रान् प्रपद्यस्व मामीषां कंचनोच्छिषः॥13॥
ब्रह्म मन्त्र से अभिमन्त्रित हे हमारे बाण-ब्रह्मास्त्रो! हमारे द्वारा छोड़े जाने पर तुम शत्रुओं पर जा पड़ो। उनके पास जाओ और उनके शरीरों में प्रविष्ट हो जाओ तथा  उनमें से किसी को भी न छोड़ो।
Hey our arrows-Brahmastr! You should fall over the enemy. Move to them and penetrate their bodies. Don’t spare even a single enemy.
प्रेता यजता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु। 
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथाऽसथ॥14॥ 
हे हमारे नरो! जाओ और विजय करो। इन्द्र तुम्हें विजय-सुख दें। तुम्हारी भुजाएँ उग्र हों, जिससे तुम अघर्षित होकर टिके रहो।
घर्षित :: रगड़ा हुआ, घिसा, पिसा हुआ, अपहृत, अपहृता, घर्षित, घर्षिताअच्छी तरह धुला हुआ, माँजा हुआ; abject, victim of abduction.
Hey warriors-soldiers! Move and win-over power the enemy. Let Dev Raj Indr provide you with the pleasure-happiness of victory. Your hands-arms should be fiery, strong enough and quick, so that you remain unabducted.
असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना।
तां गृहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्यो अन्यं न जानन्॥15॥ 
हे मरुद्गण! यह जो शत्रु सेना बल में हम से स्पर्धा करती हुई हमारी ओर चली आ रही है, उसे कर्म हीनता के अन्धकार से आच्छादित कर दो, ताकि वे आपस में ही एक-दूसरे को न जानते हुए लड़ मरें।
Hey Marud Gan! Let the enemy army, which is moving towards us, competing with us, should be shrouded with the cover of inability-imprudence so that they fight one another, without recognising themselves.
यत्र बाणा: सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव।
तत्र इन्द्रोबृहस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्मयच्छतु॥16॥ 
शिखा हीन कुमारों की भाँति शत्रु प्रेरित बाण जहाँ-जहाँ पड़ें, वहाँ-वहाँ इन्द्र, बृहस्पति और अदिति हमारा कल्याण करें। विश्व संहारक हमारा कल्याण करें।
Let the destroyer of the world (Bhagwan Mahesh-Shiv) do our welfare. Where ever the arrows shot by the enemy, like the youth without hair coil over the head, fall Dev Raj Indr, Dev Guru Brahaspati and Mata Aditi look to our welfare i.e., protect us.

पितृ सूक्त ::

उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप  और जगती :- 11   
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi (Havy-Kavy).
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः। 
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life  (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us. 
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः। 
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with their own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.   
आहं पितृन् त्सुवित्राँ   अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने  के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu’s foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare. 
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी  करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers  and recommend to demigods-deities,  measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us. 
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg. 
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं  दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it. 
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8] 
Having consumed Somras, our Pitrs from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.  
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:। 
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार  के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास,  धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:। 
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों  के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm. 
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥ 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.   
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी। 
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि  आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.    
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।  
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13] 
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.

उषस् सूक्त :: ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त (48),  ऋषि :- प्रस्कण्व काण्व,  देवता :- उषा,  छन्द :- बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती), निवास स्थान :- द्युस्थानीय
उषा शब्द वस् दीप्तौ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसकाअर्थ है, प्रकाशमान होना। इस सौन्दर्य की देवी के उदित् होते ही आकाश का कोना कोना जगमगाने लगता है, तथा विश्व हर्ष के अतिरेक से भर जाता है। यह प्रत्येक प्राणी को अपने कार्य में प्रवृत कर देती है। उषा का रथ चमकदार है और उसे लाल रंग के घोड़े खींचते हैं। उषा को रात्रि की बहन भी कहा गया है। आकाश से उत्पन्न होने के कारण उषा को स्वर्ग की पुत्री भी कहा गया है। उषा सूर्य की प्रेमिका है, इसके अतिरिक्त उषा का सम्बन्ध अश्विनी कुमारो से भी है। उषा अपने भक्तों को धन, यश, पुत्र आदि प्रदान करती हैं। ऋग्वेद में उषा को रेवती, सुभगाः, प्रचेताः, विश्ववारा, पुराणवती मधुवती,ऋतावरी, सुम्नावरी, अरुषीः, अमर्त्या आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है।

सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः। 
सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती॥1॥

हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों अर्थात हमे आपका अनुदान-अनुग्रह होता रहे। 

अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे। 
उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम्॥2॥

अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें।

उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम्। 
ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः॥3॥

जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं। 

उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः। 
अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम्॥4॥

हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं। 

आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती। 
जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः॥5॥

उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है। 

वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती।
वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति॥6॥

देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते।

एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि। 
शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान्॥7॥

हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं। 

विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी।
अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः॥8॥

सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं।

उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः।
आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु॥9॥

हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें। 

विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि।
सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम्॥10॥

हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें। 

उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने।
तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः॥11॥

हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें। 

विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम्।
सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम्॥12॥

हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें। 

यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत। 
सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम्॥13॥

जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें। 

ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि।
सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा॥14॥

हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें। 

उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः। 
प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः॥15॥

हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें। 

सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा। 
सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति॥16॥

हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें। 

वरुण सूक्त :: ऋषि :- शुनः शेप आजीगर्ति एवं वशिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25। 
वरुण देव द्युलोक और पृथ्वी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक के रूप में वर्णन है। वे प्राणियों-जीवधारियों के पाप-पुण्य तथ सत्य-असत्य का लेखा-जोखा रखते हैं। ऋग्वेद में वरुण देव का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र हैं। वे सुनहरा चोगा पहनते हैं और कुशा के आसन पर विराजमान हैं। उनका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उनके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण देव रात्र और दिवस के अधिष्ठाता हैं। वे संसार को नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए हैं। ऋग्वेद में वरुण के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25 :: ऋषि :- शुन: शेप आजीगर्ति इत्यादयः, देवता :- वरुण, छन्द :- गायत्री।
यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान में प्रमाद करते है, वैसे ही हमसे भी आपके नियमों में कभी-कभी प्रमाद हो जाता है; कृपया इसे क्षमा करें।[ऋग्वेद 1.25.1]
प्रमाद :: लापरवाही, असावधानी, खिलने वाला पौधा, भारी भूल, भयंकर त्रुटि,  negligence, bloomer, incautiousness, carelessness.
अनुष्ठान :: संस्कार, धार्मिक क्रिया, पद्धति, शास्रविधि, धार्मिक उत्सव, आचार, आतिथ्य सत्कार, समारोह, रसम; ceremonies, rituals, rites.
 हे वरुण देव! जैसे तुम्हारे व्रतानुष्ठान में व्यक्ति प्रमाद करते हैं, वैसे ही हम भी तुम्हारे सिद्धान्त आदि को तोड़ डालते हैं। 
Sometimes we become careless-negligent in following the rules & regulations-procedures of prayers-Vrat, rites & rituals. Kindly pardon-forgive us.
मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥2॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमें प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था में भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें।[ऋग्वेद 1.25.2]
हे वरुण! अपमान करने वालों को सजा उसकी हिंसा है। हमको यह सजा मत दो, हम पर क्रोध न करो।
Hey Varun Dev! Please do not subject us to murder with weapons for ignoring-insulting you. Even if angry; please have mercy over us.
वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके हुए घोड़ों की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियों का गान करते हैं।[ऋग्वेद 1.25.3]
हे वरुण! प्रार्थना द्वारा हम आपकी कृपा चाहते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे अश्व का स्वामी उसके घावों पर पट्टियाँ बाँधता है।
Hey Varun Dev! We wish to assuage your feelings (make you happy) just like the driver of the charoite who takes care-serve his tired horses.
परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलों की ओर दौड़ते हुये गमन करते हैं, उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर-दूर तक दौड़ती है।[ऋग्वेद 1.25.4]
घोंसलों की ओर दौड़ने वाली चिड़ियों के समान हमारी क्रोध रहित बुद्धियाँ धन की प्राप्ति के लिए दौड़ती है।
Hey Varun Dev! Our fickle-agile mind looks to various sources of income-earnings far & wide just like the birds which fly to their nest.
कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुण देव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल में) कब बुलायेंगे अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?[ऋग्वेद 1.25.5]
अखण्ड समृद्धि वाले दूरदर्शी वरुण की कृपा प्राप्ति हत उन्हें अपने यज्ञ में ले आवेंगे।
When will we have the opportunity of inviting Varun Dev-who is the master of might & amenities and capable of visualising every thing, to the Yagy site
तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥
व्रत धारण करना  वाले (हविष्यमान) दाता यजमान के मंगल के निमित्त, ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते हैं, वे कभी उसका त्याग नहीं करते। वे हमें बन्धन से मुक्त करें।[ऋग्वेद 1.25.6]
हवि की कामना वाले सखा-वरुण, निष्ठावान यजमान की साधारण हवि को भी नहीं त्यागते।
Mitr & Varun Dev desire to have the offerings of the Yagy for the benefit-welfare of he host conducting Yagy associated with fast. Let them make us free from the cycles of death & rebirth-grant Salvation.
वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥
हे वरुण देव! आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के मार्ग को और समुद्र में संचार करने वाली नौकाओं के मार्ग को भी आप जानते हैं।[ऋग्वेद 1.25.7]
हे वरुण देव! आप उड़ने वाले पक्षियों के क्षितिज-मार्ग और समुद्र की नौका-मार्ग के पूर्ण ज्ञाता है।
Hey Varun Dev! You are aware of the route followed by the birds flying in the sky and boats navigating in the ocean.
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनों को जानते हैं और तेरहवें मास (मल मास, अधिक मास, पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है।[ऋग्वेद 1.25.8]
वे घृत-नियम वरुण, प्रजाओं के उपयोगी बारह महीनों को तथा तेरहवें अधिक मास को भी जानते हैं।
Varun Dev who frame the rules and implement them, knows the twelve months in a year including the Purushottom Mass (thirteenth month-extra month) meant for the welfare of humans.
वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत, दर्शनीय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते हैं। वे उपर द्युलोक में रहने वाले देवों को भी जानते हैं।[ऋग्वेद 1.25.9]
वे मूर्धा रूप से स्थित, विस्तृत, उन्नत, उत्तम वायु के मार्ग को भली-भाँति जानते हैं।
Varun Dev knows well the broad, good looking, scenic, possessing good qualities path of air; in addition to the demigods-deities residing in upper abodes-heavens.
नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥
प्रकृति के नियमों का विधिवत पालन कराने वाले, श्रेष्ठ कर्मों में सदैव निरत रहने वाले वरुण देव प्रजाओं में साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते हैं।[ऋग्वेद 1.25.10]
सिद्धान्त में स्थिर, सुन्दर प्रज्ञावान वरुण प्रजाजनों में साम्राज्य विद्यमान करने के लिए विराजते हैं।
Varun Dev who is always inclined to virtuous, righteous, pious deeds, is established to ensure the following-implementations of the rules of nature.
अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥
सब अद्‍भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो कर्म संपादित हो चुके हैं और जो किये जाने वाले हैं, उन सबको भली-भाँति देखते हैं।[ऋग्वेद 1.25.11]
जो घटनाएँ हुई या होने वाली हैं, उन सभी को वे मेधावी वरुण इस स्थान से देखते हैं।
Varun Dev is aware of the methodology of the amazing deeds & watches carefully the deeds accomplished and those deeds which remains to be completed.
स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुण देव हमें सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढ़ायें।[ऋग्वेद 1.25.12]
वे महान मति वाले वरुण हमको सदैव सुन्दर मार्ग प्रदान करें और हमको आयुष्मान करें।
Let Varun Dev, son of Aditi (Dev Mata), let us inspire to the virtuous, pious, righteous path (of Bhakti) and enhance our longevity-age.
बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हृष्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते हैं। शुभ्र प्रकाश किरणें उनके चारों ओर विस्तीर्ण होती हैं।[ऋग्वेद 1.25.13]
स्वर्ण कवच से उन्होंने अपना मर्म भाग ढक लिया है।
Varun Dev has covered his handsome body-figure with golden shield. Bright rays of light spread around him.
न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन (भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगों के प्रति द्वेष रखने वाले, जिनसे द्वेष नहीं कर पाते, ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नहीं कर पाते।[ऋग्वेद 1.25.14]
उनके चारों ओर समाचार वाहक उपस्थित हैं। जिन्हें शत्रु धोखा नहीं दे सकते, विद्रोह करने वाले जिनसे द्रोह करने में सफल नहीं हो सकते, उन वरुण से कोई शत्रुता नहीं कर सकता।
The violent enemy are unable to harm (kill) him due to fear, those who are envious with others cannot be envious with him. The sinners can not even touch-reach him.
उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यों के लिये विपुल अन्न भण्डार उत्पन्न किया है; उन्होंने ही हमारे उदर में पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है।[ऋग्वेद 1.25.15]
जिस वरुण ने मनुष्य के लिए अन्न की भरपूर स्थापना की है, वह हमारे पेट में अन्न ग्रहण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है।
Varun Dev who has generated a big deposit of food grain, has given the power to digest the food in our stomach.
परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की दृष्टि, कामना करने वाली हमारी बुद्धि तक, वैसे ही उन तक पहुँचती है, जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती हैं।[ऋग्वेद 1.25.16]
दूरदर्शी वरुण की इच्छा करती हुई मनोवृत्तियाँ निवृत्त होकर वैसे ही हो जाती हैं, जैसे चरने की जगह की ओर गौएँ जाती हैं।
The sight of all visualising Varun Dev reaches our minds, just like the cows which moves to the beast cowshed.
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारा लाकर समर्पित की गई हवियों का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनों वार्ता करेंगे।[ऋग्वेद 1.25.17]
मेरे द्वारा सम्पादित मधुर हवि को अग्नि के समान प्रीतिपूर्वक भक्षण करो। फिर हम दोनों मिलकर वार्तालाप करेंगे।
Please eat (consume, accept) the offerings made by us, like the host-Agni Dev and thereafter we will talk together.
दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥
दर्शनीय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होंने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं।[ऋग्वेद 1.25.18]
सबके देखने योग्य वरुण को, अनेक रथ सहित पृथ्वी पर मैंने देखा है। उन्होंने मेरी प्रार्थनाएँ स्वीकार कर ग्रहण कर ली हैं।
We have seen beautiful & handsome (admirable) Varun Dev over the earth and he accepted our prayers.
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमें सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते हैं।[ऋग्वेद 1.25.19]
हे वरुणदेव! मेरे आह्वान को सुनो। मुझ पर आज कृपा दृष्टि रखो।
Hey Varun Dev! Please notice our prayers and make us happy. We pray to you for our protection.
त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥
हे मेधावी वरुणदेव! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते हैं, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर “हम रक्षा करेंगे” ऐसा प्रत्युत्तर दे।[ऋग्वेद 1.25.20]
मुझ पर कृपा दृष्टि करने की कामना वाले तुम्हें मैंने बुलाया है। हे मेधावी वरुण देव! तुम क्षितिज और धरा के स्वामी हो। तुम हमारे आह्वान का उत्तर दो।
Hey brilliant Varun Dev! You rule the upper abodes, earth and the whole universe. Kindly, accept our invitation and assure us that you will protect us. 
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम (ऊपर के) पाश को खोल दें, हमारे मध्यम पाश काट दें और हमारे नीचे के पाश को हटाकर, हमें उत्तम जीवन प्रदान करें।[ऋग्वेद 1.25.21]
हे वरुण देव। ऊपर के बन्धन को खींचों, मध्य के बन्धन को काटो और नीचे के पाश को भी खींचकर हमको जीवन प्रदान करो।
Hey Varun Dev! Cut the upper, middle & the lower knots and grant us excellent life-longevity.
वरुण सूक्त (2) ऋषि :- शुनःशेप एवं वशिष्ठ, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, सूक्त सँख्या 12.
वरुण देव द्युलोक और पृथ्वी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक का है। वह जनता के पाप पुण्य तथ सत्य असत्य का लेखा-जोखा रखते हैं। ऋग्वेद में वरुण देव का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र हैं। वह सुनहरा चोगा पहनते हैं और कुशा के आसन पर बैठते हैं। उसका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उसके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण रात्री  और दिन  के अधिष्ठाता हैं। वह संसार के नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए हैं। ऋग्वेद में वरुण देव के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे
हे आप-जल! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You provide nourishment. Provide us with excellent eye sight & strength to enjoy the worldly goods.
Two third of human body constitute of water. Its essential for the body. It generate happiness-satisfaction after drinking when one feel thirst.
सुख से आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शान्ति आदि की अनुभूति होती है। इसकी अनुभूति मन से जुड़ी हुई है। बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती है। आन्तरिक सुख आत्मानुभव अनुकूल परिस्थितियों-वातावरण  जुड़ा है।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥
देवर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुख का अर्थ समझते हुए कहा कि किस व्यक्ति के पास ये निम्न 6 वस्तुएँ हों वह सुखी है :- अर्थागम, निरोगी काया, प्रिय पत्नी, प्रिय वादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थ करी विद्या।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः। उशतीरिव मातरः
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याण प्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
You should be beneficial to us just like the mother who’s love overflows for the progeny.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणी मात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flowing liquid! You help  the vegetation-food grain grow to nourish the living beings. We desire your company for our maximum growth.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम्
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
Hey water with the divine property of removing illness! We invite you to grant us happiness and prosperity.
पञ्चम सूक्त :: अपांभेषज (जल चिकित्सा), मन्त्रदृष्टा :- सिन्धु द्वीप ऋषि,  देवता :- अपांनपात्, सोम और आप:, छन्द :- 1, 2, 3 गायत्री, 4 वर्धमान गायत्री।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।  महे रणाय चक्षसे॥
हे आपः! आप प्राणी मात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।[ऋग्वेद 10.9.1]
Hey water! You give comfort to organisms. Make us strong-nourish us, to enjoy comforts-pleasures while roaming all over the world, giving best sight.
One should be able to perceive the truth, welfare of others.
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः। उशतीरिव मातरः॥
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार बनायें।[ऋग्वेद 10.9.2]
Make us helpful-beneficial to others like the mother who is loving, affectionate, helpful, careful, protective in all your ventures-endeavours.
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणीमात्र को पोषण देने वाले, हे दिव्य प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।[ऋग्वेद 10.9.3]
Hey divine flow, you nourish the living beings by producing food grains! We wish to be close to you. Let us grow to our maximum capacity.
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम्॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करे। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 10.9.4]
We invite water which has divine qualities which removes-cures ailments (diseases, illness). Let he grant us comforts and growth. We worship water in the form of medicines.
षष्ठः सूक्त :: अपां भेषज (जल चिकित्सा) सूक्त, मन्त्रदृष्टा :- सिन्धु द्वीप ऋषि, कृति अतवा अतर्वा, देवता :- अपांनपात्, सोम और आप, छन्द :- 1, 2, 3 गायत्री, 4 पथ्यापंक्ति।
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः॥1॥
दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।
विशेष-दृष्टव्य है कि वर्तमान में इस मन्त्र का विनियोग ‘शनि’ की पूजा में किया जाता है।
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥2॥
‘सोम’ का हमारे लिए उपदेश है कि ‘दिव्य आपः’ हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।
आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम। ज्योक् च सूर्यं दृशे॥3॥
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखूँ अर्थात् जीवन प्राप्त करुँ। हे आपः! शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।
शं न आपो धन्वन्याः 3 शभु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आमृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः॥4॥
सूखे प्रान्त (मरुभूमि) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। ‘जलमय देश’ का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शांति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।
33वाँ सूक्त :: ‘आपः सूक्त’, मन्त्रदृष्टा-शन्ताति ऋषि, देवता-चन्द्रमा, आपः, छन्द :-त्रिष्टुप्।
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥1॥
जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सविता देव और अग्नि देव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल ‘अग्निगर्भ’ है। वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यज्जनानाम्।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥2॥
जिस जल में रहकर राजा वरुण, सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥3॥
जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता, न आपः शं स्योना भवन्तु॥4॥
हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।
षष्ठकाण्ड, 124वाँ सूक्त :: निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त, मन्त्रदृष्टा :- अथर्वा ऋषि, देवता :- दिव्य आपः, छन्द :- त्रिष्ठुप्।
दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपांस्तोको अभ्यपप्तद् रसेन।
समिन्द्रियेण पयसाहमग्ने, छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन॥1॥
विशाल द्युलोक से दिव्य-अप् (जल या तेज) युक्त रस की बूँदें हमारे शरीर पर गिरी हैं। हम इन्द्रियों सहित दुग्ध के समान सारभूत अमृत से एवं छन्दों (मन्त्रों) से सम्पन्न होने वाले यज्ञों के पुण्यफल से युक्त हों।
यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो 3 यच्च वासस आपो नुदन्तु निर्ऋतिं पराचैः॥2॥
वृक्ष के अग्रभाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है। शरीर अथवा पहने वस्त्रों पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान ‘निर्ऋतिदेव’ (पापो को) हमसे दूर करें।
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मा तारीन्निर्ऋतिर्मो अरातिः॥3॥
यह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चन्दन आदि सुवर्ण धारण तथा वर्चस् की तरह समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाला है। इस प्रकार पवित्रता का आच्छादन होने के कारण ‘पापदेवता’ और शत्रु हम से दूर रहें।
सोम सूक्त :: ऋषि :- कण्व, निवास स्थान :- पृथ्वी, सूक्त : 5, देवता :- अग्नि धृताहुत।  
हे अग्नि ! यजमान को उत्तम पद, देह कान्ति और सन्तान से युक्त करो । वह सोम और ब्रह्मणस्पति का निज जन हों। हे इन्द्र! तुम्हारी कृपा से यजमान स्वतन्त्र, सबका वशकर्ता, धनवान् और दीर्घजीवी हो।
सूक्त : 6,  देवता : ब्रह्मणस्पति।  
हे ब्रह्मणस्पते! देवों के भक्त शत्रु को भी यजमान के वशवर्ती कर दी। हे सोम ! कुविचारी शत्रु पर वज्र प्रहार करके उसे छिन्न-भिन्न करके भगा दो। हे सोम! हमारे नाश के इच्छुक सन्तापकारी शत्रु का संहार करो।
नवम मण्डल से सम्बद्ध सोम, ऋग्वेद का प्रमुख देवता है।
अथ स सोमः स्वधारयाऽस्मान् पुनीयादित्याह।
वह सोम अपनी धारा से हमें पवित्र करे।
इन्द्राय इन्द्रार्थम् पातवे पातुम्। 
असमानकर्तृकेष्वपि छन्दसि तुमर्थीया दृश्यन्ते—इति भ०।
“ये विद्वांसो मनुष्याः सर्वरोगप्रणाशकमानन्दप्रदमोषधिरसं पीत्वा शरीरात्मानौ पवित्रयन्ति ते धनाढ्या जायन्ते”
 [यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं]
सोम के दो अर्थ हैं। सोम एक औषधि  है जो स्वादिष्ट और मदिष्ट (आनन्दप्रद) है और सोम चन्द्रमा के लिये भी प्रयुक्त होता है जो जी औषधियों के राजा हैं। पृथ्वी पर समस्त जड़ी-बूटियाँ उनके प्रभाव से ही उत्पन्न होती हैं। 
स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया। 
इन्द्राय पातवे सुतः॥ [ऋक् 9.1.1, सामवेद 1]
त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) आनन्दसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। त्वम् (इन्द्राय) मम आत्मने (पातवे) पातुम्। अत्र पा धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्वादाद्युदात्तत्वम्। (सुतः) अभिषुतो भव॥1
हे (सोम) रसागार-आनन्द सागर परमेश्वर! तुम (स्वादिष्ठया) स्वादिष्ठ, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रद (धारया) आनन्दधारा से (पवस्व) हमें पवित्र करो। तुम (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान के लिए (सुतः) अभिषुत हो। 
हे सोमदेव! आप अपनी स्वादिष्ट और आनन्द प्रदान करने वाली धारा के साथ इंद्रदेव के लिए कलश में प्रवाहित हों. क्योंकि उन्हीं के पीने के लिये निका ले गए हैं। 
सोमं मन्यते पपिवान्यत्सम्पिषन्त्योषधिम्। 
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥[ऋक् 10.85.3]
निरूक्त में ही ओषधि का अर्थ उष्मा धोने वाला यानि क्लेश धोने वाला है।
स्वान्तःकरणे स्रवन्तीं पावयित्रीमानन्दरसतरङ्गिणीमनुभवन्नुपासको ब्रूते यत् परमात्मरूपात् सोमादभिषूयमाणो ब्रह्मानन्दरस इत्थमेव ममात्मनः पानाय निरन्तरं धारारूपेण प्रस्रवेदिति॥2॥
अपने अन्तःकरण में बहती हुई पवित्रता सम्पादिनी आनन्द-रस की सरिता को अनुभव करता हुआ उपासक कह रहा है कि परमात्मा-रूप सोम से अभिषुत होता हुआ ब्रह्मानन्द-रस इसी प्रकार मेरे आत्मा के पानार्थ निरन्तर धारा-रूप में प्रवाहित होता रहे।  
सोमलता, सौम्यता के अर्थों में बहुधा प्रयुक्त सोम शब्द के वर्णन में इसका निचोड़ा-पीसा जाना, इसका जन्मना (या निकलना, सवन) और इंद्र द्वारा पीया जाना प्रमुख है। 
अलग-अलग स्थानों पर इंद्र का अर्थ आत्मा, राजा, ईश्वर, बिजली आदि है। सोम का अर्थ श्रमजनित आनंद, भगवान् श्री कृष्ण भी लिया गया है। सामवेद के लगभग एक चौथाई मंत्र पवमान सोम-पवित्र करने वाला सोम, के विषय में है।
Please refer to :: SOMRAS-THE EXTRACT OF SOMVALLI सोमवल्ली-लता और सोमवृक्ष
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TANTROKT RATRI SUKT तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त :: Ratri Sukt is one of the hymns to dedicated to Maa Durga. Ratri Sukt is used to invoke that energy and to enhance the brain powers.
Ratri Sukt is also used by people having sleep disorder. Recitation of Ratri Sukt bring one’s mind in tune to sleep quicker. Ratri Sukt also tune up the energy level in the body. Ratri Sukt is to be recited 2-3 times before sleeping.
It defines the omnipresence and omnipotence of Maa Durga, She is the energy pervading all forms of life. She is the power in Mantr. She is the energy of getting success in all endeavours. She provides everything to her Sadhak. She can remove obstacles, enemies and every negative outcome. The energy of Maa Durga is the cause of love, harmony, happiness and prosperity.
विश्वेश्वरी जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णुरतुलां तेजसः प्रभुः॥1॥
जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरुप भगवान् श्री हरी विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की स्तुति ब्रह्मा जी करने लगे।
ब्रह्मोवाच :-
त्वं स्वाहा त्वं स्वधात्वं हि वषट्कारस्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥2॥
हे देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्ही स्वधा और तुम्ही वषटकार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं।
अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा॥3॥
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरुपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रुप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं ही हो।  हे देवि! तुम्ही संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्तेच सर्वदा॥4॥
हे देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
विसृष्टौ सृष्टिरूपात्वम् स्थितिरूपाच पालने।
तथा संहतिरूपांते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालनकाल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
महाविद्या महामाया महामेधामहास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥
तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा॥7॥
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ऱ्हीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शांतिः क्षांतिरेवच॥8॥
तुम्हीं श्री, तुम्ही ईश्वरी, तुम्ही ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरुपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
खङ्गिनी शृलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शंखिनी चापिनी बाणभुशुंडीपरिधायुधा॥9॥
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररुपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुंदरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥10॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्ही हो।
यच्च किंचित क्वचिद्वस्तु सदसद्धाखिलात्मिके।
तत्त्व सर्वस्य या शक्तिः सात्वं किं स्तूयसे सदा॥11॥
सर्वस्वरुपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो. ऎसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
यया त्वया जगस्रष्टा जगत्पात्यतियो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥12॥
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान्-ईश्वर को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है!?
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एवच।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत्॥13॥
मुझको, भगवान् शिव  को तथा भगवान्  श्री हरी विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥
हे देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन को मोह में डाल दो।
प्रबोधं न जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥
जगदीश्वर भगवान् श्री हरी  विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
इति रात्रिसूक्तम्।
रात्रि सूक्त :: ऋग्वेद 10.10.127. यह ऋग्वेद की 8 ऋचाएं हैं, जिनमें रात्रि अर्थात रात की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी का स्तवन (आराधना) किया गया है।
रात्रि देवी जगत् के समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्मों की साक्षी हैं और तदनुरूप फल प्रदान करती हैं। ये सर्वत्र व्याप्त हैं और अपनी ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं। करुणामयी रात्रि देवी के अंक में सुषुप्तावस्था में समस्त जीव निकाय सुखपूर्वक सोया रहता है।
विनियोग :: रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोग:।
रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः। विश्वा अधि श्रियोऽधित॥[ऋग्वेद 10.10.127.1] 
महत्तत्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रि रूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं।[देवीपुराण 1]
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वतः।  ज्योतिषा बाधते तमः॥[ऋग्वेद 10.10.127.2]
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को नीचे फैलनेवाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं।[देवीपुराण 2]
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती।  अपेदु हासते तमः॥[ऋग्वेद 10.10.127.3]
परा चिच्छक्तिरूपा रात्रि देवी आकर अपनी बहिन ब्रह्म विद्यामयी उषा देवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है।[देवीपुराण 3]
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वयः॥[ऋग्वेद 10.10.127.4]
वे रात्रि देवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं।[देवीपुराण 4]
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।  नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥[ऋग्वेद 10.10.127.5]
उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं।[देवीपुराण 5]
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा नः सुतरा भव॥[ऋग्वेद 10.10.127.6]
हे रात्रि मयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ, मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।[देवीपुराण 6]
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।  उष ऋणेव यातय॥[ऋग्वेद 10.10.127.7]
हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो।[देवीपुराण 1]
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः।  रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥[ऋग्वेद 10.10.127.8]
हे रात्रि देवी! तुम दूध देनेवाली गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। व्योम स्वरूप परमात्मा की परम पुत्री! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।[देवीपुराण 8]
SHRI SUKT  श्री सूक्त :: श्री सूक्त ‘पञ्च सूक्तों’ में से एक है, (पंच सूक्त :- पुरुष सूक्तम, विष्णु सूक्तम, श्री सूक्तम, भू सूक्तम, नील सूक्तम)। देवी महालक्ष्मी को समर्पित यह स्तोत्र ऋग्वेद से लिया गया है। देवी की कृपा से सुख प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है।
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥1॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥2॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीर्जुषताम॥4॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्दा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥5॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥6॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥7॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मिराष्ट्रेऽस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥8॥
क्षुप्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाश्याम्यहम।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात॥9॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरी सर्वभूतानांतामिहोपह्वये श्रियम॥10॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥11॥
कर्दमेन प्रजाभूता मयि संभव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम॥12॥
आपः सृजन्तु स्नि-ग्धानि चिक्लीत वस् में गृहे।
निच देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥13॥
आर्द्रां पुष्करिणीम पुष्टिंपिँगलां पद्ममालिनीं।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥14॥
आर्द्रां यःकरिणींयष्टिं सुवर्णा हेममालिनीं।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥15॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्र्वान् विन्देयं पुरुषान्हम्॥16॥
यः शुचि प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥17॥
पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम॥18॥
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥19॥
पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयिसन्निधत्सव॥20॥
पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥21॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो वृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु मे॥22॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥23॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तम जपत्॥24॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्य शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं॥25॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधव प्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥26॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥27॥
श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥28॥
पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्सव॥29॥
श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सवितो विदध्यून्॥30॥
श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति।
सन्ततमृचा वषट्कृत्यं संधत्तं संधीयते प्रजया पशुभिः य एवं वेद॥31॥
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात॥32॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
श्री लक्ष्मीसूक्त :: काम, क्रोध, लोभ वृत्ति से मुक्ति प्राप्त कर धन, धान्य, सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए माँ भगवत लक्ष्मी की आराधना की जाती है।
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि। 
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥1॥
हे देवी लक्ष्मी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे। 
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्‌॥2॥
हे देवी लक्ष्मी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने। 
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥3॥
हे देवी लक्ष्मी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्‌। 
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥4॥
हे देवी लक्ष्मी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु। 
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥5॥
हे देवी लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
पुरुष सूक्त :: ऋषि :- नारायण, देवता :- पुरुष।
ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, यजुर्वेद (31वाँ अध्याय), अथर्ववेद (19वें काण्ड का छठा सूक्त), तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदि में प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुष-सूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। इसमें विराट पुरुष (महा विष्णु, गौलोक में भगवान् श्री कृष्ण और राधा जी पुत्र) का उनके अंगों सहित वर्णन है। 
इस सूक्त में विराट पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि निरूपण की प्रक्रिया का वर्णन है। 
विराट पुरुष के अनन्त सिर, नेत्र और चरण हैं। यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उनकी एक पाद्वि भूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं। 
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। 
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥1॥
(पुरूषः) विराट रूप काल भगवान् अर्थात् क्षर पुरूष (सहस्रशीर्षा) हजार सिरों वाला (सहस्राक्षः) हजार आँखों वाला (सहस्रपात्) हजार पैरों वाला है। (स) वह काल (भूमिम्) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्माँडो को (विश्वतः) सब ओर से (दशंगुलम्) दसों अंगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए (वृत्वा) गोलाकार घेरे में घेर कर (अत्यातिष्ठत्) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है।
जिसके हजारों हाथ, पैर, हजारों आँखे, कान आदि हैं, वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात् 20 ब्रह्माण्डों को गोलाकार परिधि में रोककर स्वयं इनसे ऊपर (अलग) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है।
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं।
The Ultimate-Param Purush has thousands of hands, legs, eyes, ears etc. He has pervaded the whole universe on one hand and on the other he is away from it, maintaining infinite distance.
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥2॥
(एव) इसी प्रकार कुछ सही तौर पर (पुरूष) ईश्वर है। वह अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म है (च) और (इदम्) यह (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ है (यत्) जो (भाव्यम्) भविष्य में होगा (सर्वम्) सब (यत्) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा (अन्नेन) अन्न से (अतिरोहति) विकसित होता है। यह अक्षर पुरूष भी (उत) सन्देह युक्त (अमृतत्वस्य) मोक्ष का (इशानः) स्वामी है अर्थात् ईश्वर  तो अक्षर पुरूष भी कुछ सही है, परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है।
परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का विवरण है जो कुछ ईश्वर  वाले लक्षणों से युक्त है, परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है, इसलिए इसे संदेह युक्त मुक्ति दाता कहा है। इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर नहीं खाता। परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही फल प्राप्त होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं, जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल (क्षर पुरुष) से अधिक है, परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चैरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है।
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं। 
He for ever, ever since. He is present, past & the future. He is the ultimate being yet he is not the Almighty. He is the governor of all demigods-deities who survive over the strength of the food provided by him.
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरूषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥ 
(अस्य) इस अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की तो (एतावान्) इतनी ही (महिमा) प्रभुता है। (च) तथा (पुरूषः) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो (अतः) इससे भी (ज्यायान्) बड़ा है (विश्वा) समस्त (भूतानि) क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी हैं (अस्य) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरूष का (पादः) एक पैर है अर्थात् एक अंश मात्रा है। (अस्य) इस परमेश्वर के (त्रि) तीन (दिवि) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक-अगम लोक (अमृतम्) अविनाशी (पाद्) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्माण्डों में उत्पन्न है। वह सत्य पुरूष पूर्ण परमात्मा का ही अंश या अंग है।
इस ऊपर के मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष तो इससे भी बड़ा है अर्थात सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्माण्ड उसी के अंश मात्रा पर ठहरे हैं। इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है, क्योंकि चौथा अनामी (अनामय) लोक अन्य रचना से पहले का है। यही तीन प्रभुओं (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष) का विवरण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 16.17 में है। 
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत इन परम पुरुष का वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तार से भी महान हैं। उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं।
वैभव :: भव्यता, तेज, प्रताप, शान, चमक, महिमा, गौरव, बड़ाई; grandeur, splendour, majesty.
Every thing pertaining to past, present & the future is the grandeur of the Ultimate being Virat Purush-Maha Vishnu). He is greater than this extension. His, just one fragment covers the whole universe made of Panch Tatv. His remaining three segments cover the entire divine creations like Vaekunth, Gau Lok, Saket, Shiv Lok etc.)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः। 
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥4॥ 
(पुरूषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊध्र्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात ऊपर के हिस्से में (उदैत) प्रकट होता है अर्थात विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात अक्षर पुरूष के भी (अभि) ऊपर (विश्वङ्) सर्वत्रा (व्यक्रामत्) व्याप्त है अर्थात उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है। वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर फैलाया है।
यही सर्व सृष्टी रचनाकार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह (अनामय) लोक शेष रचना से पूर्व का है। फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्म-दण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है,  परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सब के ऊपर ऐसे फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सब के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी क्षमता को सभी ब्रह्माण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है।
वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड़  एवं चेतनमय, उभयात्मक जगत को परिव्याप्त किये हुए हैं।
The Ultimate being is established over the perishable-virtual (imaginary) world. This universe is just one fragment of his extensions. He is pervading the inertial-static and the conscious-living world.
तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः। 
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरूष अर्थात काल भगवान् से (अधि) बड़े (पुरूषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक, काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (स) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही (जातः) उत्पन्न किया अर्थात स्थापित किया।
तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पत्ति की अर्थात उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म से ही विराट अर्थात् ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति हुईं। 
गीता अध्याय 3, मन्त्र 15 :- अक्षर पुरूष अर्थात अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ।अर्थववेद काण्ड 4, अनुवाक 1, सूक्त 3 :- पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई। उसी पूर्ण ब्रह्म ने (भूमिम्) भूमि आदि छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात इसका भी मालिक है।
उन्हीं आदि पुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये।
The Ultimate being (Adi Purush) led to the creation of the universe. He evolved as Adhi Purush-Adhi Devta as Hirany Garbh (Golden Womb Shell, out of which Bhagwan Shri Hari Vishnu evolved, followed By Brahma Ji from his naval lotus). Thereafter, he created the other abodes like earth and species like demigods-deities, humans, insects, plants shrubs etc. etc.
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्। 
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये।
He who is Yagy Purush-Ultimate being created curd, Ghee etc. & the creatures capable of living in the air, forests and villages
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। 
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥7॥ 
उसी सर्वहुत यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए।
Its the Yagy Purush who evolved the Rig Ved, Sam Ved and the Mantr of Yajur Ved and the Chhand-stanza.
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥8॥ 
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतों वाले हैं।
Horses, cows, sheep & goats having teeth in upper & the lower jaws evolved out of him.
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। 
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥9॥
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया।
Demigods-deities, Sadhy Gan (one kind-specie of demigods) and the Rishi Gan prayed to the Yagy Purush who evolved first over the Kush grass, initially.
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। 
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥10॥ 
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे और उसके पैर क्या कहे जाते हैं?
At the time of creation of the Virat-Yagy Purush, his mouth, arms, thighs, legs were conceptualised.
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:। 
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
ब्राह्मण इसका मुख था (मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्र वर्ण प्रकट हुआ।
ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से जन्मे हैं, क्षत्रिय ब्रह्मा के भुजा से जन्मे हैं, वैश्य जँघा से, जबकि शूद्र पाँव से जन्मे हैं।ये सभी दिव्य जन्मा हैं। 
मानवी सृष्टि महर्षि कश्यप से प्रारम्भ हुई अतः “जन्मना जायते शूद्र:”[मनुस्मृति] जन्म से सब शूद्र होते हैं, अतः जो व्यक्ति बुद्धि, विवेक के कार्यों में निपुड़ होता है वो ब्राह्मण वर्ण में जा सकता है और उसकी तुलना ही ब्रह्म के मुख से की जा सकती है। इसके सामान ही जो व्यक्ति युद्ध एवं राजनीति में निपुड़ होता है वो क्षत्रिय हो सकता है, व्यापार में निपुण (बढ़ई, लोहार, सोनार आदि) व्यक्ति वैश्य तथा अन्य सभी कार्य करने वाला व्यक्ति शूद्र हो सकता है।
The Brahmns appeared from the mouth, Kshatriy from the arms, Vaeshy from the thighs and the Shudr from the feet of Brahma Ji, as divine species.
The humans were created by Maharshi Kashyap through sexual intercourse. They too were titles Brahmns, Kshatriy, Vaeshy and Shudr on the basis of the Karm-practices adopted by them. 
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते॥12॥ 
इस परम पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए, कानों से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई।
Som Dev (Chandr Dev, Moon) emerged from the innerself (mind & heart) of the Param-Yagy Purush, eyes produced Sun, ears emitted air & Pran-life sustaining force and Agni-fire came out of the mouth.
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳬ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । 
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥13॥ 
उन्हीं परम पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष लोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए।
The space was created from his naval, mind produced the heavens, legs produced the earth, ears led to the formations of the 10 directions. In this manner all abodes are assumed to present in the Virat Purush-Maha Vishnu.
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। 
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥14॥ 
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी।
The extension of the Yagy had the Purush as the offering, spring season was its Ghee-clarified butter, wood & summers and the winters became offerings in the holy fire.
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिाः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥15॥
(सप्त) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्म दण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन्) विद्यमान हैं (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।
सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्माण्ड ब्रह्म के हैं, जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है। जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडि़त भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात बन्धन तोड़ने वाला बन्दी छोड़ है।
यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 :- कविरंघारिसि (कविर्) कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रु (असि) है अर्थात् पाप विनाशक है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ परमेश्वर (असि) है।
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्प से) पुरुष रूप पशु को बन्धन मुक्त किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं।
When the demigods-deities released the animal in the form of Human, seven seas were surrounding it. 21 types of stanza-prayers (like Gayatri, Ati Jagti & Krati) became its Samidha-pious wood for Agni Hotr.
यज्ञेन यज्ञमSयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। 
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥ 
जो (देवाः) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्रा) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सृष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।
जो निर्विकार (जिन्होंने माँस, शराब, तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित हैं, वे) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं, वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात् सत्यलोक में चले जाते हैं, जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं।
उपनिषद् इस मन्त्र में मोक्ष-निरूपण का उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपण के लिये श्रुति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये कि सम्पूर्ण कर्म, जो भगवद् अर्पण बुद्धि से भगवान् के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्म रूप यज्ञ के द्वारा सात्त्विक वृत्तियों ने उन यज्ञस्वरूप भगवान् का युज़न-पूजन किया। इसी भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये यज्ञ रूप कर्मों के द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। धर्माचरण की उत्पत्ति भगवद् अर्पण बुद्धि से किये गये कर्मों से हुई। इस प्रकार भगवद् अर्पण बुद्धि से अपने समस्त कर्मो के द्वारा जो भगवान् के यजन रूप कर्म का आचरण करते हैं, वे उस भगवान् के दिव्य धाम को जाते हैं, जहाँ उनके साध्य-आराध्य आदि देव भगवान् विराजमान हैं।
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूप से) यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य देवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मक रूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं।)[शु.यजु. 31.1-16; ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद्] 
The demigods-deities prayed to the Yagy Purush in this manner. As an outcome of this Dharm appeared first. By adopting-following this Dharm-religious practices, the demigods-deities become glorious and enjoy the heavens where Sadhy Gan reside.
Following two Shloks looks like later additions.
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे। 
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते॥17॥ 
तमस् (अविद्यारूप अन्धकार) से परे आदित्य के समान प्रकाश स्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ। सबकी बुद्धि में रमण करने वाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता है।
I know him, the Ultimate being, who is beyond darkness, in the form of Adity-Sun, aura, who resides in the minds of all, who created all beings-forms of life and the inertial-static world and names them and moves all around bearing these names-titles.
ये मन्त्र ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में नहीं मिलते, परन्तु पुरुष सूक्त के पृथक प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्, महावाक्योपनिषद् तथा चित्युपनिषद् में भी आये हैं। यह मन्त्र तैत्तिरीय आरण्यक में भी है।
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः। 
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय॥18॥ 
पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम) की प्राप्ति का नहीं है।
Whom Brahma Ji worshipped in ancient period, Indr found him pervading in all directions and the one who who identifies him like this become capable of attaining Salvation-Moksh. There is no other means to seek liberation-emancipation.
पितृ सूक्त :: पितृ दोष के कारण सन्तान हीनता, गरीबी प्राप्त होती है। इसके निवारण हेतु एकादशी या अमावस्या के दिन पितृ-सूक्त का श्रवण-पाठ, अध्ययन, दान-पुण्य  चाहिये। इसके  निवारण’ की श्रेष्ठ पद्धति नारायण बलि है। पितृ-पक्ष में या प्रतिदिन पितृ-सूक्त का पाठ कर ने से घर में या जन्म-कुण्ड़ली में कैसा भी पितृ-दोष क्यों न हो, वह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है और ‘पितरों’ की असीम-कृपा से साधक-याचक और उसके परिवार पर पित्रों की असीम कृपा हो जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के अनुसार अपने पितरों के निमित्त दान एवं श्राद्ध करना चाहिये। [स्कंद-पुराण]
ब्राह्मणों के पितर ॠषि वसिष्ठ के पुत्र माने गये हैं, अतः ब्राह्मणों को उनकी पूजा करनी चाहिये। क्षत्रियों के पितर अंगिरस-ॠषि के पुत्र माने गये है, अतः क्षत्रियों को उनकी पूजा करनी चाहिये। वैश्यों को पुलह-ऋषि के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। शुद्रों को हिरण्यगर्भ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। जो भी व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त दान-पुण्य या श्राद्ध करे, उस वक्त पितृ-सूक्त का पाठ करे। इससे उसकी मनोकामनायें पूर्ण होंगी।
पितृ-सूक्त :: ऋषि :- शङ्क यामायन, देवता :- 1-10, पितर :- 12-14, छन्द त्रिट्टप  और जगती :- 11   
पहली आठ ऋचाओं विभिन्न स्थानों में निवास करने वाले पितरों को हविर्भाग स्वीकार करने के लिये आमन्त्रित किया गया है। अन्तिम छ: ऋचाओं में अग्रि से प्रार्थना की गयी है कि वे सभी पितरों को साथ लेकर हवि-ग्रहण करने के लिये पधारने की कृपा करें।
The manes have been requested to accept the offerings in first eight hymns and last six hymns requests Agni Dev to come along with all Manes and accept offerings-Havi.
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर; सोम्यासः। 
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों में रहने वाले, सोम पान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।[ऋग्वेद 10.15.1]
सौम्य :: प्रिय, उदार, क्षमाशील, प्रशम्य; mild, benign, kindly, placable.
All of our deceased ancestors-Manes who have been placed in upper, middle and lower segments-abodes, should get up be ready to sip Somras. Those Pitr-Manes who knows-understand Veds, are benign-placable and got new lease of life  (rebirth) should come on being called-requested by us and protect us. 
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः। 
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवजनासु विषु
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णु लोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।[ऋग्वेद 10.15.2]
We offer homages to our Manes-Pitr who are either old or new & have moved to other places, residing with thier own folk in Yam Lok, Marty Lok earth, Vishnu Lok-abode of Bhagwan Shri Hari Vishnu.   
आहं पितृन् त्सुवित्राँ   अवित्सि नपातं विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हियदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है। कुशासन पर बैठने  के अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोम रस ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.3]
अपांनपात् :: एक देवता, यह निथुद्रुप अग्नि जो पानी में प्रकाशित होता हैं; person or entity.[ऋग्वेद 2.35]
विक्रमण :: चलना, कदम रखना, भगवान् श्री हरी विष्णु का एक डग, शूरता-वीरता, पाशुपत-अलौकिक शक्ति; movement, one foot of Bhagwan Shri Hari Vishnu, bravery.
I have made the enlightened Manes-Pitr and the raising of Bhagwan Shri Hari Vishnu’s foot, favourable. The Manes entitled of occupying Kushasan-cushion, made of Kush grass (very auspicious in nature), are welcome to make offerings and accept Somras.
बर्हिषदः पितर ऊत्यवार्गिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात॥
कुशासन पर अधिष्ठित होने वाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये। यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुख प्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।[ऋग्वेद 10.15.4]
Hey Kushasan occupying Manes! Please come towards us. The offering has been prepared for you, accept it with love. Please bring with you auspicious Prasad-blessings and make us free from troubles and grant comforts along with our welfare. 
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों का आवाहन किया है। वे यहाँ आयें और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी  करने साथ देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।[ऋग्वेद 10.15.5]
Having collected the goods liked by the Manes like Somras, we have prayed them to come and occupy the Kushasan. They should accept our prayers  and recommend to demigods-deities,  measures for our welfare.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम॥
हे पितरो! बायाँ घुटना मोड़कर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें। मानव स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड न दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठना पसन्द करते हैं)।[ऋग्वेद 10.15.6]
Hey Pitr Gan-Manes! Please bend the left leg and sit in the South of the Vedi (Hawan Kund, Pot meant for Agni Hotr-offerings in holy fire) and appreciate-participate in our Yagy-endeavours. Hey Pitr Gan! If we have committed any mistake due to human nature against you, please do not punish us. 
The Pitr mould their left leg during prayers or Yagy and the demigods-deities fold their right leg. 
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्यः प्र यच्छत त इहोर्जं   दधात॥
अरुण वर्ण की उषा देवी के अङ्क में विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्य लोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।[ऋग्वेद 10.15.7]
Occupying the lap of Usha Devi, having the aura like Sun-golden hue, Hey Pitr Gan! grant a fraction of your famous assets to us (your sons-descendants) along with capability to make proper use of it. 
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्धिः प्रतिकाममत्तु॥
(यम के सोमपान के बाद) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हवि को अपने इच्छानुसार ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.8] 
Having consumed Somras, our Pitrs from the Vashishth clan have gathered here. Willing to oblige us, Dharm-Yam Raj should accept the offerings made us as per their will.  
ये तातूषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कै:। 
आग्नेयाहि सुविदत्रेभिर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
अनेक प्रकार  के हवि द्रव्यों के ज्ञानी अर्को से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले कव्य नामक हमारे पितर देव लोक में साँस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित होवें।[ऋग्वेद 10.15.9]
घर्म GHARM:: घास,  धूप, सूर्य ताप, एक प्रकार का यज्ञ पात्र, ग्रीष्म काल, स्वेद-पसीना; sweat, grass, sun light, heat of Sun, a kind of pot for Yagy, summers.
कव्य :: वह अन्न जो पितरों को दिया जाय, वह द्रव्य जिससे पिंड, पितृ यज्ञादि किए जायें; the food meant for offerings to the Manes, a ball of dough meant for performing Pitr Yagy.
स्तोम :: स्तुति, स्तव, यज्ञ, समूह-झुंड, राशि, ढेर, यज्ञ करने वाला व्यक्ति; prayers, one performing Yagy, Yagy, group-compilation.
Hey Agni Dev! Please bring our enlightened Manes known as Kavy, who are feeling thirsty, at the Yagy site, who are leaned in various kinds of Havi-offerings and the Yagy designs who sit with the Havi known as Kavy.
ये सत्यासो हविरदो हविष्या इन्द्रेण देवै: सरथं दधाना:। 
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परै: पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्धिः॥
कभी न बिछुड़ने वाले, ठोस हवि का भक्षण करने वाले, इन्द्र और अन्य देवों  के साथ एक ही रथ में प्रयाण करने वाले, देवों की वन्दना करने वाले घर्म नामक हवि के पास बैठने वाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव! यहाँ पधारें।[ऋग्वेद 10.15.10]
Hey Agni Dev! Please come with our Manes in thousands, who never separate from us, eats solid Havi-offerings, moves-travels along with the demigods-deities and Indr Dev in the same charoite, who pray to the demigods-deities and sit with the Havi called Gharm. 
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः॥ 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बहिर्ष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासन पर समर्पित हवि द्रव्यों का भक्षण करें और (अनुग्रह स्वरूप) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।[ऋग्वेद 10.15.11]
Hey excellent guides, purified by Agni Dev! Please come here and occupy your seats. Enjoy-eat the Havi offered to you, while sitting over the Kushasan and grant wealth-riches along with sons.   
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ड व्यानि सुरभीणि कृत्वी। 
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि॥
हे ज्ञानी अग्निदेव! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों के पास ले गये, उन्हें पितरों को समर्पित किया और पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया। हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हवि  आप ग्रहण करें।[ऋग्वेद 10.15.12]
Hey enlightened Agni Dev! you took this Havi, making it sweet, offered it to our Manes and they consumed to it, as per their wish. Hey Agni Dev! Now, please you accept the Havi-offerings.    
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्य।  
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व॥
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये) हैं और जो यहाँ नहीं आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने (और जैसे) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव! आप भली-भाँति पहचानते हैं। उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को (उन सभी के लिये) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।[ऋग्वेद 10.15.13] 
Hey Agni Dev! You recognise our all those Manes who have gathered here and those who are not present here, we either know them or may not know them, but Hey Agni Dev! you know-recognise all of them. Please accept this Havi for their happiness-pleasure prepared as per their taste.
ये अग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृ भूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं। उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्रे! (पितृलोक में इस नूतन मृत जीव के) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो।[ऋग्वेद 10.15.14]
स्वराट् :: ब्रह्मा, ईश्वर, एक प्रकार का वैदिक छंद, वह वैदिक छंद जिसके सब पादों में मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों, सूर्य की सात किरणों में से एक का नाम (को कहते हैं), विष्णु का एक नाम, शुक्र नीति के अनुसार वह राजा जिसका वार्षिक राजस्व 5० लाख से 1 करोड़ कर्ष तक हो, वह राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य शासन प्रणाली प्रचलित हो, जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो, जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वराट्), स्वयं-प्रकाश रूप और (कालाग्नि) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, परमेश्वर-कालाग्नि है; Brahma Ji, Almighty, self lighting, possessing aura.
Our Pitr Gan-Manes, who have been purified by the Agni, those who themselves are like Agni-fire even without being burnt by fire, who lives in heavens with our their own will, Hey shinning Agni Dev! please make their bodies in new incarnation-rebirth as per their desire-wish, with their permission.
पितृ कवचः :: 
कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन।
तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः॥1॥ 
तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः।
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः॥2॥
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः।
यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्॥3॥
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते।
यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम्॥4॥
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने।
अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून्॥5॥
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि॥
पितृ-सूक्तम् :: 
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। 
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॐ॥
 
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SUN-BHAGWAN SURY NARAYAN भगवान् सूर्य नारायण :: SUN (1) सूर्य

SUN-BHAGWAN SURY NARAYAN
भगवान् सूर्य नारायण
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नमः 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।

All these characters given here pertaining to Bhagwan Sury, resembles with those described in Shri Mad Bhagwat Geeta pertaining to the Almighty. Bhagwan Shri Ram himself is an incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu. Geeta describes Sun as a form of the Almighty and simultaneously as his right eye. If one worships Sun as a demigod he attains the abode of Sun. If one prays to Sun as Almighty he gets Vaekunth Lok or Gau Lok. Worship of Sun as Almighty grants Salvation and as a demigod grants success, fame, name worldly amenities, comforts, luxuries, wealth along with repeated reincarnations. This prayer helped Bhagwan Shri Ram in activating his power as Almighty.

ADITY HRADYAM STROTR  आदित्य हृदयम स्त्रोत्र :: जब भगवान् राम रावण के साथ युद्ध करते-करते क्लान्त हो गए, तब तान्त्रिक अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कारक ऋषि अगस्त्य ने आकर भगवान् राम से कहा कि 3 बार जल का आचमन कर, आदित्य-हृदय स्त्रोत्र का तीन बार पाठ कर रावण का वध करें। भगवान् श्री राम ने इसी प्रकार किया, जिससे उनकी क्लान्ति मिट गई और उनमें नए उत्साह का सञ्चार हुआ। भीषण युद्ध में रावण मारा गया ।

रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य-मन्दिर में, नव-ग्रह मन्दिर में अथवा अपने घर में सूर्य देवता के समक्ष इस स्तोत्र का 3 बार पाठ करना चाहिये। न्यास, विनियोगादि संक्रान्ति के 5 मिनट पूर्व प्रारम्भ कर दें। प्रयोग के दिन बिना नमक का भोजन किया जाता है। इसका पाठ 108 करना चाहिए। जो लोग केवल तीन ही पाठ करें, वे 108 बार गायत्री-मन्त्र का जप अवश्य करें।

विनियोगः :: 

ॐ अस्य आदित्य-हृदय-स्तोत्रस्य-श्रीअगस्त्य ऋर्षिनुष्टुप्छन्दः आदित्य-हृदयभूतो भगवान श्रीब्रह्मा देवता, ॐ बीजं, रश्मि-मते शक्तिः, अभीष्ट-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः (वा) निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जय सिद्धौ च विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः :: 

अगस्त्य ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। ॐ आदित्य-हृदय-भूत-श्रीब्रह्मा देवतायै नमः हृदि। ॐ बीजाय नमः गुह्ये। ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकाय नमः नाभौ।

इस स्तोत्र के अंगन्यास और करन्यास तीन प्रकार से किये जाते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मन्त्र से अथवा `रश्मिमते नमः´ इत्यादि छः नाम मन्त्रों से। यहाँ नाम मन्त्रों से किये जाने वाले न्यास का प्रकार बतलाया गया है।

कर-न्यासः ::

ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। ॐ देवासुर-नमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि-न्यासः ::

ॐ रश्मिमते हृदयायं नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुर-नमस्कृताय शिखायै वषट्। ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।

इस प्रकार न्यास करके निम्न गायत्री मन्त्र से भगवान् सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिये :-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

तत्पश्चात् आदित्यहृदय का पाठ करना चाहिये।

पूर्व-पीठिका ::

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्। 

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥1॥ 

Tato yuddhaparisrantaṃ samare chintaya sthitam ravaṇaṃ jagrato drastva yuddhay samupasthitam.

महर्षि अगस्त ने देखा कि मानव रूप में अवतरित पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम लीला रुप में युद्ध क्षेत्र में थके-क्लान्त और दुःखी हैं और रावण जो कि युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार था, के साथ युद्ध को लेकर गहरी सोच में डूबे हैं।

When Ram was exhausted in battle field standing with extreme sorrow and deep thought to fight against Ravan who was duly prepared for the battle, Mahrishi August observed that.

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्। 

उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥2॥ 

Daevataesch samagamy drastumabhyagato ranam upagamyabravidramamagastyo bhagavan rishih.

अगस्त ऋषि देव गणों के साथ भगवान् के पास आये और बोले :-

August along with other demigods approached Bhagwan Shri Ram and said:

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्। 

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥ 3॥

Ram rām mahābāho śṛṇu guhyaṃ sanātanam yena sarvānarīn vatsa samare vijayiṣyasi

अगस्त ऋषि ने भगवान् श्री राम के हृदय के भावों को समझा और बोले कि हे राम! आपकी चिन्ता-समस्या का एक समाधान एक रहस्य पूर्ण स्तोत्र है, जिसके पाठ करने से आप युद्ध में विजय प्राप्त करेंगे।

Hey Ram! There is a solution for your worry which is a perennial secret, by reciting it you would be victorious in this war.

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्। 

जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम्॥4॥ 

Adityahṛdayaṃ puṇyaṃ sarvaśatruvināśanam jayāvahaṃ japennityam akṣayyaṃ paramaṃ śivam

भगवान् सूर्य की अर्चना-पूजा आदित्य हृदयम स्त्रोत्र के द्वारा नित्य-नियम पूर्वक करने से आपके शत्रुओं का विनाश होगा, आपको विजय प्राप्त होगी और स्थाई प्रसन्नता-ख़ुशी मिलेगी।

This is the holy hymn Adity Hradyam which destroys all enemies, brings victory and permanent happiness by enchanting it, regularly.

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्। 

चिन्ताशोकप्रशमनम् आयुर्वर्धनमुत्तमम्॥5॥

Sarvamaṅgalamāṅgalyaṃ sarvapāpapraṇasanam cintasokapraśamanam ayurvardhanamuttamam

भगवान् सूर्य को समर्पित यह उत्तमोत्तम प्रार्थना-स्त्रोत्र शत्रुओं का नाश करके ख़ुशी तथा लम्बी उम्र देता है और चिंताओं का नाश करता है।

This supreme prayer of Sun-Sury Bhagwan always gives happiness, destroys all sins, worries and increase the longevity.

रश्मिमंतं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्। 

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥6॥ 

Raśmimaṃtaṃ samudyantaṃ devāsuranamaskṛtam pūjayasva vivasvantaṃ bhāskaraṃ bhuvaneśvaram

सूर्य भगवान् जो कि इस विश्व के संचालक-शासक हैं, की आराधना इस चराचर में सभी देव और दानवों के द्वारा की जाती है।

Worship the Sun-Sury Bhagwan, the ruler of the worlds and master of the universe, who is worshipped by both Dev-Sur and Asur-Demons and who is worshiped by every one in this universe.

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः। 

एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥7॥ 

Sarvadevatmako hyesa tejasvi rasmibhavanah esa devasuraganamallokan pati gabhastibhih.

सूर्य भगवान् सभी देवों के देव हैं और सबसे तेजस्वी व स्वयं प्रकाशित हैं। वे अपने में समस्त देव और दानवों को समाहित किये हुए हैं अर्थात उनका पालन-पोषण करते हैं।

He has within him all the Dev and He is the brightest among the bright, He is self-luminous and sustains all worlds of Devas and Asur with his rays-Aura-brightness-shine.

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः। 

महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥8॥ 

Eṣa brahmā ca viṣṇuśca śivaḥ skandaḥ prajāpatiḥ mahendro dhanadaḥ kālo yamaḥ somo hyapāṃ patiḥ

वे समस्त देवों यथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव, कार्तिकेय, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, यमराज-धर्मराज, चन्द्र और वरुण अदि में विराजमान-निहित हैं।

He is pervading in all viz., Brahma (the creator), Vishnu (-the Sustainer, nurturer), Shiv (the destroyer), Skand-Kartikey (-the son of Shiv), Prajapati (progenitor of human race), the mighty Indr (King of demigods), Kuber (demigod-Yaksh-treasurer of demigods, who awards prosperity), Kaal (eternal time), Yam (demigod of death), Som (the moon demigod nourishes and controls-nurturer of all medicines-herbs), and Varun (demigod of rain).

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः। 

वायुर्वह्निः प्रजाप्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥9॥ 

Pitaro vasavaḥ sādhyā hyaśvinau maruto manuḥ vāyurvahniḥ prajāprāṇa ṛtukartā prabhākaraḥ

सूर्य में ही पितरों, 8 वसुओं (अनल, अनिल, सोम, अहस, धारा, ध्रुव, प्रत्युष और प्रभास), सँध्या, अश्वनी कुमारों, मारुतों, पवन-वायु, मनु, अग्नि, प्राण, छः ऋतुओं का वास है और उन्हीं से प्रकाश उत्पन्न होता है।

He constitutes the ancestors, eight Vasus (viz., Anal, Anil, Som, Ahas, Dhara, Dhruv, Pratyush and Prabhas. He is Sandhya and Ashwani Kumars (physicians of demigods in the heaven). He constitutes the Maruts and Pawan-wind-Vayu demigods responsible for breeze, Agni-the demigod of fire and Manu, Agni-the demigod of fire, Pran (the Life breath of all beings), the maker of six seasons and the giver of light.

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्। 

सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥10॥ 

adityah savita suryah khagah pusha gabhastiman suvarnsadrsho bhanurhiraṇyareta divakarah

सूर्य भगवान् अदिति के पुत्र हैं जो कि महृषि कश्यप की पत्नी हैं। सूर्य भगवान् सभी को अपनी ओर आकृषित करते हैं। वो ही सविता के रुप में सारे संसार को प्रकाशित करते हैं। वे ही सूर्य-अनन्त प्रकाश पुंज हैं। वो ही खग-पक्षी के समान आकाश में विचरण करने वाले हैं। वो पूषा-संसार का पालन-पोषण करने वाले, वर्षा उत्पन्न करने वाले हैं। वे गभस्तिमान् अर्थात प्रखर-चमकीली किरणों से सजे हैं। वे स्वर्ण के समान दिखते हैं। वे हिरण्य रेता अर्थात सुंदर, चमकीले, स्वर्ण अण्ड के समान हैं; जिससे भगवान् नारायण-विष्णु प्रकट हुए तथा वे ही सृष्टि कर्ता भगवान् ब्रह्मा हैं। वे भानु के रुप में सभी में निवास करते हैं। वे दिवाकर अर्थात सारे विश्व को प्रकाशमान रखते हैं।

He is the son of Aditi-wife of Mahrishi Kashyap, who attracts all towards himself) Savita (brightness, one who glows-brightens the whole universe), Sury (supreme light), Khag (पक्षी, bird, travels in the sky), Poosha (one who protects & feeds the world by rain), Gabhastiman (possessed of bright rays), Suwarn Sadrashy (like the gold, golden hue), coloured Hirany Reta (beautiful, wise, always shining, radiant round shaped like golden egg), he is the creator, day starts with him). Bhanu (pervaded in all) & Diwakar (one who is reason for bright day)

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्। 

तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान्॥11॥

Haridaśvaḥ sahasrārciḥ saptasaptirmarīcimān timironmathanaḥ śambhustvaṣṭā mārtāṇḍa aṃśumān

वे हरिदश्वः हैं, अर्थात उनके रथ को हरे रंग के अश्वों द्वारा खींचा जाता है जो कि विजय के प्रतीक हैं। वे सहस्रार्चिः हैं अर्थात उनकी हजार रश्मियाँ किरणें हैं जो कि अनन्त किरणों में बँट जाती हैं। सप्तसप्तिर्मरीचिमान् अर्थात उनके घोड़े हरे रंग के हैं जो कि विजय और सात उच्च-स्वर्ग लोकों के प्रतीक हैं। तिमिरोन्मथनः अर्थात अन्धकार को नष्ट करने वाले। शम्भुस्त्वष्टा अर्थात संतुष्टि प्रदायक दुःख का नाश करने वाले और प्रगति के प्रतीक हैं। मार्ताण्ड अर्थात जो कि विनाश-प्रलय के उपरान्त पुनः उत्पत्ति करने वाले हैं। व अंशुमान् जो सभी में विचरण करते हैं उपस्थित हैं।

He is Haridashw (one whose chariot is dragged by green horses, green is a symbol of victory), Sahasrarchi (one who has thousands of rays turning into infinite rays), Sapt Sapti (one who has seven horses, symbol of seven Lok-abodes), Marichiman (whose body radiates rays), Timironmatanh (dispeller of darkness), Shambhu (one who gives contentment, removes sufferings and gives a pleasant life), Twasta (one who removes sorrow and gives elation), Martand (one who comes from annihilated creation and again creates), Amshuman (vastness, pervaded in all with immeasurable amount of rays).

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः। 

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः॥12॥

Hiraṇyagarbhaḥ śhiśhirastapano bhāskaro raviḥ agnigarbho’diteḥ putraḥ shaṅkhaḥ śhiśhiranāśhanaḥ

हिरण्यगर्भः अर्थात स्वर्ण गर्भ से प्रकट ब्रह्मा जी जो की ज्ञान, खुशहाली, विवेक, बुद्धिमत्ता के प्रतीक हैं। शिशिर अर्थात जो कि वर्षा के द्वारा ठंड अर्थात श्रद्धालुओं में शांति, संतुष्टि उत्पन्न करते हैं। स्तपनो अर्थात ऊष्मा-पौरुष-कार्यक्षमता प्रदान करते हैं, भास्करो रविः। अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः

He is Hirany Garbh (-one who came out of golden coloured egg-shall, has powers of Brahmn, prosperity and who is wise, Gyani, enlightened, learned, scholar), Shishir (one who causes cold through rain, i.e., keeps the devotees calm and quite, satisfied-content)). Satpno (one who generates, bestows heat), Bhaskar (one who gives light Gyan-enlightenment), Ravi (one who is praised by everyone, illuminator (-source of light). Agni Garbh (one who has fire within himself. Aditi Putr: He is the son of Aditi and Maha Rishi Kashyap Maharishi. Shankh: He is one who become cool when he sets-merges at night. Shishir Nashnah: He is one who destroyer of the cold, melts snow and fog.

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः। 

घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥13॥ 

Vyomanāthastamobhedī ṛgyajuḥsamaparagaḥ ghanavṛṣṭirapāṃ mitro vindhyavīthīplavaṅgamaḥ

व्योमनाथस्तमोभेदी : सूर्य नारायण सारे संसार के स्वामी हैं और अंतरिक्ष में विस्तृत अंधकार को नष्ट करते हैं। ऋग्यजुः सामपारगः :ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद के पारगामी विद्वान् हैं। घनवृष्टिरपां मित्रो : उनके प्रभावस्वरूप ही वर्षा होती है और वे जल के देवता वरुण के मित्र हैं। विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः :- वे अपनी विहंगम गति से विंध्याचल पर्वत को पार करके दक्षिणायन में प्रवेश करते हैं।

Vyom Nath: He is one who is the lord of space and the ruler of sky. Tamo Bhedi: He is dispeller of darkness. Rig, Yajur, Sam, Parag: He is one who is the scholar, enlightened with the 3 Veds namely:- Rig, Yajur and Sam. Ghan Vrasti : He is one who is the reason for heavy rain. Apam Mitr: He is one who is friend of demigod of rain i.e., Varun Dev. Vindhy Vithi Palvangam: He is one who swiftly courses in the South direction Vindhy Parwat-mountains like monkeys and sports in the Brahm Nadi (in Dakshinayan-southern hemisphere).

आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः। 

कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भवः॥14॥ 

Atpi Maṇḍali Mṛatyuḥ Pingalaḥ Sarvtapanaḥ; kavirviśvo mahātejāḥ raktaḥ sarvabhavodbhavaḥ

आतपी : उनसे ही ऊष्मा ऊर्जा उत्पन्न होती है। मण्डली : वे वृताकार हैं। मृत्युः :- वे शत्रु के लिए भय उत्पन्न करते हैं। पिङ्गलः : वे पीले वर्ण वाले, स्वर्ण-सोने के रंगवाले हैं। सर्वतापनः : वे सभी को ऊर्जा-पालन पोषण प्रदान करने वाले हैं। कविर्विश्वो महातेजाः : वे महान तेज से ओतप्रोत हैं ाहर ज्ञान के भण्डार हैं। रक्तः : वे सबको प्रिय हैं। सर्वभवोद्भवः : संसार में सभी कार्य उनसे ही सम्पन्न होते हैं।

Aatpi: He is one who is the creator for heat. Mandali: He is circular in shape. Mratyu: He is death for the enemy-foes. Pingal: He is yellow colored he is yellow colored. Sarv Tapan: He is one who gives heat-energy-nourishment to all living organisms. Kavi: He is giver of brilliance, shining with great radiance and expert in knowledge. Vishw: He pervades the in whole universe. Maha Tej: He is the one who constitutes shin with great radiance. Rakt: He is one who is dear to everyone. Sarv Bhavodbhav: He is the creator of all things sustaining the universe and all actions.

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः। 

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते॥15॥

Nakṣatragrahatārāṇāmadhipo viśvabhāvanaḥ tejasāmapi tejasvī dvādaśātman namo’stute

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः :समस्त नक्षत्र मण्डल, ग्रहों, तारों के स्वामी और सम्पूर्ण विश्व तो उत्पन्न करनेवाले भगवान् सूर्य को नमस्कार है। तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते :बारह रुपों में उदय-प्रकट होने वाले आदित्य को वर्ष के 12 महीनों के रुप भी हैं को नमस्कार है।

Salutations to him who is the Lord of stars, planets and zodiac, and the origin of everything in the universe. Salutations to Adity who appears in twelve forms viz., Indr, Dhata, Bhag, Poosha, Mitr, Aryama, Archi, Vivaswan, Twasta, Savita, Varun and Vishnu (-in the shape of twelve months of the year.

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः। 

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥16॥ 

Namaḥ pūrvāya giraye paścimāyādraye namaḥ jyotirgaṇānāṃ pataye dinādhipataye namaḥ

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः : उन प्रभु को नमस्कार है जो कि पूर्व में उदित होकर पश्चिम में अस्त होते हैं। ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः : दिन की रौशनी को देने वाले और समस्त नक्षत्र मण्डल-भौतिक वस्तुओं को प्रकट करने वाले प्रभु को नमस्कार है।

Salutations to the Lord who rises from the mounts of east and sets on mounts of west, Salutations to the Lord of the stellar bodies and to the Lord of daylight.

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः। नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥17॥

Jayaya jayabhadraya haryasvāya namo namaḥ namo namaḥ sahasrāṃśo ādityāya namo namaḥ

जयाय : मनुष्यगण और देवगण उस प्रभु की स्तुति करते हैं, जो विजय दिलाते हैं। जयभद्राय : उस प्रभु को नमन करते हैं, जो शुभफल और समृद्धि प्रदान करते हैं। हर्यश्वाय : हम उन प्रभु की पूजा करते हैं, जिनका रथ हरे घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। सहस्रांशो :हम उन प्रभु को प्रणाम करते हैं जिनकी सहस्त्र (-अनन्त) रश्मियाँ हैं। आदित्याय :- अदिति के पुत्र सूर्य भगवान् को नमस्कार है जो सभी को अपनी ओर अकृषित करते हैं।

Jay: One prays the demigod who brings victory. Jay Bhadr: One prays to the God who gives auspiciousness and prosperity. Hary Shravy: One prays to the God who is carried by Green horses. Sahasransho: One prays to the God who has infinite rays. Adity: He is the son of Aditi and is one who attracts all towards Him or has power to attract all towards him.

नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः। 

नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः॥18॥ 

Nama ugraya vīrāya sāraṅgāya namo namaḥ namaḥ padmaprabodhaya martaṇḍaya namo namaḥ

उग्राय :- मैं परमात्मा के उस उग्र रुप को नमन करता हूँ जो कि पापियों के हृदय में भय उत्पन्न करता है।वीराय : सूर्य रुपी परमात्मा के स्वरुप को नमस्कार है, जो वीर-बहादुर और शत्रु नाशक है। सारङ्गाय : प्रभु के उस रुप को नमन है जो सर्प अथवा घोड़े के समान तेज चलता है। पद्मप्रबोधाय : प्रभु का स्वरुप किसके साथ कमल उदय होते हैं अथवा खिलते हैं को नमस्कार है। मार्ताण्डाय : मार्तण्ड ऋषि के पुत्र, जिनके साथ प्रलयकाल के उपरान्त सृष्टि का पुनः उद्भव होता है।

Ugr: I pray to the terrible-fierce-furious form of the Almighty, which causes fear in the mind & hearts of the wretched-sinner enemies. Veer: I pray to the brave-powerful-mighty, who controls the senses. Sarang (Radiant, Brilliance, Hue, Grace, Deepak-lamp, God, Sun, Moon, Shiv, Shri Krashn, Cupid, Sky, planets, stars and constellations): I pray to the Almighty who moves-travels swiftly-fast like a snake or the horse. Padm Prabodh: I bow in front of one whose appearance makes the lotus blossom. Martand: I pray to the son of Martand Rishi who after the annihilation of the creation, is able to create it again

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥19॥ 

Brahmeśānācyuteśāya sūryāyādityavarcase bhāsvate sarvabhakṣāya raudrāya vapuṣe namaḥ

उन भगवान् भास्कर को नमन है जो त्रिमूर्ति : भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा सभी प्राणियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत्र हैं। उन भगवान् द्वादश आदित्य को नमस्कार है जो सृष्टि के संहार के लिए रौद्र रुप धारण कर हैं। Salutation to Him who is the inspiration to Trimurti-Trinity (Brahma, Vishnu, Mahesh) and inspiration to all creatures, salutation to who is fierce like Rudr at the end of the creation.

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने। 

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥20॥

Tamoghnāya himaghnāya śatrughnāyāmitātmane kṛtaghnaghnāya devāya jyotiṣāṃ pataye namaḥ

तमोघ्नाय :- तम-अन्धकार का नाश करने वाले, हिमघ्नाय : बर्फ का नाश करने वाले हैं-सर्दी दूर करने वाले, शत्रुघ्नायामितात्मने : शत्रु को दण्डित करने वाले-नाश करने वाले, कृतघ्नघ्नाय : कृतध्न-धोखेबाज़ को नष्ट करने वाले, देवाय : सारे बृह्माण्ड को प्रकाशित करने वाले और ज्योतिषां पतये : सभी, ग्रहों, नक्षत्रों, आकाश गंगाओं के स्वामी सूर्य भगवान् को नमस्कार है।

Salutations to the dispeller of the darkness-ignorance and cold-one who is the reason for melting of snow, one who punishes ungrateful people, one who is fearful to bad people-evil. Salutations to the annihilator of the ungrateful people, one who has enormous will power and to the Lord of all the stellar bodies, one who is the first amongest all the lights of the Universe i.e., illuminating.

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे। 

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥21॥ 

Taptacāmīkarābhāya vahnaye viśvakarmaṇe namastamo’bhinighnāya rucaye lokasākṣiṇe

तप्तचामीकराभाय :- उन सूर्य भगवान् को नमस्कार है जो पिघले हुए स्वर्ण और अग्नि के रंग वाले हैं. वह्नये : जो सब कुछ भस्म कर देते हैं, विश्वकर्मणे :- देवशिल्पी, निर्माण करने वाले, समस्त कार्य कलाप के साक्षी, नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे : अन्धकार-अज्ञान का नाश करने वाले सभी गतिविधियों के साक्ष्य हैं, फिर भी इस संसार से दूर हैं।

Salutations to Him, whose color is like molten gold and the form of fire, one who burns all, dispeller of darkness, adorable and one who is the reason for all actions, the architect of the universe-the cause of all activity and creation in the world, dispeller of darkness, one who witness all & yet beyond the world.

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः। 

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥22॥ 

Nāśayatyeṣa vai bhūtaṃ tadeva sṛjati prabhuḥ pāyatyeṣa tapatyeṣa varṣatyeṣa gabhastibhiḥ

सूर्य भगवान् को नमस्कार है जो कि अपनी किरणों से सभी कुछ नष्ट और पुनरोत्पत्ति करने में सक्षम हैं तथा जिनकी कृपा से वर्षा होती है और ज्ञान प्राप्त होता है।

Salutation to the Sun God who is able to destroy all with his rays and then create them again, he is the producer of rain and also a showers wisdom as well.

ष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः। 

एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥23॥ 

Eṣa supteṣu jāgarti bhūteṣu pariniṣṭhitaḥ eṣa evāgnihotraṃ ca phalaṃ caivāgnihotriṇām

सूर्य भगवान् सदैव जाग्रत अवस्था में रहते हैं और सभी प्राणियों के दिल में निवास करते हैं, उन्हें जाग्रत रखते हैं तथा वे यज्ञ में दी गई आहुति और उसके फल स्वरुप हैं।

Sun-Sury Bhagwan is always awake and abides in the heart of all beings and awake them, he is only the sacrifice and fruit of the sacrifice performed by Yagy-sacrifices.

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च। 

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥24॥ 

Vedāśca kratavaścaiva kratūnāṃ phalameva ca yāni kṛtyāni lokeṣu sarva eṣa raviḥ prabhuḥ

सभी वेद, यज्ञ और परिणाम-फल, कर्म उनके फल स्वरुप सूर्य भगवान् सभी जगह उपस्थित रहते हैं।

Behind the all Ved, Yagy and fruits of all Yagy and results of all actions of the world is Sun God only, he is the omnipresent.

फलश्रुतिः :: 

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च। 

कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥25॥

Enamāpatsu kṛcchreṣu kāntāreṣu bhayeṣu ca kīrtayan puruṣaḥ kaścinnāvasīdati rāghava

अगस्त ऋषि ने कहा कि हे राघव जो कोई भी इस स्त्रोत का जाप-पाठ करेगा वो सूर्य भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त करके शारीरिक, मानसिक और आत्मिक-दैविक संकट से मुक्त हो जायेगा।

Oh Raghav, one who chant this prayer in any critical situation viz., physical, mental and spiritual, for sure he will over come of it and always he is blessed.

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्। 

एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥26॥ 

Pūjayasvainamekāgro devadevaṃ jagatpatim; etat triguṇitaṃ japtvā yuddheṣu vijayiṣyasi.

जो कोई भी संतुलित मन स्थिति के साथ सूर्य भगवान् के इस स्त्रोत का 3 बार जाप करेगा, वो हर संघर्ष-परिस्थिति में विजय प्राप्त करेगा।

Do worship Adity by chanting this prayer with even minded. If you chant three times for sure you will be the conquer of this battle.

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि। 

एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम्॥27॥ 

Asmin kṣaṇe mahābāho rāvaṇaṃ tvaṃ vadhiṣyasi; evamuktvā tadāgastyo jagāma ca yathāgatam.

मह्रिषी अगस्त ने भगवान् राम से कहा कि आप रावण का एक क्षण में विनाश कर देंगे और भगवान् श्री राम को सूर्य मन्त्र प्रदान करके युद्ध स्थल से वापस चले गए। परमात्मा की महती कृपा से उन्होंने अपनी तपोशक्ति का सहारा लेकर भगवान् श्री राम का उत्साह बढ़ाया।

Maharishi August says to Ram that “you would kill Ravan within a moment,” and left that battlefield, August had come to Ram to teach this holy hymn of Sun-Sury Bhagwan. With the grace of Gods he encourages Ram with his meditation power.

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा। 

धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥28॥ 

Etacchrutvā mahātejā naṣṭaśoko’bhavattadā; dhārayāmāsa suprīto rāghavaḥ prayatātmavān.

अगस्त ऋषि के पवित्र वचनों को सुनकर भगवान् श्री राम उत्साहित होकर संतुलित मन से क्षणिक क्लांत करनेवाली परिस्थिति से निकल आए। उनका दुःख और चिंता दूर हो चुकी थी। उन्होंने उत्साहित होकर मन्त्र का जाप शुरू कर दिया।

Hearing the holy words of August with even minded Ram became rejuvenated and came out of momentary fearful situation; his clouds of worry got dispelled, with enthusiastically started chanting the prayer of Sun-Sury Bhagwan.

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्। 

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥29॥ 

Adityaṃ prekṣya japtvā tu paraṃ harṣamavāptavān; trirācamya śucirbhūtvā dhanurādāya vīryavān.

भगवान् श्री राम ने शुद्ध होकर 3 बार प्रार्थना की, जल से आचमन लिया और फिर अपने पवित्र धनुष को उठा कर उस पर प्र्त्यांच चढ़ा दी।

Himself being purified concentrated on Sun-Sury Bhagwan; Ram recited the prayer thrice with achman (-sipping water) then thrilled and lifted his holy bow.

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्। 

सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥30॥

Rāvaṇaṃ prekṣya hṛṣṭātmā yuddhāya samupāgamat

sarvayatnena mahatā vadhe tasya dhṛto’bhavat

भगवान् राम नए उत्साह के साथ रावण का सामना करने को तैयार थे, जब वह उनसे युद्ध करने आया।

Ram facing Ravan with the greater spirit who was coming to fight with his all effort determined to kill Ravan.

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः। 

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥31॥

Atha raviravadannirīkṣya rāmaṃ muditamanāḥ paramaṃ prahṛṣyamāṇaḥ niśicarapatisaṃkṣayaṃ viditvā suragaṇamadhyagato vacastvareti

इसी समय-वक्त-मौके पर भगवान् सूर्य-आदित्य समस्त देवताओं के साथ प्रकट हो गए और उन्होंने भगवान् श्री राम को युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दिया। भगवान् श्री राम ने सूर्य वंश जो बाद में इक्ष्वाकु और रघु वंश कहलाया था, में अवतार ग्रहण किया था।

At this juncture Adity surrounded with all demigods appears and blesses Ram with great mental and physical strength and blessed to kill Ravan. Bhagwan Ram took this incarnation in Sury Vansh Sury dynasty-clan, later called Ikshvaku Vansh.

॥इति वाल्मीकीयरामयणे युद्धकाण्डे, अगस्त्यप्रोक्तमादित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णं॥

सूर्य वन्दना ::

नमो नम: कारणकारणाय नमो पापविमोचनाय। 

 नमो नमस्ते दितिजार्दनाय नमो नमो रोगविमोचनाय।

नमो नम: सर्व वरप्रदाय नमो नम: सर्वसुखप्रदाय। 

 नमो नम: सर्वधनप्रदाय नमो नम: सर्वमतिप्रदाय॥

अथ सूर्य कवचं ::

ॐ अम् आम् इम् ईं शिरः पातु ॐ सूर्यो मन्त्रविग्रहः। 

उम् ऊं ऋं ॠं ललाटं मे ह्रां रविः पातु चिन्मयः॥1॥

ऌं ॡम् एम् ऐं पातु नेत्रे ह्रीं ममारुणसारथिः। 

ॐ औम् अम् अः श्रुती पातु सः सर्वजगदीश्वरः॥2॥

कं खं गं घं पातु गण्डौ सूं सूरः सुरपूजितः। 

चं छं जं झं च नासां मे पातु यार्म् अर्यमा प्रभुः॥3॥

टं ठं डं ढं मुखं पायाद् यं योगीश्वरपूजितः। 

तं थं दं धं गलं पातु नं नारायणवल्लभः॥4॥

पं फं बं भं मम स्कन्धौ पातु मं महसां निधिः। 

यं रं लं वं भुजौ पातु मूलं सकनायकः॥5॥

शं षं सं हं पातु वक्षो मूलमन्त्रमयो ध्रुवः। 

लं क्षः कुक्ष्सिं सदा पातु ग्रहाथो दिनेश्वरः॥6॥

ङं ञं णं नं मं मे पातु पृष्ठं दिवसनायकः। 

अम् आम् इम् ईम् उम् ऊं ऋं ॠं नाभिं पातु तमोपहः॥7॥

ऌं ॡम् एम् ऐम् ॐ औम् अम् अः लिङ्गं मे‌Sव्याद् ग्रहेश्वरः। 

कं खं गं घं चं छं जं झं कटिं भानुर्ममावतु॥8॥

टं ठं डं ढं तं थं दं धं जानू भास्वान् ममावतु। 

पं फं बं भं यं रं लं वं जङ्घे मे‌Sव्याद् विभाकरः॥9॥

शं षं सं हं लं क्षः पातु मूलं पादौ त्रयितनुः। 

ङं ञं णं नं मं मे पातु सविता सकलं वपुः॥10॥

सोमः पूर्वे च मां पातु भौमो‌Sग्नौ मां सदावतु। 

बुधो मां दक्षिणे पातु नैऋत्या गुररेव माम्॥11॥

पश्चिमे मां सितः पातु वायव्यां मां शनैश्चरः। 

उत्तरे मां तमः पायादैशान्यां मां शिखी तथा ॥12॥

ऊर्ध्वं मां पातु मिहिरो मामधस्ताञ्जगत्पतिः। 

प्रभाते भास्करः पातु मध्याह्ने मां दिनेश्वरः॥13॥

सायं वेदप्रियः पातु निशीथे विस्फुरापतिः। 

सर्वत्र सर्वदा सूर्यः पातु मां चक्रनायकः॥14॥

रणे राजकुले द्यूते विदादे शत्रुसङ्कटे। 

सङ्गामे च ज्वरे रोगे पातु मां सविता प्रभुः॥15॥

ॐ ॐ ॐ उत ॐ उ औम् ह स म यः सूरो‌Sवतान्मां भयाद्। 

ह्रां ह्रीं ह्रुं हहहा हसौः हसहसौः हंसो‌Sवतात् सर्वतः॥16॥

सः सः सः सससा नृपाद्वनचराच्चौराद्रणात् सङ्कटात्। 

पायान्मां कुलनायको‌Sपि सविता ॐ ह्रीं ह सौः सर्वदा॥17॥

द्रां द्रीं द्रूं दधनं तथा च तरणिर्भाम्भैर्भयाद् भास्करो। 

रां रीं रूं रुरुरूं रविर्ज्वरभयात् कुष्ठाच्च शूलामयात्॥18॥

अम् अम् आं विविवीं महामयभयं मां पातु मार्तण्डको। 

मूलव्याप्ततनुः सदावतु परं हंसः सहस्रांशुमान्॥19॥ 

SUN TEMPLE FACING WEST पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर :: बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित ऎतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी भव्यता के साथ-साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। माना जाता है कि इस सूर्य मंदिर का निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्ति चोरों, तस्करों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। यह सूर्य मंदिर काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना यह सूर्यमंदिर उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार त्रेता युग के 12 लाख 16 हजार वर्ष बीत जाने के बाद इलापुत्र परूरवा ऎल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2,014 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं। यह विश्व का एकमात्र पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर है।

सूर्य देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (प्रात:) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध हैं। जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है।

अनुसार ऎल एक राजा किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पडा जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ रोग पूरी तरह जाता रहा।

शरीर में आशर्चजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऎल ने इसी वन में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमे प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। राजा ऎल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है, वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऎसा लगता है, मानो बाद में स्थापित की गई हो।[सूर्य पुराण]

मन्दिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देव शिल्पी विश्वकर्मा ने अपने हाथों किया था। कहा जाता है कि इतना सुन्दर मन्दिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहाँ भी सूर्य मंदिर है, उनका मुँह पूर्व की ओर है, लेकिन यही एक मन्दिर है, जो सूर्य मन्दिर होते हुए भी प्रात:कालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मन्दिर का अभिषेक करती हैं।

जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों एवं मन्दिरों को तोड़ता हुआ यहाँ पहुँचा तो देव मन्दिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मन्दिर को न तोड़ें, क्योंकि यहाँ के भगवान् का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हँसा और बोला यदि सचमुच तुम्हारे भगवान् में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूँ तथा यदि इसका मुँह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोडूँगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रात भर भगवान् से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मन्दिर का मुँह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मन्दिर का मुँह पश्चिम की ओर ही है। हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों लोग विभिन्न स्थानों से यहाँ आकर भगवान् भास्कर की आराधना करते हैं। भगवान् भास्कर का यह मन्दिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। साल भर देश के विभिन्न स्थानों से भक्तजन यहाँ मनौतियां माँगने और सूर्य देव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्ध्य देने आते हैं।

SUN WORSHIP सूर्य नमस्कार मन्त्र ::

ॐ ध्येयस्सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणस्सरसिजासनसन्निविष्टः।

केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुः धृतशङ्खचक्रः॥

ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्यगर्भाय नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ श्रीसवितृसूर्यनारायणाय नमः॥

आदितस्य नमस्कारान् ये कुर्वन्ति दिने दिने। 

जन्मान्तरसहस्रेषु दारिद्र्यं दोष नाशते॥

अकालमृत्यु हरणं सर्वव्याधि विनाशनम्।  

सूर्यपादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम्॥

योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।

योपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि

SUN TRANSITION मकर संक्रांति :: मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। यह पूरे भारत, नेपाल और विश्व हिन्दुओं द्वारा किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है, तभी इस पर्व को मनाया जाता है। यह त्यौहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसे उत्तरायणी भी कहा जाता है।

हर वर्ष 12 सक्रान्ति होती हैं। 12 में से अयान, विश्व, विष्णुपदी एवं षदिति मुखी मुख्य सक्रान्ति हैं। मकर सक्रान्ति पूरे भारत में उत्साह के साथ मनाई जाती है। मकर सक्रान्ति हर वर्ष 14 जनवरी को मनाई जाती है। कभी-कभी 15 जनवरी को भी ऐसा होता है।

दक्षिण भारत में मकर सक्रान्ति चार दिन मनाई जाती है। सक्रान्ति का दिन बहुत ही शुभ एवं दान के लिए अच्छा माना जाता है परन्तु इस अवसर पर कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। मकर सक्रान्ति से शुभ कार्य करने के दिनों की शुरुआत होती है। इस दिन अशुभ काल का अंत होता है, जो कि लगभग दिसंबर महीने के मध्य से प्रारम्भ होता है।

तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं। पँजाब में लोहरी इससे एक दिन पहले मनाई जाती है। कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं पँजाब में माघी। इस दिन घरों में कई तरह की मिठाईयाँ भी बनाई जाती है। ज्यादातर मक्की की फुल्लियाँ, मूँगफली, रेवड़ी, तिलपट्टी, मूँगफली की पट्टी, गज्जक, गाजर का हलवा-गाजर पाक आदि का आदान-प्रदान किया जाता है। मकर सक्रान्ति बहुत खुशियाँ लेकर आती है और दुखों को भुलाती है।

इस दिन प्रातःकाल उबटन आदि लगाकर तीर्थ के जल से मिश्रित जल से स्नान करें। यदि तीर्थ का जल उपलब्ध न हो तो दूध, दही से स्नान करें। तीर्थ स्थान या पवित्र नदियों में स्नान करने का महत्व अधिक है। स्नान के उपरान्त नित्य कर्म तथा अपने आराध्य देव की आराधना करें। पुण्यकाल में दाँत माँजना, कठोर बोलना, फसल तथा वृक्ष का काटना, गाय, भैंस का दूध निकालना व मैथुन काम विषयक कार्य वर्जित हैं।

उत्तरायण देवताओं का अयन है। यह पुण्य पर्व है। इस पर्व से शुभ कार्यों की शुरुआत होती है। उत्तरायन में मृत्यु होने से मोक्ष प्राप्ति की संभावना रहती है। पुत्र की राशि में पिता का प्रवेश पुण्य वर्द्धक होने से साथ-साथ पापों का विनाशक है। सूर्य पूर्व दिशा से उदित होकर 6 महीने दक्षिण दिशा की ओर से तथा 6 महीने उत्तर दिशा की ओर से होकर पश्चिम दिशा में अस्त होता है।

उत्तरायण का समय देवताओं का दिन तथा दक्षिणायण का समय देवताओं की रात्रि है। उत्तरायन को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। मकर संक्रांति के बाद माघ मास में उत्तरायन में सभी शुभ कार्य किए जाते हैं।

ज्यादातर त्यौहारों की गणना चंद्रमा पर आधारित पंचांग के द्वारा की जाती है, लेकिन मकर संक्रांति पर्व सूर्य पर आधारित पंचांग की गणना से मनाया जाता है। मकर संक्रांति से ही ऋतु में परिवर्तन होने लगता है। शरद ऋतु क्षीण होने लगती है और बसंत का आगमन शुरू हो जाता है। इसके फलस्वरूप दिन लम्बे होने लगते हैं और रातें छोटी हो जाती है।

जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर चलता है, तब तक सूर्य की अधिक प्रभावशाली नहीं होती। जब सूर्य पूर्व से उत्तर की ओर गमन करने लगता है, तब उसकी किरणें स्वास्थ्य और शान्ति को बढ़ाती हैं। इस वजह से साधु-संत और आध्यात्मिक क्रियाओं से जुड़े व्यक्तियों को शान्ति और सिद्धि की प्राप्त होती है। पूर्व के कड़वे अनुभवों को भुलाकर मनुष्य आगे की ओर बढ़ता है।

मकर संक्रांति के मौके पर देश के कई शहरों में मेले लगते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में बड़े मेलों का आयोजन होता है। इस मौके पर लाखों श्रद्धालु गंगा और अन्य पावन नदियों के तट पर स्नान और दान, धर्म करते हैं।

इस अवसर पर खिचड़ी का दान किया जाता है और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती है।

भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण  से मकर संक्रांति का बड़ा ही महत्व है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं। चूंकि शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी है। अतः  यह पर्व पिता-पुत्र के अनोखे मिलन से भी जुड़ा है।

एक अन्य कथा के अनुसार असुरों पर भगवान् श्री हरी विष्णु की विजय के तौर पर भी मकर संक्रांति मनाई जाती है। मकर संक्रांति के दिन ही भगवान् श्री हरी  विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का संहार कर उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर गाड़ दिया था। तभी से भगवानभगवान् श्री हरी विष्णु की इस जीत को मकर संक्रांति पर्व के तौर पर मनाया जाने लगा।

मकर संक्रांति का महत्व :: भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि, उत्तरायण के 6 माह के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं, तब पृथ्वी प्रकाशमय होती है, अत: इस प्रकाश में शरीर का त्याग करने से मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है और वह ब्रह्म को प्राप्त होता है। महाभारत काल के दौरान भीष्म पितामह जिन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। उन्होंने भी मकर संक्रांति के दिन शरीर का त्याग किया था।

शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रान्ति को सभी जातकों को चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष सूर्योदय से पूर्व अवश्य ही अपनी शय्या का त्याग कर के स्नान अवश्य ही करना चाहिए ।

देवी पुराण में लिखा है कि जो व्यक्ति मकर संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता है। वह रोगी और निर्धन बना रहता है।

विशेषकर मकर संक्रांति पर तिल-स्नान को अत्यंत पुण्यदायक बतलाया गया है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन तिल-स्नान करने वाला मनुष्य सात जन्म तक आरोग्य को प्राप्त करता है, जातक रूपवान होता है उसे किसी भी रोग का भय नहीं होता है।

इस दिन तीर्थों, मन्दिर, देवालय में देव दर्शन, एवं पवित्र नदियों में स्नान का विशेष महत्व है।

मकर सक्रांति के दिन स्नान के बाद भगवान् सूर्य की अवश्य ही पूजा करनी चाहिए। ज्योतिष के अनुसार यदि इस दिन प्रभु सूर्य देव को प्रसन्न करने पर विशेष फल मिलता है और भगवानभगवान् सूर्य के उपाय करने से किस्मत चमक जाती है।

इस दिन प्रातः उगते हुए सूर्य को ताँबे के लोटे के जल में कुंकुम, अक्षत, तिल तथा लाल रंग के फूल डालकर अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय “ॐ घृणिं सूर्य:” आदित्य मंत्र का जप करते रहें।

इस दिन किए गए दान का सहस्त्रों गुना पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन कम्बल, गर्म वस्त्र, घी, दाल-चावल की कच्ची खिचड़ी और तिल आदि का दान विशेष रूप से फलदायी माना गया है। गरीबों को यथासंभव भोजन करवाने से घर में कभी भी अन्न धन की कमी नहीं रहती है।

मकर संक्रांति के दिन तिल का अधिक से अधिक प्रयोग करें। आरोग्य, सुख एवं समृद्धि के लिये तिल का प्रयोग, तिल के जल से स्नान, तिल का दान, तिल का भोजन करें इस दिन स्नान से पूर्व तिल के तेल से मालिश करने, तिल का उबटन लगाने से समस्त पाप नष्ट होते हैं।

मकर संक्रांति के दिन साफ लाल कपड़े में गेहूँ व गुड़ बाँधकर किसी जरूरतमंद अथवा ब्राह्मण को दान देने से भी व्यक्ति की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। ताँबा सूर्य की धातु है, अत: मकर संक्रान्ति  के दिन ताँबे का सिक्का या ताँबे का चौकोर टुकड़ा बहते जल में प्रवाहित करने से कुण्डली में स्थित सूर्य के दोष कम होते हैं।

मकर संक्रांति के दिन गुड़ एवं कच्चे चावल बहते हुए जल में प्रवाहित करना बहुत शुभ माना जाता है। इस दिन खिचड़ी, तिल-गुड़ और पके हुए चावल में गुड़ और दूध मिलाकर खाने से भी भगवान् सूर्य नारायण शीघ्र प्रसन्न होते हैं।

मकर संक्रांति के दिन पितरों के लिए तर्पण करने का विधान है। इस दिन भगवान्  सूर्य को जल देने के पश्चात अपने पितरों का स्मरण करते हुए तिलयुक्त जल देने से पितर प्रसन्न होते हैं। जातक पर उसके पितरों का सदैव शुभाशीष बना रहता है। तिल युक्त जल पितरों को देने,अग्नि में तिल से हवन करने, तिल खाने-खिलाने एवं दान करने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है।

वर्ष 2008 से 2080 तक मकर संक्राति 15 जनवरी को होगी। 

विगत 72 वर्षों से (1935 से) प्रति वर्ष मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही पड़ती रही है।

2081 से आगे 72 वर्षों तक अर्थात 2153 तक यह 16 जनवरी को रहेगी।

सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश (संक्रमण) का दिन मकर संक्रांति के रूप में जाना जाता है। इस दिवस से, मिथुन राशि तक में सूर्य के बने रहने पर सूर्य उत्तरायण का तथा कर्क से धनु राशि तक में सूर्य के बने रहने पर इसे दक्षिणायन का माना जाता है।

सूर्य का धनु से मकर राशि में संक्रमण प्रति वर्ष लगभग 20 मिनिट विलम्ब से होता है। स्थूल गणना के आधार पर तीन वर्षों में यह अंतर एक घंटे का तथा 72 वर्षो में पूरे 24 घंटे का हो जाता है।

यही कारण है, कि अंग्रेजी तारीखों के मान से, मकर-संक्रांति का पर्व,72 वषों के अंतराल के बाद एक तारीख आगे बढ़ता रहता है।

धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण :: भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण  से मकर संक्रांति का बड़ा ही महत्व है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं। चूंकि शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी है। अतः  यह पर्व पिता-पुत्र के अनोखे मिलन से भी जुड़ा है।
एक अन्य कथा के अनुसार असुरों पर भगवान विष्णु की विजय के तौर पर भी मकर संक्रांति मनाई जाती है। बताया जाता है कि मकर संक्रांति के दिन ही भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का संहार कर उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर गाड़ दिया था। तभी से भगवान विष्णु की इस जीत को मकर संक्रांति पर्व के तौर पर मनाया जाने लगा।

Photographs of Sun rise in Kanya Kumari captures what Ved described as Uttrayan & Dakshinayan millions & millions of years ago. Same time, same angle, every month.

मन्दिर-देव प्रतिमा और ध्यान साधना :: मूर्ति और मन्दिर भगवान् के प्रतीक हैं। ईश्वर सर्वव्यापी है और इस प्रकार मूर्ति में भी है। यह मनुष्य को ध्यान लगाने में मदद करते हैं। मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा-आराधना मनुष्य को शक्ति से जोड़ देती है। मन्दिर का निर्माण पूर्णतया वास्तु शास्त्र के अनुरूप हो तो वह परमात्मा के शरीर का प्रतीक बन जाता है। गर्भ गृह-सर, गोपुरा-मुख्य द्वार चरण, शुकनासी-नाक, अंतराला-निकलने की जगह गर्दन, प्राकरा :- ऊँची दीवारें इन्हें शरीर के हाथ और ह्रदय या दिल में ईश्वर की मूर्ति है। इसी प्रकार मानव शरीर भी ईश्वर का प्रतिरूप ही है।

SURY (रवि) MANTR :: The devotees of Bhagwan Sury Narayan are blessed with success, riches, name, fame, health and vigour. One should recite the Mantr every day, in the morning, after becoming fresh and pour water towards the Sun, such that the Lota, pot, vessel, carrying water is slightly over the head. The water may be allowed to run into Tulsi Plant kept in the open. The day assigned to specific Pooja and Archna is Sunday.

Om Suryay Namo Namah. ॐ सूर्याय नमो: नम:।

Get up early in the morning before Sun rise. Take a bath and offer water-pour water facing east to the Sun.

Om stands for the primordial sound generated when the universe came into being. Sury stands for Sun who regulates the entire universe. Life exists due to the Sun who is a form-incarnation of the God. Stonehenge in Britain constitutes the remains of a marvellous temple dedicated to both Sun & Moon built millions of years ago.

Namah :: I bow in front of you. Just fold your hands and salute the Lord.

Om Suryay Namah. ॐ सूर्याय नम:।

Om Adityay Namo Namah. ॐ आदित्याय नम:।

Om Jyotir Aditay Phat Swaha. ॐ ज्योतिर आदित्य फट स्वाहा:।

Om Bhaskray Namah. ॐ भास्कराय नम:।

Om Bhanuve Namah. ॐ भानुवे नम:।

Om Khakhol Kay Namah. ॐ खखोलकाय नम:।

Om Khakhol Kay Swaha. ॐ खखोलकाय स्वाहा:।

Om Vyam Phat. ॐ व्यं फट।

Om Hram Hreem Sah: Phat Swaha. ॐ ह्रां ह्रीं स: फट स्वाहा:।

Om Hram Hreem Sheh Suryay Namah. ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम:।

SURY GAYATRI MANTR ::

आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुह: प्रचोदयात्।

Om Adityay Vidmahe Bhaskray Dheemahi Tanno Bhanuh Prachodyat.

Its is located at the base of the Sun-Apollo finger, over the Heart Line. This is indicative of the success, name, fame, defamation, relationship, eyes, development of skills in crafts, interest in spirituality and efforts to reach the truth, wealth, honour, respect, vehicles etc.

SUN & THE PLANETS :: Prominence of Sun awards genius and fame. One may reach a very high status in life if the mount is well-developed with pink colour. Such people are of cheerful nature and work in close co-operation with friends. They are successful as Artists, Expert Musicians and Painters. They are inborn genius. They are honest in their dealings and are completely materialistic. Highly developed Mount indicates self-confidence, gentleness, kindness and grandeur. He will face trouble at the age of 49th and 50th years. If Sun is bad, he have face more problems at the age 49th year but 50th year will not be that much troublesome.

If it is not prominent, one would be interested in beauty. But he would not be able to succeed in this field.

Exaggerated Mount makes one egoistic-proudy or a flatterer. He would be having friends from the lower sections. He is extravagant and quarrelsome and may not be successful in life.

If the Mount is absent, then the person would be dull, foolish-ignorant leading an ordinary life.

DEVELOPED SUN :: One will have name, fame and respect, kingly grandeur, relations with high profile people in power. He will be ambitious, ready to help others, with liberal temperament. He may have agriculture, farming, horticulture, animal breeding, dairy business or business pertaining to food art objects or cloths.

DEVELOPED SUN, GOOD SATURN, TWISTED SUN FINGER :: One will have interest in agriculture, farming, horticulture, animal breeding or dairy business.

DEVELOPED SUN, BOTH SUN & SATURN FINGERS TWISTED :: One will achieve success in agriculture and related ventures.

DEVELOPED SUN, SPATULATE HAND :: One will take more interest in business pertaining to food.

DEVELOPED SUN, DEVELOPED JUPITER :: One will establish food factory.

DEVELOPED SUN, DEVELOPED MERCURY :: One will have interest in chemicals or medicines related businesses.

SUN & VENUS DEVELOPED :: One will deal with cinema or hotel business.

SUN & VENUS DEVELOPED, STRAIGHT FINGER & DEFECT FREE SUN LINE :: One will have name, fame & success pertaining to hotel & cinema business.

DEVELOPED SUN WITH GOOD SUN LINE, LUCK LINE RISES OVER LUNA & REACHES SATURN :: One may be a union.

DEVELOPED SUN WITH GOOD SUN LINE, LUCK LINE RISES OVER LUNA & REACHES SATURN, MEDIUM HAND :: One may be a union leader with oratory.

DEVELOPED SUN WITH STRAIGHT FINGERS :: Sun will have special significance in one’s life. Events pertaining to Sun will show their impact like fame, defame, wealth,crafts etc. 5th, 6th, 14th, 22nd, 44th, 50th year in his life will be more eventful.

DEPRESSED SUN, TWISTED FINGER OR CRISS CROSS LINES OVER SUN :: One will have erratic temperament-behaviour. He will show off and quarrelsome by nature. He will have numerous chances-occasions of defamation.

MANY LINE OVER SUN WITH GOOD HAND :: One will be very busy.

MANY LINES OVER SUN, HAND IS NOT GOOD :: Undue, unwanted busyness and erratic behaviour.

CIRCLE OVER SUN :: One will get name, fame and honour.

CIRCLE OVER SUN, HEART LINE AND SUN ARE DEFECTIVE :: Eye trouble-defect.

TRIANGLE OVER SUN :: One will be liberal by nature and construct a house. More triangles more houses or one many make modifications-additions in the same house, many times. In case, he has agricultural land, he will have tube well and all necessary equipment.

VERTICAL LINES OVER SUN :: Each line will show a source of income, confirmed by Luck Line.

VERTICAL LINES, NARROW-THIN HAND :: More lines, more earning hands in the family.

FISH FORMATION OVER SUN, OVER RIGHT HAND :: One will be liberal and donate money, obviously a rich person. This formation is made by at least 4 lines, will moves outwards after the formation of a quadrangle-square.

MOLE OVER SUN :: One will be rich. He will face defamation, initially but later he will get name and fame.

FISH FORMATION OVER SUN, OVER LEFT HAND :: Family members of the bearer will be liberal and donate money to needy & poor.

सूर्य अनामिका अर्थात तीसरी अँगुली के नीचे, ह्रदय रेखा के ऊपर है। इसका सम्बन्ध प्रसिद्धि, बदनामी, रिश्तेदारी धन-सम्पत्ति और आँख, शिल्प, सम्बन्धी दक्षता, तत्व ज्ञान-रुचि और अनुसंधान से है। जातक को 49वें और 50वें साल में परेशानी झेलनी होगी। सूर्य दोष पूर्ण हो तो 49 वें वर्ष में अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। 50वें साल में उतनी समस्याएँ नहीं आयेंगी।

उन्नत सूर्य :: जातक सम्मान और प्रसिद्धि को महत्व देने वाला, महत्वाकांक्षी, राजसी शान-शौकत, सम्पत्ति का निर्माण करने वाला, बड़े लोगों से मेल-जोल रखने वाला, उदार प्रवृति और दूसरों की सहायता करने वाला होगा।जातक खेती, कला, खाने-पीने, कपड़े आदि का व्यवसाय करने वाला होगा।

उन्नत सूर्य, शनि अच्छा, सूर्य की अँगुली तिरछी :: जातक कृषि सम्बन्धी कार्यों में रुचि लेगा।

उन्नत सूर्य, शनि और सूर्य दोनों की अँगुली सीधी :: कृषि कार्यों में विशेष सफलता।

उन्नत सूर्य, चमसाकार हाथ (बनावट चमचे जैसी, अँगुलिया भी चमचे की आकृति वाली अर्थात चौड़ी, अँगुलियों के बीच में छिद्र, अँगुलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी नहीं) :: जातक खाने-पीने के व्यापार में अधिक रुचि लेगा।

उन्नत सूर्य, वृहस्पति उत्तम :: जातक खाने-पीने की वस्तुओं का कारखाना लगायेगा।

उन्नत सूर्य, बुध उत्तम :: जातक रसायन, औषधि सम्बन्धी कार्यों में रुचि रखेगा।

सूर्य और शुक्र उत्तम :: जातक सिनेमा या होटल सम्बन्धी कार्य करेगा।

सूर्य और शुक्र उत्तम, सूर्य की अँगुली सीधी, निर्दोष सूर्य रेखा :: जातक को सिनेमा या होटल सम्बन्धी कार्यों में बहुत सफलता और प्रसिद्धि मिलेगी।

उत्तम सूर्य और सूर्य रेखा, भाग्य रेखा चंद्र से निकल कर शनि पर :: जातक जन प्रतिनिधि-नायक होगा।

उत्तम सूर्य और सूर्य रेखा, भाग्य रेखा चंद्र से निकल कर शनि पर, हाथ मध्यम :: जातक श्रमिक संघ की गतिविधियों माँ शामिल होगा और भाषण देने में निपुण होगा।

उन्नत सूर्य, अंगुली सीधी :: जातक के जीवन में सूर्य का विशेष महत्व होगा। सूर्य से सम्बन्ध (प्रसिद्धि, बदनामी, रिश्तेदारी धन-सम्पत्ति और आँख, शिल्प, सम्बन्धी दक्षता, तत्व ज्ञान-रुचि और अनुसंधान) रखने वाले फल और वर्ष (5, 6, 14, 22, 44, 50) विशेष प्रभाव दिखायेंगे।

सूर्य बैठा हुआ, अंगुली तिरछी या सूर्य पर कटी-फटी रेखाएँ :: जातक चिड़चिड़ा, अधिक दिखावा करने वाला, झगड़ालू होगा। जीवन में बदनामी के अवसर अवश्य आयेंगे।

सूर्य पर अधिक रेखाएँ, हाथ अच्छा :: जातक बहुत व्यस्त रहने वाला होगा।

सूर्य पर अधिक रेखाएँ, हाथ अच्छा नहीं :: व्यर्थ की व्यस्तता और चिड़चिड़ापन।

सूर्य पर वृत्त :: जातक यशस्वी होगा।

सूर्य पर वृत्त, हृदय रेखा और सूर्य रेखा में दोष :: जातक की आँखों में दोष होगा।

सूर्य पर त्रिभुज :: जातक उदार और सम्पत्ति का निर्माण करने वाला होगा। जितने त्रिभुज होंगे उतनी ही सम्पत्तियों का निर्माण वह करेगा या एक ही सम्पत्ति अपर एक से अधिक बार कार्य करायेगा। खेती होने पर नलकूप और अन्य यंत्र लगायेगा।

सूर्य पर खड़ी रेखाएँ :: प्रत्येक रेखा एक आय का साधन दिखाती है। शनि पर मौजूद रेखाएँ इसकी पुष्टि करेंगी।

सूर्य पर खड़ी रेखाएँ, हाथ पतला :: जितनी रेखाएँ होंगी, घर में उतने ही कमाने वाले होंगे।

सूर्य पर तिल :: जातक धनी होगा. पहले बदनामी और फिर बाद में प्रसिद्धि होगी।

सूर्य पर मत्स्य रेखा, दाँये हाथ में :: जातक उदार और दानवीर होंगे।

सूर्य पर मत्स्य रेखा, बायें हाथ में :: जातक के कुटुम्ब के व्यक्ति उदार और दानवीर होंगे।

GRID OVER SUN :: (1). One has over confidence in him, due to which he may be involved in a dangerous accident. He should be extremely careful-cautious while driving.

(2). Presence of this sign over the juncture of Mercury, Sun and the Mental Mars pushes one to peak in politics but sinks to bottom as well, like Jag Jeevan Ram and Mrs. Bhandar Nayke-ex Prime Minister of Shri Lanka.

(3). Presence at the junction of Sun and Mental Mars makes one dangerously over ambitious.

(4). Its presence over the junction of Sun & Saturn, indicates paralysis. One will recover if the auspicious planets are present in the horoscope, at this point of time.

सूर्य पर जाली :: (1). यह जातक में अत्यधिक आत्मविश्वास को प्रदर्शित करती है जो कि भयंकर दुर्घटना का कारण बन सकताी है। जातक को किसी भी प्रकार का वाहन बेहद ध्यान के साथ चलाना चाहिये।

(2). सूर्य, बुध और उच्च मङ्गल के संयुक्त क्षेत्र में पाये जाने पर यह चिन्ह जातक को राजनीति के शिखर पर ले जाता है, मगर जगजीवन राम और भंडार नायके की तरह नीचे भी गिरा देता है।

(3). सूर्य और उच्च मंगल की संधि पर स्थित यह चिन्ह जातक को खतरनाक स्तर तक महत्वाकांक्षी बना देता है। (4). सूर्य और शनि की सन्धि पर उपस्थित यह जाली लकवे को प्रदर्शित करती है। यदि जन्म कुण्डली में शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो यह ठीक भी हो जाता है।

सूर्य शान्ति के उपाय :: वेदों में भगवान् सूर्य को चराचर जगत की आत्मा माना गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है। सूर्य का अर्थ है सर्व प्रेरक, सर्व प्रकाशक। सर्व प्रवर्तक होने से भगवान् सूर्य सर्व कल्याणकारी हैं। ऋग्वेद में देवताओं में भगवान् सूर्य को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है और उन्हें परमात्मा का अंश माना गया है। यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर भगवान् सूर्य को परमात्मा परब्रह्म परमेश्वर का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में भगवान् सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण में भी भगवान् सूर्य को परमात्मा स्वरूप माना गया है। गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन भगवान् सूर्य ही करते है। भविष्य पुराण में भगवान् ब्रह्मा और भगवान् विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त भगवान् श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी।

शुकदेव जी महाराज ने कहा :- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।

सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।

सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।”

सूर्य के रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है।

मानसोत्तर पर्वत के पूर्व में इन्द्र की वस्वौकसारा स्थित है। इस पर्वत के पश्चिम में वरुण की संयमनी स्थित है। इस पर्वत के उत्तर में चंद्रमा की सुखा स्थित है। इस पर्वत के दक्षिण में यम की विभावरी स्थित है।[श्रीमदभागवत पुराण]

ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है। सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं। यह भचक्र की पाँचवीं राशि सिंह का स्वामी है। सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है। लकड़ी, मिर्च, घास, हिरन, शेर, ऊन, स्वर्ण, आभूषण, ताँबा आदि का भी कारक है। मन्दिर सुन्दर महल जंगल किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है। यह शरीर में पेट, आँख, हृदय और चेहरे का प्रतिधिनित्व करता है। इसके प्रतिकूल प्रभाव से आँख, सिर, रक्तचाप, गंजापन एवं बुखार सम्बन्धी बीमारियाँ होती हैं। सूर्य की जाति क्षत्रिय है। शरीर की बनावट सूर्य के अनुसार मानी जाती है। हड्डियों का ढाँचा सूर्य के क्षेत्र में आता है। सूर्य का अयन 6 माह का होता है। 6 माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है और 6 माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है। इसका रंग केसरिया है। धातु, ताँबा और रत्न माणिक उप रत्न लाडली हैं। यह पुरुष ग्रह है।

इससे आयु की गणना 50 साल मानी जाती है। सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है। सूर्य सप्तम दृष्टि से देखता है। सूर्य की दिशा पूर्व है। सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है। सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु हैं। शत्रु शनि और शुक्र हैं। समान देखने वाला ग्रह बुध है। सूर्य की विंशोत्तरी दशा 6 साल की होती है। सूर्य गेंहू, घी, पत्थर, दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है। पित्त रोग का कारण सूर्य ही है।

वनस्पति जगत में लम्बे पेड़ का कारक सूर्य है। मेष के 10 अंश पर उच्च और तुला के 10 अंश पर नीच माना जाता है। सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर 0-शून्य अंश से लेकर 10 अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है।

सूर्य के देवता भगवान् शिव हैं। सूर्य का मौसम ग्रीष्म ऋतु है। सूर्य के नक्षत्र कृतिका है। इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम अ, ई, उ, ए अक्षरों से शुरु होते हैं। इस नक्षत्र के तारों की सँख्या अनेक है। इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है।

सूर्य से उत्पन्न दोष :: अस्‍थि‍ विकार, सिरदर्द, पित्त रोग, आत्मिक निर्बलता, ने‍त्र में दोष आदि।

जब सूर्य अशुभ फल देने लगता है, तो जातक के जोड़ की हड्डी दर्द देती है। शरीर अकड़ने लगता है। मुँह में थूक बार-बार आता है। घर में भैंस या लाल गाय हो तो उस पर संकट आता है।

प्रत्येक कार्य करने से पहले मीठा खायें।

बहते पानी में गुड़ व ताँबा बहायें।

रविवार का व्रत करें।

दान का फल उत्तम तभी होता है, जब यह शुभ समय में सुपात्र को दिया जाए। सूर्य से सम्बन्धित वस्तुओं का दान रविवार के दिन दोपहर में 40 से 50 वर्ष के व्यक्ति को देना चाहिए। माणिक्य, गुड़, कमल-फूल, लाल-वस्त्र, लाल-चन्दन, ताँबा, स्वर्ण सभी वस्तुएँ दक्षिणा सहित रविवार के दिन दान करें। रविवार के दिन लाल वस्तुओं का दान करें। गाय का बछड़े समेत दान करें। लाल गाय को रविवार के दिन दोपहर के समय दोनों हाथों में गेहूँ भरकर खिलाने चाहिए। गेहूँ को जमीन पर नहीं डालना चाहिए।

भगवान् विष्णु की आराधना करें।

चरित्र ठीक रखें, गलत कार्यों, गलत सोहबत से बचें।

भगवान् सूर्य को प्रतिदिन ताँबे के पात्र से मिश्री युक्त जल चढ़ायें। सूर्य को बली बनाने के लिए व्यक्ति को प्रातःकाल सूर्योदय के समय उठकर लाल पुष्प वाले पौधों एवं वृक्षों को जल से सींचना चाहिए।

किसी भी सूर्य मंत्र का 21 बार जाप करें।

“ॐ घ्रणि सूर्याय नम:” का जाप करें।

आदित्य-ह्रदय स्तोत्र का पाठ करें।

ॐ घृणिः सूर्याय नमः” का जप करें।

लाल चंदन का तिलक लगायें। माणिक्य अनामिका अंगुली में धारण करें।

गाय या बैल को जल में भीगे गेहूँ खिलायें।

किसी ब्राह्मण अथवा गरीब व्यक्ति को गुड़ का खीर खिलाने से भी सूर्य ग्रह के विपरीत प्रभाव में कमी आती है। अगर कुण्डली में सूर्य कमज़ोर है तो माता-पिता, गुरु एवं अन्य बुजुर्गों की सेवा करें।

प्रात: उठकर सूर्य नमस्कार करने से भी सूर्य की विपरीत दशा से राहत मिल सकती है।

रात्रि में ताँबे के पात्र में जल भरकर सिरहाने रख दें तथा दूसरे दिन प्रातःकाल उसे पीना चाहिए।

ताँबे का कड़ा दाहिने हाथ में धारण करें।

हाथ में मोली (कलावा) छः बार लपेटकर बाँधना चाहिए।

लाल चन्दन को घिसकर स्नान के जल में डालना चाहिए।

सूर्य के दुष्प्रभाव निवारण के लिए किए जा रहे उपाय रविवार का दिन, सूर्य के नक्षत्र (कृत्तिका, उत्तरा-फाल्गुनी तथा उत्तराषाढ़ा) तथा सूर्य की होरा में अधिक शुभ होते हैं।

निषेध :: गेंहूँ और गुड़ का सेवन न करें। नहीं करना चाहिए। इस समय ताँबा धारण नहीं करना चाहिए।

KONARK SUN TEMPLE  कोणार्क सूर्य मन्दिर :: कोणार्क सूर्य मन्दिर भारत में उड़ीसा राज्य में जगन्नाथ पुरी से 35 किमी उत्तर-पूर्व में कोणार्क नामक शहर में प्रतिष्ठित है। यह भारतवर्ष के चुनिन्दा सूर्य मन्दिरों में से एक है। सन् 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान की है।

यह मन्दिर भगवान् सूर्य को समर्पित है, जिन्हें बिरंचि-नारायण भी कहा जाता है। इस क्षेत्र को अर्क क्षेत्र (अर्क, सूर्य) या पद्म-क्षेत्र कहा जाता है। भगवान् श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब को श्रापवश कोढ़ हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्षों तक तपस्या की और भगवान् सूर्य को प्रसन्न किया। भगवान् सूर्य, जो सभी रोगों के नाशक हैं, ने उसके रोग का निवारण कर दिया। तदनुसार साम्ब ने भगवान् सूर्य का एक मन्दिर निर्माण का निश्चय किया। अपने रोग नाश के उपरांत, चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए, उसे भगवान् सूर्य की एक मूर्ति मिली। यह मूर्ति भगवान् सूर्य के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में मन्दिर में, इस मूर्ति को स्थापित किया।

BHAGWAN SHRI HARI VISHNU AT KONARK उड़ीसा, कोणार्क मन्दिर :: कोणार्क मन्दिर के भीतर से जब प्रकाश दूसरी ओर-आर पार निकलता है, तभी भगवान् श्री कृष्ण की इस बहुमूल्य-दुर्लभ विराट रूप प्रतिमा के दर्शन होते हैं।

कोणार्क दो शब्द कोना और अर्का का संयोजन है। अर्का का मतलब सूर्य है। कोणार्क सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी कोने पर स्थित है और भगवान् सूर्य को समर्पित है। कोणार्क को अर्का क्षेत्र भी कहा जाता है।
वर्तमान काल में 13 वीं शताब्दी के मध्य में निर्मित कोणार्क सूर्य मंदिर कलात्मक भव्यता और अभियांत्रिकी-वास्तु निपुणता का उदाहरण है परन्तु इसके निर्माण में वास्तु में कुछ कमियों के कारण इसका विध्वंश हुआ। गंगा राजवंश के महान शासक राजा नरसिम्हादेव प्रथम ने इस मंदिर को 12 साल (1243-1255 ई.) की अवधि के भीतर 1,200 कारीगरों की मदद से बनाया था। कोणार्क सूर्य मंदिर को 24 पहियों पर घुड़सवार एक भव्य सजाए गए रथ के रूप में उकेरा गया है। प्रत्येक व्यास में लगभग 10 फीट और 7 शक्तिशाली घोड़ों द्वारा खींचा गया था।
मंदिर के आधार पर जानवरों, पत्ते, घोड़ों पर योद्धाओं और अन्य रोचक संरचनाओं की छवियाँ उकेरी गई हैं। मंदिर की दीवारों और छत पर सुंदर कामुक मुद्राओं की नक्काशी की गई है। भगवान् सूर्य की तीन छवियाँ हैं, जो सुबह, दोपहर और सूर्यास्त में सूरज की किरणों को पकड़ने के लिए तैनात हैं।

RAYS OF SUN PASSING THROUGH THE TEMPLE AFTER 200 YEARS.

मंदिर के आधार पर जानवरों, पत्ते, घोड़ों पर योद्धाओं और अन्य रोचक संरचनाओं की छवियां उकेरी गई हैं। मंदिर की दीवारों और छत पर सुंदर कामुक आंकड़े नक्काशीदार हैं। सूरज भगवान की तीन छवियां हैं, जो सुबह, दोपहर और सूर्यास्त में सूरज की किरणों को पकड़ने के लिए तैनात हैं। कोणार्क का सूर्य मंदिर ओडिशा के मध्ययुगीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है।
काले ग्रेनाइट से बना कोणार्क मंदिर, शुरुआत में समुद्र तट पर बनाया गया था, लेकिन अब समुद्र का पानी गिर गया है और मंदिर समुद्र तट से थोड़ा दूर है। इस मंदिर को ‘काला पगोडा’ भी कहा जाता था और ओडिशा के प्राचीन नाविकों द्वारा नौसेना के ऐतिहासिक स्थल के रूप में उपयोग किया जाता था। सदियों से क्षय के बावजूद इस स्मारक की सुंदरता अभी भी अद्भुत है। यदि आप वास्तुकला और मूर्तिकला में गंभीर रुचि रखते हैं तो आपको इस विश्व प्रसिद्ध स्मारक का दौरा करना होगा। इसे 1984 में यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है
मिट्टी की स्थिति जहां मंदिर का निर्माण किया जाना था, मूल रूप से इतनी बुरी थी कि मुख्य वास्तुकार बिशु महाराणा, जिसको इसके निर्माण काम का साथ सौंपा गया था, बहुत परेशान हो गया। लेकिन जब इसकी पवित्रता के कारण इसी ही स्थान पर निर्माण करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था, तो वह बड़ी कठिनाई के साथ काम करने में कामयाब रहा। राजा और श्रमिकों के बीच एक अनुबंध था, कि पूरा काम पूरा होने तक किसी को भी जाने की इजाजत नहीं दी जाएगी।

जब निर्माण कार्य पूरा होने के करीब था, तभी अचानक वास्तुकारों को इसके अन्तिम भाग को पूरा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ गया। इस बीच कोर्णाक मंदिर के मुख्य वास्तुकार का पुत्र धर्मपाड़ा अपने पिता को देखने आया, क्योंकि वह लंबे समय से घर से दूर थे। धर्मपाड़ा का जन्म उनके पिता के प्रस्थान के एक महीने बाद हुआ था और बारह साल बीत चुके थे। वह अपने पिता से मिलने के लिए साइट पर आया और देखा कि प्रमुख वास्तुकार मन्दिर के निर्माण के आखरी भाग को पूर्ण करने में कठिनाईयों का सामना कर रहे है। हालांकि बिशु अपने बेटे को देखकर खुश थे, लेकिन वह इस तथ्य को छुपा नहीं सकते थे कि वह मन्दिर के अन्तिम रूप को सही तरीके से नहीं कर पा रहे है। उन्होंने कहा,बेटा हालांकि निर्माण कार्य लगभग पूरा हो गया है, हम अब इसे अन्तिम रूप देने में कुछ कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। अगर हम इसे एक समय के भीतर करने में असफल रहते हैं, तो राजा हमारे शरीर से हमारे सिर अलग कर देगा। यह सुनकर लड़का तुरन्त ऊपर उठ गया और मन्दिर के काम में हो रही गलती को ढूँढ़ लिया।
बिशु के लड़के ने तत्काल उस गलती को ठीक कर दिया। अब मन्दिर का काम पूरा हो गया था; लेकिन प्रमुख वास्तुकार अभी भी अपने भाग्य के बारे में सोच रहे थे कि अगर राजा को इसके बारे में सब कुछ पता चल जाए, तो वह निश्चित रूप से सोचेंगे कि वास्तुकार ठीक से अपना काम नहीं कर रहे थे, जबकि छोटे से लड़के ने इतने कम समय में यह काम कर दिया था। अपने पिता और कारीगरों की यह बात सुनकर लड़का बहुत चौंक गया था और इस मामले को हल करने के लिए, वह ऊपर उठा और आत्महत्या कर ली।

Photographs of Sun rise in Kanya Kumari captures what Ved described as Uttrayan & Dakshinayan millions & millions of years ago. Same time, same angle, every month.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 35 :: ऋषि :- हिरण्यस्तूप अङ्गिरस,  देवता :- प्रथम मन्त्र का प्रथम पाद :- अग्नि, द्वितिय पाद :- मित्रावरुण, तृतीय पाद :-रात्रि, चतुर्थ पाद :- सविता, 2-11 सविता, छन्द: – त्रिष्टुप, 1.9 जगती।

ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे।

ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये॥1॥

कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्य देव का हम अपनी रक्षा के लिए आह्वान (evoke, invite, call) करते है।[ऋग्वेद 1.35.1]

कल्याण के लिए अग्नि, सखा और वरुण का आह्वान करता हूँ और प्राणधारियों को विश्राम देने वाली रात्रि तथा सूर्य देवता को सुरक्षा के लिए आह्वान करता हूँ।

First of all we pray-worship Agni Dev for our welfare. For our protection we invite demigods-deities Mitr & Varun. The night which gives rest to the universe is invited-invoked along with Sun to protect us.

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥2॥

सविता देव गहन तमिस्त्रा युक्त अन्तरिक्ष पथ में भ्रमण करते हुए, देवों और मनुष्यों को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित करते हैं। वे समस्त लोकों को देखते (प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणों से युक्त) रथ से आते हैं।[ऋग्वेद 1.35.2]

अंधकार पूर्ण समय में विचरण करते हुए प्राण धारियों को चैतन्य करने वाले सूर्य स्वर्ण के रथ से हमको ग्रहण होते हैं।

Savita Dev-Sun travelling through the dark path keep busy (engage, involve) the demigods-deities & the humans in excellent (pious, virtuous) deeds like Yagy. He lightens all the abodes coming, in his chariot which has golden colour-hue rays.

याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम्।

आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः॥

स्तुत्य सविता देव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हैं, निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट करते हुए अति दूर से उस यज्ञशाला में श्वेत अश्वों के रथ पर आसीन होकर आते हैं।[ऋग्वेद 1.35.3]

वे सूर्य देव निचले मार्गों या उच्च मार्गों पर श्वेत अश्वों से परिपूर्ण रथ पर विचरण  करते हैं। वे अंधकार आदि को समाप्त करते हुए नजर आते हैं।

Pray able Savita Dev-Sun gradually rise up and then comes down gradually maintaining his motion-speed. He destroys all sins in the form of darkness visits the Yagy Shala-location of Yagy, riding white horses.

अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम्।

आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः॥

सतत परिभ्रमण शील, विविध रूपों में सुशोभित, पूजनीय, अद्भूत रश्मि-युक्त सविता देव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आते हैं।[ऋग्वेद 1.35.4]

पूज्य एवं अद्भुत रश्मियों से युक्त सूर्य अंधकार से युक्त लोकों के लिए शक्ति को धारण करते हैं। वे स्वर्ण साधनों से युक्त रथ पर आरूढ़ होते हैं।

Continuously moving Savita Dev, having vivid forms, honourable, having amazing rays destroys the deep darkness with his might & comes in his chariot bearing golden rays-aura.

वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः।

शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः॥

सूर्य देव के अश्व श्वेत पैर वाले हैं, वे स्वर्ण रथ को वहन करते हैं और मानवों को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोकों के प्राणी सविता देव के अंक में स्थित हैं अर्थात उन्हीं पर आश्रित हैं।[ऋग्वेद 1.35.5]

श्वेत आश्रम वाले, जुओं को बाँधने वाले स्नान से युक्त रथ को चलाते हुए सूर्य के अश्वों ने प्राणियों को प्रकाश दिया। समस्त व्यक्ति और लोक सूर्य के अंक में ही स्थित हैं।

The horses of Sury Dev have white legs who pulls his golden chariot and gives Sun light to the humans. The creatures-organisms, living beings of all abodes are dependent over them for their lives.

तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट्।

आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत्॥

तीनों लोकों में द्यावा और पृथिवी ये दोनों लोक सूर्य के समीप हैं अर्थात सूर्य से प्रकाशित हैं। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धुरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित हैं। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें।[ऋग्वेद 1.35.6]

तीनों लोकों में सूर्य के निकट धरा स्थित है। एक अंतरिक्ष यमलोक का द्वार रूप है। रथ के पहिये की अगली कील पर अवलम्बित रहने के तुल्य समस्त नक्षत्र सूर्य पर अवलम्बित हैं।

Out of the three abodes (heavens, earth and the nether world) the heaven & the earth are near the Sun meaning there by that they are being illuminated by the Sun. One of the abode in the universe acts as the gate of Yam Lok-the abode of the deity of death. All abodes depend over the Sun just like the axel of the chariot. One who knows this secret should reveal it to others.

The gravitational force of the Sun binds the planets, moons which revolves around it. 

वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः 

क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान॥

गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्य देव अंतरिक्षादि को प्रकाशित करते हैं। ये सूर्य देव कहाँ रहते हैं? उनकी रश्मियाँ किस आकाश में होंगी? यह रहस्य कौन जानता है?[ऋग्वेद 1.35.7]

गम्भीर कम्पन से युक्त, सुन्दर प्राण युक्त सविता ने अंतरिक्ष को प्रकाशित किया है। वह सूर्य किधर रहता है, इसकी किरणें किस आकाश में फैली हुई हैं, यह कौन कह सकता है?

Serious, moving, who is like the life giving force, inspiring in excellent ways-manners, beautifully shining Sury Dev-Sun illuminates the universe. Where does he live, what is, where is his abode, where are his rays, who knows this secret!?

अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून्।

हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि॥

हिरण्य दृष्टि युक्त (सुनहली किरणों से युक्त) सविता देव पृथ्वी की आठों दिशाओं, उनसे युक्त तीनों लोकों, सप्त सागरों आदि को आलोकित करते हुए दाता (हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियाँ लेकर यहा आयें।[ऋग्वेद 1.35.8]

सूर्य ने पृथ्वी की आठों दिशाओं को मिलाने वाले तीनों कोणों और सातों समुद्रों को प्रकाशित किया है। वह स्वर्णिम नेत्र वाले सूर्य साधक को धन देने के लिए यहाँ आयें।

Associated with golden rays, Savita Dev illuminates the 8 directions of the earth, the three abodes connected with it & the seven seas-oceans may bring gifts-excellencies here.

हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते।

अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति॥

स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथों से युक्त विलक्षण द्रष्टा सविता देव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते हैं। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकार नाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.35.9]

स्वर्ण के हाथ वाले सर्व द्रष्टा सूर्य आकाश और पृथ्वी के बीच गति करते हैं। वे रोग आदि बाधाओं को समाप्त कर अंधकार नाशक तेज से आकाश को व्याप्त कर देते हैं।

Savita Dev who is an excellent visionary, with golden rays like his hands moves-transect through the heavens & the earth. He vanish the obstructions like diseases with his rays which removes the darkness and illuminates the sky.

हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ्।

अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः॥

हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणों से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्य गुण सम्पन्न सूर्य देव सम्पूर्ण मनुष्यों के समस्त दोषों को, असुरों और दुष्कर्मियो को नष्ट करते (दूर भगाते) हुए उदित होते हैं। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हों।[ऋग्वेद 1.35.10]

सुवर्णपाणि, प्राणावान, महान कृपालु, समृद्धिवान सूर्य हमारे सम्मुख पधारें। वे सूर्य प्रतिदिन राक्षसों का दमन करते हुए वहाँ ठहरें।

Sury-Savita Dev associated with divine powers-qualities, having golden hue rays around him, grants life, benefit the organisms, grants comforts, repel the demons and sinners, rise. Such Sun Dev should be favourable to us.

ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे।

तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव॥

हे सवितादेव! आकाश में आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित हैं। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें।[ऋग्वेद 1.35.11]

हे सूर्य! क्षितिज में तुम्हारे धूल रहित पुराने मार्ग सुनिर्मित हैं। इन रास्तों से प्रस्थान कर हमारी सुरक्षा करो जो मार्ग हमारे अनुकूल हों, बताओ।

Hey Savita Dev! Your path in the sky is free from dust, is fixed. Travelling through comfortable routes please come & protect us and make us divine.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल  सूक्त 50 :: ऋषि :- प्रस्कण्व कण्व, देवता :- सूर्य (11-13) रोगघ्न उपनिषद), छन्द :- गायत्री, 10-13 अनुष्टुप्।
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्॥
ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ सम्पूर्ण प्राणियों के ज्ञाता सूर्य देव को एवं समस्त विश्व को दृष्टि प्रदान करने के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं।[ऋग्वेद 1.50.1]
सर्वभूतों के ज्ञाता प्रकाशवान सूरज की किरणें क्षितिज में ही विचरण करती हैं।
The rays of Sun, who knows all creatures, grants vision to the whole world.
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः। सूराय विश्वचक्षसे॥
सबको प्रकाश देने वाले सूर्य देव के उदित होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल वैसे ही छिप जाते है, जैसे चोर छिप जाते है।[ऋग्वेद 1.50.2]
सर्वदर्शी के प्रकट होते ही नक्षत्र आदि विख्यात चोर के तुल्य छिप जाते हैं।
With the Sun rise the stars hide alongwith the night just like the thieves.
अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा॥
प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के समान सूर्य देव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं।[ऋग्वेद 1.50.3]
सूर्य की ध्वजा रूप किरणें प्रज्वलित अग्नि के समान मनुष्य की ओर जाती हुई स्पष्ट दिखाई देती हैं।
 Rays of Sun lit the whole world like the fire.
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य। विश्वमा भासि रोचनम्॥
हे सूर्य देव! आप साधकों का उद्धार करने वाले हैं, समस्त संसार में एक मात्र दर्शनीय प्रकाशक हैं तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.50.4]
हे सूर्य! तुम वेगवान सभी के दर्शन करने योग्य हो। तुम प्रकाश वाले सभी को प्रकाशित करते हो।
उद्धार :: निस्तार,  मुक्ति, छुटकारा, बचाव, छुड़ाना; deliverance, extricatio, releasement, rescue.
Hey Sury-Sun Dev! You release the devotee from the cycle of birth & death. You are the only source of light for the whole universe.
प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान्। प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे॥
हे सूर्यदेव! मरुद्गणों, देवगणों, मनुष्यों और स्वर्गलोक वासियों के सामने आप नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीन लोकों के निवासी आपका दर्शन कर सकें।[ऋग्वेद 1.50.5]
हे सूर्य! तुम देवताओं, प्राणियों तथा सभी मनुष्यों के लिए साक्षात् हुए तेज को प्रकाशित करने को आकाश में भ्रमण करते हो।
Hey Sury Dev! You rise regularly for the Marud Gan, Dev Gan, the hebitents of heaven and the humans; so that they can see the three abodes viz. earth, heaven and the Nether world.
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु। त्वं वरुण पश्यसि॥
जिस दृष्टि अर्थात प्रकाश से आप प्राणियों को धारण-पोषण करने वाले इस लोक को प्रकाशित करते हैं, हम उस प्रकाश की स्तुति करतें हैं।[ऋग्वेद 1.50.6]
तुम जिस नेत्र से मनुष्यों की ओर देखते हो उस नेत्र को हम प्रणाम करते हैं।
We pray to the eye-light through which you see the universe and support the living beings.
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः। पश्यञ्जन्मानि सूर्य॥
हे सूर्य देव! आप दिन एवं रात में समय को विभाजित करते हुए अन्तरिक्ष एवं द्युलोक में भ्रमण करते हैं, जिसमें सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है।[ऋग्वेद 1.50.7]
हे सूर्य! रात्रियों को दिनों से अलग करते हुए, जीव मात्र को देखते हुए तुम विशाल क्षितिज में विचरण करते हो।
Hey Sury Dev! You move through the space and the heavens, dividing the time into day & night, which helps-supports the organis-living beings.
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य। शोचिष्केशं विचक्षण॥
हे सर्वद्रष्टा सूर्य देव! आप तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणों रूपी अश्वों के रथ में सुशोभित होते हैं।[ऋग्वेद 1.50.8]
हे दूर दृष्टा सूर्य! तेजवन्त रश्मियों सहित रथारोही हुए, तुमको सप्त अश्व खींचते हैं।
Hey all visualizing-seeing Sury Dev! Your chariot is decorated with seven bright rays of light.
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः। ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः॥
पवित्रता प्रदान करने वाले ज्ञान सम्पन्न उर्ध्वगामी सूर्यदेव अपने सप्तवर्णी अश्वों से (किरणों से) सुशोभित रथ में शोभायमान होते हैं।[ऋग्वेद 1.50.9]
सूर्य स्वयं जुड़ने वाले सप्त अश्वों को रथ में जोड़कर आसमान में भ्रमण करते हैं।
Sury Dev possessing the pious knowledge-enlightenment, moves in the glorious chariot decorated with seven horses (colours-rays of light).
उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम्। 
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥
तमिस्त्रा से दूर श्रेष्ठतम ज्योति को देखते हुए हम ज्योति स्वरूप और देवों में उत्कृष्ठतम ज्योति (सूर्य) को प्राप्त हों।[ऋग्वेद 1.50.10]
अंधकार के ऊपर व्याप्त क्षितिज को फैलाते हुए देवों में महान सूर्य को हम ग्रहण हों।
Let us assimilate in the brightest, best amongest the demigods-deities, removing darkness, while looking at it.
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्। 
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥
हे मित्रों के मित्र सूर्यदेव! आप उदित होकर आकाश में उठते हुए हृदय रोग, शरीर की कान्ति का हरण करने वाले रोगों को नष्ट करें।[ऋग्वेद 1.50.11]
हे सखाओं के सखा सूर्य! तुम उदित होकर क्षितिज में उठते हुए मेरी हृदय व्याधि और पीत रंग को मिटाओ।
Hey friend of the friends Sury Dev! Remove my heart disease and the yellowish colour of the skin (jaundice, पीलिया).
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि। 
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि॥
हम अपने हरिमाण (शरीर को क्षीण करने वाले रोग) को शुकों (तोतों), रोपणाका (वृक्षों) एवं हरिद्रवों (हरी वनस्पतियों) में स्थापित करते हैं।[ऋग्वेद 1.50.12]
हे सूर्य! मैं अपने पीलेपन को शुक-सारिकाओं में स्थापित करता हूँ।
Hey Sury Dev! I establish my disease weakening the body in the greenery.
Each and every plant, shrub, wine, tree has one or the other medicinal property. That’s why one is advised to depend over the vegeterian diet only.
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह। 
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम्॥
हे सूर्य देव! अपने सम्पूर्ण तेजों से उदित होकर हमारे सभी रोगों को वशवर्ती करें। हम उन रोगों के वश में कभी न आयें।[ऋग्वेद 1.50.13]
अपने पूर्ण तेज से समस्त रोगों के विनाश के लिए हुए हैं। मैं उन रोगी के वश में न पड़ सकूँ।
Hey Sury Dev! Rising with your energy, over power-control our diseases, weakness of the body.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (115) :: ऋषि :- कुत्स आंगिरस, देवता :- सूर्य,  छन्द :- त्रिष्टुप्।

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 

आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥

विचित्र तेज युक्त तथा मित्र, वरुण और अग्नि के चक्षु स्वरूप सूर्य उदित हुए हैं। उन्होंने द्यावा पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपनी किरणों से परिपूर्ण किया है। सूर्य जंगम और स्थावर दोनों की आत्मा हैं।[ऋग्वेद 1.115.1]

विचित्र :: बहुरंगा, रंग-बिरंगा, अजीब, अनोखा, विलक्षण; weird, bizarre, quaint, pied. देवगण का विचित्र सुख-रूप रथ तथा सखा, वरुण, अग्नि का नेत्र रूप सूर्य उदित हो गया। जंगम स्थावर को प्राणरूप सूर्य ने क्षितिज धरा और अंतरिक्ष को समस्त तरफ से प्रकाशमान कर दिया।

The Sun as the eye of Mitr, Varun and Agni-fire, rises with amazing-quaint energy. He has filled the earth, all living beings whether movable or fixed with light.

सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात्। 

यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम्॥

जिस प्रकार से पुरुष स्त्री का अनुगमन करता है, उसी प्रकार से सूर्य देव भी दीप्तिमयी उषा के पीछे-पीछे आते हैं। इसी समय देवाभिलाषी मनुष्य बहुयुग प्रचलित यज्ञ कर्म को सम्पन्न करते हैं, वहाँ उन साधकों एवं कल्याणकारी यज्ञीय कर्मों को सूर्यदेव अपने प्रकाश से प्रकाशित करते हैं।[ऋग्वेद 1.115.2]

मनुष्यों के नारी के पीछे जाने के समान, सूर्य कांतिमती उषा के पीछे जाता है। उस समय उपासक जन युगों तक कल्याणकारी प्रभाव डालने के लिए कल्याणदाता यज्ञ को बढ़ाते हैं।

The Sun follows dashing Usha just as the humans follow women. At this moment the devotees, sages, ascetics perform-conduct Yagy with the desire to attain the divine hood-divinity. Sun light the welfare means adopted by those doing Yagy for the welfare of humanity.

भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्त चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः। 

नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः॥

सूर्य के कल्याण रूप हरि नाम के विचित्र घोड़े इस मार्ग से जाते हैं। वे सबके स्तुति भाजन है। हम उनको नमस्कार करते हैं। वे आकाश के पृष्ठ देश में उपस्थित हुए हैं। वे घोड़े तत्काल ही द्युलोक और भूलोक की चारों दिशाओं की परिक्रमा कर डालते हैं।[ऋग्वेद 1.115.3]

कल्याण स्वरूप, स्वर्णिम रंग वाले दीप्ति परिपूर्ण मार्ग से विचरण करने वाले लगातार वन्दना किये जाते सूर्य के अश्व क्षितिज की पीठ पर पैर रखते हैं और उसी दिन क्षितिज और धरा का चक्कर काट लेते हैं।

The bizarre horses named Hari, the embodiment of human welfare follows this tract. They are prayed by every one. We salute them. They are present over the surface of the sky. These horses revolve round the entire universe & the earth, in all directions, quickly.

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार। 

यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥

सूर्य देव का ऐसा ही देवत्व और माहात्म्य है कि वे मनुष्यों के कर्म समाप्त होने से पूर्व ही अपनी विशाल किरण के जाल का उपसंहार कर डालते हैं। जिस समय सूर्य अपने रथ से हरि नाम के घोड़ों को खोलते हैं, उस समय सभी लोकों में रात्रि अन्धकार रूप आवरण विस्तारित करती है।[ऋग्वेद 1.115.4]

अन्धकार को दूरस्थ करना सूर्य का अद्भुत कांतिमती उषा के पीछे प्रभाव डालने के लिए कल्याणदाता यज्ञ को बढ़ाते हैं। कल्याण स्वरूप, स्वर्णिम रंग वाले दीप्ति परिपूर्ण मार्ग से विचरण करने वाले लगातार वंदना किये जाते सूर्य के अश्व क्षितिज की पीठ पर पैर रखते हैं और उसी दिन क्षितिज और धरा का चक्कर काट लेते हैं। अन्धकार को दूरस्थ करना सूर्य का अद्भुत कार्य है।

The divinity & significance of Sury Bhagwan-The Sun, lies in the fact that he accomplish-finish the web-net of the rays, just before the humans complete-accomplish their ventures-endeavours. The moment Sun releases his horses named Hari, all abodes are filled with darkness.

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥

मित्र और वरुण को देखने के लिए आकाश के बीच सूर्य देव अपना ज्योतिर्मय रूप प्रकाशित करते हैं। सूर्य के हरि नाम के घोड़े एक ओर अपना अनन्त दीप्तिमान् बल धारित करते हैं तो दूसरी ओर कृष्ण वर्ण अन्धकार करते हैं।[ऋग्वेद 1.115.5]

जब वह अपने सुनहरी अश्वों को हटाते हैं तब रात अपना काला वस्त्र फैलाती है। सखा और वरुण के देखने को सूर्य आकाश की गोद में उस विख्यात रूप को प्रकट करते हैं। उनके सुनहरी अश्व अपने प्रकाश से युक्त पराक्रम को प्रत्यक्ष कर दूसरी ओर अंधेरा कर देते हैं।

To see Mitr & Varun, the Sun show his bright form in the sky. The horses of Sury Bhagwan-The Sun, on one side acquire their infinite strength & power and on the other side they cause the darkness of black colour.

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्। 

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥

हे सूर्य की किरणों! सूर्योदय होने पर आज हमें पाप से मुक्त करें। मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु पृथ्वी और आकाश हमारी इस प्रार्थना को अंगीकार करें।[ऋग्वेद 1.115.6]

हे देवगण! आज सूर्य उदित होने पर हमको पाप कर्मों तथा निंदा से बचाओ। सखा, वरुण, अदिति, समुद्र, धरा और क्षितिज हमारी इस वंदना को अनुमोदित करें।

Hey the Sun rays! Please release-relieve us of the sins before the dawn-day break. Let Mitr, Varun, Sindhu, Prathvi & Akash accept our this prayer.

ऋग्वेद संहिता, प्रथम मण्डल सूक्त (191) ::  ऋषि :- अगस्त्य, देवता :-अप्तृण-जल, औषधि, सूर्य ,  छन्द :- महापंक्ति, महाबृहती, अनुष्टुप्, अत्यन्त।

कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः। 

द्वाविति प्लुषी इति न्यदृष्टा अलिप्सत

कम विष वाले अधिक विष वाले, जलीय कम विष वाले दो प्रकार के जलचर और स्थलचर जलाने वाले प्राणी और अदृश्य प्राणी मुझे विष द्वारा अच्छी तरह लिप्त किए हुए हैं।[ऋग्वेद 1.191.1]

जहरीले और जहर पृथक, जल में वास करने वाले अल्पविष परिपूर्ण दोनों प्रकार के जलचर और थलचर जलन पैदा करने वाले प्रत्यक्ष और अदृश्य जीव विषय द्वारा घेरे हुए हैं।

I have been surrounded by the poisonous creatures. Some of them have little and some has more poison in them.  Water born and those living on land visible and invisible living beings too have contaminated me.

Virus, bacteria, fungus, pathogens, microbes are present all around us and are generally microscopic & invisible. They are present in air and water well. Cow is a carrier of platyhelminths. Other than these, flat worm, ring worm are quite common. Pig contains ascaris. Bird flue is quite common. Still majority of the populace eat meat. Corona too has come to humans from bats. Aids virus came to humans from the anus of the monkey. Malaria-dengue comes from mosquitoes. Bed bug hides in the sofa set, beds etc. Lice reside in the hair.

I live in Noida and its very unfortunate that Noida, Ghaziabad and Delhi are in the highest polluting cities in the world. The smog, air contain harmful dust & antigens. The water supplied too is very filthy. It led to acquiring cancer by me. 

अदृष्टान्हन्त्यायत्थो हन्ति परायती। 

अथो अबध्नती हन्त्यथो पिनष्टि पिंधती॥

जो औषधि खाता है, वह दिखाई न देने वाले विषधर प्राणी को नष्ट करता है और प्रत्यावर्तन काल में उसे विनष्ट करता है। यह कुटी और पीसी हुई (औषधि) विषधर जीवों के विष को समाप्त कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.2]

प्रत्यावर्तन :: एकान्तरण, परिवर्तन, पुनरावर्तन, पलटाव; repatriation, alternation, reversion, relapse.

औषधि उन अदृश्य जीवों और उनके जहर को मार देती है। वह कूटी, पीसी, जाकर भी विषैले जन्तुओं को नष्ट कर देती है।

One eats the medicine destroys the poisonous organisms during the intake of it. Either are grinded or crushed-smashed medicine vanish the poison.

शरासः कुशरासो दर्भासः सैर्या उत। 

मौञ्जा अदृष्टा बैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत

शर, कुशर, दर्भ, सैर्य, मुज, वीरण आदि धासों में छिपे विषधर जीव-जन्तु अवसर मिलते ही लिपट जाते हैं।[ऋग्वेद 1.191.3]

शर, कुशर, दर्भ, सैर्य, मोंज और वैरिण नामक घासों में छिपे हुए जीव विषयुक्त करते हैं।

The poisonous organism stick to the various kinds of grasses named :- Shar, Kushar, Darbh, Saery, Munj, Viran etc. 

नि गावो गोष्ठे असददन्नि मृगासो अविक्षत। 

नि केतवो जनानां न्यदृष्टा अलिप्सत

जिस समय गाँवें गोष्ठ में बैठी रहती हैं, जिस समय हरिण, अपने-अपने स्थानों पर विश्राम करते हैं और जिस समय मनुष्य निद्रा में रहता है, उस समय अदृश्य विषधर ये जीव बाहर निकलकर उनसे लिपट जाते हैं।[ऋग्वेद 1.191.4]

जब गौएँ अपने गोष्ठ में बैठती हैं, हिरन अपने स्थान पर आराम करते हैं और प्राणी सुप्तावस्था में होता है तब ये विषैले जीव उन्हें विषयुक्त करते हैं।

The poisonous organism stick-attack the cows, deer and the humans while they are either sleeping or taking rest-inactive.

एत उ त्ये प्रत्यदृश्रन्प्रदोषं तस्करेंइव। 

अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन

ये विषधर चोरों की तरह रात्रि में ही दिखाई देते हैं। ये छिपे रहने पर भी सभी को देखते है। इसलिए इनसे सावधान रहना चाहिए।[ऋग्वेद 1.191.5]

वे अदृश्य और प्रकट विषैले जीव चोरों के समान रात्रि की प्रतीक्षा करते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।

These visible & invisible poisonous being are active at night like a thief. They watch every one, hiding themselves. One has to to very carful with respect to them. 

द्यौर्व: पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा। 

अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम्

स्वर्ग पिता, पृथ्वी  माता, सोम भ्राता और अदिति बहन है। अदृष्ट समदर्शी लोग आप विश्राम करते हैं। जिस समय मनुष्य निद्रा में रहता है, उस समय अदृश्य विषधर ये जीव बाहर निकलकर उनसे लिपट जाते हैं।

हे जहरीले प्राणियों! आकाश तुम्हारा पिता, धरती माता और सोम भाई, अदिति बहन हैं। तुम प्रकट और अप्रकट दोनों प्रकार के जीव अपने अपने स्थान पर ही रहो, सूख पूर्वक विश्राम करो।

Heaven is your father, earth is your mother, Moon is your brother and Aditi (mother of demigod-deities) is your sister. You-invisible poisonous beings take rest in your places of hiding. As soon as the humans sleep you attack them.

ये अंस्या ये अङ्गया: सूचीका ये प्रकङ्कताः।

अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत

जो विषधर स्कन्ध वाले है, जो अंग वाले (सर्प) हैं, जो सूचीवाले (वृश्चिकादि) हैं, जो अतीव विषधर हैं, वैसे अदृष्ट विषधर जीव-जन्तुओं का यहाँ क्या काम है? ये सभी विषैले जीव एक साथ हमें कष्ट न पहुँचायें अर्थात् हमसे दूर चले जायें।[ऋग्वेद 1.191.7]

हे जहरीले प्राणियों! तुम कन्धे से जलने वाले शरीर से विचरणशील, सुई की तरह डंक मारने वाले, अत्यन्त विष परिपूर्ण अदृश्य एवं प्रत्यक्ष, जितनी तरह के भी हो, हमारे पास से दूर चले जाओ।

Let all poisonous creatures move away from us. All those creatures which move with the help of shoulders, creepers, those who wriggle and those who sting should not harm us move away from us.

उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा। 

अदृष्टान्त्सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यः

पूर्व दिशा में सूर्यदेव उदित होते हैं, वे समस्त संसार को देखते और अदृष्ट विषधरों का विनाश करते हैं। वे सभी अदृष्टों और राक्षसी वा महोरगी का विनाश करते हैं।[ऋग्वेद 1.191.8]

सबके सामने प्रयत्न, अदृष्ट जीवों को भी दिखाने वाले, अदृश्य विषधरों और दानव, वृत्ति वाले हिंसक पशुओं को विनाश करने वाले सूर्य पूर्व से उदित होते हो।

The Sun rises in the east and kill all sorts of invisible harmful creatures-organism. He kills the demonic and the canine animals as well.

Sun light is essential in homes and offices in addition to cross ventilation.

उदपप्तदसौ सूर्यः पुरु विश्वानि जूर्वन्। 

आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा

सूर्यदेव बड़ी संख्या में विषों का विनाश करते हुए उदित होते हैं। सर्वदर्शी और अदृश्यों के विनाशक सूर्यदेव जीवों के मंगल के लिए उदित होते हैं।[ऋग्वेद 1.191.9]

सभी विश्व द्वारा देखे जाने वाले, अदृष्ट प्राणियों के नाशक अदिति पुत्र सूर्य अनेक प्रकार से सभी विषों का विनाश करने के लिए, शैल से भी ऊँचे उठे हुए हैं।

With the Sun rise majority of harmful-poisonous microscopic organisms are destroyed-killed. Sun rises for the welfare of all living beings. 

Ultra violet and infra red rays are capable of killing all sorts of microbes, antigens.

सूर्ये विषमा सजामि दृति सुरावतो गृहे। सो चिन्नु न मसति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

शौण्डिक के गृह में चमड़े से बने सुरापात्र की तरह मैं सूर्य मण्डल में विष फेकता हूँ। जिस प्रकार से पूजनीय सूर्यदेव प्राणत्याग नहीं करते। उसी प्रकार से हम भी प्राण त्याग नहीं करते। अपने अश्वों पर आरूढ़ होकर सूर्यदेव इस विष का निवारण करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.10]

शौण्डिक के घर में मद्य पात्र के समान सूर्य मंडल में विष को प्रेरित करता हूँ। सूर्य का उससे पतन नहीं होगा। हम भी नहीं मरेंगे। वे अश्व पर सवार सूर्य विष का अमृत में परिवर्तन कर देते हैं।

Shoundik discard the poisons carried-kept in a skin vessel in the atmosphere-environment. The way Sun is not lost, I too remain alive. Sun riding his horses removes the impact affect of the poison. The science of pathogens tackles this menace and converts the poisons into ambrosia, nectar Amrat.

इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम्। सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

जिस प्रकार से क्षुद्र शकुन्तिका पक्षी ने आपका विष खाकर उगल दिया, उसने प्राण त्याग नहीं किया, उसी प्रकार से हम भी प्राण त्याग नहीं करेंगे। अश्व द्वारा परिचालित होकर सूर्यदेव दूर स्थित विष को दूर करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.11]

जैसे क्षुद्र शकुनि (पक्षी) ने तेरा जहर खाकर उगल दिया, वह उससे मरा नहीं, वैसे ही हम भी नहीं मरेंगे, अश्वारूढ़ सूर्य दूर रहकर भी हमसे विष को दूर रखते हैं तथा विष को माधुर्य देते हैं।

The way small Shakuntika bird eats poison and vomit, without being killed, we too shall survive. Driven by the horses the Sun removes the poisons and converts the poisons into nectar by using Madhula Vidya-science of converting poisons into nectar.

त्रिः सप्त विष्णुलिङ्गका विषस्य पुष्पमक्षन्। ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामार अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

अग्निदेव की सातों जिह्वाओं में से प्रत्येक में श्वेत, लोहित और कृष्णादि तीन वर्ण अथवा इक्कीस प्रकार के पक्षी विष की पुष्टि का विनाश करते हैं। वे कभी नहीं मरते, उसी प्रकार हम भी प्राण त्याग नहीं करते। अश्व द्वारा परिचालित होकर सूर्यदेव दूर स्थित विष का हरण करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.12]

अग्नि ने इक्कीस प्रकार के विषों को बल का भक्षण कर लिया। उसकी ज्वालाएँ अमर हैं। हम भी नहीं मर सकते। अश्वारूढ़ सूर्य ने दूरस्थ विष को भी नष्ट कर दिया और विष को मधुरता प्रदान की।

The seven flames of fire-Agni are capable of killing 21 types of poisons present in the birds (germs, virus, bacteria, fungus etc.) The birds carries them without being killed and we too will survive. Madhula Vidya converts these poisons into nectar.

Each and every century finds the out break of epidemic, which kills millions of people. There is mention of Corona in the Shastr. Pure vegetarians can easily survive the onslaught of it. Please refer to :: CORONA-DEADLY CHINES VIRUS over my blogs.

नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्। 

सर्वासामग्रभं नामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार

मैं सभी विषनाशक निन्यानबे नदियों के नामों का कीर्तन करता हूँ। अश्व द्वारा चालित होकर सूर्यदेव दूर स्थित विष का निवारण करते हैं और मधुला विद्या इस विष को अमृत में परिणत कर देती है।[ऋग्वेद 1.191.13]

मैंने विष नाशक निन्यानवें क्रियाओं को जान लिया है। रथ पर सवार सूर्य दूर से भी विष को अमृत में बदल देते हैं, 

I recite the names of  all 99 rivers which are capable of killing germs microbes etc. Driven by the horses Sury Dev-the Sun removes these poisons and the Madhula Vidya converts these poisons into nectar.

Maa Ganga is well knows for containing anti microbes properties. In fact a large number of rivers flowing from the mountains acquires the property of germicide due to the assimilation of vital herbs in them. Rivers flowing from the mountains possessing Sulphur too acquire such properties.

त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अग्रुवः। 

तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव

जिस प्रकार से स्त्रियाँ घड़े में जल ले जाती हैं, उसी प्रकार से इक्कीस मयूरियाँ (पक्षी) और सात नदियाँ आपके विष को दूर करें।[ऋग्वेद 1.191.14]

हे विष, से परिपूर्ण प्राणी! घड़े में नारियाँ जल ले जाती हैं, जैसे ही इक्कीस और भगिनी रूप सात नदियाँ तुम्हारे विष को दूरस्थ करती हैं। 

The way the women carries water in the Ghada-earthen pot, picher, 21 female peacock and 7 rivers remove your poisons.

इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्मयश्मना। 

ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवतः

अति सूक्ष्म-सा यह विषैला कीड़ा अर्थात् कीट हैं। हमारी ओर आने वाले छोटे से छोटे कीट को हम पत्थर से मार देते हैं। जिससे उसका विष अर्थात् जहर अन्य दिशाओं में चला जाता है।[ऋग्वेद 1.191.15] 

वह छोटा सा नकुल तुम्हारी देह का विष खींच ले अन्यथा उस नीच को मैं पत्थर ढेलों से मार डालूँगा। शरीर का विष चूसकर दूर देशों का चला जाये। 

Let the small Nakul suck the poison from your body, move else where otherwise I will kill it with pebbles.  

कुषुम्भकस्तदब्रवीगिरेः प्रवर्तमानकः। 

वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम्

पर्वत से आने वाले नेवला ने यह कहा कि वृश्चिक अर्थात् बिच्छू का विष प्रभावहीन है। हे वृश्चिक (बिच्छू)! तुम्हारे विष का प्रभाव नहीं।[ऋग्वेद 1.191.16]

नकुल ने शैल से निकल कर कहा, बिच्छू का विष प्रभाव से शून्य है। हे वृश्चिक! तेरे विष प्रभाव नहीं है। 

The mongoose coming from the hills told the scorpion that his poison was neutralised.

जल, औषधि और सूर्य में विषनाशक शक्ति है। इसलिए यहाँ इनकी प्रार्थना की गई है।

Water, medicines and Sun kills germs, microbes and antigens, hence they are described her. Flowing waters gradually become free from all sorts of contamination by the addition of atmospheric oxygen in it. 

ऋग्वेद संहिता, द्वितीय मण्डल सूक्त (38) :: ऋषि :- गृत्समद, भार्गव, शौनक, देवता :- सविता, छन्द :- त्रिष्टुप, पंक्ति।

उदु ष्य देवः सविता सवाय शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थात्।

नूनं देवेभ्यो वि हि धाति रत्नमथाभजद्वीतिहोत्रं स्वस्तौ

प्रकाशक और जगद्बाहक सूर्य देव प्रसव के लिए प्रतिदिन उदित होते हैं, यही उनका कर्म है। वे स्तोताओं को रत्न देते और सुन्दर यज्ञ वाले यजमान को मंगलभागी बनाते हैं।[ऋग्वेद 2.38.1]

संसार को वहन करने वाले ज्योर्तिमान सविता देव प्रसव के लिए प्रतिदिन प्रकट होते हैं। यही उनका नित्य का सिद्धान्त है। वे वंदना करने वालों को रत्नादि धन प्रदान करते और यजमान को कल्याण का भागीदार बनाते हैं।

Illuminating and supporting-sustaining the universe, is the daily routine of Savita-Dev-the Sun. This is his duty. He grants jewels to the host who worship him. He benefit the host-Ritviz as well. 

विश्वस्य हि श्रुष्टये देव ऊर्ध्वः प्र बाहवा पृथुपाणिः सिसर्ति।

आपश्चिदस्य व्रत आ निमृग्रा अयं चिद्वातो रमते परिज्मन्

प्रलम्बाहु और प्रकाशवाले सविता देव, संसार के आनन्द के लिए उदित होकर बाहु प्रसारित करते हैं। उनके कार्य के लिए अतीव पवित्र जल समूह प्रवाहित होता है और वायु भी सर्वतोव्यापी अन्तरिक्ष में विहरण करता है।[ऋग्वेद 2.38.2]

लम्बी भुजा और ज्योति से परिपूर्ण सवितादेव संसार को आनन्दमय करने के लिए हाथ फैलाते हैं। उनके लिए अत्यन्त शुद्ध जल प्रवाहमान होता और पवन अंतरिक्ष में विचरता है।

Long armed Savita Dev illuminate and extend his arms for the pleasure of the world. Extremely pure water flow and the air flows through the sky-space.  

आशुभिश्चिद्यान्वि मुचाति नूनमरीरमदतमानं चिदेतोः।

अह्यर्षूणां चिन्त्र्ययाँ अविष्यामनु व्रतं सविआर्पोक्यागात्

जिस समय सविता शीघ्रगामी किरणों द्वारा विमुक्त होते हैं, उस समय वे निरन्तरगामी पथिक को भी अलग करते हैं। जो शत्रु के विरुद्ध जाते हैं; सविता देव उनकी जाने की इच्छा को भी निवृत्त करते हैं। सविता के कर्म के पश्चात् ही रात्रि का आगमन होता है।[ऋग्वेद 2.38.3]

जब सविता देव तीव्र गति से किरणों द्वारा छोड़े जाते हैं, तब निरन्तर चलने वाले राही भी रुक जाते हैं । शत्रु के विरुद्ध आक्रमण के लिए जाने वाले की इच्छा भी उस समय निवृत्त हो जाती सविता देव के कर्म कर लेने पर रात आलोक को छिपा लेती है।When Savita Dev stops his fast moving rays, the traveller stops moving further and the night falls. Savita Dev checks the desire of moving-attacking the enemy at this hour-juncture. Once the task of Savita Dev is over, the night engulfs the universe-world. 

पुनः समव्यद्विततं वयन्ती मध्या कर्तोर्न्यधाच्छक्म धीरः।

उत्संहायास्थाद्व्यृ १ तुँरदर्धररमतिः सविता देव आगात्

वस्त्र बुनने वाली रमणी की तरह रात्रि पुनः आलोक को भली-भाँति वेष्टित करती है। बुद्धिमान् लोग जो कर्म करते हैं, वह करने में समर्थ होने पर भी मध्य मार्ग में रख देती है। विराम रहित और ऋतु विभाग कर्ता प्रकाशक सविता जिस समय पुनः उदित होते हैं, उस समय लोग शय्या को त्याग देते हैं।[ऋग्वेद 2.38.4]

आलोक :: देखना, दर्शन, दृष्टि, प्रकाश, रोशनी; light, lustre.

बुद्धिमानों के लिए हुए कार्य हिस्सा बीच के भाग में रुक जाते हैं, ऋतुओं का विभाजन करने वाले सूर्य जब दुबारा उदित होते हैं, तब व्यक्ति बिस्तारों को छोड़ देते हैं।

The night cover the light properly, like the young woman who knit the cloth. The intelligent post pone their endeavours even though  they are competent-capable. The Sun rises again and move continuously creating-causing the seasons. People leave their bed with the Sun rise. 

नानौकांसि दुर्यो विश्वमायुर्वि तिष्ठते प्रभवः शोको अग्नेः।

ज्येष्ठं माता सूनवे भागमाधादन्वस्य केतमिषितं सवित्रा

अग्नि के गृह में स्थित प्रभूत तेज यजमान के भिन्न-भिन्न गृह और समस्त अन्न में अधिष्ठित है। माता उषा ने सविता द्वारा प्रेरित प्रज्ञापक यज्ञ का श्रेष्ठ भाग पुत्र अग्नि को दान किया।[ऋग्वेद 2.38.5]

अग्नि ग्रह में उत्पन्न तेज यजमान के अन्न कोष्ठों में व्याप्त हैं। उषा माता सविता प्रेरित यज्ञ का उत्तम भाग अग्नि को दे चुकी हैं।

The energy generated in the house of Agni has pervaded the entire property and the food grains of the hosts-Ritviz. Mother Usha has granted the excellent portion of the Yagy to her son Agni, transferred to her by Savita i.e., Sun. 

समाववर्ति विष्ठितो जिगीषुर्विश्वेषां कामश्चरताममाभूत्।

शश्वाँ अपो विकृतं हित्व्यागादनु व्रतं सवितुर्दैव्यस्य

स्वर्गीय सविता के व्रत की समाप्ति होने पर जयाभिलाषी राजा युद्ध यात्रा कर चुकने पर भी लौट आता है। सारे जंगम पदार्थ घर की अभिलाषा करते और सदा कार्यरत् व्यक्ति अपने किये आधे कर्म को भी छोड़कर घर की ओर लौट आते हैं।[ऋग्वेद 2.38.6]

सविता के दिव्य व्रत की समाप्ति पर रथ से विजय की कामना करने वाला राजा लौटता है। सभी जंगम पदार्थ अपने पास की अभिलाषा करते और कर्म में लगे प्राणी अपने कार्यों के अधूरा रहने पर भी घर की ओर चल देते हैं।

The winning kings too return to their camps, from the battle field as soon as the Sun sets. All movable-living beings busy with their work return home, leaving behind their work unfinished (to complete the next day).

त्वया हितमप्यमप्सु भागं धन्वान्वा मृगयसो वि तस्थुः।

वनानि विभ्यो नकिरस्य तानि व्रता देवस्य सवितुर्मिनन्ति

हे सविता देव! अन्तरिक्ष में आपने जो जल-भाग रख छोड़ा है, जलान्वेषण कर्त्ता लोग चारों ओर उसे पाते हैं। आपने पक्षियों के लिए वृक्षों का विभाग किया है। कोई भी सविता के कार्य की हिंसा नहीं कर सकता।[ऋग्वेद 2.38.7]

हे सवितादेव! अंतरिक्ष में तुम्हारे द्वारा दृढ़ जल भाग को खोज करने वाले पाते हैं। तुमने पक्षियों के निवास के लिए वृक्षों का विभाजन किया। तुम्हारे कर्म को कोई नहीं रोक सकता।

Hey Savita Dev! The water left over in the sky-space, is found by those who wish to trace-find it. You have reserved the trees for the residence of the birds. No one can challenge your authority.

याद्राध्य वरुणो योनिमप्यमनिशितं निमिषि जर्भुराणः।

विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुर्गात्स्थशो जन्मानि सविता व्याकः

सविता के अस्त होने पर सदा गमनशील वरुण देव सारे जंगम पदार्थों को सुखकर, वाञ्छनीय और सुगम वास स्थान प्रदान करते हैं। जिस समय सविता सारे भूतों को स्थान-स्थान पर अलग अलग कर देते हैं, उस समय पशु-पक्षी गण भी अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं।[ऋग्वेद 2.38.8]

सूर्य अस्त होने पर गतिमान वरुण समस्त जंगम पदार्थों को सुख प्रदान करने वाले, आवश्यक और आसान निवास को ग्रहण होते हैं। 

Varun Dev provide appropriate-comfortable shelter to each and every living being after the Sun set. When Savita dev distinguishes-separates the place of living, all animals & birds return to their habitat.

The ever-going Varun Dev grants a cool, accessible and agreeable place for rest, to all moving creatures-beings on the closing of the eyes of Savita Dev and every bird and every beast repairs to its lair when Savita Dev has dispersed all beings in various directions.

न यस्येन्द्रो वरुणो न मित्रो व्रतमर्यमा न मिनन्ति रुद्रः।

नारातयस्तमिदं स्वस्ति हुवे दैवं सवितारं नमोभिः

इन्द्र देव जिसके व्रत की हिंसा नहीं करते, वरुण, मित्र, अर्यमा और रुद्र भी हिंसा नहीं करते, शत्रुगण भी हिंसा नहीं करते, उन्हीं द्युतिमान् सविता को कल्याण के लिए इस प्रकार नमस्कार द्वारा हम आह्वान करते हैं।[ऋग्वेद 2.38.9]

इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्यमा, रुद्र और शत्रु भी जिसके वृत्र को नहीं रोक सकते। उसी प्रकाशवान सूर्य को मंडल के लिए हम मस्तक नवाकर आमंत्रित करते हैं।

We invoke Savita Dev-Sun, who is not opposed by Indr, Varun, Mitr, Aryma, Rudr and even the enemies, 

by lowing our heads in his honour.

भगं धियं वाजयन्तः पुरंधिं नराशंसो ग्नास्पतिर्नो अव्याः। 

आये वामस्य संगथे रयीणां प्रिया देवस्य सवितुः स्याम

जिनकी स्तुति सारे मनुष्य करते हैं, जो देव पत्नियों के रक्षक हैं, वे ही सवितादेव हमारी रक्षा करें। हम भजनीय, बहुप्रज्ञ और ध्यान योग्य सविता को बलवान् करते हैं। हम धन और पशु की प्राप्ति के और संचय के सम्बन्ध में सवितादेव के प्रिय होकर रहें।[ऋग्वेद 2.38.10]

सभी प्राणी जिसकी वंदना करते हैं जो देव पत्नियों के रक्षक हैं वे सूर्य हमारे रक्षक हों। भजन और ध्यान के योग्य प्रतापी सूर्य को हम प्रसन्न करते हैं। 

धन और पशु को प्राप्त कर सुरक्षित रहने की कामना से हम सविता देव का सद्भाव चाहते हैं।

Let Savita Dev, who is the protector of goddesses-wives of the demigods and worshiped prayed by all humans, protect us. We worship-pray Sun through hymns and meditation, to keep him happy and healthy. We wish to have wealth and cattle and remain protected by Savita Dev along with his goodwill. 

अस्मभ्यं तद्दिवो अद्भ्यः पृथिव्यास्त्वया दत्तं काम्यं राध आ गात्।

शं यत्स्तोतृभ्य आपये भवात्युरुशंसाय सवितर्जरित्रे

हे सविता देव! आपने हमें जो प्रसिद्ध और रमणीय धन प्रदान किया है, वह द्युलोक, भूलोक और अन्तरिक्ष लोक से हमारे पास आवे। जो धन स्तोताओं के वंशजों के लिए शुभकर है। मैं बहुत-बहुत स्तुति करता हूँ कि मुझे वही धन प्रदान करें।[ऋग्वेद 2.38.11]

हे सूर्यदेव! तुमने हमें जो प्रसिद्ध और मनोरम धन प्रदान किया है, वह अद्भुत संसार, धरा और अंतरिक्ष से हमको प्राप्त हो। जो धन प्रार्थना करने वालों के वंशजों के लिए कल्याणकारी है, वही धन मुझे प्रदान करो। मैं तुम्हारी भली-भांति अत्यन्त वदंना करता हूँ।

Hey Sury Dev! The wealth granted by you, should come to us from the heavens, earth and the space. It should be auspicious to our next generation-progeny.  We pray to you again and again to be given that auspicious wealth. 

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BRAHMA JI (1) ब्रह्मा जी

BRAHMA JI-THE CREATOR

सृष्टि रचनाकार ब्रह्मा जी

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नमः।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
A Golden (Hirany) egg, brighter than the Sun, appeared in water like a gigantic bubble, illuminating everything around, called Hirany Garbh (womb). Everything composing universe-all abodes including Heavens, Earth, Moon, Sun, Demons, Demi Gods, Humans and all that had to be created were present in it, in embryonic state-form.
From the navel of Chhudr Virat Purush, Bhagwan Narayan-Shri Hari Vishnu emerged; Brahma Ji emerged  on naval lotus of Bhagwan Shri Hari Vishnu.
Virat Purush-Vishnu, an incarnation of Maha Virat Purush-the son of Almighty Shri Krashn and Radha Ji, emerged out of it and evolved-created his three incarnations viz. Brahma, Vishnu & Mahesh. Brahma Ji is the creator with 7 characters.
Brahma Ji and Bhagwan Vishnu looked at each other and argued that the other one was created by him. Brahma Ji told that the entire universe was present in him. Bhagwan Vishnu entered in Brahma’s mouth to see it and found that the entire universe was present there in the stomach. He jokingly allowed Brahma Ji to find what was there in him. Brahma Ji too found everything in him. Bhagwan Vishnu closed his mouth and allowed him to come off through the navel lotus. Brahma Ji asked him to ask for a boon. Bhagwan Vishnu asked him to accept himself as his father-Creator and Brahma Ji obliged.
Each Universe has a Chhudr (small, dwarf, pygmy, fragment, component) Virat Purush, from whom originated the Trinity of Brahma-the Creator, Vishnu-the Protector and Mahesh-the Destroyer.
ALMIGHTY-FORMLESS
ALMIGHTY WITH FORM SHRI KRASHN
SHRI KRASHN IN GAULOK
SHRI KRASHN⟶ BHAGWATI SARASWATI
↓                                         ↓
          VIRAT PURUSH-MAHA VISHNU🢨RADHA JI IN GAU LOK
  ↓
INFINITE UNIVERSES
 ↓
OUR UNIVERSE
GOLDEN EGG-SHELL
NARAYAN-BHAGWAN SHRI HARI VISHNU
NAVEL LOTUS
PRAJAPATI BRAHMA JI 
Brahma Ji requested Bhagwan Shiv-Mahesh to create life. He created eleven Rudr, who were all alike him. They are Dikpals (possessors of directions, 10 in number) now positioned in ten directions. Mahesh showed his inability to do this further. Dev Rishi Narad came off Brahma Ji’s forehead. Brahma Ji’s forehead yielded the Sapt Rishi’s.
BRAHMA JI’S CREATIONS ::
(1). DIVINE CREATIONS :: Divine creations settled in heavens-higher abodes. Yaksh, Rakshash, Asur (Monsters-giants) who were the first to evolved from the thigh of Brahma Ji, ran towards him, to eat him, shouting Yaksh-Yaksh meaning :- eat him, followed by Rakshash, shouting Rakshash, Rakshash meaning: don’t protect him. Brahma Ji told them that he was their father-creator and therefore they should not eat him. Brahma Ji rejected the original-that body to acquire a new one. Deserted body turned into night (darkness constituting of smoke, fog, mist, dust, evening, dawn, Sunset, morning; pleasing both Yaksh and Rakshash. Rakshash are termed as Demons & giants, Asur and Anti Demigods, as well, due to their nature habits, desire for sex-lust, darkness.
Sages evolved from the forehead-mind and other body parts were named :-
HEART :: Bhragu,
EYES :: Marichi,
EARS :: Atri,
HEAD :: Angira
UDAN VAYU :: Pulasty,
VYAN VAYU :: Puleha,
APAN VAYU :: Kretu,
SAMAN VAYU :: Vashishth,
SHADOW :: Kardam,
DETERMINATION :: Dharm  along with innumerable sons including Kashyap.
FOREHEAD :: Bhagwan Shiv (Maheshwar, Ardhnarishwer) evolved from the centre of eye brows and the nose.
Nondescript-uncharacteristic Brahm Shiv (Aling) is Ling (nature). Nature (ling) is a component of Shiv. Devoid of Sound-word, touch-figure, extract-elixir (juice), smell is Shiv. Non-descriptive, unmoved, undeteriorating, Aling, Nirgun-no specific characteristic-component is Shiv. The nature associated with word-sound, touch-feeling, figure-shape and size, extract-juices, smells is the excellence of Shiv. He is the producer-creator of universe, with 5 components which were, which are, which will be there are: Earth, Water, Tej (energy, light), Space, Air. Micro-Macro, all components-sections of universe have been created from the nondescript Parmatma-Almighty Shiv. Its, Aling-nondescript due to the Maya-illusory Power  of God and constitute  of 7, 8 or 9 shapes-figures of Ling Tatv (Components-Elements). Bhagwan Shiv is capable of moving freely, in 14 universes as per his will.
MANAS PUTR :: Manas Putr (Brain child, always remain naked and appear-seen as kids) Sanak, Sanandan, Sanatan and Sanat Kumar; Dev Rishi Narad evolved from the from the fore head of Bahama Ji. They were capable of moving freely in all abodes, including earth. Devs, Humans too evolved from there.
THIGH :: From the thigh of Brahma Ji evolved Yaksh, Asurs (Rakshash-Demons, Danav-Giants), after acquisition of new body followed by Gandharv and Apsra by acquiring another glowing body.
Next bodies to be acquired by Brahma Ji were :-
(1.1).TEJOMAI (full of Aura-energy, glittering, illuminated) :: It Sandhey Gan and Pitre Gan.
(1.2).TIRO DHAN :: It yielded Siddh, Vidya Dhar, Pritibimb (reflection), Kinners (important), Kim Purush (important).
ANGER (Tandra) :: It produced ghosts (Bhoot, Pishach) and spirits.
HAIRS :: They produced-evolved the servants.
HEART :: Krat-Kraty were produced-evolved through Indriy Sanyam (self control, Control of senses, Asceticism, Enlightenment, Yog, Trans meditation, Salvation).
MANU & SHATRUPA :: Brahma Ji evolved Manu from his right half and Shatrupa from his left half.
DAKSH PRAJAPATI :: Daksh Praja Pati evolved from the right leg toe of Brahma Ji & his wife Prasuti evolved from the left toe of the creator.
चन्द्र देव, काम देव और भगवान् श्री कृष्ण और रुक्मणि जी के पुत्र प्रद्युम्न जी, ये तीनों ही ब्रह्मा जी के स्वरूप-अवतार हैं।
BRAHMA’S DAY “KALP” ULTIMATE UNIT OF TIME :: भगवान् ब्रह्मा जी के एक दिन को एक कल्प कहा गया है।

(1). नील वराह कल्प :- पाद्मकल्प के अंत के बाद महाप्रलय हुई। सूर्य के भीषण ताप के चलते धरती के सभी वन-जंगल ‍आदि सूख गए। समुद्र का जल भी जल गया। ज्वालामुखी फूट पड़े। सघन ताप के कारण सूखा हुआ जल वाष्प बनकर आकाश में मेघों के रूप में स्थिर होता गया।

अंत में न रुकने वाली जलप्रलय का सिलसिला शुरू हुआ। चक्रवात उठने लगे और देखते ही देखते समस्त धरती जल में डूब गई। यह देख भगवान् ब्रह्मा जी को चिंता होने लगी, तब उन्होंने जल में निवास करने वाले भगवान् श्री हरी विष्णु का स्मरण किया और फिर भगवान् विष्णु ने नील वराह रूप में प्रकट होकर इस धरती के कुछ हिस्से को जल से मुक्त किया। नील वराह देव ने अपनी पत्नी नयनादेवी के साथ अपनी संपूर्ण वराही सेना को प्रकट किया और धरती को जल से बचाने के लिए तीक्ष्ण दरातों, पाद प्रहारों, फावड़ों और कुदालियों और गैतियों द्वारा धरती को समतल किया।इसके लिए उन्होंने पर्वतों का छेदन तथा गर्तों के पूरण हेतु मृत्तिका के टीलों को जल में डालकर भूमि को बड़े श्रम के साथ समतल करने का प्रयास किया। यह एक प्रकार का यज्ञ ही था, इसलिए भगवान् नील वराह को भगवान् यज्ञ वराह भी कहा गया। नील वराह के इस कार्य को आकाश के सभी देवदूत देख रहे थे। प्रलयकाल का जल उतर जाने के बाद भगवान् के प्रयत्नों से अनेक सुगंधित वन और पुष्कर-पुष्करिणी सरोवर निर्मित हुए, वृक्ष, लताएं उग आईं और धरती पर फिर से हरियाली छा गई। संभवत: इसी काल में मधु और कैटभ का वध किया गया था।
(2). आदि वराह कल्प :- नील वराह कल्प के बाद आदि वराह कल्प शुरू हुआ। इस कल्प में भगवान् विष्णु ने आदि वराह नाम से अवतार लिया। यह वह काल था जबकि दिति और कश्यप के दो भयानक असुर पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का आतंक था। दोनों को ही ब्रह्माजी से वरदान मिला हुआ था।
हिरण्याक्ष का वध :- ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान् वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान् ने जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।
आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। अंतत: हिरण्याक्ष का अंत हुआ।
हिरण्यकश्यप का वध :- इस काल में भगवान् वराह ने नृसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया था। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान् विष्णु का परम भक्त था, जो हिरण्यकश्यप को पसंद नहीं था तो उसने प्रहलाद को मारने के लिए कई उपाय किए। लेकिन भगवान् विष्णु ने अपने भक्त को बचाने के लिए अंत में नृसिंह का अवतार लिया।
हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा जी से अमरता का वर मिला था। उसने ब्रह्मा जी से वर मांगा था कि मुझे कोई मनुष्य, दानव, असुर, किन्नर, पशु, पक्षी और जलचर जंतु नहीं मार सके और न में दिन में मरूं, न रात में, न पाताल में, न धरती पर और न आकाश में। भगवान् ब्रह्मा ने कहा :- तथास्थु।
(3). श्वेत वराह कल्प :- वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र और इला नाम की कन्या थी। वैवस्वत मनु को ही पृथ्वी का प्रथम राजा कहा जाता है। इला का विवाह बुध के साथ हुआ जिससे उसे पुरूरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुरूरवा प्रख्यात ऐल या चंद्र वंश का संस्थापक था।
वैवस्वत मनु के काल के प्रमुख ऋषि :- वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कण्व, भारद्वाज, मार्कंडेय, अगस्त्य आदि।
वैवस्वत मनु की शासन व्यवस्था में देवों में 5 तरह के विभाजन थे :- देव, दानव, यक्ष, किन्नर और गंधर्व।
प्रमुख प्रजातियाँ :: देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, रुद्र, मरुदगण, किन्नर, नाग आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। देवताओं की अदिति, तो दैत्यों की दिति से उत्पत्ति हुई। दानवों की दनु से तो राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई। इसी तरह यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है।
पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति :: प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़ी हुई धरती को प्राचीनकाल में 7 द्वीपों में बांटा गया था : जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है।
जम्बू द्वीप के 9 खंड थे :- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय।
देवताओं के गुरु बृहस्पति और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे।
तब ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि ये ऋषियों की 7 श्रेणियां होती थीं।
यह वैवस्वत मनु का काल था जबकि वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कण्व, भारद्वाज, मार्कंडेय, अगस्त्य आदि ऋषिगण हुआ करते थे।
वराह काल में नील वराह अवतार से लेकर आदि वराह, श्वेत वराह, नृसिंह अवतार, वामन अवतार और कच्छप अवतार हुए ।
इस काल में सनकादि, इंद्रादि, नर-नारायण हुए, वासुकि-तक्षक, हाहा-हूहू, मेनका-रम्भा, मरुदगण, हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप हुए, दिति-अदिति पुत्र, रथकृत-ओज, हेति-प्रहेति हुए, मधु-कैटभ हुए, भस्मासुर, त्रिपुरासुर हुए, ब्रह्मा के 10 पुत्रों का कुल चला, राजा बाली हुए।
बाली के बाद कच्छप अवतार हुआ और अंत में स्वायंभुव मनु हुए। स्वायंभुव मनु के बाद स्वरोचिष, औत्तमी, तामस मनु, रैवत और चाक्षुष मनु हुए और अंत में जल प्रलय के बाद नए युग की शुरुआत हुई। जल प्रलय के दौरान सातवें मनु वैवस्वत मनु हुए।
इन्द्र-बलि (समुद्र मंथन) :- वामन अवतार के बाद कच्छप अवतार हुआ जिसे कूर्म अवतार भी कहा गया। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदार पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके 14 रत्नों की प्राप्ति की। इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था। इसके बाद जल प्रलय की घटना घटी।
मत्स्य अवतार-सातवें मनु वैवस्वत मनु :: स्वायंभुव मनु के कुल में मत्स्य पुराण में उल्ले‍ख है कि द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत एक दिन कृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उस समय उनकी अंजुलि में एक छोटी-सी मछली आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी में डाल दिया तो मछली बोल पड़ी। उसने कहा कि इस जल में बड़े जीव-जंतु मुझे खा जाएंगे। यह सुनकर राजा ने मछली को फिर जल से निकाल लिया और अपने कमंडल में रख लिया और महल ले आए।
रात भर में वह मछली बढ़ गई, तब राजा ने उसे बड़े मटके में डाल दिया। मटके में भी वह बढ़ गई तो उसे तालाब में डाल दिया। अंत में सत्यव्रत ने जान लिया कि यह कोई मामूली मछली नहीं, जरूर इसमें कुछ बात है, तब उन्होंने उसे ले जाकर समुद्र में डाल दिया। समुद्र में डालते समय मछली ने कहा कि समुद्र में मगर रहते हैं आप वहां मत छोड़िए, लेकिन राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि आप मुझे कोई मामूली मछली नहीं जान पड़ती है, आपका आकार तो अप्रत्याशित तेजी से बढ़ रहा है बताएं कि आप कौन हैं?
तब मछली रूप में भगवान् विष्णु ने प्रकट होकर कहा कि आज से 7वें दिन प्रलय (अधिक वर्षा से) के कारण पृथ्वी समुद्र में डूब जाएगी, तब मेरी प्रेरणा से तुम एक बहुत बड़ी नौका बनाओ और जब प्रलय शुरू हो तो तुम सप्त ऋषियों और कुछ मनुष्यों सहित सभी एक जोड़े प्राणियों को लेकर उस नौका में बैठ जाना तथा सभी अनाज उसी में रख लेना। अन्य छोटे-बड़े बीज भी रख लेना। नाव पर बैठकर लहराते महासागर में विचरण करना।
प्रचंड आंधी के कारण नौका डगमगा जाएगी। तब मैं इसी रूप में आ जाऊंगा, तब वासुकि नाग द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध लेना। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी, मैं नाव समुद्र में खींचता रहूंगा। उस समय जो तुम प्रश्न करोगे, मैं उत्तर दूंगा। इतना कह मछली गायब हो गई।
राजा तपस्या करने लगे। मछली का बताया हुआ समय आ गया। वर्षा होने लगी। समुद्र उमड़ने लगा। तभी राजा ऋषियों, अन्न, बीजों को लेकर नौका में बैठ गए और फिर भगवानरूपी वही मछली दिखाई दी। उसके सींग में नाव बांध दी गई और मछली से पृथ्वी और जीवों को बचाने की स्तुति करने लगे। मछलीरूपी विष्णु ने उसे आत्मतत्व का उपदेश दिया। मछलीरूपी विष्णु ने अंत में नौका को हिमालय की चोटी से बांध दिया। उस चोटी को आज नौकाबंध कहते हैं। 6 माह तक वर्षा हुई और नाव में ही बैठे-बैठे जल प्रलय का अंत हो गया।
यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए, वही वैवस्वत मनु के नाम से भी जाने गए।
पूर्व में यह धरती जल प्रलय के कारण जल से ढंक गई थी। कैलाश, गोरी-शंकर की चोटी तक पानी चढ़ गया था। संपूर्ण धरती ही जलमग्न हो गई थी, लेकिन ओंकारेश्वर स्थित मार्कंडेय ऋषि का आश्रम जल से अछूता रहा। इसके अलावा तिब्बत, मंगोलिया के कई ऊंचे पठार भी जल से अछूते रहे।
कई माह तक वैवस्वत मनु (इन्हें श्राद्धदेव भी कहा जाता है) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गौरी-शंकर शिखर से होते हुए नीचे उतरी। गौरी-शंकर जिसे एवरेस्ट की चोटी कहा जाता है, दुनिया में इससे ऊंचा, बर्फ से ढंका हुआ और ठोस पहाड़ दूसरा नहीं है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे :- (1). इल, (2). इक्ष्वाकु, (3). कुशनाम, (4). अरिष्ट, (5). धृष्ट, (6). नरिष्यन्त, (7). करुष, (8). महाबली, (9). शर्याति और (10). पृषध। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
स्वायम्भुव मनु ही आदि मनु और प्रजापति कहे गए हैं। उनके दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद। राजा उत्तानपाद के पुत्र परम धर्मात्मा ध्रुव हुए, जिन्होंने भक्ति भाव से भगवान् विष्णु की आराधना करके अविनाशी पद को प्राप्त किया।
राजर्षि प्रियव्रत के दस पुत्र हुए, जिनमें से तीन तो संन्यास ग्रहण करके घर से निकल गए और परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गए। शेष सात द्वीपों में उन्होंने अपने सात पुत्रों को प्रतिष्ठित किया। राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीघ्र जम्बू द्वीप के अधिपति हुए।
उनके नौ पुत्र जम्बू द्वीप के नौ खण्डों के स्वामी माने गए हैं, जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृतवर्ष, भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, कुरुवर्ष, हिरण्यमयवर्ष, रम्यकवर्ष, हरीवर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभि खंड (भारतवर्ष) कहते हैं।
नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से ‘भरत’ का जन्म हुआ; जिनके आधार पर इस देश को भारतवर्ष भी कहते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, शिव आदि पदों पर अलग-अलग कल्पों में अलग देवता विराजमान होते हैं।
मत्स्य पुराण में 30 कल्पों की चर्चा है :- श्‍वेत, नीललोहित, वामदेव, रथनतारा, रौरव, देवा, वृत, कंद्रप, साध्य, ईशान, तमाह, सारस्वत, उडान, गरूढ़, कुर्म, नरसिंह, समान, आग्नेय, सोम, मानव, तत्पुमन, वैकुंठ, लक्ष्मी, अघोर, वराह, वैराज, गौरी, महेश्वर, पितृ।
महत कल्प :- इस काल के बाद प्रलय हुई थी तो सभी कुछ नष्ट हो गया। इस कल्प में विचित्र-विचित्र और महत् (-अंधकार से उत्पन्न) वाले प्राणी और मनुष्य होते थे। जो अंधकार में भी देखने में सक्षम थे।
हिरण्य गर्भ कल्प :- इस काल में धरती का रंग पीला था इसीलिए इसे हिरण्य कहते हैं। हिरण्य के 2 अर्थ होते हैं- एक जल और दूसरा स्वर्ण। हालांकि धतूरे को भी हिरण्य कहा जाता है। माना जाता है कि तब स्वर्ण के भंडार बिखरे पड़े थे। इस काल में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ, हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता, हिरप्यानी रैडी (अरंडी), वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु थे। सभी एकरंगी पशु और पक्षी थे।
ब्रह्मकल्प :- इस कल्प में मनुष्य जाति सिर्फ ब्रह्म (ईश्‍वर) की ही उपासक थी। क्रम विकास के तहत प्राणियों में विचित्रताओं और सुंदरताओं का जन्म हो चुका था। जम्बूद्वीप में इस काल में ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केंद्र आदि नाम से स्थल हुआ करते थे। यहां की प्रजाएं परब्रह्म और ब्रह्मवाद की ही उपासना करती थी। इस काल का ऐतिहासिक विवरण हमें ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है।
पद्मकल्प :- पुराणों के अनुसार इस कल्प में 16 समुद्र थे। यह कल्प नागवंशियों का था। धरती पर जल की अधिकता थी और नाग प्रजातियों की संख्या भी अधिक थी। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) व किरात जातियां थीं और कमल पत्र पुष्पों का बहुविध प्रयोग होता था। सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की नारियां पद्मिनी प्रजाएं थीं। तब के श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति आज के श्रीलंका जैसी नहीं थी। इस कल्प का विवरण हमें पद्म पुराण में विस्तार से मिल सकता है।
वराहकल्प :- वर्तमान में वराह कल्प चल रहा है। इस कल्प में भगवान् विष्णु ने वराह रूप में 3 अवतार लिए :- पहला नील वराह, दूसरा आदि वराह और तीसरा श्वेत वराह। इसी कल्प में विष्णु के 24 अवतार हुए और इसी कल्प में वैवस्वत मनु का वंश चल रहा है। इसी कल्प में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने नई सृष्टि की थी। वर्तमान में हम इसी कल्प के इतिहास की बात कर रहे हैं। वराह पुराण में इसका विवरण मिलता है।
अब तक वराह कल्प के स्वायम्भु मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है।
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BRAHMA JI TEMPLE PUSHKAR जगत्-पिता ब्रह्मा जी का मन्दिर पुष्कर ::  Jagat Pita Brahma Mandir-temple is situated at Pushkar in Rajasthan, India. This is located near the sacred lake known as Pushkar. This is the first, one of the rarest & most prominent temple dedicated to Bhagwan Prajapati Brahma. The present temple was constructed over the old site in the 14th century around 2000 years ago. It has been built with marble and stone stabs. It has a distinct red pinnacle-Shikhar and a Hans-swan motif. The temple sanctum sanctorum holds the image of Brahma Ji and Maa Gayatri. The temple is governed by the Sanyasi-ascetic sect, priesthood. On Kartik Poornima, a festival dedicated to Brahma Ji is held when large number of devotees throng Pushkar.

MOTIF :: मूल भाव, विशेष लक्षण, प्रधान विचार-चेष्टा, रूपांकन, अभिप्राय, कथानक रूढ़ि, वस्तु; Intent, Intention, studiedly, article, chose, contents, Entity, luggage.

THRONG :: भीड़, मेला, जमघट, भीड़-भाड़, जमाव, भीड़ लगना, कंधे से कंधे भिड़ता रहना; crowd, multitude, mob, horde,  concourse, fair, skit, festival, scrum, rally, swarm, posse, boodle, dilemma, milling, jamming, huddle, hustle, shoal, legion, congestion, setting, coagulation, backlog, concourse, rabble, hang around, cluster, herd.

Brahma Temple at PushkarBrahma Ji saw the demon Vajr Nabh (Vajr Nash) trying to kill his creations-public. He immediately slew the demon with his weapon-Brahmastr, in the form of a lotus-flower. In this process, the lotus petals fell on the ground at three places, creating three lakes: the Pushkar Lake or Jyeshth Pushkar (senior-greatest or first Pushkar), the Madhy Pushkar (middle Pushkar) Lake and Kanishth Pushkar (Junior-lowest or youngest Pushkar) lake. When Brahma Ji came down to the earth, he named this place, where the Pushp-flower petals  had fallen from his hands-Kar as Pushkar.[Padma Puran]

Pushkar means blue lotus flower. The demigods released a swan with a lotus in its beak and let it fall on earth where Brahma Ji would perform a grand Yagy. The place where the lotus fell was called Pushkar. Pushkar is derived from the word Push Karni, which means-lake. 

Brahma Ji decided to perform a Yagy (holy sacrifices in fire) at the main Pushkar Lake. To perform his Yagy peacefully without being attacked by the demons, he created the hills around Pushkar named Ratn Giri in the south, Neel Giri in the north, Sanchoor in the west and Sury Giri in the east and positioned demigods there to protect the Yagy. However, while performing the Yagy, his wife Maa Savitri (or Saraswati in some versions) could not be present at the designated time to perform the essential part of the Yagy as she was waiting for Maa Lakshmi, Parvati and Indrani. So, Brahma Ji married Gurjar girl, Gayatri and completed the Yagy with her sitting beside him, holding the Amrat Kalash (Pot containing the elixir-nectar) on her head and giving Ahuti-offering, in the sacrificial holy fire.

When Savitri finally arrived at the venue, she found Gayatri sitting next to Brahma Ji which was her rightful place. Agitated, she cursed Brahma Ji that he would be never worshipped, but later reduced the curse permitting his worship in Pushkar. Savitri also cursed Indr to be defeated easily in battles and Bhagwan Shri Hari Vishnu to suffer the separation from his wife as a human, the fire-deity Agni who was offered the Yagy  to be all-devouring and the priests performing the Yagy  to be poor. Endowed by the powers of Yagy, Gayatri diluted Savitri’s curse, blessing Pushkar to be the king of pilgrimages, Indr would always retain his heaven, Bhagwan Vishnu would be born as the human incarnation Ram and finally unite with Mata Sita and the priests would become scholars and be venerated. Thus, the Pushkar temple is regarded as the only temple solely dedicated to Brahma Ji. Savitri, thereafter, moved into the Ratn Giri hill and became a part of it, by emerging as a spring known as the Savitri Jharna-stream & a temple in her honour exists there. There are still priests from the Gurjar community in Pushkar temple, known as Bhopas.

There are 500 temples, 80 are large and the rest are small. Of these many are old that were destroyed or desecrated by Muslim depredations during Mughal emperor Aurangzeb’s rule (1658–1707) but were re-built subsequently. Of these the most important is the Brahma temple. The temple is described to have been built by sage Vishw Mitr after Brahma’s Yagy. Brahma himself chose the location for his temple. The 8th century Adi Shankrachary renovated this temple, while the current medieval structure dates to Maha Raja Jawat Raj of Ratlam, who made additions and repairs, retaining the original temple design.

The temple, which is set on high plinth, is approached through a number of marble steps leading to an entrance gate archway, decorated with pillared canopies. The entry from the gate leads to a pillared outdoor hall-Mandap and then the sanctum sanctorum-Garbh Grah. The temple is built with stone slabs and blocks, joined together with molten lead. The red Shikhar-spire of the temple, has the symbol of a Hans-Swan-Goose, the mount of Bhagwan Brahma; as the distinct features of the temple. The Shikhar is about 700 feet (210 m) in height. The Hans-motif decorates the main entry gate. Marble flooring in black and white checks and walls inside the temple have been inlaid with hundreds of silver coins by devotees, with their names inscribed over them, as mark of offering to Bhagwan Brahma-the creator. There is a silver turtle in the Mandap, which is displayed on the floor of the temple facing the Garbh Grah, built in marble. The marble flooring has been replaced from time to time. The left depicts the front facade and the right has the idol of Brahma Ji inside the temple.

Bhagwan Brahma’s central icon-Murti-idol made of marble was deified (देवत्वारोपण, देवता-सदृश) in the Garbh Grah in 718 AD by Adi Shankrachary. The icon depicts Brahma Ji, seated in a crossed leg position in the aspect of creation of the universe-the Vishw Karma. The central image is called the Chau Murti-four-faced idol. It is of life size idol with four hands, four faces, each oriented in a cardinal direction. The four arms hold the Aksh Mala-rosary, the Pustak-book), the Kurk-Kush grass and the Kamandlu-water pot). Brahma Ji is riding on his mount-vehicle, the Hans. The four symbols held by Brahma Ji in his arms: the rosary, Kamandlu, book and the sacrificial implement Kush grass represent time, the causal waters from which the universe emerged, knowledge and the system of sacrifices to be adopted for sustenance of various life-forms in the universe. Gayatri’s image is also present, along with Brahma’s Ji in centre to his left. Maa Savitri-Saraswati sits to the right of Brahma Ji, along with other deities. Images of the peacock the vehicle of Maa Saraswati, also decorate the temple walls. Images of the Nurturer-preserver Bhagwan Vishnu, life-sized Dwar Palas-gate keepers and a gilded Garud (eagle-man, Vehicle-mount of Bhagwan Vishnu are also present in the temple.

The pilgrims take ceremonial sacred bath in Pushkar Lake with Savitri temple in the background and then visit the Brahma Ji temple to worship him and his wife Gayatri.

The temple is open for worship between 6:30 AM and 8:30 PM during winter and 6:00 AM to 9:00 PM during summer, with an interval in afternoon between 1:30 PM to 3:00 PM when the temple is closed. Three Artis are held in the temple: Sandhya Arti in the evening about 40 minutes after Sunset, Ratri Shayan Arti (night-sleep Arti) about 5 hours past Sunset and Mangal Arti in the morning, about 2 hours before Sunrise.

The priests at the Brahma Ji temple refer to a strictly followed religious practice. House holders-married men are not allowed to enter the sanctum sanctorum to worship the deity. Only ascetics-sages-Sanyasis can perform the Puja to the deity. Hence, all offerings by pilgrims are given, from the outer hall of the temple, through a priest who is also a Sanyasi. The priests of the temple, in Pushkar, belong to the Parashar Gotr-lineage.

Mata Savitri and Gayatri also have separate temples erected for them in Pushkar, on hills at opposite ends of the lake. Savitri temple located on the top of Ratn Giri hill, behind Brahma Ji’s temple, overlooks the Pushkar Lake and the sand dunes on its western side. It is reached by one hour’s trek over a series of steps on the hill. The temple made of marble, houses a statue of Maa Savitri. The Gayatri temple-Pap Mochini temple is accessible by a 30-minute climb from a track behind Marwar bus stand.

The Atpateshwar temple, which is situated in a cave next to the Brahma temple, is dedicated to Bhagwan Shiv. This temple was built by Brahma Ji after he found that Bhagwan Shiv attended the Yagy performed by him in the garb of a Tantric-mendicant holding a skull. When Bhagwan Shiv was accosted for this appearance, he was piqued and filled the entire area of the Yagy site with skulls. Agitated Brahma Ji then meditated to find the reason for such a situation. Soon, he realised that the mendicant was none other than Bhagwan Shiv. Realising his folly, Brahma Ji requested Bhagwan Shiv to attend the Yagy. Bhagwan Shiv attended the Yagy holding the skull and Brahma Ji in appreciation erected a temple in honour of Bhagwan Shiv as Atpateshwar, next to his own temple. The Shiv Ling in this temple is large and is encircled by a snake made of copper. Shiv Ratri festival is a special occasion to visit this temple. Bhagwan Shiv is Yagyeshwar (यज्ञेश्वर) and no Yagy is complete without his presence-worship. 

Tirth Raj Pushkar (पुष्कर) is one of the oldest existing cities of India-world. Pushkar lake has 52 ghats where pilgrims descend into the lake to bathe, in the sacred waters. It is a town in the Ajmer district in Rajasthan, India. It is situated 14 km (8.7 mi) northwest of Ajmer at an average elevation of 510 m (1,670 ft) and is one of the five sacred Dhams-pilgrimage sites. The pond at the Katas Raj temple near Choa Saedan Shah in Chakwal District of Pakistan has a theological association with Bhagwan Shiv. It was formed by the tears of Bhagwan Shiv which he shed after the death of Mata Sati. When Mata Sati died, Bhagwan Shiv cried so much and for so long, that his tears created two holy ponds-one at Pushkar in Ajmer in India and the other at Kataksh (कटाक्ष, raining eyes). Katas is a short form of KatakshPushkar is also famous for its annual Camel Fair held in November.

The nearest airport from Pushkar is Sanganer Airport at Jaipur at distance of 146 km (91 miles). Jaipur is well connected with all the major cities in India.

Pushkar is connected with Ajmer by Pushkar road which goes through Aravali range. The mountain portion road which separate Pushkar from Ajmer City is locally known as Pushkar Ghati. Pushkar is 11 km (6.8 mi) from Ajmer. 

BRAHMAN (ब्राह्मण)  is a Varn-Upper most-apex caste in Hinduism specialising in theory as priests, preservers and transmitters of sacred literature across generations. A Brahmn represents Brahma Ji and Bhagwan Shri Hari Vishnu says that a Brahmn is his mouth through which the demigods eat the offerings by the devotees.

Brahman Granth, (ब्राह्मणग्रंथ) are one of the four ancient layers of texts within the Veds. They are primarily a digest incorporating myths, legends, the explanation of Vedic rituals and in some cases philosophy. They are embedded within each of the four Veds and form a part of the Shruti.

Brahma Ji originated from the lotus emerging from the navel of Bhagwan Shri Hari Vishnu at the moment when time and universe were born.  Brahma Ji was drowsy, errs and was temporarily incompetent as he appeared in the universe. He became aware of his confusion and drowsiness, meditated as an ascetic, then realised Bhagwan Shri Hari Vishnu in his heart. He saw the beginning and end of universe and then his creative powers were revived. Brahma Ji, thereafter combined Prakrati (nature, matter) and Purush (spirit, soul) to create a dazzling variety of living creatures and tempest of causal nexus. All his creations were divine. Kashyap Ji in turn created creatures through sexual inter course. [Bhagwat Puran]

Maa Parvati, incarnation of Maa Bhagwati is called the mother of the universe and she is credited with creating Brahma Ji, demigods and the three worlds. She is the one, who combined the three Tri Gun :- Sattv, Rajas and Tamas, into nature-Prakrati to create the empirically observed world. [Skand Puran]

Brahma Ji possesses Rajas Gun (quality of passion, activity, neither good nor bad and sometimes either, action, individualising, driven, dynamic), which is compensated by Maa Saraswati who has Sattv (quality of balance, harmony, goodness, purity, holistic, constructive, creative, positive, peaceful, virtuous). Maa Saraswati, is considered to be the embodiment of Bhagwan Brahma’s power, the instrument of creation and the energy that drives his actions.

Bhagwan Brahma is traditionally depicted with four heads-mouths and four arms. Each face of his points to a cardinal direction. His hands hold no weapons, rather symbols of knowledge and creation. In one hand he holds the sacred texts of Ved, in second he holds Mala (rosary beads) symbolising time, in third he holds a ladle symbolising means to feed sacrificial fire and in fourth a Kamandal-utensil with water symbolising the means where all creation emanates from. His four mouths are credited with creating the four Veds. He is often depicted with a white beard, implying his sage-like experience. He sits on lotus, dressed in white (or red, pink), with his vehicle-Vahan a Hans, a swan or goose, nearby.

Brahma statue should be golden in colour. The statue should have four faces and four arms, have Jata-locks, Mukut-crown, Mandit-fixed (matted hair of an ascetic). Two of his hands should be in refuge granting and gift giving Mudra-posture. He should be shown with Kundik (water pot), Aksh Mala (rosary), a small and a large Sruk-Sruv (ladles used in Yagy ceremonies). The different proportions of the Murti-statue-idol, describes the ornaments and suggests that the idol wear Chir (bark strip) as lower garment and either be alone or be accompanied with goddesses Maa Saraswati on his right and Savitri on his left.[Chapter 51 of Manasar-Shilp Shastr]

DIADEM मुकुट :: ताज, किरीट; crown,  front-let, corona.

TEMPLES DEDICATED TO BRAHMA JI :: 

Very few temples are primarily dedicated to Brahma Ji and his worship in India. One of the few and the most prominent Hindu temple for Brahma Ji is the Brahma Temple, Pushkar. Other temples include a temple in Asotra village in Balotra Taluka of Rajasthan’s Barmer district, which is known as Kheteshwar Brahm Dham Tirth.

Temples featuring Brahma Ji also exist in Tirunavaya, the Padm Nabh Swamy Temple, the Thripaya Trimurti Temple and Mitr Nath Puram Trimurti Temple in Kerala. 

In Tamil Nadu, Brahma temples exist in the temple town of Kumbakonam, in Kodumudi and within the Brahmapureeswarar Temple in Tiruchirappalli.

There is a temple dedicated to Brahma Ji in the temple town of Shri Kala Hasti near Tirupati, Andhra Pradesh. 

A seven feet height of Chatur Mukh (Four mouths) Brahma temple at Bangalore, Karnataka. In the coastal state of Goa, a shrine belonging to the 5th century, in the small and remote village of Carambolim in the Sattari Taluka in the northeast region of the state is found.

Famous Murti of Brahma Ji exists at Mangal Wedha, 52 km from the Shola Pur district of Maharashtr and in Sopar near Mumbai. There is a 12th-century temple dedicated to him in Khed Brahma, Gujarat.

Brahma Temple at Khokhan, in Kullu District, Himachal Pradesh.

Brahma Temple at Asotra, District Barmer, Rajasthan.

Brahma Temple at Oachira in Kollam district, Kerala.

Brahma temple at village aleo shrishty narayan, in Kullu, Himachal Pradesh.

Brahma Temple at Annamputhur village Shri Nidhishwar in Tindivanam,Tamil Nadu.

Thirunavaya, Thiruvallam, Kerala.

Brahma Temple at Royakotta road in Hosur, Tamil Nadu.

Uttamar Kovil in Shri Rangam, Tamil Nadu.

Kumbakonam, Thanjavur District, Tamil Nadu.

Khed Brahma, Gujarat.

The Brahma Temple near Pan Ji in the village of Brahma-Carambolim in the Satari Taluka, Goa.

Brahm Purishwarar temple in Tirupattur, near Trichy, Tamil Nadu.

Brahm Kuti Temple at Brahmavart (Bithoor), Kanpur (Uttar Pradesh).

Brahma Temple at village Chhinch, Tehsil Bagidoa, District Banswara, Rajasthan.

Chatur Mukh Brahm temple in Chebrolu, Andhra Pradesh

As Part of Trimurti at Thripaya Trimurti Temple in Irinjalakuda, Thrissur in Kerala, India

As Part of Trimurti at Mithrananth Puram Trimurti Temple in Thiruvanantha Puram in Kerala, India.

The largest and most famous shrine to Brahma Ji is situated in Cambodia’s Angkor Wat. One of the three largest temples in the 9th century Prambanan temples complex in Yogyakarta, central Java (Indonesia) is dedicated to Bhagwan Brahma, the other two to Bhagwan Shiv (largest of three) and Vishnu respectively. The temple dedicated to Brahma Ji is on southern side of Bhagwan Shiv temple.

A statue of Brahma Ji is present at the Erawan Shrine in Bangkok and continues to be revered in modern times. The golden dome of the Government House of Thailand also contains a statue of Phra Phrom (Thai representation of Brahma). An early 18th century painting at Wat Yai Suwannaram in Phetchaburi city of Thailand shows Brahma.

Other temples of Brahma include Bithoor in Uttar Pradesh, India; Khed Brahma in Gujarat, India; village Asotra near Balotra city of Barmer district in Rajasthan; Uttamar Kovil (one of the Divy Desham) near Shri Rangam, Tamil Nadu; Carambolim near Valpoi in Goa, Mother Temple of Besakih in Bali, Indonesia; and Prambanan in Yogyakarta, Indonesia. The country name of Burma-Myanmar is derived from Brahma and  is referred to as Brahm-Desh.

Brahma Ji is a deity in Chinese folk religion and there are numerous temples devoted to the Bhagwan Brahma in China and Taiwan. Brahma is known in Chinese as Simians-hen (四面神, “Four-Faced God”), Ts-hangs pa in Tibetan and Bonten in Japanese.

I spent 4 years in Ajmer at Regional College of Education (Now, Regional Institute of Education) to seek my graduation degrees in Science and Education. During that period the opportunity to visit Brahma Ji temple came thrice. 1st visit was as a volunteer of Vishw Hindu Parishad with my Hindi teacher Mr. Saxena, 2nd with my father and the 3rd with my teacher Dr. S.N. Panda.

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 ARTI MALA आरती माला

ARTI MALA आरती माला
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj 

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ॐ गं गणपतये नमः।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥

आरती श्री गणेश जी ::

जय गणेश जय  गणेश, जय  गणेश  देवा।
 माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥ 
एक दन्त  दयावन्त, चार भुजा धारी। 
मस्तक  सिन्दूर  सोहे, मूसे की सवारी॥ 
अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया॥ 
हार चढ़ें फूल चढ़ें, और चढ़ें  मेवा।
लड्वडून को भोग लगे, सन्त करें सेवा॥
दीनन की  लाज राखो, शम्भु सुत वारी।
 कामना को पूरी करो, जग बलिहारी॥ 
जय गणेश जय गणेश ,जय गणेश देवा।
 माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा॥ 
पार्वती के पुत्र कहावो, शंकर सुत स्वामी। 
गजानन्द गणनायक, भक्तन के स्वामी॥
 ऋद्धि सिद्धि के मालिक, मूषक असवारी। 
कर जोड़ विनती करते, आनन्द उर भारी॥
प्रथम आपको पूजत, शुभ मंगल दाता।
 सिद्धि होय सब कारज, दारिद्र हट जाता॥
 सुंड सुंडला इंद्र इन्द्राला, मस्तक पर चंदा।
 कारज सिद्ध कराओ, काटो सब फंदा॥ 
 गणपति जी की आरती, जो कोई नर गावै। 
तब बैकुण्ठ परम पद, निश्चित ही पावै॥
श्री गणेश जी की आरती
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा; माता जाकी पार्वती पिता महादेवा। 
एक दिन दयावन्त चार भुजा धारी; मस्तक सिन्दूर सोहे मुसे की सवारी। 
पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा; लड्डूअन का भोग लगे सन्त करें सेवा। 
अन्धन को आँख देत कोढ़िन को काया; बांझन को पुत्र देत निर्धन को माया। 
हार चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा; सूरश्याम शरण आए सुफल कीजे सेवा। 
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा; माता जाकी पार्वती पिता महादेवा। 
विध्न-हरण मंगल-करण, काटत सकल कलेस; 
सबसे पहले सुमरिये गौरीपुत्र गणेश।

श्री गणेश स्‍तुति ::

गणनायकाय गणदेवताय गणाध्यक्षाय धीमहि। 

गुणशरीराय गुणमण्डिताय गुणेशानाय धीमहि। 

गुणातीताय गुणाधीशाय गुणप्रविष्टाय धीमहि। 

एकदंताय वक्रतुण्डाय गौरीतनयाय धीमहि। 

गजेशानाय भालचन्द्राय श्रीगणेशाय धीमहि॥ 

गानचतुराय गानप्राणाय गानान्तरात्मने। 

गानोत्सुकाय गानमत्ताय गानोत्सुकमनसे। 

गुरुपूजिताय गुरुदेवताय गुरुकुलस्थायिने। 

गुरुविक्रमाय गुह्यप्रवराय गुरवे गुणगुरवे। 

गुरुदैत्यगलच्छेत्रे गुरुधर्मसदाराध्याय। 

गुरुपुत्रपरित्रात्रे गुरुपाखण्डखण्डकाय। 

गीतसाराय गीततत्त्वाय गीतगोत्राय धीमहि। 

गूढगुल्फाय गन्धमत्ताय गोजयप्रदाय धीमहि। 

गुणातीताय गुणाधीशाय गुणप्रविष्टाय धीमहि। 

एकदंताय वक्रतुण्डाय गौरीतनयाय धीमहि। 

गजेशानाय भालचन्द्राय श्रीगणेशाय धीमहि ॥ 

ग्रन्थगीताय ग्रन्थगेयाय ग्रन्थान्तरात्मने। 

गीतलीनाय गीताश्रयाय गीतवाद्यपटवे। 

गेयचरिताय गायकवराय गन्धर्वप्रियकृते। 

गायकाधीनविग्रहाय गङ्गाजलप्रणयवते। 

गौरीस्तनन्धयाय गौरीहृदयनन्दनाय। गौरभानुसुताय गौरीगणेश्वराय। 

गौरीप्रणयाय गौरीप्रवणाय गौरभावाय धीमहि। 

गोसहस्राय गोवर्धनाय गोपगोपाय धीमहि। 

गुणातीताय गुणाधीशाय गुणप्रविष्टाय धीमहि। 

एकदंताय वक्रतुण्डाय गौरीतनयाय धीमहि। 

गजेशानाय भालचन्द्राय श्रीगणेशाय धीमहि॥

 आरती माँ गौरी ::

जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामा गौरी; तुम को निस दिन ध्यावत।

मैयाजी को निस दिन ध्यावत; हरि ब्रह्मा शिवजी, जय अम्बे गौरी,

माँग सिन्दूर विराजत टीको मृग मद को; मैया टीको मृगमद को।

उज्ज्वल से दो नैना चन्द्रवदन नीको, जय अम्बे गौरी॥

कनक समान कलेवर रक्ताम्बर साजे; मैया रक्ताम्बर साजे।

रक्त पुष्प गले माला कण्ठ हार साजे; अम्बे गौरी॥

केहरि वाहन राजत खड्ग कृपाण धारी; मैया खड्ग कृपाण धारी।

सुर नर मुनि जन सेवत तिनके दुख हारी; जय अम्बे गौरी॥

कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती; मैया नासाग्रे मोती।

कोटिक चन्द्र दिवाकर सम राजत ज्योति; जय अम्बे गौरी॥

शम्भु निशम्भु बिडारे महिषासुर घाती; मैया महिषासुर घाती।

धूम्र विलोचन नैना निशदिन मदमाती, जय अम्बे गौरी॥

चण्ड मुण्ड शोणित बीज हरे; मैया शोणित बीज हरे।

मधु कैटभ दोउ मारे सुर भयहीन करे; जय अम्बे गौरी॥

ब्रह्माणी रुद्राणी तुम कमला रानी; तुम कमला रानी।

आगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी; जय अम्बे गौरी॥

चौंसठ योगिन गावत नृत्य करत भैरों; मैया नृत्य करत भैरों।

बाजत ताल मृदंग और बाजत डमरू; जय अम्बे गौरी॥

तुम हो जग की माता तुम ही हो भर्ता; मैया तुम ही हो भर्ता।

भक्तन की दुख हर्ता सुख सम्पति कर्ता; जय अम्बे गौरी॥

भुजा चार अति शोभित वर मुद्रा धारी; मैया वर मुद्रा धारी।

मन वाँछित फल पावत देवता नर नारी; जय अम्बे गौरी॥

कंचन थाल विराजत अगर कपूर बात; मैया अगर कपूर बाती।

माल केतु में राजत कोटि रतन ज्योती; बोलो जय अम्बे गौरी॥

माँ अम्बे की आरती जो कोई नर गावे; मैया जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे; जय अम्बे गौरी ॥

सरस्वती वन्दना MAA SARASWATI PRAYER ::

बीज मन्त्र :: ऐं 
सरस्वती मन्त्र: ॐ ह्रां ऐं ह्रीं सरस्वतयै नमः।

मानस-पूजा :: 

ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः।

सरस्वती वन्दना ::

शुक्लां ब्रह्म-विचार-सार-परमां आद्यां जगद्-व्यापिनीम्।
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्॥
हस्ते स्फाटिक-मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि-प्रदां शारदाम्॥1॥
या कुन्देन्दु-तुषार-हार-धवला या शुभ्र-वस्त्रावृता,

या वीणा वर-दण्ड-मण्डित-करा या श्वेत-पद्मासना।

या ब्रह्माऽच्युत-शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा सेविता, 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष-जाड्यापहा॥2॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं हृद्यैक-बीजे शशि-रुचि-कमले कल-विसृष्ट-शोभे,

भव्ये भव्यानुकूले कुमति-वन-दवे विश्व-वन्द्यांघ्रि-पद्मे।

पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणत-जनो मोद सम्पादयित्री,

प्रोत्फुल्ल-ज्ञान-कूटे हरि-निज-दयिते देवि! संसार तारे॥3॥
ऐं ऐं दृष्ट-मन्त्रे कमल-भव-मुखाम्भोज-भूत-स्वरुपे, रुपारुप-प्रकाशे सकल-गुण-मये निर्गुणे निर्विकारे।

न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदित-विभवे नापि विज्ञान-तत्त्वे, विश्वे विश्वान्तराले सुर-वर-नमिते निष्कले नित्य-शुद्धे॥4॥
इन मंत्रों का 5,00,000 बार जाप करने से सरस्वती कण्ठ में वास करती है।

सरस्वती स्त्रोत्र ::

ॐ रवि-रुद्र-पितामह-विष्णु-नुतं, हरि-चन्दन-कुंकुम-पंक-युतम्!
मुनि-वृन्द-गजेन्द्र-समान-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥1॥
शशि-शुद्ध-सुधा-हिम-धाम-युतं, शरदम्बर-बिम्ब-समान-करम्।
बहु-रत्न-मनोहर-कान्ति-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥2॥
कनकाब्ज-विभूषित-भीति-युतं, भव-भाव-विभावित-भिन्न-पदम्।
प्रभु-चित्त-समाहित-साधु-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥3॥
मति-हीन-जनाश्रय-पारमिदं, सकलागम-भाषित-भिन्न-पदम्।
परि-पूरित-विशवमनेक-भवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥4॥
सुर-मौलि-मणि-द्युति-शुभ्र-करं, विषयादि-महा-भय-वर्ण-हरम्।
निज-कान्ति-विलायित-चन्द्र-शिवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥5॥
भव-सागर-मज्जन-भीति-नुतं, प्रति-पादित-सन्तति-कारमिदम्।
विमलादिक-शुद्ध-विशुद्ध-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥6॥
परिपूर्ण-मनोरथ-धाम-निधिं, परमार्थ-विचार-विवेक-विधिम्।
सुर-योषित-सेवित-पाद-तमं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥7॥
गुणनैक-कुल-स्थिति-भीति-पदं, गुण-गौरव-गर्वित-सत्य-पदम्।
कमलोदर-कोमल-पाद-तलं,तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥8॥

सरस्वती की पूर्ण कृपा एवं मोक्ष प्राप्त करने हेतु इस स्तोत्र का प्रतिदिन कम से कम तीन बार अवश्य पाठ करें।

सरस्वती आराधना :: 

इदं स्तोत्रं महा-पुण्यं, ब्रह्मणा परिकीर्तितं।
यः पठेत् प्रातरुत्थाय, तस्य कण्ठे सरस्वती॥
त्रिसंध्यं यो जपेन्नित्यं, जले वापि स्थले स्थितः।
पाठ-मात्रे भवेत् प्राज्ञो, ब्रह्म-निष्ठो पुनः पुनः॥
हृदय-कमल-मध्ये, दीप-वद् वेद-सारे।
प्रणव-मयमतर्क्यं, योगिभिः ध्यान-गम्यकम्॥
हरि-गुरु-शिव-योगं, सर्व-भूतस्थमेकम्।
सकृदपि मनसा वै, ध्यायेद् यः सः भवेन्मुक्त॥

आरती श्री शिव जी ::

जय शिव ओंकारा, प्रभु जय शिव ओंकारा।

ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धागनी धारा॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजै।
हंसानन गरुड़ासन वृष वाहन साजै॥
दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहै।
तीनों रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥
अक्ष माला वन माला मुण्ड माला धारी।
चन्दन मृग मद सोहे भाले शुभकारी॥
श्वेतांबर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे।
ब्रह्मा दिक सनकादिक भूतादिक संगे॥

कर के मध्ये कमंडल चक्र त्रिशूल धारी।
सुखहारी दुखहारी जगपालन कारी ॥
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका।
प्रण वाक्षर में शोभित ये तीनों एका ॥
त्रिगुण स्वामी कि आरती जो कोई नर गावे।
  कहत शिवानन्द स्वामी सुख संपत् पावे॥

आरती भगवान् शिव ::

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, कह भोलेनाथ महाशिव, अर्द्धांगी धारा।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

एकानन, चतुरानन, पंचानन राजे, हंसानन, गरुड़ासन, वृषवाहन साजे।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

दो भुज चार चतुर्भुज, दश भुज अति सोहे, तीनों रुप निरखता, त्रिभुवन जन मोहे।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

अक्षमाला वनमाला, रुण्डमाला धारी, चन्दन मृग मद सोहे, भोले शुभकारी।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघम्बर अंगे,  सनकादिक, ब्रह्मादिक, भूतादिक संगे।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

कर में श्वेत कमंडल चक्र त्रिशूल धरता,  जग करता दुख हरता, जग पालन करता।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

ब्रह्मा, विष्णु सदाशिव, जानत अविवेका, प्रणवाक्षर के मध्य ये तीनों एका।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

त्रिगुण स्वामी जी की आरती जो कोई नर गावे, कहत शिवानन्द स्वामी, मन वांछित फ़ल पावै।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

ॐ जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।

SATY NARAYAN ARTI सत्य नारायण जी की आरती ::

ॐ जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा;
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा।

ॐ जय लक्ष्मी…
रत्नजड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजे;
नारद करत नीराजन, घंटा ध्वनि बाजे।

ॐ जय लक्ष्मी…
प्रकट भए कलिकारन, द्विज को दरस दियो;

बूढ़ौ ब्राह्मण बनकर, कञ्चन महल कियो।

ॐ जय लक्ष्मी…
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी;

चन्द्रचूड इक राजा, तिनकी विपति हरी।

ॐ जय लक्ष्मी…
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्ही;

सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति कीन्हीं।

ॐ जय लक्ष्मी…

भाव-भक्ति के कारण, छिन-छिन रूप धर्यो;

श्रद्धा धारण किन्ही, तिनको काज सरो।

ॐ जय लक्ष्मी…
ग्वाल-बाल सङ्ग राजा, बन में भक्ति करी;

मनवाञ्छित फल दीन्हों, दीन दयालु हरि।

ॐ जय लक्ष्मी…
चढत प्रसाद सवायो, कदली फल मेवा;

धूप-दीप-तुलसी से, राजी सत्यदेवा।

ॐ जय लक्ष्मी…

ॐ जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा;

सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा।

ॐ जय लक्ष्मी…

श्री सत्यनारायण जी की आरती, जो कोई नर गावै।

कहत शिवानन्द स्वामी, मनवांछित फल पावै ॥

जय लक्ष्मी..

Om Jay Lakṣhmi Ramna, Swami Jay Lakṣhmi Ramṇa, Satya Narayaṇ Swami, Jan-Patak-Harṇa.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Ratn Jadit Singhasan, Adbhut Chhvi Raje; Narad Karat Niranjan, Ghanṭa Dhwni Baje.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Prakat Bhaye Kali Karan, Dwij Ko Daras Diyo; Buḍhao Brahmn Ban Kar, Kanchan Mahal Kiyo.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Durbal Bheel Kaṭharo, Jin Par Kṛpa Karee; Chandr Chuḍ Ik Raja, Tinki Vipti Hari.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Vaishy Manorath Payo, Shraddha Taj Deenhi; So Phal Bhogyo Prabhu Ji, Phir Stuti Keenhin.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Bhav-Bhakti Ke Karaṇ, Chhin-Chhin Rup Dharyo; Shraddha Dharaṇ Keenhin, Tinko Kaj Saro.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Gwal-Bal Sang Raja, Ban Mae Bhakti Kari; Man Vanchhit Phal Deenhon, Deen Dayalu Hari.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Chadhat Prasad Sawayo, Kadlee Phal Mewa; Dhup-Deep-Tulsee Se, Raji Saty Deva.
Oṃ Jay Lakṣhmi…
Saty Narayaṇ Ji Ki Arti Jo Koi Nar Gave; Tan-Man Sukh-Saṃpatti Man Vanchhit Phal Pave.
Oṃ Jay Lakṣhmi….
Om Jay Lakṣhmi Ramna, Swami Jay Lakṣhmi Ramna; Saty Narayaṇ Swami, Jan-Patak-Harṇa.
Oṃ Jay Lakṣhmi…

आरती श्री हनुमान जी :: 

आरती कीजे हनुमान लला की।दुष्टदलन रघुनाथ कला की ॥
जाके बल से गिरिवर कापै।रोग-दोष जाके निकट न झांपे॥
अंजनी पुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सुहाई॥
दे बीरा हनुमान पठाये।लंका जारि सिया सुध लाये॥
लंका सो कोट समुद्र सी खाई।जात  पवन सुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे।

सियारामजी के काज संवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे।आनि संजीवन प्राण उबारे॥
पैठी पाताल तोरि जम-कारे।अहिरावन के भुजा उखारे॥
बायें भुजा असुर दल मारे।दाहिने भजा संतजन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। जय जय जय हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई।आरती करत अंजना माई॥
जो हनुमान जी की आरती गावै।बसी बैकुंठ परमपद पावै॥
आरती कीजै हनुमान लला की।दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
॥ जय बजरंगबली॥

माँ लक्ष्मी जी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता;

तुमको निशदिन सेवत, हर विष्णु विधाता।

जय ब्रह्माणी रूद्राणी कमला, तू हि है जगमाता;

सूर्य चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता।

जय दुर्गा रूप निरंजन, सुख सम्पति दाता;

जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि सिद्धि धन पाता।

जय तू ही है पाताल बसन्ती, तू ही है शुभ दाता;

कर्म प्रभाव प्रकाशक, भवनिधि से त्राता।

जय जिस घर थारो वासो, तेहि में गुण आता।

कर न सके सोई कर ले, मन नहिं धड़काता।

जय तुम बिन यज्ञ न होवे, वस्त्र न कोई पाता;

खान पान को वैभव, सब तुमसे आता।

जय शुभ गुण सुंदर मुक्त्ता, क्षीर निधि जाता;

रत्त्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नही पाता।

जय आरती लक्ष्मी जी की, जो कोई नर गाता;

उर आनन्द अति उपजे, पाप उतर जाता।

जय स्थिर चर जगत बचावे, शुभ कर्म नर लाता,

मैया तेरा भक्त निरन्तर शुभ दृष्टि चाहता।

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता;

तुमको निश दिन सेवत, हर विष्णु विधाता।

आरती श्री दुर्गा जी ::

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी। 

तुमको निश  दिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी॥
 मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को। 

उज्जवल से दोऊ नैना, चन्द्रबदन नीको॥ 
कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजै। 

रक्त पुष्प की माला, कंठन पर साजै॥ 
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी। 

सुर-नर-मुनिजन सेवत तिनके दुखहारी॥
 कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती। 

कोटिक चन्द्र दिवाकर, राजत सम ज्योति॥
 शुम्भ निशुम्भ बिदारे, महिषासुर घाती। 

धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती॥
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे।

मधु-कैटभ दोऊ मारे, सुर भयहीन करे॥
 ब्रह्माणी, रुद्राणी, तुम कमला रानी।

आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी॥
चौसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू।

बाजत ताल मृदंगा, अरु बाजत डमरू॥ 
तुम ही जग कि माता, तुम ही हो भरता। 

भक्तन कि दुःख हरता, सुख सम्पत्ति करता॥
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी। 

मन वांछित फल पावत, सेवत नर नारी॥ 
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती।

मालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योति॥ 
मां अम्बे कि आरती, जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी, सुख-सम्पत्ति पावे॥ 

आरती माँ काली ::

अम्बे तू है जगदम्बे, काली जय दुर्गे खप्पर वाली।
तेरे ही गुण गायें भारती, ओ मैया; हम सब उतारें तेरी आरती॥ 
माता, तेरे भक्त जनों पर, भीड़  पड़ी है भारी। 

दानव दल पर टूट पड़ो माँ, करके सिंह सवारी॥ 
सौ-सौ सिंहों से बलशाली, दस-दस भुजाओं वाली।
 दुःखियों के दुःख को निवारती, ओ मैया; हम सब उतारें तेरी आरती॥ 
माँ बेटे का है इस जग में, बड़ा ही निर्मल नाता। 

पूत कपूत सुने हैं, पर ना माता सुनी कुमाता ॥ 
सब पर करुणा बरसाने वाली, अमृत बरसाने वाली।
 दुःखियों के दुःख को निवारती, ओ मैया; हम सब उतारें तेरी आरती॥
ना  मांगे हम धन और दौलत और ना चांदी  सोना। 

हम तो मांगे मैया, तेरे दिल में, एक छोटा सा कोना॥
सबकी बिगड़ी बनाने वाली, लाज बचाने वाली। 
सतियों के सत को संवारती, ओ मैया, हम सब उतारें, तेरी आरती॥ 
दुःखियों के दुःख को निवारती, ओ मैया; हम सब उतारें तेरी आरती॥ 

अथ कालिकाष्टकम ::

ध्यान :-

गलद रक्त मुंडावली कंठ माला; महा घोर रावा सु दंष्ट्रा कराला।
विवस्त्रा श्मशानालया मुक्त केशी; महाकाल कामाकुला कालिकेयम॥
भुजे वाम युग्मे शिरोsसिं दधाना; वर्ण वक्ष युग्मेSभयं वाई तथैव॥
सु मध्यापि तुंग स्तना भार नम्रा; लसद रक्त सृक्क द्वया सु स्मितास्या॥
शव द्वन्द्व कर्णावतंसा सु केशी; लसत प्रेत पाणिं प्रयुक्तैक कान्ची॥
शवाकार मंचाधि रुढ़ा; शिवाभिश्चातुर्दीक्षु शब्दायमानाभि रेजे॥

अथ कालिकाष्टकम ::

स्तुति :-

विरंच्यादि देवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन; समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवु:।
अनादिं सुरादिं विन्दन्ति भवादिं: स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥1॥
जगन्मोहनीय तू वाग्वादिनीयम; सुहृद पौषिणी शत्रु संहारणीयम।
वाच स्तम्भनीयम किमुच्चाटनीयम; स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥2॥
इयं स्वर्ग दात्री पुन: कल्प वल्ली: मनोजान्स्तु कामां यथार्थं प्रकुर्यात ।
तथा ते क्रतार्थ भवंतीति नित्यं; स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥3॥
सुरा पान मत्ता सु भक्तानुरक्ता; लास्ट पूत चित्ते सदा,,विर्भवते।

जप ध्यान पूजा सूधा धौत पनका; स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥4॥

चिदानंद कांड हसन मंद मन्दं; शरच्चन्द्र कोटि प्रभा पुंज बिम्बं।
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं; स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥5॥
महा मेघ काली सु रक्तापि शुभ्रा; कदाचिद विचित्रा कृतिर्योग माया।
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि; स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥6॥
क्षमास्वापराधं महा गुट भावं; मया लोक मध्ये प्रकाशी कृतं यत।
तव ध्यान पूतें चापल्य भावात; स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥7॥
यदि ध्यान युक्तं पठेद यो; मनुष्यस्तदा सर्व लोके विशालो भवेच्च॥
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि।

श्री रामायण जी की आरती ::

आरती श्री रामायण जी की; कीरत कलित ललित सिय पिय की।

गावत ब्रह्मादिक मुनि नारत; बाल्मीक विज्ञानी विशारद।

शुक सनकादि शेष अरु सारद; वरनि पवन सुत कीरति निकी।

संतन गावत शम्भु भवानी; असु घट सम्भव मुनि विज्ञानी।

व्यास आदि कवि पुंज बखानी; काग भूसुनिड गरुड़ के हिय की।

चारों वेद पूरान अष्ठदस; छहों होण शास्त्र सब ग्रन्थ्न को रस।

तन मन धन संतन को सर्वस; सारा अंश सम्मत सब ही की।

कलिमल हरनि विषय रस फीकी; सुभग सिंगार मुक्ती जुवती की।

हरनि रोग भव भूरी अमी की; तात मात सब विधि तुलसी की।

श्री राम स्तुति :: 

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारूणम्।

नव कंजलोचन कंज मुख, कर  कंज, पद कंजारुणम्॥

कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम्।

पटपीत मानहुं तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्यवंश निकन्दनम्।

रघुनन्द आनन्दकन्द कौशलचन्द दशरथ नन्दनम्॥

  सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।

 आजानुभुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणम्॥

 इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।

 मम हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनम् ॥

 मनु जाहिं राचेउ मिलहि सो बरु सहज सुन्दर सांवरो।

 करुणा निधान सुजान शील सनेहु जानत रावरो॥

एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषी अली।

 तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥

 जानी गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ 

आरती श्री जगदीश जी ::

ओउम् जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे। 

भक्त जनन  के संकट, क्षण  में दूर करे॥
 जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का। 

सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे  तन का॥

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी। 

तुम बिन और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ 
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतर्यामी। 

पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी॥
 तुम करुणा के सागर, तुम पालन कर्ता। 

मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ 
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति। 

किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥ 
दीनबन्धु दुःखहर्ता, तुम रक्षक मेरे। 

अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा मैं तेरे॥ 
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा। 

श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा॥
तन-मन-धन सब है तेरा, स्वामी सब कुछ है तेरा। 

तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा॥
 श्री जगदीश जी की आरती, जो कोई नर गावे। 

कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे॥ 

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे; भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे। ॐ जय जगदीश…
जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिनसे मन का; सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का. ॐ जय जगदीश…
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी; तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी। ॐ जय जगदीश…
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी; पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी। ॐ जय जगदीश…
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता; मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता। ॐ जय जगदीश…
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति; किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति। ॐ जय जगदीश…
दीन बंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे; करुणा हाथ बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे। ॐ जय जगदीश…
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा; श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा। ॐ जय जगदीश…
Om Jay Jagdeesh Hare, Swami Jay Jagdeesh Hare;
Bhakt Janon Ke Sankaṭ, Kshan Mae Dur Kare. Om Jay Jagdeesh …
Jo Dhyave Phal Pave, Dukh Binse Man Ka;
Sukh Sampatti Ghar Ave, Kaṣhṭ Miṭe Tan Ka. Om Jay Jagdeesh …
Mat Pita Tum Mere, Sharan Gahun Maen Kiski;
Tum Bin Aur Na Duja, Aas Karun Maen Jis Ki; Om Jay Jagdeesh …
Tum Puran Parmatma, Tum Antaryami;
Par Brahm Parmeshwar, Tum Sabke Swami. Om Jay Jagdeesh …
Tum Karuna Ke Sagar, Tum Palan Karta;
Maen Sewak Tum Swami, Krapa Karo Bharta. Om Jay Jagdeesh …
Tum Ho Ek Agochar, Sab Ke Pran Pati;
Kis Vidhi Milun Dayamay, Tumko Maen Kumati. Om Jay Jagdeesh …
Deen Bandhu Dukh Harta, Tum Rakshak Mere;
Karuṇa Hasth Baḍhao, Dwar Paḍa Tere. Om Jay Jagdeesh …
Vishay Vikar Mitao, Pap Haro Deva;
Shraddha Bhakti Baḍhao, Santan Ki Sewa. Om Jay Jagdeesh …

आरती श्री कुंजबिहारी जी की ::

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की। 

गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला ॥ 

श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला।

गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली॥ 

लटन में ठाढ़े बनमाली, भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक। 

चंद्र सी झलक, ललित छवि श्यामा प्यारी की॥

आरती कुंजबिहारी की,  श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं;
गगन सों सुमन रासिबरसै, बजे मिरदंग ग्वालिन संग,

 अतुल रति गोप कुमारी की॥

आरती कुंजबिहारी की,  श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा;

स्मरन ते होत मोह भंगा, बसी सिव सीस, जटा के बीच।  

हरै अघ कीच; चरन छवि श्रीबनवारी की॥

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

चमकती उज्ज्वल तट रेनू,  बज रही वृंदावन बेनू; 

चहूँ दिसि गोपि ग्वाल धेनू, हंसत मृदु मंद,चांदनी चंद। 

कटत भव फंद, टेर सुन दीन भिखारी की॥

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

SHRI KRASHN GOVIND HARE MURARI श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी ::

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी; हे! नाथ नारायण वासुदेवा। 

एक मात स्वामी सखा हमारे; हे! नाथ नारायण वासुदेवा। 

बंदी गृह के तुम अवतारी; कहीं जन्म कहीं पले मुरारी। 

किसी के जाये, किसी के कहाये; है अद्भुत, हर बात तिहारी।  

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी; हे! नाथ नारायण वासुदेवा। 

गोकुल में चमके मथुरा के तारे; हे! नाथ नारायण वासुदेवा। 

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी; हे! नाथ नारायण वासुदेवा। 

अधर में बन्सी, ह्रदय में राधे; बट गये दोनों में, आधे आधे।  

 हे! राधा नागर, हे! भक्त वत्सल; सदैव भक्तों के काम साधे। 

वहीँ वहीँ गये, जहाँ गये पुकारे;  हे! नाथ नारायण वासुदेवा। 

राधे कृष्ण, राधे कृष्ण; कृष्ण-कृष्ण हरे! हरे! 

Krashn-Krashn, Hare! Krashn Krashn-Krashn Hare! Hare!

Shri Krashn Govind Hare Murari, Hey! Nath Narayan Vasudeva. 

Ek Maat Swami Sakha Hamare;  Hey! Nath Narayan Vasudeva.

Bandi Grah Ke Tum Avtaari; Kahi Janme Kahi Pale Murari.

Kisi Ke Jaaye Kisi Ke Kahaye; Hai Adbhut Har Baat Tihari.

Gokul Mein Chamke, Mathura Ke Tare; 

Hey! Nath Narayan Vasudeva.

Shri Krishna Govind Hare Murari; Hey! Nath Narayan Vasudeva.

Adhar Mein Banshi, Hriday Mein Radhe; 

Bat Gaye Dono Mein, Aadhe Aadhe.

Hey! Radha Nagar, Hey! Bhakt Vatsal; 

Sadaiv Bhakto Ke, Kaam Sadhe.

Vahin  Vahin Gaye, Jahan Gaye Pukare; 

Hey! Nath Narayan Vasudeva.

Radhe Krashn, Radhe Krashn, Krashn-Krashn Hare! Hare! 

SHRI NARAYAN HRADYAM MULASHTKAM मूलाष्टकम् ::

ॐ नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः।

नारायणः परं ब्रह्म नारायण नमोऽस्तु ते॥1॥

 Om.  Narayanh Param Jyoti Ratma Narayanh Parh; Narayanh Param Brahm Narayan Namostute.

Bhagwan Shri Narayan is the divine light and our soul is divine;  Narayan is Ultimate Brahmn and I salute Narayan.

नारायणः परो देव दाता नारायणः परः। 

नारायणः परो ध्याता नारायण नमोऽस्तु ते॥2॥  

Narayanh Paro Dev Data Narayanh Parh; Narayanh Paro Dhyata Narayan Namostute.

Narayan is the Ultimate Almighty-God  and Narayan is the Ultimate Nurturer-giver; Narayan is the Supreme support and I salute-bow before Narayan.

नारायणः परं धाम ध्यानं नारायणः परः। 

नारायणः परो धर्मो नारायण नमोऽस्तु ते॥3॥  

Narayanh Param Dham Dyanam Narayanh Parh; Narayanh Paro Dharmo Narayan Namostute.

Narayan is the Ultimate abode and Narayan is the Supreme-Ultimate-Divine  meditation; Narayan is the Ultimate Dharm-Religion and I salute-revere-honor Narayan.

नारायणः परो वेद्यो विद्या नारायण परः। 

विश्वं नारायणः साक्षान्नारायण नमोऽस्तु ते॥4॥ 

Narayanh Paro Vedyo Vidya Narayan Parh; Vishwam Narayanh Sakshannarayan Namostute.

Narayan is the Ultimate enlightenment-learning-knowledge; the universe is a form of Narayan and I salute-bow in front of Narayan.

नारायणद्विधिर्जातो नारायणाच्छिवः। 

जातो नारायणादिन्द्रो नारायण नमोऽस्तु ते॥5॥ 

Narayanad Vidhirjato Narayanachchhivh; Jato Narayanadindro Narayan Namostute.

Brahma  and Shiv got birth from Narayan and Indr was  born to Narayan  and I salute-respect-regard Narayan.

 रविर्नारायणं तेजश्चान्द्रं नारायणं महः। 

वह्निर्नारायणः साक्षान्नारायण नमोऽस्तु ते॥6॥ 

Ravirnarayan Tejash Chandrm Narayanm Mhh; Vahnir Narayanh Sakshannarayan Namostute.

Sun shines because of Narayan and moon gets light from Narayan and the fire is an aspect-form of Narayan and I pray-salute Narayan.

नारायण उपास्यः स्याद्गुरुर्नारायणः परः। 

नारायणः परो बोधो नारायण नमोऽस्तु ते॥7॥ 

Narayan Upasyh Syad Gurur Narayanh Parh; Narayanh Paro Bodho Narayan namostute.

Narayan is the Ultimate-Guru who has to be meditated; Narayan is the highest wisdom-enlightenment-realisation and I salute, pray, revere Narayan.

नारायणः फलं मुख्यं सिद्धिर्नारायणः सुखम्। 

सेव्यो नारायणः शुद्धो नारायण नमोऽस्तु ते॥8॥ 

Narayanh Falam Mukhyam Siddhirnarayanah Sukham; Sevyo Narayanh Shudho Narayan namostute.

Narayan is the Ultimate reward-grant of boons-result of prayers and pleasure; and service-prayer-dedication to Narayan is purifying-cleansing and I salute Narayan.

इति मूलाष्टकम्॥

 

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YAGY-HAWAN यज्ञ-हवन

YAGY-HAWAN
यज्ञ-हवन

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥

पंच कर्म :: मोक्ष प्राप्ति के लिए पंच कर्म (सत्कर्मों) की उपयोगिता प्रत्येक मनुष्य-साधक की लिए है। इसमें धर्म, जाती, बिरादरी, वर्ण बीच में नहीं आते। इनकी विशद विवेचना धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में उपलब्ध है। 

(1). संध्योपासन :- यद्यपि संध्या वंदन-मुख्य संधि पांच वक्त की होती है जिनमें प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन प्रार्थना और ध्यान के माध्यम से किया जा सकता है। यह सकारात्मकता प्रदान करतीं हैं, जीवन में उमंग, ऊर्जा पैदा करतीं हैं।
(2). उत्सव :- हर्ष, उल्लास, शादी-विवाह, जन्मोत्सव, तीज-त्यौहार, अनुष्ठान यह अवसर प्रदान करते हैं। ये परस्पर मधुर सम्बन्ध , सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हैं। इनसे संस्कार, एकता और उत्साह का विकास होता है। पारिवारिक और सामाजिक एकता के लिए उत्सव जरूरी है। पवित्र दिन और उत्सवों में बच्चों के शामिल होने से उनमें संस्कार का निर्माण होता है वहीं उनके जीवन में उत्साह बढ़ता है।
(3). तीर्थ यात्रा :- यह मनुष्य को पुण्य प्रदान करती है। पापों का नाश करती है। सामाजिकता का विकास करती है।
(4). संस्कार :- संस्कार मनुष्य को सभ्य-सामाजिक बनाते हैं। इनसे जीवन में पवित्रता, सुख, शांति और समृद्धि का विकास होता है। सोलह संस्कार जीवन के कर्म से जुड़े हैं और आवश्यकता के अनुरूप हैं। ये हैं :- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि।
(5). धर्म :- धर्म का अर्थ है अपने वर्णाश्रम कर्तव्यों का पूरी निष्ठा-ईमानदारी से पालन। धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। सेवा भावना, दया, दान आदि कर्तव्यों का पालन भी नियमित रूप से करते रहना चाहिए। (5.1). व्रत, (5.2). सेवा, (5.3). दान, (5.4). यज्ञ* और (5.5). कर्तव्य का पालन।
यज्ञ के अंतर्गत वेदाध्ययन भी आता है जिसके अंतर्गत छह शिक्षा (वेदांग, सांख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद) और छह दर्शन (न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य, वेदांत और योग) शामिल हैं। व्रत से मन और मस्तिष्क सुदृढ़ बनता है वहीं शरीर स्वस्थ और बनवान बना रहता है। दान से पुण्य मिलता है और व्यर्थ की आसक्ति हटती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। सेवा से मन को शांति मिलती है और धर्म की सेवा भी होती है। सेवा का कार्य ही धर्म है।
इन सभी से ऋषि ऋण, ‍‍देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण से उपरति होती है।
* यज्ञ भी मात्र पांच तरह के होते हैं:- (5.4.1). ब्रह्मयज्ञ, (5.4.2). देवयज्ञ, (5.4.3). पितृयज्ञ, (5.4.4). वैश्वदेव यज्ञ, (5.4.5). अतिथि यज्ञ।
यज्ञ का तात्पर्य है त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ् वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्त्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं। डी.डी.टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है। साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है। दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है। मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं। महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है। इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है। यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्ग जैसे आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में हवन-यज्ञ की महिमा :: 
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्; होतारं रत्नधातमम्।[ऋग्वेद 1.1.1] 
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैः बोधयतातिथिं; आस्मिन् हव्या जुहोतन।[यजुर्वेद 3.1] 
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे।[यजुर्वेद 22.17] 
सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनस्य दाता।[अथर्ववेद 19.7.3] 
प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनस्य दाता।[अथर्ववेद 19.7.4] 
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।[यजुर्वेद 31.9] 
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान।[यजुर्वेद 19.58] 
ज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।[शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5] 
यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म।[तैत्तिरीय 3.2.1.4] 
यज्ञो अपि तस्यै जनतायै कल्पते, 
यत्रैवं विद्वान होता भवति।[ऐतरेय ब्राह्मण 1.2.1] 
यद्देवतः स यज्ञो वा यज्ञाङ्गं वा तद्देवता भवन्ति, अथान्यत्र यज्ञात् प्राजापत्या इति याज्ञिकाः, नाराशंसा इति नैरुक्ताः[निरुक्त 7.4]
भगवान् श्री राम को रामायण में स्थान स्थान पर ‘यज्ञ करने वाला’ कहा गया है। महाभारत में भगवान् श्री कृष्ण सब कुछ छोड़ सकते हैं, पर हवन नहीं छोड़ सकते। हस्तिनापुर जाने के लिए अपने रथ पर निकल पड़ते हैं, रास्ते में शाम होती है, तो रथ रोक कर हवन करते हैं। अगले दिन कौरवों की राजसभा में हुंकार भरने से पहले अपनी कुटी में हवन करते हैं। अभिमन्यु के बलिदान जैसी भीषण घटना होने पर भी सबको साथ लेकर पहले यज्ञ करते हैं। 
हवन में डाली जाने वाली सामग्री जो कि औषधि आदि गुणों से युक्त जड़ी बूटियों से बनी होती है, अग्नि में पड़कर सर्वत्र व्याप्त हो जाती है. घर के हर कोने में फ़ैल कर रोग के कीटाणुओं का विनाश करती है। हवन से निकलने वाला धुआँ हवा से फैलने वाली बीमारियों के कारक जीवाणु, विषाणुओंको नष्ट कर देता है। 
हर दिन इस पवित्र अग्नि का आधान मेरे संकल्प को बढाता है। मैं इस हवन कुंड की अग्नि में अपने पाप और दुःख फूंक डालता हूँ। इस अग्नि की ज्वाला के समान सदा ऊपर को उठता हूँ। इस अग्नि के समान स्वतन्त्र विचरता हूँ, कोई मुझे बाँध नहीं सकता। अग्नि के तेज से मेरा मुखमंडल चमक उठा है, यह दिव्य तेज है। हवन कुंड की यह अग्नि मेरी रक्षा करती है। यज्ञ की इस अग्नि ने मेरी नसों में जान डाल दी है। एक हाथ से यज्ञ करता हूँ, दूसरे से सफलता ग्रहण करता हूँ। हवन के ये दिव्य मन्त्र मेरी जीत की घोषणा हैं। मेरा जीवन हवन कुंड की अग्नि है, कर्मों की आहुति से इसे और प्रचंड करता हूँ। प्रज्ज्वलित हुई हे हवन की अग्नि! तू मोक्ष के मार्ग में पहला पग है। यह अग्नि मेरा संकल्प है. हार और दुर्भाग्य इस हवन कुंड में राख बने पड़े हैं। हे सर्वत्र फैलती हवन की अग्नि! मेरी प्रसिद्धि का समाचार जन जन तक पहुँचा दे! इस हवन की अग्नि को मैंने हृदय में धारण किया है, अब कोई अँधेरा नहीं। यज्ञ और अशुभ वैसे ही हैं जैसे प्रकाश और अँधेरा. दोनों एक साथ नहीं रह सकते। भाग्य कर्म से बनते हैं और कर्म यज्ञ से. यज्ञ कर और भाग्य चमका ले! इस यज्ञ की अग्नि की रगड़ से बुद्धियाँ प्रज्ज्वलित हो उठती हैं यह ऊपर को उठती अग्नि मुझे भी उठाती है हे अग्नि! तू मेरे प्रिय जनों की रक्षा कर! हे अग्नि! तू मुझे प्रेम करने वाला साथी दे. शुभ गुणों से युक्त संतान दे! हे अग्नि! तू समस्त रोगों को जड़ से काट दे! 
हवन चमत्कारी, रोगनाशक, बलवर्धक और जीत के मन्त्रों की प्रक्रिया है। जिंदगी की सब समस्याओं का नाश करने वाली और सुखों का अमृत पिलाने वाली यह हवन क्रिया संस्कृति का हिस्सा है, धर्म का हिस्सा है, आध्यात्म का हिस्सा है। हवन परमेश्वर का आदेश है, श्रीराम की मर्यादा की धरोहर है। श्री कृष्ण की बंसी की तान है, रण क्षेत्र में पाञ्चजन्य शंख की गुंजार है, अधर्म पर धर्म की जीत की घोषणा है। हवन जीत का संकल्प है।
संक्षिप्त हवन विधि :: इस तरह करें तैयारी घर में पहले किसी स्थान को धो-पोंछकर साफ कर लें। फिर पूर्व या उत्तर दिशा (भौतिक कार्य के लिए पूर्व और आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए उत्तर श्रेष्ठ) की ओर मुँह कर बैठ जायें। सामने हवन कुंड रखें। आम की लकड़ी मिल सके तो बेहतर नहीं तो अन्य लकड़ी से भी काम चलाया जा सकता है। काला तिल, चावल, चीनी, जौ एवं घी को मिलाकर सामग्री तैयार कर किसी साफ पात्र में रख लें। इसके साथ ही एक साफ पात्र में घी, दूसरे साफ पात्र में जल एवं घी देने के लिए साफ बड़े चम्मच को लेकर बैठें। 
घृत की प्रत्येक आहुति न्यूनतम छः माशे है। वह धृत भी कस्तूरी, केसर, चन्दन, कपूर, जावित्री, इलायची आदि से सुगन्धित किया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुगन्धि, मिष्ट, पुष्ट एवं रोगनाशक द्रव्यों की हवन-सामग्री होनी चाहिये। समिधाएं भी चन्दन, पलाश, आम आदि की होनी चाहिएं। श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार जैसा भी बन पड़े होम करना उचित है। हव्य चारों प्रकार के होने चाहिएं, जिसमें वायु मण्डल सुगन्धित तथा रोगहर ओषधियों के अणुओं से युक्त हो तथा उसमें श्वास लेने से लाभ पहुंचे। जो एक काल के ही व्रत का निर्वाह करना चाहें, वे वैसा कर सकते हैं। अग्नि प्रज्जवलित रहे ओर धुआं न उठे, ऐसा प्रयास होना चाहिए। 
इसके बाद निम्न कार्य करें :-
(1). हवन कुंड में तीन छोटी लकड़ी से अपनी ओर नोंक वाला त्रिकोण बनाएँ। उसे “अस्त्राय फट” कहते हुए तर्जनी व मध्यमा से घेरें।
(2). फिर मुट्ठी बंद कर तर्जनी उंगली निकाल कर “हूं फट” मंत्र पढ़ें।
(3). इसके बाद लकड़ी डालकर कर्पूर व धूप देकर :-“ह्रीं सांग सांग सायुध सवाहन सपरिवार” गायत्री मंत्र पढ़कर, नम: कहें।
(4). आग जलाकर :- “ह्रीं क्रव्यादेभ्यो: हूं फट” कहते हुए तीली या उससे लकड़ी का टुकड़ा जलाकर हवन कुंड से किनारे नैऋत्य (उत्तर-पूर्व, North-East) कोण में फेंकें।
(5). तदन्तर :- “रं अग्नि अग्नेयै वह्नि चैतन्याय स्वाहा” मंत्र सेअग्नि में थोड़ा घी डालें।
(6). फिर हवन कुंड को स्पर्श करते हुए “ह्रीं अग्नेयै स्वेष्ट देवता नामापि” मंत्र पढ़ें।
(7). इसके बाद पढ़ें :- “ह्रीं सपरिवार स्वेष्ट रूपाग्नेयै नम:”
(8). तदन्तर घी से चार आहुतियां दें और जल में बचे घी को देते हुए निम्न चार मंत्र पढ़ें :-
अग्नि में :- ह्रीं भू स्वाहा; पानी में :- इदं भू, 
अग्नि में :- ह्रीं भुव: स्वाहा; पानी में :- इदं भुव:,
अग्नि में :- ह्रीं स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं स्व:,
अग्नि में :- ह्रीं भूर्भुव:स्व: स्वाहा; पानी में :-इदं भूर्भुव: स्व:। 
(9). तदन्तर मूल मंत्र से हवन शुरू करने हुए 9 से 108 आहुतियाँ दें।
(10). मूल मंत्र से हवन के बाद पुन: निम्न मंत्रों से आहुतियां दें :-
अग्नि में :- ह्रीं भू स्वाहा; पानी में :- इदं भू ,
अग्नि में :- ह्रीं भुव: स्वाहा; पानी में :-इदं भुव:,
अग्नि में :- ह्रीं स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं स्व:,
अग्नि में :- ह्रीं भूर्भुव:स्व: स्वाहा; पानी में :- इदं भूर्भुव: स्व:। 
(11). अंत में सुपारी या गोला से पूर्णाहुति के लिए मंत्र पढ़ें :-
ह्रीं यज्ञपतये पूर्णो भवतु यज्ञो मे ह्रीस्यन्तु यज्ञ देवता फलानि सम्यग्यच्छन्तु सिद्धिं दत्वा प्रसीद मे स्वाहा क्रौं वौषट।
यज्ञ करने वाले सरवा में यज्ञ की राख लगाकर रख दें।
(12). ह्रीं क्रीं सर्व स्वस्ति करो भव” मंत्र से तिलक करें।
(13). अंत में :-
ह्रीं यज्ञ यज्ञपतिम् गच्छ यज्ञं गच्छ हुताशन स्वांग योनिं गच्छ यज्ञेत पूरयास्मान मनोरथान अग्नेयै क्षमस्व। 
इसके बाद जल वाले पात्र को उलट कर रख दें।
हवन कुँड की अग्नि के पूरी तरह शांत होने के बाद बची सामग्री को समेट कर किसी नदीं, जलाशय या आज के परिप्रेक्ष्य में भूमि में गड्ढा खोदकर डालकर ढँक दें। यदि इसकी राख को खेतों में डाला जाए तो निश्चय ही उसकी उर्वरा शक्ति में भारी बढ़ोतरी होगी।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। 
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.5] 

यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अत्यावश्यक-जरूरी कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप, ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों-मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं।
नित्य, नैमित्तिक, जीविका सम्बन्धी, शरीर सम्बन्धी आदि जितने भी कर्तव्य कर्म बताये गए हैं, वे सभी अनिवार्य हैं। इतना ही नहीं, वे तो मनीषियों को पवित्र करने वाले भी हैं। दुर्गुण, दुराचार, पाप, मल को दूर करना महान आनन्द दायक है। मनीषी-विचारशील वे हैं, जो सम बुद्धि से युक्त होकर कर्मजन्य फल का त्याग कर देते हैं। यज्ञादि कर्म ऐसे मनीषियों को पवित्र करते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ वश में हैं। जो लोग केवल सुख भोग के लिये यज्ञ, दान आदि करते हैं; उनको ये कर्म पवित्र नहीं कर पाते। अगर कोई कर्म अपनी भलाई और दूसरे का बुरा करने के लिए किया जाये, तो वो भी अपवित्र करने वाला, लोक-परलोक में भी महान दुःख देने वाला बन जाता है। 
Yagy (worship sacrifices in holy fire-Hawan), Dan (gifting, charity, donations, social welfare, helping the needy in distress) and Asceticism-austerity should not be renounced. Besides these the thoughtful (Karm Yogi, Enlightened, Wise, Prudent, Intellectuals, the Learned, Scholars, the Pandits, Brahmns, Philosophers), should continue to do them, since these three purify them.
Here the stress is over the ability of the performer. The individual should be a person who is capable to perform these activities. Yagy, Dan requires money, desire and strong will power, while asceticism needs strong will power, desire, a bent of mind, dedication and deep faith in the Almighty. One should be blessed with the sense of submission, devotion and offer each and every possessions to HIM-the Almighty.
In addition to Yagy, Dan and Tap vital functions like teaching-learning, agriculture-business, eating-drinking, moving, sleeping-waking, interactions in the family and the society etc. and essential functions, actions, duties arising out of a difficult situation, must be performed by renouncing both attachment and reward.

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। 
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥[श्रीमद् भगवद्गीता 18.6]

हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों साथ-साथ मनुष्य को पठन-पाठन, खेती-बाड़ी, जीविका हेतु तथा नित्य कर्म खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शारीरिक कर्म और परिश्थिति जन्य आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करके जरूर करना चाहिये।
अपनी कामना, ममता, और आसक्ति का त्याग करके कर्मों को केवल प्राणी मात्र के भले के लिए करने से कर्मों का प्रवाह संसार के लिए और योग का प्रवाह स्वयं के लिये हो जाता है। अपने हेतु किया गया कर्म बन्धन कारक हो जाता है और अपना व्यक्तित्व परमात्मा में विलय नहीं होने देता।
O Parth! All these Karm (Yagy, Dan, Tap) and various other Karm (act, actions, functions, work, performances, duties, jobs) should be performed by renouncing the attachment and desire of the Karm Fal (reward, result, out come, out put); is the sole doctrine established by the Almighty HIMSELF.
The sole and absolute doctrine of the Almighty is in favour of performance of these three acts by renouncing the fruits of actions and attachment, with dedication. It’s not possible to renounce the Fal of all Karm, since one can’t survive by renouncing them. One must renounce both attachment and reward. What is renounced by one indeed-in reality, does not belong to him but is considered to be of his own by illusion.
Quantum of Karm depends upon the desire for industry. Karm Yog is detachment from the desires of reward of industry. Karm is meant for the satisfaction or fulfilment of Rag (deep attachment to desires and motives), as well as for the abolition of desires for the Rag-attachment itself. Performance for self, enhances the Rag, while working for the benefit, upliftment and progress of the entire mankind (society), by the Karm Yogi, paves the path for his Salvation. With the abolition of Rag, one attains Salvation automatically, which is the firm opinion of the Almighty.
One who reads, studies, learn-understand and utilises Geeta, in his day-today life, automatically qualifies for SALVATION. It should be revealed only to those who are eager, desirous, interested in listening, learning, understanding the text. The ignorant, indifferent, idiot should not be compelled to read or listen this sacred text.
The Almighty descended over the earth to vanish the evil, vices, cruelty, wretchedness, sins to relinquish the earth on her request; as an incarnation known as Bhagwan Shri Krashn (Complete incarnation). HE had all other  incarnations like  of Bhagwan Vishnu-Narayan as well composed in HIM. Bhagwan Shri Hari Vishnu himself is a component of the Almighty. HE entered into conversation with Arjun (incarnation of Nar) to set him free from the illusion to eliminate the evil. The conversation dictated by Bhagwan Ved Vyas was inked by Ganesh Ji Maharaj for the benefit of entire mankind. This is extremely beneficial-useful during Kali Yug the present cosmic era. Chapter-18 of this conversation has great significance, as it leads the devotee to Salvation. The Param Pita Per Brahm Parmeshwar emerged with all of his powers and incarnations (Bhagwati, Sada Shiv, Maha Vishnu, Maha Brahm, Nar-Narayan etc.) through Shri Krashn showing his Virat Roop-ULTIMATE EXPOSURE. 

पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजेतेह कथञ्चन॥[मनुस्मृति 11.39]

श्रद्धा से जितेन्द्रिय होकर अन्य पुण्य कार्यों को करें, किन्तु कभी भी अल्प दक्षिणा देकर यज्ञ न करायें।
One should perform all pious, sacred, holy sacrifices-deeds, jobs by controlling sense organs and ascertain that sufficient Dakshina-fees, fit for the job has been paid to the Purohit, performer.
During pilgrimage, holy sacrifices, prayers, Yagy, Hawan, Agnihotr, listening-narrating sacred text; exercise full control over sense organs, sensuality, sexuality, passions etc. etc. Try to conduct the performance till end, never leave it in between.

इन्द्रियाणि यशः स्वर्गमायुः कीर्तिं प्रजाः पशून्।
हन्त्यल्पदक्षिणो यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो यजेत्॥[मनुस्मृति 11.40]

यज्ञ में थोड़ी दक्षिणा देने से इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश होता है, इसलिये अल्प दक्षिणा देकर यज्ञ न करे।
Offering of low Dakshina may lead to the loss of organs-senses, fame-honour, elevation to heaven, age-longevity, subjects and the cattle.
Prior to holding Yagy one must ascertain that he is capable of liberal offerings. The money spent for this purpose should have been earned through pious-righteous means.

अग्निहीनो देहदृाष्टं मंत्रहीनस्तु ऋत्विज:। 
दीक्षितं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपु:॥

अन्न हीन अर्थात जिस यज्ञ में अन्न न दिया जाये, वह यज्ञ राष्ट्र का, मंत्रहीन ऋत्विज-ब्राह्मणों का और दक्षिणा से हीन यज्ञ यजमान का नाश करता है। यज्ञ के बराबर कोई शत्रु नहीं है। 

The Yagy conducted by the king which is not followed by offering of food grain-cooked food, destroys the nation-country, state; the priest performing Yagy if he is not well versed with procedure, suitable Mantr and the one who is conducting it for lack of sufficient Dakshina-fees. The Yagy turns into a dreaded enemy if its not conducted through proper procedures, methodology & enchanting of Mantrs.
अग्निहोत्र्यपविध्याग्नीन् ब्राह्मणः कामकारतः।
ब्राह्मण अपनी इच्छा से यदि प्रातः और सायंकालिक अग्निहोत्र के हवन को न करे तो एक मास तक चान्द्रायण व्रत करे, क्योंकि अग्निहोत्र न करना पुत्र हत्या का समान है।
If a Brahmn do not perform Agnihotr in the morning and evening out of his own will he, should conduct Chandrayan Vrat-penances pertaining to appease Moon, for a month, since this failure for him is comparable to murder of son.

ये शूद्रादधिगम्यार्थमग्निहोत्रमुपासते।
ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां ब्रह्मवादिषु गर्हिताः॥[मनुस्मृति 11.42]

जो शूद्रों से धन लेकर यज्ञ करते हैं, वे शूद्रों के ऋत्विज-ब्राह्मण और वेदों में निन्दित कहे गए हैं।
The Brahmn, who conduct Yagy by obtaining money from the Shudr, is titled the Priest of the Shudr and has been censured in Veds.

तेषां सततमज्ञानां वृषलाग्न्युपसेविनाम्।
पदा मस्तकमाक्रम्य दाता दुर्गाणि सन्तरेत्[मनुस्मृति 11.43]

उन मूर्ख ब्राह्मणों जो शूद्रों के धन से अग्निहोत्र करते हैं, के सर पर पैर रखकर वह शूद्र, संसार के सभी दुःखों को पार करता है। 

The Shudr crosses the wordily troubles by putting over his feet over the head of the Brahmns who conduct Agnihotr with his money.
चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरहत्यासमं हि तत्॥[मनुस्मृति 11.41]

खण्ड 1 :: 
ओ३म् सहित चारों वेद :- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है, जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1.13.12 में ‘स्वाहा यज्ञं कृणोतन’ कहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है।

ऋग्वेद के मन्त्र 2.2.1 में ‘यज्ञेन वर्धत जातवेदसम्’ कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। 
यजुर्वेद के मन्त्र 3.1 में ‘समिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्’ कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने व घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है।
यजुर्वेद 3.2 में ‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो।
ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नासुव॥[यजुवेद]
हे ईश्वर! हमारे सारे दुर्गुणों को नष्ट कर दो और अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव प्रदान करो।
यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कार्य वा कर्म को कहते हैं। यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, हवन वा देवयज्ञ के लिए प्रयुक्त होता है। यज्ञ देवों की पूजा, संगति करण और सबको पात्रतानुसार दान देना है। माता, पिता, आचार्यों व विद्वानों का सम्मान व सेवा-सत्कार भी यज्ञ है। इनके साथ संगति कर उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त करना और उससे जन कल्याण व प्राणियों का हित करना भी यज्ञ है। अपनी सामर्थ के अनुसार सुपात्रों को अधिक से अधिक दान देकर देश व समाज को सम रस, एक रस व गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार यथाशक्ति सुख-सुविधायें प्रदान करना भी यज्ञ है। यज्ञ का आयोजन लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार से सभी के लिए हितकारी है। यज्ञ से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है, जिससे संसार का जीवन चलता है। वायुमंडल में मंत्रों का प्रभाव पड़ता है, जिससे भूकंप, ओलावृष्टि, हिंसात्मक जैसी प्राकृतिक घटनाओं का शमन होता है, क्योंकि यज्ञ शब्द ब्रह्म है।
यज्ञ शुभ कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सतकर्म, वेदसम्मत कर्म है। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्‍वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है। यह वेदों में निर्धारित अनुष्ठानों पर आधारित उपासना पद्धति है। यज्ञ का लक्ष्य ब्रह्मांड की स्वाभाविक व्यवस्था क़ायम रखने जैसी व्यापक भी है। इसमें अनुष्ठानों का सही निष्पादन और मंत्रों का शुद्ध उच्चारण अनिवार्य माने जाते हैं तथा निष्पादक और प्रयुक्त सामग्री का अत्यधिक पवित्र होना आवश्यक है। पाँच दैनिक घरेलू आहुतियाँ और महायज्ञ भी इसमें शामिल हैं।
यज्ञ का अर्थ आग में घी, आहुति, भेंट, चढ़ावा डालकर मंत्र पढ़ना मात्र नहीं होता।यज्ञ में अग्नि और घी के प्रतीकात्मक प्रयोग में आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा वायु शोधन अग्नि से होने वाले धूम्र कणों द्वारा सम्पन्न होती है। यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई
अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं।
प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है। सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है। गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है। जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी।
यज्ञं जनयन्त सूरयः। [ऋग्वेद 10.66.2] 

हे विद्वानों! संसार में यज्ञ का प्रचार करो।

अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः।अथर्ववेद 9.15.14]

यह यज्ञ ही समस्त विश्व-ब्रह्मांड का मूल केंद्र है।

प्रांचं यज्ञं प्रणयता सखायः।[ऋग्वेद 10.101.2]

प्रत्येक शुभकार्य को यज्ञ के साथ आरंभ करो।

सर्वा बाधा निवृत्यर्थं सर्वान्‌ देवान्‌ यजेद् बुधः।[शिवपुराण]

सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिए बुद्धिमान पुरुषों को देवताओं की यज्ञ के द्वारा पूजा करनी चाहिए।

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।[शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5]

यज्ञ ही संसार का सर्वश्रेष्ठ शुभ कार्य है।

तस्मात्‌ सर्वगतं ब्रह्मा नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌।[श्रीमद्भगवद्गीता 3.15]

यज्ञ में सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी परमात्मा का सदैव वास होता है।

अग्नि होत्रिणे प्रणुदे सपत्नश्र।[अथर्व वेद 9.2.6]

यज्ञ करने से शत्रु नष्ट हो जाते हैं। शत्रुता को मित्रता में बदल देने का सर्वोत्तम उपाय यज्ञ है।

सम्यंजोऽग्नि सपर्यत।[अथर्व वेद 3.30.6]

सबको मिलकर यज्ञानुष्ठान करना चाहिए। सामूहिक उपासना का महत्व असंख्य गुना अधिक है।

यज्ञं जनयुन्तु सूरयः।[ऋग्वेद 10.66.2]

हे विद्वानों, संसार में यज्ञ का प्रचार करो। विश्व-कल्याण करने वाले साधकों में यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है।

ईजानाः स्वर्गं यान्ति लोकम्।[अथर्व वेद 18.4.2]

यज्ञ करने वाले को स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। जिन्हें स्वर्गीय सुख प्राप्त करना अभीष्ट हो, वे यज्ञ किया करें।

प्राचं यज्ञं प्रणतया स्वसाय।[ऋग्वेद 10.101.2]

प्रत्येक शुभ कार्य यज्ञ के साथ आरंभ करो। यज्ञ के साथ आरम्भ किये हुए कार्य सफल और सुखदायक होते हैं।
सर्वेषाँ देवानाँ आत्मा यद् यज्ञः।[शतपथ 12.3.2.1]

सब देवताओं की आत्मा यह यज्ञ है। यज्ञ करने वाले देवताओं की आत्मा तक पहुँचते हैं।

अयज्ञियो हत वर्चो भवति।[अथर्व वेद]

यज्ञ रहित मनुष्य का तेज नष्ट हो जाता है। यदि तेजस्वी रहना है तो यज्ञ करते रहना चाहिए।

भद्रो नो अग्नि राहुतः।[यजुर्वेद 15.32]

यज्ञ में दी हुई आहुतियाँ कल्याणकारक होती है। जो अपना कल्याण चाहते हैं, वे यज्ञ किया करें।

मा सुनोतेति सोमम्।[ऋग्वेद 2.30.7]

यज्ञानुष्ठान की महान उपासना बन्द न करो। जहाँ यज्ञ बन्द हो जाते हैं वहाँ से सुख-शाँति चली जाती है।

कस्मैत्व विमुँचति तस्मैत्वं विमुँचति। [यजुर्वेद]
जो यज्ञ को त्यागता है उसे परमात्मा त्याग देता है। जिन्हें परमात्मा का अनुग्रह अभीष्ट हो, वे यज्ञ करना त्यागें।

अस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही।[ऋग्वेद 1.3.8.8]

“यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म” [यजुर्वेद]

यज्ञ संसार के श्रेष्ठतम कार्यों में से एक है। 

अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृताम वर॥[श्रीमद्भगवद्गीता 4.8] 
शरीर या देह के दासत्व को छोड़ देने का वरण या निश्चय करने वालों में, यज्ञ अर्थात जीव और आत्मा के योग की क्रिया या जीव का आत्मा में विलय, मुझ परमात्मा का कार्य है।
अनाश्रित: कर्म फलम कार्यम कर्म करोति य: स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥[श्रीमद्भगवद्गीता 1.6] 
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥[यजुर्वेद 40.2]
इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष-आयु पर्यन्त, जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। कर्म निष्काम भाव से करने चाहिये, ताकि कर्म बन्धन के कारण न बनें।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र…समाचार।[श्रीमद्भगवद्गीता 13.9]                        
यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के, लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।

  “अग्निर्वै मुखं देवानाम्”[शतपथ ब्राह्मण] 

जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं, अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं।

“अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः”[यजु 23.62]

इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। 

        अग्नौ प्रास्ताहुतिः… प्रजाः।[मनुस्मृति 3.76]
अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। 
        अन्नाद् भवन्ति…कर्मसमुद्भवः।[श्रीमद्भागवद गीता 3.14]
अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा। निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है, जिस के द्वारा हम यथोचित रुप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। 
        देवान्भावयतानेन …परमवाप्स्यथ।[श्रीमद्भागवद गीता 3.11]
इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषों को दूर करने का सामर्थ्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।
यज्ञ में चार आधार ::  (1). व्यक्ति, (2). अग्नि, (3). वाणी और (4). चरु। यदि ये चारों ही स्थूल रूप में प्रयुक्त किये जायें तो उनका यज्ञीय प्रयोजन पूरा न होगा और जो चमत्कारी परिणाम वर्णित किया गया है, वह हस्तगत न हो सकेगा।
(1). व्यक्ति :: इस प्रक्रिया में चार ऋत्विज् गण भाग लेते हैं :- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा। यह चारों किसी भी व्यक्ति का नामकरण करके नियुक्त नहीं कर दिये जाते। वरन् उन्हें अमुक समय तक अमुक स्तर का त्याग, तप करना पड़ता है। यदि तप साधना का उपक्रम न अपनाया गया हो तो वह प्रभाव उत्पन्न न हो सकेगा जो यज्ञ की सूक्ष्म एवं कारण शक्ति उभारने हेतु अभीष्ट है।
प्रथम होता ज्ञानकाण्डी ऋग्वेद अनुशासनों पर चलने वाला होता है। अध्वर्यु कर्म काण्डी यजुर्वेदी एवं उद्गाता गायक सामवेदी होता है, साधारण गाने वाला नहीं वरन् भक्ति भाव का धनी समर्पित साधक। ब्रह्मा चतुर्वेदों का जानकार अथर्व वेदी जो सारी प्रक्रिया का नियमन करने वाला, प्रबन्ध निदेशक, व्यवस्था संयोजक है। याजक गणों ऋत्विजों को यह ज्ञान हस्तगत करना पड़ता है।
यज्ञ जैसे श्रेष्ठतम कर्म के चारों ऋत्विज् गण साधक स्तर के होने पर ही उस प्रयोजन को पूरा कर पाते हैं। महाराज दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न होना था। उसके लिये जिस स्तर के अध्वर्यु की अपेक्षा थी, वह शृंगी ऋषि के माध्यम से पूरा हुआ। इसके पूर्व उसके सभी प्रयास असफल रहे थे। संयम-तपोबल के धनी ऋत्विज् के ऋषि द्वारा यह कार्य सम्पन्न होते ही अभीष्ट कार्य पूरा हो गया। यह व्यक्तित्व के सूक्ष्मीकृत कारण रूप की फलश्रुति है।
(2). अग्नि-यज्ञाग्नि :: यह पवित्र है, उसे अभिमन्त्रित किया जाता है। अग्नि मन्त्र शक्ति द्वारा अभिमन्त्रित कर मन्थन के माध्यम से प्रकट की जाती है। अखण्ड दीप में जो अग्नि सतत् ज्वलनशील रहती है, वह यज्ञाग्नि का ही एक रूप है।
आहुति दी गयी सामग्री को अग्नि ऊपर ले जाती है एवं वायु उसे अंतरिक्ष में ले जाती है। भूमि पर होम होता है लेकिन यज्ञाग्नि की ऊर्ध्वीकरण की शक्ति उसे अंतरिक्ष में तथा फिर अग्नि के द्वितीय किन्तु अद्वितीय रूप विद्युत ऊर्जा के माध्यम से और भी ऊपर ले जाता है। आहुति दी गयी हवि, अग्नि और विद्युत से ऊँची उठती हुई स्थूल से सूक्ष्मतम होती हुई अपने दिव्य रूप को प्राप्त होती है। अपने इस सूक्ष्मीकृत रूप में यज्ञाग्नि न केवल मनुष्य, प्राणी जगत, वनस्पति जगत को प्रभावित करती है, वरन् समग्र पर्यावरण एवं परोक्ष वातावरण का नियमन, संशोधन एवं अनुकूलन का प्रयोजन पूरा करती है। यज्ञ ऊर्जा मात्र अग्निहोत्र से उत्पन्न ताप नहीं, अपितु एक अति सूक्ष्म सामर्थ्य सम्पदा है जो व्यक्ति एवं समग्र वातावरण पर प्रभाव डालकर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनाती है।

ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है। उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं :-
अग्नि हवन किये जाने वाले बहुमूल्य पदार्थ सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग मनुष्य भी वैसा ही करें, जो यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग मनुष्य के लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।
जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है। 
अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, मनुष्य अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें।
अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती। उसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ बने रहना चाहिए।
यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए यह सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के हर पल के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।
(3). वाणी :: ज्ञान एवं कर्म की अपनी सीमा है, किन्तु भाव व उदात्तीकरण जब वाणी के माध्यम से मन्त्रों द्वारा होता है। तो वह मानवी काया के अन्तराल को ही नहीं, सारे वातावरण को झकझोर डालता है यज्ञ में वाणी का प्रयोग सूक्ष्म रूप में सामगान के रूप में होता है। भावप्रधान संगीत लहरी में गायी गयी ऋचाएँ सारे शरीर को स्पन्दित कर डालती हैं, साथ ही सारा वायुमण्डल आन्दोलित हो उठता है। सामवेद की इस प्राणदायिनी मधुर रस वर्षा को छान्दोग्योपनिषद् ने इस प्रकार कहा है- “वाचः ऋक् रसः, ऋचः साम रसः।”
वाक् शक्ति के विस्तृतीकरण हेतु यज्ञाग्नि का विस्तारक के रूप में प्रयोग होता है। परिष्कृत वाणी जब विशिष्ट व्यक्ति के मुख से विशिष्ट प्रयोजन के लिये निकलती है चहुँमुखी असर दिखाती है।
शुकदेव जी ने जो कथा परीक्षित को सुनाई, वह किसी अन्य ऋषि  के माध्यम से सम्भव नहीं हो पाती, यद्यपि उनके पिता मन्त्रों के दृष्टा माने जाते हैं। कोई भी व्यक्ति अक्षरों का स्मरण कर, नाम जप द्वारा ऋषि या दृष्टा नहीं कहा जा सकता। इसलिये कुछेक अपवादों के अतिरिक्त पुरातन काल में हर ऋषि कुछ चुने हुए मन्त्रों के प्रवीण पारंगत एवं दृष्टा कहे जाते थे। इस सम्बन्ध में गायत्री मंत्र के ऋषि-दृष्टा विश्वमित्र का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका नाम विनियोग प्रसंग में लिया जाता है।
(4). हविष्य एवं चरु :: स्थूलतः यह पदार्थ परक होते हैं, किन्तु यज्ञ प्रक्रिया में इनकी कारण शक्ति को उभारा जाता है। उपयुक्त याजक द्वारा ही हविष्य का संग्रह, पवित्रीकरण एवं संस्कारीकरण किया जाता है। यज्ञाग्नि में पकाये गये चरु में ही उन अंश का समावेश होता है जो आनुवाँशिकी से लेकर कर्म प्रारब्ध के सूक्ष्म संस्कारों पर प्रभाव डालते हैं। होम किया जाने वाला पदार्थ कितना पवित्र है, शुद्ध है, उसी पर उसकी कारण शक्ति का प्रकटीकरण निर्भर है। पदार्थ तो अपने स्थूल रूप में मात्र एक वनस्पति, खाद्यान्न मेवा अथवा दुग्ध रूप में है। लेकिन यज्ञाग्नि का स्पर्श उसे परिवर्धित कर देता है। जिस प्रकार प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के रूप में तथा साधना द्वारा योगाग्नि का प्रकटीकरण ब्रह्मतेजस् के रूप में देखा जाता है। ठीक उसी प्रकार यज्ञ प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाली हर सामग्री की परिष्कृति चमत्कारी होती है। शरीर रोग एवं मनोविकारों के निवारण तथा जीवनी शक्ति सम्वर्धन में इनकी भूमिका को भली-भांति देखा जा सकता है। चरु जो कि मेवे, खाद्यान्न, दुग्ध, शर्करा का सम्मिश्रण होता है एवं यज्ञाग्नि में पकाया, संस्कारित किया जाता है विशेष रूप से महत्व है, क्योंकि इनका प्रभाव जीवकोश जैसे सूक्ष्मतम घटक पर पड़ता है।
इस प्रकार ऋत्विज, यज्ञाग्नि, वाक् शक्ति एवं हविष्य चरु में चारों ही यजन प्रक्रिया के ऐसे प्रसंग हैं जिनमें सूक्ष्मीकरण का प्राधान्य है। वस्तुतः यज्ञ एक ज्वलन प्रक्रिया भाव नहीं है वरन् चारों तत्वों की कारण शक्ति को उभारने की एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। इतना न किया जाय तो यज्ञ प्रयोजन में अभीष्ट सफलता नहीं प्राप्त होती।
यज्ञ के चार अंग ::  ‘स्नान’, ‘दान’, ‘होम’ तथा ‘जप’। 
यज्ञ का तात्पर्य :: त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। 
अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर मनुष्यों  के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है। यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा इससे बन पड़ती है। मनुष्य का जन्म यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है। प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की है कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें।
अश्वमेध यज्ञ :: यह यज्ञ प्रधानतः पूरे संसार में बलशाली सम्राटों द्वारा अपनी सत्ता को स्वीकार करने और व्यवस्था लागु करने के लिए था। पराजित राजाओं को सम्राट का अधिपत्य मानना पड़ता था और नियमित रुप से कर का भुगतान करना होता था। 
वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, कात्यायनीय श्रोतसूत्र, आपस्तम्ब:, आश्वलायन, शंखायन तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इनका विशद वर्णन प्राप्त होता है। महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवौं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात पाप मोचनार्थ, अश्वमेध यज्ञ का आयोजन भगवान् श्री कृष्ण के अद्शानुसार किया गया। ब्रह्म वैवर्त पुराण में सावित्री और यमराज संवाद में वर्णन आया है कि भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेध यज्ञ करता है, वह दीर्घकाल तक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है।
“राजा सार्वभौम: अश्वमेधेन यजेत्। नाप्यसार्वभौम:”[आपस्तम्ब:]
“सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं।” यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का द्योतक होता था।
राजसूय यज्ञ :: ऐतरेय ब्राह्मण इस यज्ञ के करने वाले महाराजाओं की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाता था। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। यह यज्ञ चक्रवर्ती राजा बनने के लिए किया जाता था। सम्राट युधिष्टर के द्वारा किये गए राजसूय यज्ञ में भगवान् श्री कृष्ण का चरण पूजन प्रथम पुरुष-अति विशिष्ठ व्यक्ति के रूप में किया गया। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। 
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥[श्रीमद्भगवद गीता 4.29]
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥[श्रीमद्भगवद गीता 4.30]
योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन (पूरक करके) करते हैं और अन्य कितने ही प्राण वायु में अपान वायु का हवन (रेचन-साँस बाहर निकालना) करते हैं। कुछ अन्य प्राणायाम परायण योगी प्राण और अपान की गति को रोककर (कुम्भक क्रिया के द्वारा) हवन करते हैं। योगी नियमित-सन्तुलित आहार द्वारा प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।
Yogis-ascetics mixes the fresh air, Pran, breath with the Apan (stale breath, rejected breath, impure air-stale air present in the lungs moving to the heart there after) offer Pran in Apan. This is Poorak (intake, inhaling). This is combustion-burning of the sins i.e., germs (virus, bacteria, microbes, dead cells) present in the body, called Hawan here. When the Apan (waste, rejected-stale air) is mixed with Pran, fresh breath, air, it is Rechak-exhaling. The third process involves stagnating both Pran and Apan Vayu-Holding, thereby stopping the flow of both fresh and stale air in the lungs-heart and the entire body. This process of exchange of gases is vital for good health leading to relief from diseases (tensions, defects). In fact pap-sins appear in the form of diseases.
प्राण का स्थान ऊपर-ह्रदय स्थल तथा अपान का स्थान गुदा (anus) नीचे है। श्र्वास को बाहर निकलते समय साँस-वायु की गति ऊपर की ओर और भीतर ले जाते वक्त नीचे की ओर होती है। 
योगी पहले श्र्वास को बाईं नासिका-नथुने-चन्द्र नाड़ी के द्वारा भीतर खींचते हैं। वह वायु ह्रदय में उपस्थित प्राण वायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वतः अपान में लीन हो जाती-मिल जाती है। यह पूरक क्रिया है।
तत्पश्चात योगी-अभ्यास कर्ता प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं, जिसे कुम्भक कहते हैं अर्थात न तो साँस बाहर आती न ही अन्दर जाती है। इसके बाद वे अन्दर की वायु को दाँये नथुने-सूर्य नाड़ी से निष्कासित करते हैं। इस प्रक्रिया में प्राणवायु अपान वायु को साथ लेकर बाहर निकलती है, जिसे प्राण वायु में अपान वायु का हवन कहा गया है। यही रेचक क्रिया है। 4 भगवन्नाम से पूरक, 16 भगवन्नाम से कुम्भक और 8 भगवन्नाम से रेचक क्रिया की जाती है। 
इस क्रिया को विपरीत अवस्था में पहले सूर्य नाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और तदोपरान्त चन्द्रनाड़ी से रेचक क्रिया की जाती है। इस प्रकार बार-बार पूरक-कुम्भक तथा रेचक प्राणायाम रूपी यज्ञ है और सभी पापों को नष्ट कर देते हैं ( यही क्रिया बीमारियों को दूर करने के लिए की जाती है)। 
नियमित आहार-विहार, सन्तुलित-नियमित भोजन करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन-विलय कर सकते हैं। बहुत अधिक, बेहद कम या बिलकुल भोजन ने करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता। प्राण का प्राण में हवन का तात्पर्य है प्राण और अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना। यही स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। इन प्रक्रियाओं से मन शान्त-निर्मल-आवेगहीन हो जाता है और भगवत प्राप्ति में सहायक हो जाता है। 
इस प्रकार के यज्ञ करते रहने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए ही हैं। यह जानने-समझने वाला ही यज्ञवित् अर्थात यज्ञ के तत्व को जानने वाला-तत्वज्ञ है। कुछ लोग लोक-परलोक-स्वर्गादि के भोग प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। वे तत्वज्ञानी नहीं हैं। विनाशी वस्तुओं की कामना बन्धनकारी है-जिसे मुक्ति-भक्ति-मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं होती। 
निष्काम भाव से किया गया छोटे से छोटा कर्म भी, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है। 
Pran acquires the upper segment of the body the heart, while the Apan is seated below at the anus. When the air is rejected into the atmosphere the breath is directed upwards and during the intake it is directed in the downward direction.
The Yogi-practitioner first sucks the air into the lungs through the left nostril-Chandr Nadi, by blocking the right one, with the thumb for 4 seconds. At this stage the puff of the air mixes up in the lungs through the bronchus-extremely fine air sacks. This is inhaling-intake.
Thereafter, the Yogi will hold the air in this state for 16 seconds.  Flow of air into the lungs will stop during this cycle. This is followed by exhaling through the right nostril-Sury Nadi for 8 seconds. One may silently keep on reciting the names of the Almighty for 4, 16 or 8 times respectively.
This process is reversed with exchange of gases from the right nostril to the left nostril i.e., from Sury Nadi to Chandr Nadi. 
Only those who intake balanced diet are capable of mixing the Pran Vayu with the Apan Vayu. Those who very little or no food, do find it difficult to preform this practice. Assimilation of Pran with Apan is Yagy (Hawan, burning of sins-diseases). This leads to clarity of mind & thought. One becomes peaceful (quite, unagitated, restful, blissful), leading to assimilation in the Ultimate-the Almighty. 
Continuity of this practice is a form of Yagy leading to freedom from sins (diseases, evil ideas, thoughts, wretchedness, vices, impurity) helping in Liberation of the soul. One who understands that the motive-cause of holy practices-rituals is detachment from the deeds, is the real performer (Yogi, ascetic). Those who undertake big celebrations (rituals, Yagy, Agnihotr, Hawan) for attaining the heaven (empire, high posts, name, fame) etc. are not the ones, who understand the gist of the religion (Faith, Dharm). The detached (unbonded, free from ties), avails Liberation-Devotion and Salvation. Smallest deed for the welfare of others, without any motive-desire, too helps one, in attaining the Parmatma-Parmanand.
Those who correlate Yog-Pranayam with Hinduism are wrong-ignorant. 
12 FORMS OF YAGY 12 प्रकार के यज्ञ ::  निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित-भले के लिए किये गए कर्तव्य-कर्म करने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं। मनुष्य बंधन मुक्त हो जाता है। कुल बारह प्रकार के यज्ञ कर्म हैं। 
(1). ब्रह्म यज्ञ-प्रत्येक कर्म में कर्ता, करण, क्रिया, पदार्थ आदि सब को ब्रह्म रूप से अनुभव करना। 

(2). भगवदर्पण रूप यज्ञ-सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को केवल भगवान् का और भगवान् के लिए ही मानना।
(3). अभिन्नता रूप यज्ञ-असत् से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में विलीन हो जाना। परमात्मा से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।
(4). संयम रूप यज्ञ-एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को विषयों से मुक्त रखना-प्रवृत न होने देना।
(5). विषय हवन रूप यज्ञ-व्यवहार काल में इन्द्रियों से संयोग होने पर भी उनमें राग द्वेष पैदा न होने देना। 
(6). समाधिरूप यज्ञ-मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर ज्ञान से प्रकाशित समाधि में स्थित हो जाना।

(7). द्रव्य यज्ञ-सम्पूर्ण पदार्थों को निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना।
(8). तपो यज्ञ-अपने कर्तव्य के पालन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता पूर्वक सह लेना।
(9). योग यज्ञ-कार्य की सिद्धि-असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना।
(10). स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ-दूसरों के हित के लिए सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना।
(11). प्राणायम रूप यज्ञ-पूरक, कुम्भक और रेचक पूर्वक प्रणायाम करना।
(12). स्तम्भ वृत्ति प्राणायाम रूप यज्ञ-नियमित आहार करते हुए प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना।
मनुष्य की समस्त क्रियाएँ यज्ञ रूप ही होनी चाहिए; अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करना। जब मनुष्य केवल दूसरों के हित के लिए सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है तो परिणति कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ में स्वतः हो जाती है।

यज्ञ के पाँच प्रकार :: लोक क्रिया, सनातन, गृहस्थ, पंचभूत और मनुष्य।
पञ्चयज्ञ ::

वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। 
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं  गृही॥[मनु स्मृति 3.67] 
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे। 
The holi-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युस्करः। 
कण्डनी चोदकुम्भश्र्च वध्यते यास्तु वाहयन्॥[मनु स्मृति 3.68] 
गृहस्थ के चूल्हा, चक्की (सील, लुढ़िया), झाड़ु, ऊखल-मूसल, पानी का घड़ा आदि पाँचों हिंसा के स्थान हैं। इनसे काम लेने से गृहस्थ पाप का भागी होता है। 
Five possessions of a house hold may indulge him in sin viz. hearth, grinding-stone, broom, pestle & mortar and the piture-the water container made of backed clay-vessel.
Whether one kill insects knowingly or unknowingly it amounts to violence leading to sin. To get rid of this sin, one can observe fast on every Amavashya-moonless night. Its rather impossible to avoid such sins. One is bound to kill rats, cockroaches, spiders, mosquitoes, flies every day to live peacefully-comfortably and even snakes, if they enter the house. Lice, leech, bed bugs must be killed-eradicated at once, right at the sight and then observe penances or pray to the God. 
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः। 
पञ्च क्लर्प्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥[मनु स्मृति 3.69]
महर्षियों ने उन पापों के नाश के लिये  प्रतिदिन क्रम से पञ्चमहायज्ञ करने का आदेश दिया है।
The sages have directed to perform 5 types of sacrifices to remain untouched by the sin of killing insects etc.
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:पितृ यज्ञस्तु तर्पणम्। 
होमो दैवो बलिभौर्तो नृयज्ञोSतिथिपूजनम्॥[मनु स्मृति 3.70]  
पितरों का तर्पण करना, वेद का पठन-पाठन, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, होम करना, जीवों को अन्न की बलि देना और नृयज्ञ अतिथि का आदर-सत्कार करना ये ही पञ्चमहायज्ञ हैं। 
Teaching & learning of Veds, sacrifice to the manes, Brahmn Yagy, Pitr Yagy, Dev Yagy, offering grains-meals to organism (insects like ants, animals like cows, dogs etc.) welcoming-hospitality to the guest and offering food and drinks and the offerings to the deceased are 5 types of oblations.

वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि। 
दर्शमस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः॥[मनु स्मृति 6.9]

अमावस्या और पूर्णिमा, दोनों, पर्वों के यज्ञों को न छोड़ता हुआ समय पर यथोक्त विधि से वैतानिक अग्निहोत्र  करे।
One should perform the Yagy on each Amavasaya-Moonless night & Purnima-full Moon night, as per procedure described in the scriptures.
वैतानिक :: वह हवन या यज्ञ आदि जो श्रौत विधानों के अनुसार हो, वह अग्नि जिससे अग्निहोत्र आदि कृत्य किए जायें; holi-sacred sacrifices in fire as per procedure described in the scriptures.

ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्। 
तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥[मनु स्मृति 6.10]

नक्षत्रेष्टी, आग्रयण, चातुर्मास, तुरायण और दाक्षायण, इन वेदकर्मों को क्रमशः करे।
The inmates of the monastery, hermitage, Ashram in the deep woods should perform these 4 Yagy called Nakshatreshti, Agrayan, Chaturmas, Turayan and Dakshayan. These Yagy have been listed as Ved Karm i.e., the duties prescribed to be performed by the retired people and the household as well.
नक्षत्रेष्टी यज्ञ :: ग्रह नक्षत्र शांति हेतु किया जाने वाला यज्ञ, Sacrifice to calm down constellations and planets.
तुरायण :: चैत्र शुक्ल पंचमी और वैशाख शुक्ल पंचमी को किया जाने वाला यज्ञ। आग्रयण :: नये अन्न से यज्ञ अथवा अग्निहोत्र, प्रतिवर्ष नया अन्न आने के बाद आग्रयण अवश्य होता है।
दाक्षायण :: दक्ष  प्रारंभ राजवंश। इस वंश के राजा संस्कार विशेष, के कारण, शतपथ ब्राह्मण के समय तक, समृद्ध जीवन व्यतित कर रहे थे [श. ब्रा.2.4.4.6]; अथर्ववेद एवं यजुर्वेद संहिताओं में, शतानीक सात्रजित ऋषि को दाक्षायणों ने स्वर्ण प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है [अ.वे.1.35.1-2];[ वा.सं. 34.51-52]; [खिल.4.7.7.8]। दाक्षायण  का प्रयोग स्वर्ण के लिये भी होता है [ऐ.ब्रा.3.40]। महाभाष्य में, पाणिनि को दाक्षायण कहा गया है; एक यज्ञ जो वैदिक काल में दक्ष प्रजापति ने किया था, a sacrifice.
चातुर्मास :: श्रावण, भाद्रपद, आश्‍विन और कार्तिक। इसके प्रारंभ को देवशयनी एकादशी कहा जाता है और अंत को देवोत्थान एकादशी। यह काल व्रत, भक्ति और शुभ कर्मों के हेतु है। ध्यान और साधना के लिए भी यह उपयुक्त समय है। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी स्वच्छ-अच्छा रहता है। इन चार महीनों में मनुष्य की पाचनशक्ति कमजोर पड़ती है तथा भोजन और जल में जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ जाती है। इस काल में जमीन पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना बहुत शुभ माना जाता है। उठने के बाद अच्छे से स्नान करना और अधिकतर समय मौन रहना चाहिए। ब्राह्मण और साधुओं के लिये ये नियम और अधिक कड़े होते हैं। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए। इस दौरान विवाह संस्कार, जातकर्म संस्कार, गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध माने गए हैं। इस व्रत में दूध, शकर, दही, तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस और मदिरा का सेवन नहीं किया जाता। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।

पुरोहितं च कुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजः। 
तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च॥[मनु स्मृति 7.78]
पुरोहित को नियुक्त करके और ऋत्विजों (यज्ञ करानेवालों) को कर्म करने के लिये वरण करे, वे गृह्यसूत्र के अनुसार राजा के शान्ति-कर्मादि करें।
The king should appoint a family priest and the Brahmns for performing Yagy-sacrifices in holy fire for auspicious-sacred purposes.
यजेत राजा क्रतुभिविविधैराप्तदक्षिणैः। 
धर्मार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद्भोगान्धनानि च॥[मनु स्मृति 7.79]
राजा धर्म के निमित्त बहु दक्षिणा युक्त, विविध प्रकार के यज्ञ करे और ब्राह्मणों को भोग्य पदार्थ और धन दे।
The king should organise various types of sacred sacrifices in holy fire strengthened with multiple offerings and donate various consumable goods to the Brahmn with sufficient money to survive, while they pray to God for the benefit of the kingdom as a whole.

गृहस्थ धर्म के यज्ञ :: इन पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।
(1). ब्रह्मयज्ञ :: जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है, मनुष्‍य। मनुष्‍य से बढ़कर है पितर (दिवंगत पूर्वज) अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पांच शक्तियां, देवी-देवता और देव से बढ़कर है। ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्‍वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात ‘ऋषि ऋण’ चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य..इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्‍ट होता है। इसमें गायत्री विनियोग होता है। प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है। मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी-हितैषी परिजन एक साथ बैठें। मृतात्मा के स्नेह-उपकारों का स्मरण करें।उसकी शान्ति-सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूवर्क पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अपिर्त करने का भाव करें-यह न्यूनतम है। यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल-जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें। ब्रह्ययज्ञ को उसकी पूणार्हुति मानें। 

निम्न संकल्प बोलें :-

नामाहं…नाम्नः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा, ब्रह्मलोकावाप्तये…
परिमाणं गायत्री महामन्त्रानुष्ठानपुण्यं श्रद्धापूवर्कम् अहं समपर्यिष्ये।

(2). देवयज्ञ :: यह सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे ‘देव ऋण’ चुकता होता है।

हवन करने को ‘देवयज्ञ’ कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएं (लकड़ियां) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं।इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।
इसमें देवप्रवृत्तियों का पोषण, देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना आता है। दुष्प्रवृत्तियों के त्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभ्यास का उपक्रम अपनाने से देवशक्तियाँ तुष्ट होती हैं, देववृत्तियाँ पुष्ट होती हैं। श्राद्ध के समय संस्कार करने वाले प्रमुख परिजन सहित उपस्थित सभी परिजनों को इस यज्ञ में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए। अपने स्वभाव के साथ जुड़ी दुष्प्रवृत्तियों को सदैव के लिए या किसी अवधि तक के लिए छोड़ने, परमार्थ गतिविधियों को अपनाने का संकल्प कर लिया जाए, उसका पुण्य मृतात्मा के हितार्थ अपिर्त किया जाए।
निम्न संकल्प बोलें:-
नामाहं… नामकमृतात्मनः देवगतिप्रदानाथर्…दिनानि यावत् मासपयर्न्तं-वषर्पयर्न्तं…दुष्प्रवृत्त्युन्मूलनैः …सत्प्रवृत्तिसंधारणैः जायमानं पुण्यं मृतात्मनः समुत्कषर्णाय श्रद्धापूवर्कं अहं समपर्यिष्ये।

(3). पितृयज्ञ :: सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है।यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से ‘पितृ ऋण’ भी चुकता होता है।

यह कृत्य पितृयज्ञ के अंतगर्त किया जाता है। ‘श्राद्ध’ और ‘तर्पण’ करना ही पितृ-यज्ञ है। जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए। मरणोत्तर संस्कार में 12 पिण्डदान किये जाते हैं :- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग एक-एक छटाँक आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए। संकल्प के बाद एक-एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए। छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक-एक पिण्ड है। सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है। अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, उच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समपिर्त हैं। ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं। मछलियों को चुगाये जा सकते हैं। पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें :-
ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निमिर्तः पुरा।  
त्वय्यचिर्तेऽ चिर्तः सोऽ स्तु, यस्याहं नाम कीतर्ये।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है। काया की समाप्ति के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है। आगे का क्रम भी भलीप्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। सूक्ष्म विद्युत तरंगों के माध्यम से वैज्ञानिक दूरस्थ उपकरण का संचालन कर लेते हैं। श्रद्धा उससे भी अधिक सशक्त तरंगें प्रेषित कर सकती है। उसके माध्यम से पितरों-को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा सकती है। मरणोत्तर संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है। पितृ-यज्ञ हेतु मनीषियों ने हमारे यहाँ आश्विन या कुआर के कृष्ण-पक्ष के पूरे पन्द्रह दिन (मतान्तर से 16 दिन) विशेष रूप से सुरक्षित किए हैं।
पितृ-यज्ञ वार्षिक श्राद्ध क्रमांक विधि ::
(3.1). पितृ-पक्ष के दिनों में अपने स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह तथा वृद्ध प्रपितामह और स्वर्गीय माता, मातामह, प्रमातामह एवं वृद्ध-प्रमातामह के नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए अपने हाथों की अञ्जुली से जल प्रदान करना चाहिए (यदि किसी कारण-वश किसी पीढ़ी के पितर का नाम ज्ञात न हो सके, तो भावना से स्मरण कर जल देना चाहिए)।
(3.2). पितरों को जल देने के लिए विशेष वस्तुओं के प्रबन्ध की आवश्यकता नहीं है। केवल (3.2.1). कुश, (3.2.2). काले तिल, (3.2.3). अक्षत (चावल), (3.2.4). गंगा-जल और (3.2.5). श्वेत-पुष्प पर्याप्त हैं। इन्हीं से श्रद्धा-पूर्वक जल प्रदान से पितर अल्प समय में सन्तुष्ट हो जाते हैं और कल्याण हेतु आशीर्वाद देते हैं।
(3.3). स्कन्द महापुराण में भगवान् शिव पार्वती जी से कहते हैं कि “हे महादेवि ! जो ‘श्राद्ध नहीं करता, उसकी पूजा को मैं ग्रहण नहीं करता। भगवान हरि भी नहीं ग्रहण करते हैं”।
(3.4). यदि किसी को किसी कारण-वश माता-पिता की मृत्यु-तिथि का ज्ञान न हो, तो उसे ‘अमावस्या’ को ही वार्षिक-श्राद्ध करना चाहिए।
(3.5) श्राद्ध-कर्त्ता को केवल एक समय भोजन करना चाहिए अर्थात रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिए। श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
(4). वैश्वदेवयज्ञ-भूतयज्ञ-पञ्चबलि :: पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं। इसके निमित्त पञ्चबलि प्रक्रिया की जाती है।’बलि’ और ‘वैश्व देव’ की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे ‘भूत-यज्ञ’ कहते हैं। विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है। अलग-अलग पत्तों या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं। उरद-दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है। पाँचों भाग रखें। क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक-एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समपिर्त करें।

(4.1). गोबलि :- पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त :-

ॐ सौरभेय्यः सवर्हिताः, पवित्राः पुण्यराशयः। 
प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥ इदं गोभ्यः इदं न मम।

(4.2). कुक्कुरबलि :- कत्तर्व्यनिष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त :-

ॐ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ। 
ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ॥ इदं श्वभ्यां इदं न मम॥

(4.3). काकबलि :- मलीनता निवारक काक के निमित्त :-

ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा। 
वायसाः प्रतिगृह्णन्तु, भमौ पिण्डं मयोज्झतिम्। इदं वायसेभ्यः इदं न मम॥

(4.4). देवबलि :- देवत्व संवधर्क शक्तियों के निमित्त :-

ॐ देवाः मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः। 
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥ इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम।

पिपीलिकादिबलि :- श्रमनिष्ठा एवं सामूहिकता की प्रतीक चींटियों के निमित्त :-

ॐ पिपीलिकाः कीटपतंगकाद्याः, बुभुक्षिताः कमर्निबन्धबद्धाः। 
तेषां हि तृप्त्यथर्मिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम।
बाद में गोबलि गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादिबलि चींटी आदि को खिला दिया जाए।
(5). अतिथि यज्ञ-मनुष्य यज्ञ-श्राद्ध संकल्प :: अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है। इसके अन्तगर्त दान का विधान है। इसके अन्तर्गत ‘अतिथि-सत्कार’ आता है। दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निवार्ह के लिए अनिवार्य हो-कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए। असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर ऋण से मुक्ति का प्रयास किया जाना अनिवार्य है। 
पूवर्जों के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है। पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पयार्प्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं। श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूवर्जों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मो के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए। अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए।
प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था। उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निवार्ह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे। अपना निवार्ह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था। 
मृतकभोज का निर्वाह कर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है। कन्या भोजन, दीन-अपाहिज, अनाथों को ज़रूरत की चीज़ें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमाथिर्क कार्यो (वृक्षारोपण, विद्यालय निर्माण) के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध संकल्प के साथ की जानी चाहिए। 

संकल्प :: 

नामाहं…नामकमृतात्मनः शान्ति-सद्गति-निमित्तं लोकोपयोगिकायार्थर्…
परिमाणे धनदानस्य कन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूवर्कं संकल्पम् अहं करिष्ये॥ 

संकल्प के बाद निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत-पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ।

ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहि, उशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशतऽ आ वह, पितृन्हविषेऽअत्तवे॥ 
ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वाऽवतु बृहत्साम, पञ्चदशस्तोमो ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥

पञ्चयज्ञ पूरे करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री-यज्ञ सम्पन्न करें, फिर लिखे मन्त्र से 3 विशेष आहुतियाँ दें।

ॐ सूयर्पुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। 
तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं यमाय इदं न मम॥
इसके बाद स्विष्टकृत-पूणार्हुति आदि करते हुए समापन करें। विसजर्न के पूर्व पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अपिर्त करें, फिर क्रमशः क्षमा-प्राथर्ना, पिण्ड विसजर्न, पितृ विसजर्न तथा देव विसजर्न करें।
भगवान् विष्णु का यज्ञ :: सम्पूर्ण यज्ञों से इस यज्ञ को श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान शंकर ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला।
पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुव ने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हज़ारों राजसूय यज्ञों का फल निश्चित रूप से मिल जाता है। वह पुरुष अवश्य ही अनेक कल्पों तक जीवन धारण करने वाला तथा जीवन्मुक्त होता है।
जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णव पुरुषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरुषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में भगवती मूल प्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती देवी, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्ण पत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में ‘विष्णु यज्ञ’ श्रेष्ठ माना जाता है।
अग्निहोत्र :: इस प्रक्रिया में अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियाँ दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं :- (1). गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, (2). मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, (3). शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा (4). ओषधियाँ व वनस्पतियाँ जो स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। अग्निहोत्र का मुख्य प्रयोजन इन सभी पदार्थों को अग्नि की सहायता से सूक्ष्मातिसूक्ष्म बनाकर उसे वायुमण्डल व सुदूर आकाश में फैलाया जाता है।जब कोई वस्तु जलती है तो वह सूक्ष्म हल्के कणों में परिवर्तित हो जाती है और वायु मण्डल में सर्वत्र वा दूर-दूर तक फैल जाती है। वायु मण्डल में फैलने से उनका वायु पर लाभप्रद प्रभाव होता है। जिस प्रकार दुर्गन्धयुक्त वायु स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद व मन के लिए अप्रिय होती है उसी प्रकार से गोघृत व केसर, कस्तूरी आदि नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों के जलने से वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित, स्वास्थ्यप्रद व रोगनाशक हो जाती है। इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप यज्ञ से पूर्व की वायु के गुणों में वृद्धि होकर वह स्वास्थ्यवर्धक, रोगनिवारक, वर्षाजल को शुद्ध करने वाली, प्रदुषण निवारक, वर्षा जल पर आश्रित अन्न व वनस्पतियों को स्वास्थ्यप्रद करने, यहां तक की अच्छी सन्तानों को जन्म देने में भी सहायक होती है।
अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए यज्ञकुण्ड वा हवनकुण्ड का प्रयोग करते है जो तली में छोटा व ऊपर की ओर बड़ा व खुले मुख वाला होता है। यह पूरा यज्ञ कुण्ड टीन, लोहे व ताम्बे का बना होता है। भूमि खोद कर भी यज्ञ कुण्ड बनाया जा सकता है। आम, पीपल, गुग्गल, कपूर व पलाश आदि अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व पर्यावरण के हितकर काष्ठों की समिधाओं को यज्ञ कुण्ड के आकार में काट कर उन्हें यज्ञकुण्ड में रखा जाता है। कपूर को यज्ञ में प्रयुक्त घृताहुति वाली चम्मच में रखकर उसे दीपक के द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते हुए वेद मन्त्र को बोलकर अग्नि का आधान यज्ञकुण्ड के बीच समिधाओं में किया जाता है। जब अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है तो यज्ञ के विधान के अनुसार परिवार का एक व अधिक सदस्य घृत की और कुछ हवन सामग्री वा साकल्य जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, को लगभग पांच-पांच ग्राम या कुछ अधिक मात्रा में लेकर उसकी आहुतियां वेद मन्त्रों को बोलकर यज्ञ की अग्नि में डाली जाती हैं, जिससे अग्नि में पड़ कर वह आहुतियां पूर्णतया जलकर व सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जायें। जिन मन्त्रों को शुद्ध उच्चारित कर आहुतियां दी जाती हैं, उनके अन्त में स्वाहा: बोला जाता है। मन्त्र बोलने का प्रयोजन यह है कि इससे यज्ञ करने के लाभ यजमान वा यज्ञकर्ता को विदित हो जाये और साथ ही उन मन्त्रों के कण्ठस्थ हो जाने से उनकी रक्षा व सुरक्षा हो सके। इस प्रकार न्यून से न्यून प्रतिदिन प्रातः व सायं सोलह-सोलह व अधिक आहुतियां देने का विधान पूर्वजों व ऋषियों ने किया है। इस प्रकार से यज्ञ-अग्निहोत्र करने में मात्र 10 से 15 या अधिकतम 20 मिनट का समय लगता है। इस प्रक्रिया से वायु मण्डल शुद्ध हो जाता है। यज्ञ की गर्मी से घर का वायु हल्का होकर ऊपर व खिड़कियों-रोशन दानों से बाहर चला जाता है और बाहर का शुद्ध व हितकर वायु घर के अन्दर प्रवेश करता है। इससे घर में रहने वाले सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा वा निरोग रहता है। परिवार के किसी भी सदस्य को रोग नहीं होते और यदि किसी कारण से हों भी जायें तो अल्प मात्रा में उपचार करने से वह शीघ्र ठीक हो जाते हैं। घृत एवं यज्ञ सामग्री के अनेक पदार्थ कीटाणु नाशक भी हैं। यज्ञ करने से जल, वायु आदि में व घर में यत्र-तत्र जो सूक्ष्म हानिकारक कीटाणु छिपे होते हैं, वह भी नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध वायु मिलने से मनुष्यों का स्वास्थ्य अच्छा होता है व उनके शरीर बलवान, रोगमुक्त व स्वस्थ होते हैं। यज्ञ करने के अनेक अदृश्य लाभ भी होते हैं जो यज्ञ में वेद मन्त्रों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने अपनी गवेषणा व अनुसंधान से यहां तक कहा कि यज्ञ करने वाले के अगले पुनर्जन्म में यह आहुतियां उसको अनेकविध लाभ पहुंचाती हैं। यह लाभ ईश्वर जीवात्मा को प्रदान करता है।
वेद मन्त्र ईश्वर के द्वारा प्रदत्त व निर्मित है। वेदों की कोई भी बात अज्ञान व असत्य नहीं है। वेद मन्त्रों में असम्भव प्रार्थनायें भी नहीं है जो उसके अनुरूप व्यवहार करने से पूर्ण वा सिद्ध न हों। वेद की प्रार्थनायें सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण हैं। अतः वेदों में जो कहा गया है वह जीवन में अवश्य प्राप्त होता है अथवा वह सभी लाभ उसको प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति यज्ञ को करता है। यज्ञ को करते समय जब यज्ञकुण्ड की अग्नि मन्द होने लगे तो उसमें आवश्यकतानुसार समिधायें रखते रहना चाहिये जिससे हमारी आहुतियां तेज वा प्रचण्ड अग्नि से सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में दूर दूर तक पहुंचती रहे।

योग यज्ञ :: योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा प्राण वायु में अपान वायु का हवन करते हैं, जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन। कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं, जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम। कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं।
ज्ञान यज्ञ :: यज्ञों द्वारा काम, क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी, यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान से परमात्मा को जान लेते हैं। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है, वह ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं, परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में। इस प्रकार बहुत प्रकार की यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं। यह यज्ञ विधियाँ  कर्म से ही उत्पन्न होती हैं। इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव मुक्त हो जाता है। 
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है। द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं, परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है। सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता। प्रज्ज्वलित अग्नि जिस प्रकार काष्ठ को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को; उनके प्रति आसक्ति को भस्म कर देती है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है, क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है। ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है, क्योंकि आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है। जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर उन्हें वश में रखता है, जो निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है, जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में। ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, लोभ मोह से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त होता है। ज्ञान से आसक्ति को नष्ट करें। ज्ञान का संयोग संयम और भक्ति से होने पर प्राणी मुक्ति-मोक्ष माह प्रयाण की ओर बढ़ जाता है। 
यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभ :: यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन का सामर्थ्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिशा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले-दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है, जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी को करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान न होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबको करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है।
यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामर्थ्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है।
यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायु शुद्धि, जल शुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामर्थ्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है।
दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान के इच्छा, प्रेरणाग्रहण एवं प्रयत्न पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर के एवं परमेश्वररचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्षप्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।
यदि कोई व्यक्ति इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है। जहाँ तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियाँ रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्र–चिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है।

यज्ञ करने की विधि ::  प्रातःकाल यज्ञ से पूर्व तथा सायंकाल यज्ञ के पश्चात “सन्ध्योपासना” करने का विधान है। सन्ध्या का अर्थ है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना। सन्ध्या के बाद तथा जब सूर्योदय हो गया हो, तब अग्निहोत्र किया जाता है। सबसे पहले गायत्री का मन्त्र का पाठ कर लेना चाहिये जिससे मन यज्ञ करते समय इधर-उधर न भागे और यज्ञ में ही एकाग्र रहे। इसके बाद तीन आचमन अर्थात् अल्प मात्रा में जल पीने का विधान है जो आचमन के मन्त्रों को बोलकर किये जाते हैं। इससे कफ आदि की निवृत्ति होकर वाणी का उच्चारण शुद्ध होता है। इसके पश्चात बायें हाथ की अंजलि में जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से शरीरस्थ इन्द्रियों के स्पर्श करने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर से इन्द्रियों व शरीर के स्वस्थ, निरोग व बलवान होने की प्रार्थना है। तत्पश्चात 8 स्तुति-प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का उनके अर्थ को विचार करते हुए या पृथक से बोल कर गायन वा उच्चारण करने का विधान है। इसके बाद दीपक जला कर उससे कपूर को प्रज्जवलित कर यज्ञ कुण्ड में उस कपूर की अग्नि का आधान मन्त्रों को बोलकर किया जाता है जो मात्र 25 से 30 सेकंड में हो जाता है। अग्न्याधान के बाद चार मन्त्रों को बोलकर काष्ठ की 3 समिधायें प्रदीप्त अग्नि पर रखने का विधान है। समिदाधान के बाद एक ही मन्त्र को पांच बार बोल कर घृत की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात चारों दिशाओं में जल सिंचन का विधान है। यह सभी कार्य पृथक पृथक मन्त्रों को बोल कर किये जातें हैं। जल सिंचन के बाद घृत की दो आघाराज्य व दो आज्यभाग आहुतियां दी जाती हैं। इसके बाद दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं। प्रातः काल की 12 आहुतियां एवं सायं काल की भी 12 आहुतियां हैं। इनके बाद यज्ञकर्त्ता यजमान यदि अधिक आहुति देना चाहें तो गायत्री मन्त्र को बोलकर देने का विधान है। इसके बाद पूर्णाहुति तीन बार ‘ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।’ बोलकर की जाती है। इससे पूर्व यदि यजमान स्विष्टकृदाहुति व प्राजापत्याहुति देना चाहे तो सम्बन्धित मन्त्रों को बोल कर दे सकता है। इस प्रकार से दैनिक यज्ञ सम्पन्न होता है। बहुत से लोग प्रातः व सायं यज्ञ न कर सायंकाल के 4 मन्त्रों को भी प्रातःकाल के यज्ञ में सम्मिलित कर आहुतियां दे देते हैं। इस प्रकार से यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यज्ञ के बाद, “यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छल कपट को छोड़ देवें, मानसिक बल दीजिए’ यह यज्ञ प्रार्थना भी की जा सकती है और उसके बाद शान्तिपाठ का मन्त्र बोलकर यज्ञ समाप्त हो जाता है। यह अग्निहोत्र वा देवयज्ञ करने की विधि व विधान है। यज्ञ पूर्णतः अंहिसात्मक कर्म है, इसमें किंचित किसी प्राणी की हिंसा निषिद्ध है। ऐसा होने यज्ञ यज्ञ न होकर पापकर्म बन जाता है।
रोग व दुःखों से बचने व अन्यों को बचाने के लिए वायु, जल व प्रकृति को शुद्ध रखें व यज्ञ आदि क्रिया कर सबको शुद्ध करें। जो मनुष्य, स्त्री व पुरूष, ऐसा नहीं करता वह पाप का भागी होता है। यज्ञ न करना पाप करना है क्योंकि इससे किये गये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों से अन्य प्राणियों को दुःख होता है। यदि मनुष्य इस जन्म व परजन्मों में सुखी होना चाहता है तो उसे यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ का अन्य कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं करेगा तो कालान्तर में परिणाम ईश्वर की व्यवस्था से इसके सम्मुख अवश्य आता है। इसके साथ ही यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी अनेक प्रकार से भी वंचित हो जाता है।
धर्म की एक शब्द की एक परिभाषा है ‘‘सत्याचरण”। सत्याचरण में माता-पिता की सेवा सुश्रुषा सहित प्राणिमात्र पर दया व उनके भोजन का प्रबन्ध करने के साथ, विद्वान अतिथियों की सेवा, उनसे सद्व्यवहार, उनका अन्न, धन, वस्त्र दान द्वारा सम्मान एवं यथासमय ईश्वरोपासना-सन्ध्या व अग्निहोत्र कल्याण के हितैषी सब मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। जो करेगा वह ईश्वर से इन कर्मों का लाभ व फल पायेगा और जो नहीं करेगा वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होगा।
यज्ञ-हवन कुंड का प्रकार ::

सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ति के लिए प्रधान चतुरस्त्र कुंड का महत्व होता है। 
पुत्र प्राप्ति के लिए योनि कुंड का पूजन जरूरी है।
ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य कुंड यज्ञ का आयोजन जरूरी होता है।

शत्रु नाश के लिए त्रिकोण कुंड यज्ञ फलदाई होता है। 
व्यापार में वृद्धि के लिए वृत्त कुंड करना लाभदाई होता है। 

मन की शांति केमन की शांति के लिए अर्द्धचंद्र कुंड किया जाता है। 

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए समअष्टास्त्र कुंड, विषम अष्टास्त्र कुंड, विषम षडास्त्र कुंड का विशेष महत्व होता है।

दैनिक यज्ञ-हवन  विधि ::
॥ अथ अग्निहोत्रमंत्र:॥
जल से आचमन करने के मंत्र ::
(1). ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
हे सर्व रक्षक अमर परमेश्वर! यह सुख प्रद जल प्राणियों का आश्रयभूत है, यह हमारा कथन शुभ हो। यह मैं सत्य निष्ठा पूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।
  (2). ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।
हे सर्व रक्षक अविनाशि स्वरूप, अजर परमेश्वर! आप हमारे आच्छादक वस्त्र के समान अर्थात सदा-सर्वदा सब और से रक्षक हों, यह सत्य वचन मैं सत्य निष्ठा पूर्वक मान कर कहता हूँ और सुष्ठू क्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।
(3). ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा।
हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण, यश एवं प्रतिष्ठा. विजय लक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझ में स्थित हों, यह मैं सत्य निष्ठा पूर्वक प्रार्थना करता हूँ और सुष्ठू क्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ।
जल से अंग स्पर्श करने के मंत्र का उद्देश्य शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश करना तथा अंतः करण की चेतना को जगाना है ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।
इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें :: ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु।
इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग :: ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
इस मंत्र से दोनों आँखें :: ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु।

हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।

इस मंत्र से दोनों कान :: ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु।

हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।

इस मंत्र से दोनों भुजाऐं :: ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे।
इस मंत्र से दोनों जंघाएं :: ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे।
इस मंत्र से सारे शरीर पर जल का मार्जन करें :: 
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु
हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें।
ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना–उपासना के मंत्र ::
ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद भद्रं तन्न आ सुव॥1॥
हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।
हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥
सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा:।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥
जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्ष सुख दायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजा पालक शुद्ध एवं प्रकाश स्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥
जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक:।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥
जिस परमात्मा ने तेजो मय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाश स्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त॥7॥
वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम॥8॥
हे ज्ञान प्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक, दिव्य सामर्थ युक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याण कारी मार्ग से ले चलें। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।
 दीपक जलाने का मंत्र :: ॐ भूर्भुव: स्व:। 
हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब के उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को दूर करने वाले सुखस्वरूप एवं सुखदाता हैं। आपकी कृपा से मेरा यह अनुष्ठान सफल होवे। अथवा हे ईश्वर आप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकी कृपा से यह यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में विस्तीर्ण होकर लोकोपकारक सिद्ध होवे।
 यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मंत्र :: 
ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥
हे सर्वरक्षक सबके उत्पादक और प्राणाधार दुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता परमेश्वर! आपकी कृपा से मैं महत्ता या गरिमा में द्युलोक के समान, श्रेष्ठता या विस्तार में पृथिवी लोक के समान हो जाऊं । देवयज्ञ की आधारभूमि पृथिवी! के तल पर हव्य द्रव्यों का भक्षण करने वाली यज्ञीय अग्नि को, भक्षणीय अन्न एवं धर्मानुकूल भोगों की प्राप्ति के लिए तथा भक्षण सामर्थ्य और भोग सामर्थ्य प्राप्ति के लिए यज्ञकुण्ड में स्थापित करता हूँ ।
अग्नि प्रदीप्त करने का मंत्र :: 
ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुअ यहाँ कामना करता हूँ कि हे यज्ञाग्ने ! तू भलीभांति उद्दीप्त हो, और प्रत्येक समिधा को प्रज्वलित करती हुई पर्याप्त ज्वालामयी हो जा। तू और यह यजमान इष्ट और पूर्त्त कर्मों को मिल्कर सम्पादित करें। इस अति उत्कृष्ट, भव्य और अत्युच्च यज्ञशाला में सब विद्वान और यज्ञकर्त्ता जन मिलकर बैठें।
घृत की तीन समिधायें रखने के मंत्र :: 
इस मंत्र से प्रथम समिधा रखें :-
ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान्
प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नेय जातवेदसे इदं न मम॥1॥
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह समिधा तेरे जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस समिधा से तू प्रदीप्त हो, सबको प्रकाशित कर और सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर, और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा।ब्रह्मतेज ( विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन-ऐश्वयर् तथा भक्षण एवं भोग- सामथ्यर् से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ।  यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नही है। 
इन दो मन्त्रों से दूसरी समिधा रखें :-
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम्। आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम॥2॥ 
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यो! समिधा के द्वारा यज्ञाग्नि की सेवा करो-भक्ति से यज्ञ करो। घृताहुतियों से गतिशील एवं अतिथ के समान प्रथम सत्करणीय यज्ञाग्नि को प्रबुद्ध करो, इसमें हव्यों को भलीभांति अपिर्त करो।मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ। यह आहुति यज्ञाग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है। 
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा। 
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥3॥  
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर के स्मरणपूर्वक वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यों! अच्छी प्रकार प्रदीप्त ज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्नि के लिए वस्तुमात्र में व्याप्त एवं उनकी प्रकाशक अग्नि के लिए उत्कृष्ट घृत की आहुतियाँ दो . मैं त्याग भाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ यह आहुति जातवेदस् संज्ञक माध्यमिक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं।
 इस मन्त्र से तीसरी समिधा रखें :-
तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा। इदमग्नेऽङिगरसे इदं न मम॥4॥  
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए यह कथन करता हूँ कि हे तीव्र प्रज्वलित यज्ञाग्नि! तुझे हम समिधायों से और धृताहुतियों से बढ़ाते हैं।हे पदार्थों को मिलाने और पृथक करने की महान शक्ति से सम्पन्न अग्नि ! तू बहुत अधिक प्रदीप्त हो, मैं त्यागभाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ। यह अंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है।
नीचे लिखे मन्त्र से घृत की पांच आहुति देवें ::
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान् प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥5॥
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह धृत जो जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस धृत से तू प्रदीप्त हो और ज्वालाओं से बढ़ तथा सबको प्रकाशित कर सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा। विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन ऐश्वर्य तथा भक्षण एवं भोग सामर्थ्य से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह धृत प्रदान करता हूँ ।यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है।
जल प्रसेचन के मन्त्र ::
इस मन्त्र से पूर्व दिशा में :-
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व।  
हे सर्व रक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पूर्व दिशा में, जलसिञ्चन के सदृश, मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार प्रसार निबार्ध रूप से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इस मंत्र से पश्चिम दिशा में :-
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व। 
हे सर्व रक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे अथवा पश्चिम दिशा में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इस मंत्र से उत्तर दिशा में :-
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व। 
हे सर्वरक्षक प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि से मेरा यह यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से सम्पन्न होता रहे।अथवा, उत्तर दिशा में जलसिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से करता रहूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इस मन्त्र से वेदी के चारों और जल छिड़कावें :- 
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥ 
हे सर्वरक्षक दिव्यगुण शक्ति सम्पन्न सब जगत के उत्पादक परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म को बढाओ। आनन्द, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए याग्यकर्त्ता को यज्ञकर्म की अभिवृद्धि के लिए और अधिक प्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञान के प्रकाशक हैं पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र ज्ञान के आश्रय हैं, ज्ञान-विज्ञान से बुद्धि मन को पवित्र करने वाले हैं, अतः हमारे बुद्धि-मन को पवित्र कीजिये।आप वाणी के स्वामी हैं, अतः हमारी वाणी को मधुर बनाइये। अथवा, चारों दिशायों में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार कर सकूँ, इस कार्य के लिए मुझे उत्तम ज्ञान, पवित्र आचरण और मधुर-प्रशस्त वाणी में समर्थ बनाइये।
चार घी की आहुतियाँ ::
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदं न मम॥ 
सर्व रक्षक प्रकाश स्वरूप दोष नाशक परमात्मा के लिए मैं त्याग भावना से धृत की हवि देता हूँ।यह आहुति अग्नि स्वरूप परमात्मा के लिए है, यह मेरी नहीं है अथवा, यज्ञाग्नि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें :-
ओम् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदं न मम॥ 
सर्व रक्षक, शांति-सुख-स्वरूप और इनके दाता परमात्मा के लिए त्याग भावना से धृत की आहुति देता हूँ अथवा आनन्द प्रद चन्द्रमा के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।
इन दो मन्त्रों से यज्ञ कुण्ड के मध्य में दो आहुति देवें :- 
ओम् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये इदं न मम॥ 
सर्व रक्षक प्रजा अर्थात सब जगत के पालक, स्वामी, परमात्मा के लिए मैं त्याग भाव से यह आहुति देता हूँ अथवा प्रजापति सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। 
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदं इन्द्राय इदं न मम॥ 
सर्वरक्षक परमऐश्वर्य-सम्पन्न तथा उसके दाता परमेश्वर के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ अथवा ऐश्वयर्शाली, शक्ति शाली वायु व विद्युत के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।
दैनिक अग्निहोत्र की प्रधान आहुतियां-प्रातः कालीन आहुति के मन्त्र :-
इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री आदि अन्य होम द्रव्यों की भी आहुतियां दें।
ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा॥1॥ 
सर्व रक्षक, सर्व गति शील सबका प्रेरक परमात्मा प्रकाश स्वरूप है और प्रत्येक प्रकाश स्वरूप वस्तु या ज्योति परमात्ममय  परमेश्वर से व्याप्त है।उस परमेश्वर अथवा ज्योतिष्मान उदय कालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूँ।
ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥2॥
 सर्व रक्षक, सर्व गति शील और सबका प्रेरक परमात्मा तेज स्वरूप है, जैसे प्रकाश तेज स्वरूप होता है, उस परमात्मा अथवा तेजःस्वरूप प्रातःकालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूँ।
ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योति स्वाहा॥3॥ 
सर्व रक्षक, ब्रह्म ज्योति ब्रह्म ज्ञान परमात्म मय है परमात्मा की द्योतक है परमात्मा ही ज्ञान का प्रकाशक है। मैं ऐसे परमात्मा अथवा सबके प्रकाशक सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूं।
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यता जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥4॥ 
सर्व रक्षक, सर्व व्यापक, सर्वत्र गति शील परमात्मा सर्वोत्पादक, प्रकाश एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला, तथा ऐश्वयर्शाली प्रसन्न्ता, शक्ति तथा धनैश्वर्य देने वाली प्राणमयी उषा से प्रीति रखने वाला है अर्थात प्रीति पूर्वक उनको उत्पन्न कर प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो  हमारी आत्मा में प्रकाशित हो।उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूं।अथवा सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्रसन्नता, शक्ति, ऐश्वयर्युक्त उषा से संयुक्त प्रातः कालीन सूर्य हमारे द्वारा आहुतिदान का सम्यक् प्रकार भक्षण करे और उनको वातावरण में व्याप्त कर दे, जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ हो।
प्रातः कालीन आहुति के समान मन्त्र :: 
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नये प्राणाय-इदं न मम॥1॥
सर्व रक्षक, सबके उत्पादक एवं सत स्वरूप, सर्वत्र व्यापक, प्राण स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति देता हूं।यह आहुति अग्नि और प्राणसंज्ञक परमात्मा के लिए है। यह मेरी नही हैअथवा परमेश्वर के स्मरण पूर्वक, पृथिवी स्थानीय अग्नि के लिए और प्राणवायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम॥2॥ 
सर्व रक्षक, सब दुखों से छुड़ाने वाले और चित्तस्वरूप सर्वत्र गतिशील दोषों को दूर करने वाले परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ। यह आहुति वायु और अपान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक अन्तिरक्ष स्थानीय वायु के लिए और अपान वायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम॥3॥
सर्वरक्षक, सुखस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप अखण्ड और प्रकाशस्वरूप सर्वत्र व्याप्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा सर्वरक्षक परमात्मा के स्मरणपूवर्क, द्युलोकस्थानीय सूर्य के लिए और व्यान वायु की शुद्धि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान वायु के लिए है, यह मेरी नही है।
ओम् भूभुर्वः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदं न मम॥4॥ 
सर्वरक्षक, सबके उत्पादक एवं सतस्वरूप दुखों को दूर करने वाले एवं चित्तस्वरूप सुख-आनन्द स्वरूप सर्वत्र व्याप्त गतिशील प्रकाशक, सबके प्राणाधार, दोषनिवारक व्यापक स्वरूपों वाले परमात्मा के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूं। यह आहुति उक्तसंज्ञक परमात्मा के लिए है, मेरी नहीं है अथवा परमेश्वर के स्मरणपूवर्क, पृथिवीअन्तिरक्षद्युलोकस्थानीय अग्नि वायु और आदित्य के लिए तथा प्राण, अपान और व्यान संज्ञक प्राणवायुओं की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूँ।
ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूभुर्वः स्वरों स्वाहा॥5॥
हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशस्वरूप एवं प्रकाशक, उपासकों द्वारा रसनीय, आस्वादनीय, आनन्द हेतु उपासनीय, नाशरिहत, अखण्ड, अजरअमर, सबसे महान, प्राणाधार और सतस्वरूप, दुखों को दूर करने वाले और चितस्वरूप, सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता और आनन्दस्वरूप, सबके रक्षा करनेवाले हैं।ये सब आपके नाम हैं, इन नामों वाले आप परमेश्वर की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥6॥ 
हे सर्वरक्षक ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! जिस धारणावती ज्ञान, गुण, उत्तम विचार आदि को धारण करने वाली बुद्धि की दिव्य गुणों वाले विद्वान और पालक जन माता-पिता आदि ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध जन उपासना करते हैं अर्थात चाहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये यत्नशील रहते हैं उस मेधा बुद्धि से मुझे आज मेधा बुद्धि वाला बनाओ।इस प्रार्थना के साथ मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा॥7॥
हे सर्व रक्षक दिव्य गुण शक्ति सम्पन्न, सबके उत्पादक और प्रेरक परमात्मन्! आप कृपा करके हमारे सब दुगुर्ण, दुव्यर्सन और दुखों को दूर कीजिए और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव हैं उनको हमें भली-भाँति प्राप्त कराइये।
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम स्वाहा॥8॥ 
हे ज्ञान प्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मन्! हमको ज्ञानविज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए धमर्युक्त कल्याण कारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानविज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं हमसे कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना-सत्कार नम्रता पूर्वक करते हैं।
सायं कालीन आहुति के मन्त्र ::
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥1॥
सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक परमात्मा ज्योति स्वरूप व प्रकाश स्वरूप है, और प्रत्येक ज्योति या ज्योतियुक्त पदार्थ अग्निसंज्ञक परमात्मा से व्याप्त है। मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा ज्योतिःस्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।
ओम् अग्निवर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥2॥ 
सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक परमात्मा तेज स्वरूप है, जैसे प्रत्येक प्रकाशयुक्त वस्तु या प्रकाश तेज स्वरूप होता है, मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा तेजः स्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।
इस तीसरे मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें :-
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥3॥ 

ज्ञान-विज्ञान अग्निसंज्ञक परमात्मा से उत्पन्न अथवा उसका द्योतक है। मैं उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु और सबको प्रकाशित करने वाले अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ।

ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजुरात्र्येन्द्रवत्या जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥4॥ 
सर्व रक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोष निवारक, प्रकाश स्वरूप परमात्मा प्रकाश स्वरूप एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला तथा प्राणमयी एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से प्रीति रखने वाला है अर्थांत प्रीतिपूवर्क उनको उत्पन्न कर, प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया जाता हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो। हमारी आत्मा में प्रकाशित हो। उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूँ।
अधिदैवत पक्ष में सबके प्रकाशक सूर्य से और सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्राण एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से संयुक्त भौतिक अग्नि हमारे द्वारा आहुतिदान से प्रशंसित किया जाता हुआ हमारी आहुतियों का सम्यक प्रकार भक्षण करे और उन्हे वातावरण में व्याप्त कर दे जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ पहुँचे।
सायं कालीन आहुति के शेष समान मन्त्र ::
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नये प्राणाय-इदं न मम॥1॥
ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय-इदं न मम॥2॥
ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम॥3॥
ओम् भूर्भुवः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदं न मम॥4॥
ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा॥5॥
ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥6॥
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा॥7॥
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा॥8॥
अब तीन बार गायत्री मन्त्र से आहुति देवें :-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा। 
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करेँ।
पूर्णाहुति :-
इस मन्त्र से तीन बार घी से पूर्णाहुति करें :-
ओम् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा। 
हे सर्वरक्षक, परमेश्वर! आप की कृपा से निश्चयपूर्वक मेरा आज का यह समग्र यज्ञानुष्ठान पूरा हो गया है मैं यह पूर्णाहुति प्रदान करता हूँ।
पूर्णाहुति मन्त्र को तीन बार उच्चारण करना इन भावनाओं का द्योतक है कि शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तथा पृथिवी, अन्तिरक्ष और द्युलोक के उपकार की भावना से, एवं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु किया गया यह यज्ञानुष्ठान पूर्ण होने के बाद सफल सिद्ध हो।इसका उद्देश्य पूर्ण हो।

इति अग्निहोत्रमन्त्राः। 
मंत्र, जप और हवन-यज्ञ करते समय सावधानियाँ :: यदि जप के समय काम-क्रोधादि सताए तो काम सताएँ तो भगवान नृसिंह का चिन्तन करें। लोभ के समय दान-पुण्य करें। मोह के समय कौरवों को याद करें। सोचें कि कौरवो का कितना लम्बा-चैड़ा परिवार था, किन्तु अंत क्या हुआ। अहं सताए तो जो अपने से धन, सत्ता एवं रूप में बड़े हों, उनका चिन्तन करें। इस प्रकार इन विकारों का निवारण करके, अपना विवेक जाग्रत रखकर जो अपनी साधना करता है, उसका इष्ट मन्त्र जल्दी फलीभूत होता है। विधिपूर्वक किया गया गुरूमन्त्र का अनुष्ठान साधक के तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को सूक्ष्म लीन करके मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है।
अपनी रूचि के अनुसार जप करते समय भगवान् के सगुण अथवा निर्गुण स्वरूप में मन को एकाग्र किया जा सकता है। सगुण का विचार करेंगे तब भी अन्तिम प्राप्ति तो निर्गुण की ही होगी।
जप में साधन और साध्य एक ही हैं जबकि अन्य साधना में अलग हैं। योग में अष्टांग योग का अभ्यास साधना है और निर्विकल्प समाधि साध्य है। वेदांत में आत्मविचार साधन है और तुरीयावस्था साध्य है। किन्तु जप-साधना में जप के द्वारा ही अजपा स्थित को सिद्ध करना है अर्थात् सतर्कतापूर्वक किए गए जप के द्वारा सहज जप को पाना है। मन्त्र के अर्थ में तदाकार होना ही सच्ची साधना है। एक समय में एक ही मन्त्र और वह भी सद्गुरू प्रदत्त मन्त्र का ही जप करना श्रेष्ठ है। यदि भगवान् श्री कृष्ण के भक्त हैं तो भगवान् श्री राम, भगवान् शिव, दुर्गा माता, गायत्री इत्यादि में भी भगवान् श्री कृष्ण के ही दर्षन होंगे। सब एक ही ईश्वर के रूप हैं। भगवान् श्री कृष्ण की उपासना ही भगवान् श्री राम की या देवी की उपासना है। सभी को अपने इष्टदेव के लिए इसी प्रकार समझना चाहिए।भगवान् शिव की उपासना करते हैं तो सब में भगवान् शिव का ही स्वरूप देखें।
सामान्यतया गृहस्थ के लिए केवल प्रणव यानि “ऊँ“ का जप करना उचित नहीं है। किन्तु यदि वह साधन-चतुष्ट्य से सम्पन्न है, मन विक्षेप से मुक्त है और उसमें ज्ञानयोग साधना के लिए प्रबल मुमुक्षुत्व है तो वह “ऊँ“ का जप कर सकता है। नमः शिवाय पंचाक्षरी मन्त्र है एवं “ऊँ नमः शिवाय”पडाक्षरी मऩ्त्र। अतः इसका अनुष्ठान तद्नुसार ही करें।  जब जप करते-करते मन एकदम शान्त हो जाता है एवं जप छूट जाता है तो समझें कि जप का फल ही है शान्ति और ध्यान। यदि जप करते-करते जप छूट जाए एवं मन शान्त हो जाए तो जप की चिन्ता न करें। 
ध्यान में से उठने के पश्चात पुनः अपनी नियत संख्या पूरी कर लें।
कई बार साधक को ऐसा अनुभव होता है कि पहले इतना काम-क्रोध नहीं सताता था जितना मन्त्रदीक्षा के बाद सताने लगा है। इसका कारण है पूर्वजन्म के संस्कार। जैसे घर की सफाई करने से कचरा निकलता है, ऐसे ही मन्त्र का जाप करने से कुसंस्कार निकलते हैं। न घबराना है और न ही  मन्त्र जाप छोड़ना है।ऐसी स्थिति में दो-तीन घूँट पानी पीकर थोड़ा चल-फिर लें, प्रणव का दीर्घ उच्चारण करें एवं प्रभु से प्रार्थना करें। तुरन्त इन विकारों पर विजय पाने में सहायता मिलेगी। जप तो किसी भी अवस्था में त्याज्य नहीं है।
जब स्वप्न में मन्त्रदीक्षा मिली हो किसी साधक को पुनः प्रत्यक्ष रूप् से मन्त्रदीक्षा लेना भी अनिवार्य है। जब आप पहले किसी मन्त्र का जप करते थे तो वही मन्त्र यदि मन्त्रदीक्षा के समय मिले, तो आदर से उसका जप करना चाहिए। इससे उसकी महानता और बढ़ जाती है। जप का अर्थ होता है, मन्त्राक्षरों की मानसिक आवृत्ति के साथ मन्त्र अक्षरों के अर्थ की भावना और स्वयं का उसके प्रति समर्पण। तथ्यातः जप, मन पर अधिकार करने का अभ्यास है जिसका मुख्य उद्देश्य है मन को केन्द्रित करना क्योंकि मन व्यक्तित्व के विकास को संयम के द्वारा केन्द्रित करता है। जप के लक्ष्य में मनोनिग्रह की ही महत्ता है। जप के द्वारा मनोनिग्रह करके मानवता के मंगल में अभूत पूर्व सफलता प्राप्त की जा सकती है।
जप करने की विधियाँ वैदिक मन्त्र का जप करने की चार विधियाँ :: (1). वैखरी, (2). मध्यमा, (3). पष्चरी और (4). परा शुरु।  
शुरु में उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मन्त्र जप कहते हैं। दूसरी है, मध्यमा। इसमें होंठ भी नहीं हिलते एवं दूसरा कोई व्यक्ति मन्त्र को सुन भी नहीं सकता। तीसरी, पश्यन्ति। जिस जप में जिव्हा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता एवं जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है उसे पश्यन्ति मन्त्र जप कहते हैं। चौथी है परा। मन्त्र के अर्थ में  वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मन्त्र जप करते-करते आनन्द आने लगे एवं बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मन्त्र जप कहते हैं। वैखरी जप है तो अच्छा लेकिन वैखरी से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता है।
मध्यमा से दस गुना प्रभाव पश्यन्ति में एवं पश्यन्ति से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव परा में होता है। इस प्रकार परा में स्थिर होकर जप करें तो वैखरी का हजार गुना प्रभाव ज्यादा हो जाएगा। जप-पूजन-साधना-उपासना में सफलता के लिये ध्यान रखें। 
मन्त्र-जप, देव-पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कतिपय विषिष्ट शब्दों का अर्थ नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए।
(1). पंचोपचार :- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को “पंचोपचार“ कहते हैं।
(2). पंचामृत :- दूध, दही, घृत, मधु (शहद) तथा शक्कर इनके मिश्रण को “पंचामृत“ कहते हैं।
(3). पंचगव्य :- गाय के दूध, घृत, मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में “पंचगव्य“ कहते है।
(4). षोडषोपचार :- आव्हान, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, ताम्बुल, तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को “षोडषोपचार“ कहते है। 
(5). दषोपचार :- पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय, मधुपक्र, आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने की विधि को “दषोपचार“ कहते है। 
(6). त्रिधातु :- सोना, चाँदी, लोहा। कुछ आचार्य सोना, चांदी और तांबे के मिश्रण को भी त्रिधातु कहते हैं। 
(7). पंचधातु :- सोना, चाँदी, लोहा, तांबा और जस्ता।
(8). अष्टधातु :- सोना, चांदी, लोहा, तांबा, जस्ता, रांगा, कांसा और पारा।
(9). नैवेद्य :- खीर, मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएँ।
(10). नवग्रह :- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु।
(11). नवरत्न :- माणिक्य, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, और वैदूर्य। 
(12). अष्टगन्ध :- (12.1). अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, ष्वेत चन्दन लाल चन्दन और सिन्दूर (देव पूजन हेतु)। (12.2). अगर लालचन्दन, हल्दी, कुंकुम, गोरोचन, जटामांसी, षिलाजीत और कपूर (देवी पूजन हेतु)। 
(13). गन्धत्रय :- सिन्दूर, हल्दी, कुंकुम। 
(14). पड्चांग :- किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल और जड़। 
(15). दशांश :- दसवाँ भाग।
(16). सम्पुट :- मिट्टी के दो षकोरों को एक-दूसरे के मुँह से मिला कर बन्द करना। 
(17). भोजपत्र :- एक वृक्ष की छाल (यह पंसारियो के यहाँ मिलती है) मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकड़ा लेना चाहिए, जो कटा-फटा न हो (इसके बड़े-बड़े टुकड़े भी आते हैं)
(18). मन्त्र धारण :- किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरूष दोनों ही कण्ठ में धारण कर सकते हैं, परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहे तो पुरूष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए। 
(19). ताबीज :- यह तांबे के बने हुए बाजार में बहुतायत से मिलते हैं। ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं। सोना, चांदी, त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज सुनारों से कहकर बनवाये जा सकते हैं। 
(20). मुद्राएँ :- हाथों की अंगुलियों को किसी विषेष स्थिति में लाने की क्रिया को “मुद्रा“ कहा जाता है। मुद्राएं अनेक प्रकार की होती हैं। 
(21). स्नान :- यह दो प्रकार का होता है। बाह्य तथा आन्तरिक, बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान मन्त्र जप द्वारा किया जाता है। 
(22). तर्पण :- नदी, सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अड्जलि द्वारा जल गिराने की क्रिया को “तर्पण” कहा जाता है। जहाँ नदी, सरोवर आदि न हो, वहाँ किसी पात्र में पानी भरकर भी “तर्पण“ की क्रिया सम्पन्न कर ली जाती है। 
(23). आचमन :- हाथ में जल लेकर उसे अपने मुँह में डालने की क्रिया को “आचमन“ कहते है। 
(24). करन्यास :- अंगूठा, अंगुली, करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को “करन्यास“ कहा जाता है। 
(25). हृदययविन्यास :- हृदय आदि अंगों को स्पर्ष करते हुए मन्त्रोच्चारण को “हृदयाविन्यास“ कहते हैं। 
(26). अंगन्यास :- हृंदय, षिर, षिखा, कवच, नेत्र, एवं करतल- इन छः अंगो से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को “अंगन्यास“ कहते है। 
(27). अर्ध्य  :- षंख, अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्ध्य देना कहा जाता है। घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्ध्य-स्थापन कहते है। अध्र्यपात्र में दूध, तिल, कुषा के टुकड़े, सरसौं, जौ, पुष्प, चावल एवं कुंकुम इन सबको डाला जाता है।
(28). पंचायतन पूजा :- पंचायतन पूजा में पाँच देवताओं “विष्णु, गणेश, सूर्य, शक्ति तथा शिव” का पूजन किया जाता है।
(29). काण्डानुसमय :- एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर, अन्य देवता की पूजा करने का “कण्डानुसमय” कहते हैं। 
(30). उद्वर्तन :- उबटन। 
(31). अभिषेक :- मन्त्रोच्चारण करते हुए षंख से सुगन्धित जल छोड़ने को अभिषेक कहते हैं।
(32). उत्तरीय :- वस्त्र।
(33). उपवीत :- यज्ञोपवीत (जनेऊ)। 
34. समिधा :- जिन लकडि़यों में अग्नि प्रज्ज्वलित कर होम किया जाता है, उन्हें समिधा कहते हैं। समिधा के लिए आक, पलाष, खदिर, अपामार्ग, पीपल, उदुम्बर, षमी, कुषा तथा आम की लकडि़यों को ग्राह्य माना गया है। 
(35). प्रणव :- ऊँ।
(36). मन्त्र ऋषि :- जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम षिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत् सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धपूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है। 
(37). छन्द :- मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को “छन्द“ कहते है। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मन्त्र का उच्चारण चूंकि मुख से होता है अतः छनद का मुख से न्यास किया जाता है। 
(38). देवता :- जीवमात्र के समस्त क्रिया-कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणषक्ति को देवता कहते हैं। यह षक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है, अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है। 
(39. बीज :- मन्त्र षक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यागं में किया जाता है।
(40). षक्ति :- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व षक्ति कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।
(41). विनियोग :- मन्त्र को फल की दिषा का निर्देष देना विनियोग कहलाता है। 
(42). उपांषु जप :- जिह्ना एवं होठ को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनायी पड़ने योग्य मन्त्रोच्चारण को उपांषु जप कहते हैं। 
(43). मानस जप :- मन्त्र, मन्त्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन्त्र का उच्चारण करने को मानस जप कहते हैं।
(44). अग्नि की 7  जिह्नाएँ :- (44.1.1) हिरण्या, (44.1.2). गगना, (44.1.3). रक्ता, (44.1.4). कृष्णा, (44.1.5). सुप्रभा, (44.1.6). बहुरूपा एवं (44.1.7). अतिरिक्ता।
कतिपय आचार्याें ने अग्नि की सप्त जिह्नाओं के नाम इस प्रकार बताये हैं :- (44.2.1). काली, (44.2.2). कराली, (44.2.3). मनोभवा, (44.2.4). सुलोहिता, (44.2.5). धूम्रवर्णा, (44.2.6). स्फुलिंगिनी तथा (44.2.7). विष्वरूचि। 
(45). प्रदिक्षणा :- देवता को साष्टांग दण्डवत् करने के पष्चात इष्टदेव की परिक्रमा करने को प्रदक्षिणा कहते हैं। विष्णु, षिव, षक्ति, गणेष और सूर्य आदि देवताओं की 4, 1, 2, 1, 3 अथवा 7 परिक्रमाएँ करनी चाहिए। 
(46). 5 प्रकार की साधना :-
(46.1). अभाविनी :- पूजा के साधना तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जलमात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहते हैं। 
(46.2). त्रासी :- जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से या मानसापचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है। 
(46.3). दोर्वोधी :- बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जानी वाली पूजा दाबांधी कही जाती है। 
(46.4). सौतकी :- सूत की व्यक्ति मानसिक सन्ध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को भौतिकी कहा जाता है।
(46.5). आतुरो :- रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ायें। फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरू तथा ब्राम्हणों की पूजा करके पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगें-ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करे तो इस साधना को आतुर कहा जाएगा। अपने श्रम का महत्व- पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है तथा अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गए साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।
खण्ड 2  :: यज्ञ, दान और तप धर्म के तीन स्तम्भ हैं। पहला आधार स्तम्भ यज्ञ है। देवताओं के हेतु द्रव्य का त्याग ही यज्ञ है। देवता से तात्पर्य अग्नि-इन्द्रादि देवता, द्रव्य से तात्पर्य धन-धान्य, दही, चावल, जौं तथा सोम इत्यादि तथा त्याग से तात्पर्य है, उन देवताओं के उद्देश्य से किया जाने वाला ऐसा कृत्य जिसमें अपने स्वत्व की निवृत्ति हो।

यज्ञों के मुख्यतया दो विभाग :- (1). श्रौत तथा (2). स्मार्त्त।
श्रुति प्रति पादित यज्ञों को श्रौत यज्ञ तथा स्मृति प्रति पादित यज्ञों को स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत यज्ञों में केवल श्रुति प्रति पादित मन्त्रों का प्रयोग होता है तथा स्मार्त्त यज्ञों में वैदिक, पौराणिक तथा तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग होता है।
स्मृतियों में तथा गृह्य सूत्रों में औपासन होम, वैश्व देव, पार्णव, अष्टका, मासिक श्राद्ध, श्रवणा तथा शूलगव इन सात यज्ञों का वर्णन किया गया है। अतः ये स्मार्त्त यज्ञ हैं। इन्हीं को पाक यज्ञ भी कहते हैं। वैवाहिक चतुर्थी होम के अनन्तर विधि पूर्वक सम्पादित अग्नि को ही स्मार्त्ताग्नि कहते हैं। इसी अग्नि में औपासन होम, वैश्वदेव आदि स्मार्त्त यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है।
श्रौत यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोमयज्ञ हैं।
हविर्यज्ञ :- अग्नि होत्र, दर्श पूर्ण मास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ।
सोम याग :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम।
कुल 21 यज्ञों में औपासन होम आदि सात यज्ञ स्मार्त्त यज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौत यज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ जो अग्नि होत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौत यज्ञ सोम यज्ञ हैं।
जिन यज्ञों में चावल, जौ आदि की आहुति दी जाती हैं, वे हवि र्यज्ञ हैं तथा जिन यज्ञों में सोम की आहुति दी जाती है, उन्हें सोम यज्ञ कहते हैं।
जिस प्रकार स्मार्त्त यज्ञों के लिए स्मार्त्ताग्नि की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार श्रौत यज्ञों के लिए श्रौताग्नि की स्थापना की जाती है। ये श्रौताग्नि मुख रूपसे तीन हैं :- गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि। इन्हीं तीन अग्नियों में समस्त श्रौत यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है अर्थात् अग्निहोत्र आदि सात हविर्यज्ञों का भी अनुष्ठान तथा अग्निष्टोमादि सात सोमयागों का भी अनुष्ठान।
श्रौत यज्ञों में सबसे पहले अग्निहोत्र है। अग्नि को उद्देश्य करके सायं तथा प्रातः जो होम किया जाता है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं। दूध ही इस यज्ञ का द्रव्य है। यदि काम्य अग्नि होत्र किया जाता है, तब कामनानुसार तैल, दही, दूध, सोम, चावल, घी, फल, जल आदि अग्निहोत्र के द्रव्य होते हैं। इस सायं काल अग्निहोत्र के मुख्य देवता अग्नि तथा अङ्गदेवता प्रजापति तथा प्रातः अग्निहोत्र के मुख्य देवता सूर्य तथा प्रजापति अङ्ग देवता होते हैं।
यह अग्निहोत्र यजमान के द्वारा ही किया जाता है। यदि यजमान न कर सके तो एक ऋत्विज अर्थात् अध्वर्यु के द्वारा भी यजमान के अग्निहोत्र को किया जा सकता है।[तैत्तिरीय संहिता]
अग्नि होत्र सायं एवं प्रातः प्रति दिन किया जाता है। इसके पश्चात् दर्शपौर्णमासेष्टिका उल्लेख किया गया है जो प्रत्येक 15 दिन के बाद की जाती है। दर्श आमावास्या को कहते हैं अतः दर्शेष्टि आमावास्या को तथा पौर्णमासेष्टि पूर्णिमा को की जाती है।
दर्शेष्टि में तीन याग :: आग्नेय पुरोडाश, इन्द्रदेवताक, दधिद्रव्यक याग तथा इन्द्रदेवताक पयोद्रव्यक याग।
इसी प्रकार पौर्णमासेष्टि में आग्नेय अष्टाकपाल पुरोडाशयाग, आज्यद्रव्यक अग्निषोमीय उपांशु याग तथा अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाशयाग। इस प्रकार कुल 6 याग किए जाते हैं।
यह दर्शपौर्णमासेष्टि समस्त काम्य इष्टियोंकी प्रकृति है। इस दर्शपौर्णमासेष्टि का अनुष्ठान यजमान अपनी पत्नी के साथ करता है तथा सहायक के रूप में अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता तथा आग्नीध्र ये चार ऋत्विज होते हैं।
खेतों से नया-नया अन्न आने के समय आग्रयणेष्टि की जाती है। शरद ऋतु में तथा वसन्त ऋतु में यह इष्टि की जाती है। नया चावल अथवा जौ इस इष्टि का प्रधान द्रव्य है, जो इन्द्राग्नी तथा द्यावा पृथिवी इन दोनों देवताओं के लिए होता है। टूटे हुए जिस रथ की मरम्मत की गई है, वह रथ इस इष्टि की दक्षिणा होती है। इसके अतिरिक्त रेशमी वस्त्र, मधुपर्क तथा वर्षा में पहनने योग्य वस्त्र दक्षिणा के रूप में दिया जाता है।
इसको किए जाने के बाद ही याज्ञिकों द्वारा नये अन्न का प्रयोग किया जाता है।
प्रत्येक चौथे महीने जो याग किया जाता है, उसका नाम चातुर्मास्य है। इसमें चार पर्व हैं :- वैश्व देव पर्व, वरुण प्रघास पर्व, साकमेध पर्व तथा शुनासारीय। पहला पर्व वैश्वदेव फाल्गुन मास की पूर्णिमा को किया जाता है। अग्नि, सोम, सविता, सरस्वती, पूषा, मरुत्, स्वतवान् तथा द्यावापृथिवी ये वैश्वदेव पर्व के देवता हैं। पुरोडाश, चरु, पयस्या, सोम ये द्रव्य हैं, जिनकी आहुति दी जाती है। इसका फल भी है। सन्तति के उद्देश्य से वैश्व देव पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
आषाढ मास की पूर्णिमा को वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें दो वेदी बनाई जाती हैं, एक उत्तर वेदी तथा दूसरी दक्षिण वेदी। अध्वर्यु उत्तर वेदी पर अनुष्ठान करता है तथा प्रति प्रस्थाता दक्षिण वेदी पर कार्य करता है।
वरुण प्रघास पर्व के लिए करम्भ पात्र का निर्माण किया जाता है तथा उसके लिए एक होम भी होता है। यह करम्भ पात्र गोल, दीपक की आकृति का तथा जौ से बनाया जाता है।  चतुर्दशी के दिन अध्वर्यु के द्वारा चार करम्भ पात्र बनाए जाते हैं।
पूर्णिमा के दिन अध्वर्यु मेष तथा प्रति प्रस्थाता मेषी बनाता है। धेनु, अश्व तथा छह अथवा बारह गौवें दक्षिणा में दी जाती है।
वरुण पाश, जलोदर रोग तथा वात रोग से मुक्ति के लिए वरुण प्रघास पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
अग्नि, सोम, इन्द्राग्नी तथा वरुण इसके देवता हैं, जिनके लिए पुरोडाश, चरु तथा पयस्या की आहुति दी जाती है।
कार्त्तिक माह की पूर्णिमा को साकमेध पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। यह दो दिन में पूरा होता। चतुर्दशी से इसका अनुष्ठान प्रारम्भ होता है। इसमें अनीकवतीष्टि, सान्तपनीयेष्टि, गृहमेधीयेष्टि, दर्वी होम, क्रीडनीयेष्टि, अदितीष्टि, महाहवि, पित्रयेष्टि तथा त्रयम्बकेष्टि आदि अनुष्ठान किए जाते हैं।
अग्नि, मरुत्, अदिति, ऐन्द्राग्न, विश्वकर्मा, त्रयम्बक तथा पितर आदि देवता इस पर्व में होते हैं जिनके लिए चरु, सान्नाय्य, आज्य, धना आदिकी आहुति दी जाती है।
घर में जो कन्याएँ  विवाह के योग्य होती हैं, उनके विवाह के लिए साकमेध पर्व का अनुष्ठान किया जाता है।
साकमेध के तुरन्त बाद शुनासीरीय पर्व का अनुष्ठान किया जाता है। वायु और आदित्य ये दो देवता इस पर्व में होते हैं। अतः इस पर्व का नाम शुनासीरीय है।
वैश्वदेव पर्व के समान यहाँ भी पाँच हवि दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त शुनासीर के लिए द्वादशक पाल, वायु के लिए दूध तथा सूर्य के लिए एक कपाल पुरोडाश। इसकी दक्षिणा 6 बैलों से युक्त हल अथवा दो बैल। इसके अतिरिक्त सूर्य के लिए सफेद घोड़ा अथवा गाय दक्षिणा के रूप में दी जाती है।
चातुर्मास्य यज्ञ के बाद निरूढ पशुबन्ध्याग किया जाता है, जिसके ऐन्द्राग्न सूर्य मुख्य देवता हैं तथा एकादश कपाल पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसका अनुष्ठान वर्ष में एक या दो बार श्रावण अथवा भाद्रपद माह में किया जाता है। इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए अध्वर्यु, होता, मैत्रावरुण तथा प्रति प्रस्थाता का वरण किया जाता है। दक्षिणा के रूप में यजमान ऋत्विजों को हिरण्य तथा पूर्णपात्र देता है।
इन्द्र देवता के लिए सौत्रामणी याग किया जाता है। इस यज्ञ के लिए अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रति प्रस्थाता तथा मैत्रावरुण ये छह ऋत्विज होते हैं।

ऋद्धि की कामना से ब्राह्मणों के द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूप से किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों के द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करने का विधान है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकार का आसव बनाया जाता है, जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़े के सहित गाय इस यज्ञ की दक्षिणा होती है।

ऋद्धि की कामना से ब्राह्मणों के द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूप से किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए क्षत्रियों के द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करने का विधान है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकार का आसव बनाया जाता है, जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़े के सहित गाय इस यज्ञ की दक्षिणा होती है।
इस यज्ञ में वाजपेय तथा राजसूय के समान यजमान का तीर्थों, नदियों तथा समुद्रों के जल से अभिषेक किया जाता है।
पितरों के लिए पिण्ड पितृ यज्ञ किया जाता है। दर्शेष्टिका अङ्ग होनेसे यह अमावास्याको दर्शेष्टिसे पहले ही किया जाता है। दक्षिणाग्नि में चरु पकाया जाता है। पितरों के लिए पिण्ड दान होता है तथा छह बार हाथ जोड़कर पितरों को प्रणाम किया जाता है।
पाक यज्ञ के अतिरिक्त श्रौतयागों में जिन अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढ पशु बन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्ड पितृ यज्ञ का उल्लेख गौतम धर्म सूत्र में किया गया है।
शेष 7 यज्ञ सोमयाग की श्रेणी में आते हैं। इन सात सोमयागों के नाम इस प्रकार हैं :- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम। इन सातों सोमयागों में अग्निष्टोम सबसे प्रथम आता है।
प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से बहुत होने की कामना की और ऐसी कामना करते हुए ही उन्होंने प्रजनन साधन रूप अग्निष्टोम का दर्शन किया। इसके पश्चात् उन्होंने यह सारी सृष्टि उत्पन्न की।
यज्ञ-वराह के उठे हुए कपोल से लेकर कर्ण मूल तक के भाग से अग्निष्टोम की उत्पत्ति हुई।[कालिका पुराण]
देवताओं ने तपस्या करके अग्निष्टोम का विधान प्राप्त किया, जिसके द्वारा उन्होंने असुरों का विरोध् किया।[शतपथ ब्राह्मण]
अग्निष्टोम साक्षात् अग्नि ही है। उस क्रतुरूप अग्नि की देवों ने स्रोतों के द्वारा स्तुति की, इसलिए उसका नाम अग्निस्तोम हुआ।[ऐतरेय ब्राह्मण]
अग्निस्तोम होते हुए उस नाम से युक्त क्रतु को परोक्ष रूप में व्यवहार करने के लिए सकार को षकार में, तकार को टकार में बदलकर उसको अग्निष्टोम कहना प्रारम्भ किया। अतः अग्निस्तोम अग्निष्टोम कहलाने लगा।
अग्निष्टोम नामक यज्ञायज्ञीय साम का गायन सबसे अन्त में किया जाता है, इसीलिए इसका नाम अग्निष्टोम हुआ।
अग्निष्टोम का अनुष्ठान सत्रह ऋत्विजों के द्वारा सम्पन्न होता है। सत्रहवाँ ऋत्विज स्वयं यजमान होता है, जो कि स्वयं यज्ञका स्वामी है। यजमानातिरिक्त इन सोलहों ऋत्विजों को चार वर्गों में विभक्त किए गया है।
ताण्ड्य ब्राह्मण ने दक्षिणा में दी जाने वाली 10 वस्तुओं का उल्लेख किया है। इनमें गौओं की संख्या 112 ही निश्चित की गई है।
कात्यायन ने निर्धरित 100 गौओं का वितरण यज्ञ के सोलहों ऋत्विजों में इस प्रकार किया है :-ब्रह्मा, उद्गाता, होता एवं अध्वर्यु को 12-12 गौवें; अर्ध्दिनः संज्ञक ऋत्विज ब्राह्मणाच्छंसि, प्रस्तोता, मैत्रावरुण एवं प्रतिप्रस्थाता को 6-6 गौवें, तृतीयिनः संज्ञक ऋत्विक् पोता, प्रतिहर्त्ता, अच्छावाक् तथा नेष्टा को 4-4 तथा पादिनः संज्ञक ऋत्विज् आग्नीध्र, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत तथा उन्नेता को 3-3 गौवें।
अग्निष्टोम के अन्तर्गत सवन कर्म में गाए जाने वाले स्तोत्रोंकी संख्या 12 एवं शंसन किए जाने वाले शस्त्रों की भी संख्या 12 ही है।
प्रातः श्रवण में त्रिवृत्स्तोमात्मकबहिष्पवमानस्तोत्रतथा पञ्चदशस्तोमात्मकचार आज्य स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में आज्य शस्त्र, प्रउग शस्त्र, मैत्रा वरुण शस्त्र, ब्रह्मणाच्छंसि शस्त्र तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।
माध्यन्दिन श्रवण में पञ्चदशस्तोमात्मक माध्यन्दिन पवमान स्तोत्र तथा सप्तदशस्तोमात्मक चार पृष्ठ स्तोत्रों का गायन किया जाता है। शस्त्रों में मरुत्वतीय शस्त्र, निष्वेफवल्य, मैत्रा वरुण, ब्राह्मणाच्छंसि तथा अच्छावाक शस्त्र का शंसन किया जाता है।
तृतीय श्रवण में आर्भव पवमान तथा अग्निष्टोम स्तोत्र का गायन तथा वैश्वदेव एवं अग्निमारुत शस्त्रका शंसन किया जाता है।
जिस प्रकार हविर्यागों की प्रकृति दर्श पौर्णमासेष्टि है, उसी प्रकार समस्त सोम यागों की प्रकृति अग्निष्टोम यज्ञ है। उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम ये छहों सोम याग, अग्निष्टोम की विकृति हैं।
उक्थ्य नामक सोम याग में अग्निष्टोम के स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त अन्य तीन स्तोत्र (उक्थ्य स्तोत्र) एवं शस्त्र (उक्थ्य शस्त्र) पाये जाते हैं। इस प्रकार सायंकालीन सोमर स निकालते समय गाये जाने वाले (स्तोत्र) एवं कहे जाने वाले शस्त्र कुल मिलाकर 15 होते हैं। पशु, शक्ति, सन्तति की कामना से उक्थ्य नामक सोम योग का अनुष्ठान किया जाता है।
षोडशी यज्ञ में 15 स्तोत्रों एवं शस्त्रों के अतिरिक्त एक अन्य स्तोत्र एवं शस्त्र का गायन एवं पाठ होता है, जिसे तृतीय श्रवण में षोडशी के नाम से पुकारा जाता है। इसकी दक्षिणा लोहित-पिंगल घोड़ा या मादा खच्चर होती है।
अतिरात्र का नाम ऋग्वेद (7.103.7) में भी आया है। यह एक दिन और रात्रि में होता है। अतिरात्र में 29 स्तोत्र और 29 शस्त्र होते हैं। इसमें आश्विन नामक शस्त्र गाये जाते हैं किन्तु इसके पूर्व रात्रि में 6 आहुतियाँ दी जाती हैं। ऐब्रा।(14.3, 16.5-7), आश्वश्रौसू. (6.4-5), सत्याषाढ (9.7) तथा आपस्तम्ब (15.3.8-14.4.11) में अतिरात्र के कर्म काण्ड का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है।
अप्तोर्याम अतिरात्रके ही सदृश है केवल अतिरात्रकी अपेक्षा विस्तृत है। इसमें चार अतिरिक्त स्तोत्र (कुल मिलाकर 33 स्तोत्र) और चार अतिरिक्त शस्त्र होता एवं उसके सहायकों द्वारा पढ़े जाते हैं। अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव और विष्णुके लिए क्रमसे एक एक अर्थात् कुल मिलाकर चार चमस होते हैं। आश्वश्रौसू. (9.11.1) के मतसे यह यज्ञ उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है, जिनके पशु जीवित नहीं रहते या जो अच्छी जातिके पशुके आकांक्षी होते हैं। अप्तोर्याम की दक्षिणा सहस्त्रों गौवें होती है। होता को रजत जटित तथा गदहियों से खींचा जाने वाला रथ मिलता है। तांब्रा. 20.3.4-5) का कहना है कि इसका नाम अप्तोर्याम इसलिए पड़ा है क्योंकि इसके द्वारा अभिकांक्षित वस्तु प्राप्त होती हैं।
सोम यज्ञ :: इसका वर्णन यजुर्वेद के चौथे अध्याय से दसवें अध्याय तक सोमयाग के मन्त्रों में निहित है। इसमें वसन्त ऋतु में सोमलता-सोमवल्ली का प्रयोग करके 16 ऋत्विक ब्राह्मणों द्वारा एक ही  सम्पन्न किया जाता है।
सोमयज्ञ के मुख्य सात प्रकार हैं जिन्हें सप्तसोम संस्था कहा जाता है। अग्निष्टोम, अत्याग्निष्टोम्, अतिरात्र (उलथ्य, षोडषीनम्अ, तिरात्र), आप्तोर्याम और वाजपेय। हर अग्निहोत्री का सर्वोच्च सोपान होता है, वाजपेय सोमयाग।
सोमयज्ञ के दरम्यान सोमरस का हवन जो मुय वेदि (कुंड का एक प्रकार) के उपर होता है जिसे उत्तरवेदी कहा जाता है। सामान्यतः उत्तरवेदी कि आकार चोरस होता है, परंतु अग्निचयन के सहित हुए सोमयज्ञ में उत्तरवेदी का आकार गरुड़ जैसा होता है। इसलिए अग्निचयन को गरुड़ चयन भी कहते हैं। अग्निचयन या गरुड़चयन तीन प्रकार से होता है। प्रथम प्रकार में एक हज़ार ईंटों के द्वारा वेदि बनाई जाती है, दूसरे प्रकार में दो हज़ार ईंटों द्वारा वेदी बनाई जाती है और तीसरे प्रकार में तीन हज़ार ईंटों के द्वारा वेदी बनाई जाती है। यह ईंटें भी यज्ञकर्ता की उंगली के नाप के अनुसार ही बनाई जाती हैं। इन एक हज़ार ईंटों को संस्कृत में इष्टिका कहा जाता है, जिन्हें पाँच स्तर में रखा जाता है। हर एक स्तर में 200 ईंटें रखी जाती हैं। हर एक ईंट के लिए एक मंत्र होता है। एक हज़ार ईंटों के लिए एक हज़ार मंत्र होते हैं। इस गरुड़ वेदी के अंदर शेषशायी भगवान् श्री हरी विष्णु की स्वर्ण की मूर्ति की स्थापित की जाती है।
सोमयज्ञ स्थल समग्र ब्रह्मांड के केन्द्र का स्वरूप धारण कर लेता है। समग्र तीर्थ मंडप में वास करते हैं। सोमयज्ञ की परिक्रमा समग्र ब्रह्मांड की परिक्रमा का फल देती है। साधक जातक 108  से लेकर 1,008 तक सोमयज्ञ की परिक्रमा करते हैं। सोमयज्ञ का माहात्म्य निःसंतान दंपतियों में विशेष है। निःसंतान दंपतियों का सोमयज्ञ संलग्न महाविष्णुयाग भाग लेकर दीक्षित और दीक्षित पत्नी से आशीर्वाद लेना चाहिये। सोमयज्ञ में किया हुआ दान अनेक गुना फल देता है। सोमयज्ञ में स्वर्णदान का विशिष्ट महत्व है। 
श्रौत और स्मार्त यज्ञ :: श्रुति पति पादित यज्ञो को श्रौत यज्ञ और स्मृति प्रतिपादित यज्ञो को स्मार्त यज्ञ कहते है। श्रौत यज्ञ में केवल श्रुति प्रतिपादित मंत्रो का प्रयोग होता है और स्मार्त यज्ञ में वैदिक पौराणिक और तांत्रिक मंन्त्रों का प्रयोग होता है। वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है। किन्तु उनमें पांच यज्ञ ही प्रधान माने गये हैं  :-
ये पाॅंच प्रकार के यज्ञ कहे गये है, यह श्रुति प्रतिपादित है।
(1). अग्नि होत्रम, (2). दर्शपूर्ण मासौ, (3). चातुर्म स्यानि, (4). पशुयांग, और  (5). सोमयज्ञ।
वेदों में श्रौत यज्ञों की अत्यन्त महिमा वर्णित है। श्रौत यज्ञों को श्रेष्ठतम कर्म कहा है। कुल श्रौत यज्ञो को 19 प्रकार से विभक्त कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
स्मार्त यज्ञ :- विवाह के अनन्तर विधिपूर्वक अग्नि का स्थापन करके जिस अग्नि में प्रातः सायं नित्य हनादि कृत्य किये जाते है। उसे स्मार्ताग्नि कहते है। गृहस्थ को स्मार्ताग्नि में पका भोजन प्रतिदिन करना चाहिये।
श्रोताधान यज्ञ :- दक्षिणाग्नि विधिपूर्वक स्थापना को श्रौताधान कहते है। पितृ संबंधी कार्य होते है।
दर्शभूर्णमास यज्ञ :- अमावस्या और पूर्णिमा को होने वाले यज्ञ को दर्श और पौर्णमास कहते है। इस यज्ञ का अधिकार सपत्नीक होता है। इस यज्ञ का अनुष्ठान आजीवन करना चाहिए यदि कोई जीवन भर करने में असमर्थ है तो 30 वर्ष तक तो करना चाहिए।
चातुर्मास्य यज्ञ :- चार-चार महीने पर किये जाने वाले यज्ञ को चातुर्मास्य यज्ञ कहते है इन चारों महीनों को मिलाकर चतुर्मास यज्ञ होता है।
पशु यज्ञ :- प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में या दक्षिणायन या उतरायण में संक्रान्ति के दिन एक बार जो पशु याग किया जाता है। उसे निरूढ पशु याग कहते है।
आग्रजणष्टि (नवान्न यज्ञ) :- प्रति वर्ष वसन्त और शरद ऋतुओं नवीन अन्न से यज्ञ गेहूॅं, चावल से जो यज्ञ किया जाता है उसे नवान्न कहते है।
सौतामणी यज्ञ (पशुयज्ञ) :- इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है सौतामणी यज्ञ इन्द्र संबन्धी पशुयज्ञ है यह यज्ञ दो प्रकार का है। एक वह पांच दिन में पुरा होता है। सौतामणी यज्ञ में गोदुग्ध के साथ सुरा (मद्य) का भी प्रयोग है। किन्तु कलियुग में वज्र्य है। दूसरा पशुयाग कहा जाता है। क्योकि इसमें पांच अथवा तीन पशुओं की बली दी जाती है।
सोम यज्ञ :- सोमलता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है उसे सोम यज्ञ कहते है। यह वसन्त में होता है यह यज्ञ एक ही दिन में पूर्ण होता है। इस यज्ञ में 16 ऋत्विक ब्राह्मण होते है।
वाजपेय यज्ञ :- इस यज्ञ के आदि और अन्त में वृहस्पति नामक सोम यग अथवा अग्निष्टोम यज्ञ होता है यह यज्ञ शरद ऋतु  में होता है।
राजसूय यज्ञ :- राजसूय या करने के बाद क्षत्रिय राजा समाज चक्रवर्ती उपाधि को धारण करता है।
अश्वमेघ यज्ञ :- इस यज्ञ में दिग्विजय के लिए (घोडा) छोडा जाता है। यह यज्ञ दो वर्ष से भी अधिक समय में समाप्त होता है। इस यज्ञ का अधिकार सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को ही होता है।
पुरूष मेघयज्ञ :- इस यज्ञ समाप्ति चालीस दिनों में होती है। इस यज्ञ को करने के बाद यज्ञकर्ता गृह त्यागपूर्वक वान प्रस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है।
सर्वमेघ यज्ञ :- इस यज्ञ में सभी प्रकार के अन्नों और वनस्पतियों का हवन होता है। यह यज्ञ चैंतीस दिनों में समाप्त होता है।
एकाह यज्ञ :- एक दिन में होने वाले यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते है। इस यज्ञ में एक यज्ञवान और सौलह विद्वान होते है।
रूद्र यज्ञ :- यह तीन प्रकार का होता हैं रूद्र महारूद्र और अतिरूद्र रूद्र यज्ञ 5-7-9 दिन में होता हैं महारूद्र 9-11 दिन में होता हैं। अतिरूद्र 9-11 दिन में होता है। रूद्रयाग में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। महारूद्र में 31 अथवा 41 विद्वान होते है। अतिरूद्र याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। रूद्रयाग में हवन सामग्री 11 मन, महारूद्र में 21 मन अतिरूद्र में 70 मन हवन सामग्र्री लगती है।
विष्णु यज्ञ :- यह यज्ञ तीन प्रकार का होता है। विष्णु यज्ञ, महाविष्णु यज्ञ, अति विष्णु योग- विष्णु योग में 5-7-8 अथवा 9 दिन में होता है। विष्णु याग 9 दिन में अतिविष्णु 9 दिन में अथवा 11 दिन में होता हैं विष्णु याग में 16 अथवा 41 विद्वान होते है। अति विष्णु याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। विष्णु याग में हवन सामग्री 11 मन महाविष्णु याग में 21 मन अतिविष्णु याग में 55 मन लगती है।
हरिहर यज्ञ :- हरिहर महायज्ञ में हरि (विष्णु) और हर (शिव) इन दोनों का यज्ञ होता है। हरिहर यज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। हरिहर याग में हवन सामग्री 25 मन लगती हैं। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में होता है।
शिव शक्ति महायज्ञ :- शिवशक्ति महायज्ञ में शिव और शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और श शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और मध्याहन में होता है। इस यज्ञ में हवन सामग्री 15 मन लगती है। 21 विद्वान होते है। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
राम यज्ञ :- राम यज्ञ विष्णु यज्ञ की तरह होता है। रामजी की आहुति होती है। रामयज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
गणेश यज्ञ :- गणेश यज्ञ में एक लाख (1,00,000) आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। गणेशयज्ञ में हवन सामग्री 21 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
ब्रह्म यज्ञ (प्रजापति यज्ञ):- प्रजापत्ति याग में एक लाख (1,00,000) आहुति होती हैं इसमें 16 अथवा 21 विद्वान होते है। प्रजापति यज्ञ में 12 मन सामग्री लगती है। 8 दिन में होता है।
सूर्य यज्ञ :- सूर्य यज्ञ में एक करोड़ 1,00,00,000 आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। सूर्य यज्ञ 8 अथवा 21 दिन में किया जाता है। इस यज्ञ में 12 मन हवन सामग्री लगती है।
दुर्गा यज्ञ :- दुर्गा यज्ञ में दूर्गासप्त शती से हवन होता है। दुर्गा यज्ञ में हवन करने वाले 4 विद्वान होते है अथवा 16 या 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 9 दिन का होता है। हवन सामग्री 10 मन अथवा 15 मन लगती है।
लक्ष्मी यज्ञ :- लक्ष्मी यज्ञ में श्री सुक्त से हवन होता है। लक्ष्मी यज्ञ (1,00,000) एक लाख आहुति होती है। इस यज्ञ में 11 अथवा 16 विद्वान होते है। या 21 विद्वान 8 दिन में किया जाता है। 15 मन हवन सामग्री लगती है।
लक्ष्मी नारायण महायज्ञ :- लक्ष्मी नारायण महायज्ञ में लक्ष्मी और नारायण का ज्ञन होता हैं प्रात लक्ष्मी दोपहर नारायण का यज्ञ होता है। एक लाख 8 हजार अथ्वा 1 लाख 25 हजार आहुतियां होती है। 30 मन हवन सामग्री लगती है। 31 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 दिन 9 दिन अथवा 11 दिन में पूरा होता है।
नवग्रह महायज्ञ :- नवग्रह महायज्ञ में नव ग्रह और नव ग्रह के अधिदेवता तथा प्रत्याधि देवता के निर्मित आहुति होती हैं नव ग्रह महायज्ञ में एक करोड़ आहुति अथवा एक लाख अथवा दस हजार आहुति होती है। 31, 41 विद्वान होते है। हवन सामग्री 11 मन लगती है। कोटिमात्मक नव ग्रह महायज्ञ में हवन सामग्री अधिक लगती हैं यह यज्ञ ९ दिन में होता हैं इसमें 1, 5, 9 और 100 कुण्ड होते है। नवग्रह महायज्ञ में नवग्रह के आकार के 9 कुण्डों के बनाने का अधिकार है।
विश्वशांति महायज्ञ :- विश्वशांति महायज्ञ में शुक्लयजुर्वेद के 36 वे अध्याय के सम्पूर्ण मंत्रों से आहुति होती है। विश्वशांति महायज्ञ में सवा लाख (1,25,000) आहुति होती हैं इस में 21 अथवा 31 विद्वान होते है। इसमें हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 9 दिन अथवा 4 दिन में होता है।
पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) :- पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) वर्षा के लिए किया जाता है। इन्द्र यज्ञ में तीन लाख बीस हजार (3,20,000) आहुति होती हैं अथवा एक लाख 60 हजार (1,60,000) आहुति होती है। 31 मन हवन सामग्री लगती है। इस में 31 विद्वान हवन करने वाले होते है। इन्द्रयाग 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
अतिवृष्टि रोकने के लिए यज्ञ :- अनेक गुप्त मंत्रों से जल में 108 वार आहुति देने से घोर वर्षा बन्द हो जाती है।
गोयज्ञ :- वेदादि शास्त्रों में गोयज्ञ लिखे है। वैदिक काल में बडे-बडे़ गोयज्ञ हुआ करते थे। भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजन के समय गौयज्ञ कराया था। गोयज्ञ में वे वेदोक्त दोष गौ सूक्तों से गोरक्षार्थ हवन गौ पूजन वृषभ पूजन आदि कार्य किये जाते है। जिस से गौसंरक्षण गौ संवर्धन, गौवंशरक्षण, गौवंशवर्धन गौमहत्व प्रख्यापन और गौसड्गतिकरण आदि में लाभ मिलता हैं गौयज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा हवन होता है। इस में सवा लाख 2,50,000 आहुति होती हैं गौयाग में हवन करने वाले 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 अथवा 9 दिन में सुसम्पन्न होता है।
आध्पित्य यज्ञ :: समृद्धि या स्वराज्य-निर्विरोध राज्य अथवा इन्द्र की स्थिति, का अभिलाषी ही वाजपेय का अनुष्ठान करता है। इसमें षोडशी की विधि पायी जाती है और यह ज्योतिष्टोम का ही रूप है। किन्तु इसकी अपनी पृथक् विशेषताएँ हैं। अधिकांश पदार्थों की संख्या 17 है, उदाहरण के लिए स्तोत्रों एवं शस्त्रोंकी संख्या 17 है। दक्षिणा में 17 वस्तुएँ दी जाती हैं। यूप 17 अरत्नियों वाला होता है। यूप में जो परिधान बाँधा जाता है, वह भी 17 टुकड़ों वाला होता है। 17 दिनों तक ही यह वाजपेय यज्ञ चलता है। प्रजापति के लिए सुरा 17 पात्रों में भरी जाती है। सोमरस भी 17 पात्रों से ही भरा जाता है। 17 रथ होते हैं, जिनमें घोडे़ जोते जाते हैं तथा जिनकी दौड़ की जाती है। वेदी की उत्तरी श्रोणी पर 17 ढोलकें रखी जाती हैं, जिन्हें बजाया जाता है। [आश्वश्रौसू. 9.9.1; आपश्रौसू. 18.1.1]
वाजपेय यज्ञ::  इस यज्ञ का सम्पादन शरद् ऋतु में किया जाता है। इसका सम्पादन केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय ही कर सकता है, वैश्य नहीं।  [तैब्रा. 1.3.2, लाट्यायनश्रौसू. 8.11.1, काश्रौसू. 14.1.1 एवं आपश्रौसू. 18.1.1]
दक्षिणा के रूपमें 1700 गौएँ, 17 रथ (घोड़ों सहित), 17 घोडे़, पुरुषों के चढ़ने योग्य 17 पशु, 17 बैल, 17 गाडि़याँ, सुनहरे परिधनों-झालरोंसे सजे हुए 17 हाथी दिए जाने चाहिए। ये वस्तुएँ पुरोहितों में बाँट दी जाती हैं। वाजपेय के पश्चात् राजा राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होता है और ब्राह्मण बृहस्पति सव करने का अधिकारी होता है [आश्वलायन-आश्वश्रौसू॰ 9.9.29]
राजसूय यज्ञ :: यह एक लम्बी अवधि तक चलने वाला यज्ञ है। यह यज्ञ केवल क्षत्रिय द्वारा ही किया जाता है। राजसूय करनेसे व्यक्ति राजा होता है तथा वाजपेय करने से सम्राट् होता है। [शब्रा.9.3.4.8]
राजसूय के ही पश्चात् वाजपेय किया जाता है, क्योंकि सम्राट् की स्थिति राजा के ऊपर  है। राजसूय की समाप्ति के एक मास उपरान्त सौत्रामणि नामक इष्टि की जाती है। निम्न ग्रंथों में राजसूय का निरूपण विस्तार पूर्वक किया गया है।[तैत्तिरीय संहिता 1.8.1-17, तैत्तिब्रा. (1.4.9-10, शब्रा. 5.2.3-5, ऐब्रा. 7.13,  8.0, तांब्रा. 18.8-11, आपश्रौसू. 18.8.22, काश्रौसू. 15.1-9, आश्वश्रौसू. 9.3-4, लाट्याश्रौसू. 9.1-3, शांखाश्रौसू. 15.12, बौधश्रौसू. 12]
सृष्टिके आदि काल से स्मार्त्त एवं श्रौतयज्ञों के अनुष्ठान की परम्परा अखण्ड रूप से चली आ रही है।
श्रीमद्भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्धके तीसरे अध्याय में दक्ष प्रजापति के द्वारा किए गए वाजपेय यज्ञ तथा बृहस्पति सव नाम के महायज्ञ का वर्णन आता है। भागवत में वर्णन है कि दक्ष प्रजापति ने ऐसा यज्ञोत्सव किया, जिसकी चर्चा आकाश मार्ग से जाते हुए देवताओं ने की। चतुर्थ स्कन्ध के 19वें अध्याय में महाराज पृथु के द्वारा किए जाने वाले 100 अश्वमेध् की दीक्षा लिए जानेका उल्लेख है। जब महाराज पृथु 99 अश्वमेध् कर चुके तो यज्ञेश्वर भगवान्, इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित हो गए।
महाराज नाभि के विषय में जो लोकोक्ति प्रसिद्ध थी, उसका उल्लेख शुकदेव ने परीक्षित के सम्मुख इस प्रकार किया, यथा –
ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः। यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा।। [भागपु. (5.4.7द्ध]
अर्थात् महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त कौन हो सकता है, जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने अपने मन्त्र बल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् भगवान्  विष्णु  के दर्शन करा दिए।
अष्टम स्कन्ध के 18वें अध्याय में भगवान् वामन के उपनयन संस्कार का वर्णन हुआ है। इस अवसर पर कहा गया है कि जब भगवान् वामन ने सुना कि बलि बहुत से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं तो उन्होंने वहाँ की यात्रा की और नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘‘भृगुकच्छ’’ नामक सुन्दर स्थान पर पहुँच गए।

श्रौतयागों का अनुष्ठान वैदिक श्रौती सोमयाजी विद्वानों आज भी भारतवर्ष में  अनेक वैदिक कुल-परिवारों में नित्य अनुष्ठान के रूप में भगवान् अग्निदेव की आराधना हेतु निरन्तर किया  जाता है।

यज्ञ की प्रमुख शैलियाँ :: प्राणियों के ज्ञान, शक्ति, विद्या, बुद्धि, बल आदि की न्यूनाधिकता के कारण अधिकारानुरूप प्राणि-कल्याण के जो साधन हैं, उनमें यज्ञ भी एक प्राणि-कल्याण का उत्कृष्ट साधन है।
भगवान् श्री कृष्ण ने सभी कर्मों को बन्धन स्वरूप बतलाया है, परन्तु यज्ञ को बन्धन कारक नहीं बताया है। अतएव इसे बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले पावनानि मनीषिणाम् कार्यों में परिगणित किया है।
कर्म-कार्य की 4 श्रेणियों :- प्रशस्त, अप्रशस्त, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म है। [आचार्य महीधर और श्रुति]
यज्ञ की श्रौत (वैदिक), स्मार्त (तान्त्रिक) और पौराणिक (मिश्र) ये तीन मुख्य शैलियाँ हैं।
श्रौतयज्ञ :: श्रुति अर्थात् वेद के मंत्र और ब्राह्मण नाम के दो अंश हैं। इन दोनों में या दोनों में से किसी एक में सांगोपांग रीति से वर्णित यज्ञों को श्रौतयज्ञ कहते हैं। श्रौत कल्प में यज्ञ और होम दो शब्द हैं। जिसमें खड़े होकर वषट् शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है और याज्या पुरोनुवाक्या नाम के मंत्र पढ़े जाते हैं, वह कार्य यज्ञ माना जाता है। जिसमें बैठकर स्वाहा शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है यह होम कहा जाता है। श्रौतयज्ञ :- इष्टियाग, पशुयाग और सोमयाग, नामक तीन भागों में विभक्त है।
श्रौतयज्ञों के विधान का जिस कार्य में पूर्ण तया उल्लेख हो, उसे प्रकृतियाग कहते हैं और जिस कार्य में विशेष बातों का उल्लेख और शेष बातें प्रकृति योग से जानी जाएँ उसे विकृतियाग कहते हैं। अतएव श्रौतयज्ञों के तीन मुख्य भेदों में क्रमशः दर्शपूर्णमासेष्टि, अग्नीपोमीय पशुयाग और ज्योतिष्टोम सोमयाग ये प्रकृतियाग हैं; अर्थात् इन कर्मों में किसी दूसरे कर्म से विधि का ग्रहण नहीं होता। इन प्रकृतियागों के जो धर्म ग्राही विकृतियाग हैं, वे अनेक हैं। उनकी इयत्ता का संकलन भिन्न-भिन्न शाखाओं के श्रौतसूत्रों में किया गया है।
श्रौतयज्ञ आह्वनीय, गार्ह्यपतय और दक्षिणाग्रि, इन तीन अग्नियों में होते हैं; इसलिए इन्हें त्रेताग्नियज्ञ भी कहते हैं। प्रायः सभी श्रौत-यज्ञों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से, कम या अधिक रूप से तीनों ही वेदों के मंत्रों का उच्चारण होता है। अतः श्रौतयज्ञ त्रयी साध्य हैं। इनमें यजमान स्वयं शरीर क्रिया में उतना व्यस्त नहीं रहता, जितने अन्य ब्राह्मण जिन्हें ‘ऋत्विज्’ कहते हैं, संलग्न रहते हैं। श्रौतयज्ञ का इष्टियाग प्रायः 4 वैदिक विधान कुशल ब्राह्मण विद्वानों के सहयोग से हो सकता है। पशुयाग में 6 ऋत्विज् होने आवश्यक हैं। सोमयाग में 16 ऋत्विज् होते हैं ।
इष्टियाग में अन्नयम प्रधान रूप से हवि अर्थात् देवताओं के लिए देय द्रव्य हैं। पशुयाग में प्रधान रूप से पशु हवि है। सोमयाग में प्रधान हवि सोम होती है। सोमयाग के महान् यज्ञ सत्र और अहीन कहलाते हैं। सत्रयाग होते हैं, और इन्हीं में से 16 व्यक्तियों को ऋत्विज् का कार्य करना पड़ता है, इसमें दक्षिणा नहीं दी जाती और यज्ञ का फल सब यजमानों को बराबर पूरा मिलता है। अहीनयाग में एक या अनेक अग्निहोत्री यजमान हो सकते हैं, परन्तु इसमें ऋत्विज् अलग होते हैं, जिन्जें दक्षिणा दी जाती है। इस अहीनयाग का फल केवल यजमानों को ही मिलता है।
श्रौतयाग करने का वही अधिकारी है, जिसने विधिपूर्वक श्रौत अग्नियों का आधार लिया है और प्रतिदिन साँय प्रातः अग्निहोत्र में श्रद्धापूर्वक विधानुकूल समय लगाता है। श्रौताग्रिहोत्री को अग्नि की निरन्तर रक्षा करनी पड़ती है। अग्नियों के रखने के लिये एक सुन्दर अग्निहोत्रशाला चाहिए। यज्ञ में प्रयुक्त दूध, दही, घी अग्निहोत्री द्वारा स्वयं घर पर गौ रखकर पूरी शुद्धि के साथ तैयार किया जाना चाहिये।
प्रत्येक पन्द्रहवें दिन प्रतिपद् तिथि को इष्टियाग करना आवश्यक है जिसमें हवनीय द्रव्य तथा ऋत्विजों की दक्षिणा आदि भी आवश्यक है। वेद की याज्ञिक परम्परा का समुचोट और प्रायोगिक ज्ञान अत्यावश्यक है।
स्मार्त यज्ञ :: इनका श्रौत सूत्र कारों ने पाक यज्ञ तथा एकाग्नि शब्द से व्यवहार किया है। इनके मुख्यतया-हुत, अहुत, प्रहुत और प्राशित ये चार भेद हैं। जिन कार्यों में अग्नि में किसी विहित द्रव्य का हवन होता हो, वह हुत यज्ञ हैं। जिससे हवन न होता हो, केवल क्रिया मात्र हो, वह अहुत यज्ञ है। जिसमें हवन और देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य का बलि संज्ञा से त्याग हो, वह प्रहुत यज्ञ है और जिसमें भोजन मात्र ही हो वह प्राशित यज्ञ है। [प्रा.गृ. 1.4.1]
स्मार्त यज्ञ का आधार भूत अग्नि शास्त्रीय और लौकिक दोनों प्रकार का होता है। शास्त्रीय अर्थात् आधान विधि के द्वारा स्वीकृत अग्नि औपासन, आवसथ्य, गृह्य, स्मार्त आदि शब्दों से कहा जाता है। इस अग्नि में जिसने उसको स्वीकार किया है, उसके सम्बंध का ही हवन हो सकता है। साधारण अग्नि लौकिक अग्नि है। इसे संस्कारों द्वारा परिशाधित भूमि में स्थापित करके भी स्मार्त यज्ञ होते हैं। स्मार्त यज्ञों की सँख्या श्रौत यज्ञों की भाँति अत्यधिक नहीं हैं। इन यज्ञों की विधि और इयत्ता बताने वाले ग्रन्थ को गृह्यसूत्र या स्मार्त सूत्र कहते हैं। पंचमहायज्ञ, षोडशसंस्कार और और्ध्वदैहिक (प्रचलित मृत्यु के बाद की क्रिया) प्रधानतया स्मार्त हैं। स्मृति ग्रन्थों में उपदिष्ट कार्य जिनका (विनायक शान्ति आदि का) पूर्ण विधान उपलब्ध गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता, वे भी याज्ञिकों की परम्परा में स्मार्त ही कहलाते हैं। स्मार्त यज्ञ में प्रायः अकेला व्यक्ति सभी कार्य कर सकता है। हवन वाले कार्यों में एक ब्राह्मण की तथा भोजनादि में अनेक ब्राह्मणों की आवश्यकता होती है। गृह्यसंग्रहकार ने स्मार्त यज्ञों में यजमान, ब्राह्मण और आचार्य; इन तीन की आवश्यकता बताई है।
पौराणिक यज्ञ :: श्रुति स्मृति कथित कार्यों के अधिकारी अनाधिकारी सभी व्यक्तियों के लिए पौराणिक कार्य उपयोगी है। पौराणिक यज्ञों को हवन, दान, पुरश्चरण, शान्तिकर्म, पौष्टिक, इष्ट, पूर्त्त व्रत, सेवा, आदि के रूप से अनके श्रेणियों में विभक्त किया गया है। जिन जातियों को वेद के अध्ययन का अधिकार है, वे पौराणिक यज्ञों को वेदमंत्रों सहित करते हैं और जिन्हें वेद का अधिकार नहीं है, वे उनको पौराणिक मंत्रों से ही करते हैं।

पौराणिक यज्ञों में गणपति पूजन, पुण्याहवाचन, षोडशमातृका पूजन, वसोर्धारा पूजन, नान्दी श्राद्ध इन पाँच स्मार्त अंगों के साथ ग्रहयाग प्रधानपूजन आदि विशेष रूप से होता है। इनमें एक से लेकर हजारों तक कार्यक्षम व्यक्ति कार्य के अनुसार ऋत्विज् बनाए जा सकते हैं। जैसे भगवान् अनन्त, अपार हैं, वैसे ही उनके स्वरूप भूत वेद तथा तत्प्रतिपाद्य यज्ञ की महिमा भी अनन्त अपार है।

विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार :: विवाह संस्कार में लाजाहोम आदि की क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह अग्नि आवसथ्याग्नि, ग्रह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, वैवाहिकाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से जानी जाती है। विवाह के अनन्तर जब वर-वधू अपने घर आते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर यथाविधि स्थापित करके, उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार साँय-प्रातः हवन करने का विधान है। गृहस्थ के लिये प्रतिदिन दो प्रकार के शास्त्रीय कर्मों को करने की विधि हैं :- श्रौत कर्म और स्मार्त कर्म।

पंच महायज्ञ आदि पाकयज्ञ*1 सम्बन्धी जो कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं।
इनके लिये जो पाक-भोजन आदि बनता है, वह इसी स्थापित अग्नि में सम्पादित होता है। गृहस्थ के लिये जो नित्य होम विधि है, वह भी इसी अग्नि द्वारा सम्पन्न होती है। यह अग्नि कभी बुझनी नहीं चाहिये। अतः प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा की जाती है।
*1अष्टका श्राद्ध, पार्णवश्राद्ध, श्रावणी-उपाकर्म, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी  एवं औपासन :- ये सात कर्म सात पाकयज्ञ संस्थाएँ कहलाती हैं। [पारस्कर गृह सूत्र]

वैवाहिकेSग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। 
पञ्चयज्ञविधानं च चान्वाहिकीं पक्तिं  गृही॥[मनु स्मृति 3.67]
गृहस्थ विवाह के समय स्थापित अग्नि में यथाविधि ग्रह्योक्त कर्म-होम करें तथा नित्य पञ्चयज्ञ और पाक करे।
The holi-sacred fire created at the solemnisation of marriage, should be preserved & used to perform daily Hawan-Agnihotr and the 5 recommended Yagy along with cooking food.
The way the food is essential for the body Yagy is essential for him to modify-improve his deeds-actions & the future births.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। 
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥[मनु स्मृति 3.84]
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे।
The Brahmn should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ [वेद]
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
कर्म स्मार्त विवाहाग्नौ कुर्वीत प्रत्यहं गृही। 
[याज्ञ वल्कय स्मृति आचा० 97; त्रेताग्नि संग्रह संस्कार]
गृहस्थ को श्रौत्र तथा स्मार्त दो कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है। स्मार्त कर्मों का सम्पादन विवाहग्नि में सम्पादित होता है और श्रौत्र कर्मों का सम्पादन त्रेताग्नि में होता है :-
स्मार्तं वैवाहिके वह्नौ श्रौत्रं वैतानिकाग्निषु।[व्यास स्मृति 2.16]
विवाहाग्नि-गृह्याग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियाँ और होती हैं जिन्हें दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय नाम से जाना जाता है। इन तीनों अग्नियों का सामूहिक नाम त्रेताग्नि, श्रौताग्नि अथवा वैताग्नि है।
गृहस्थ सभी श्रौत कर्मों को त्रेताग्नि में सम्पादित करें, विवाहाग्नि  में नहीं। इन तीन अग्नियों की स्थापना, उनकी प्रतिष्ठा, रक्षा तथा उनका हवन कर्म त्रेताग्नि संग्रह संस्कार कहलाता है। सनातन परम्परा के अनुरूप यज्ञों का सम्पादन किया जाता है।
मुख्य रूप से यज्ञ संस्थान तीन प्रकार के हैं और प्रत्येक संस्था में सात-सात यज्ञ सम्मिलित हैं।

(1). पाकयज्ञ संस्था :- (1.1). अष्टका श्राद्ध, (1.2). पार्वण श्राद्ध, (1.3). श्रावणी-उपाकर्म, (1.4). आग्रहायणी,  (1.5). चैत्री, (1.6). आश्वयुजी और   (1.7).औपासन  होम।इनका अनुष्ठान विवाहाग्नि में होता है और हविर्यज्ञ तथा सोमयज्ञ संस्था के कर्म त्रेताग्नि में सम्पन्न होते हैं।
(2). हविर्यज्ञ संस्था :- (2.1). अग्न्याधेय (अग्निहोत्र), (2.2). दर्श पौर्णमास, (2.3). अग्रहायण, (2.4). चातुर्मास्य, (2.5). निरूढपशुबन्ध, (2.6). सौत्रामणियाग तथा (2.7). पिण्ड पितृ यज्ञ।

(3). सोमयज्ञ संस्था :- (3.1). अग्निष्टोम, (3.2). अत्यग्निष्टोम, (3.3). उक्थ्य, (3.4). षोडशी, (3.5). वाजपेय, (3.6). अतिरात्र और (3.7). आप्तोर्याम।
इन प्रधान यज्ञों के भी अनेक भेद और उपभेद हैं, जिनका विस्तृत विवरण गृह्यसूत्र और ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है। ये सभी यज्ञादिक जातक को अपनी पत्नी के साथ सम्पन्न करने चाहियें।
(4). कौषीतकिब्राह्मणम् ::
(4.1). अनुनिर्वाप्येष्टिः ::
अनुनिर्वाप्यया वै देवा असुरान् अपाघ्रत।
तथो एव एतद् यजमानो अनुनिर्वाप्यया एव द्विषतो भ्रातृव्यान् अपहते।
[विकृति इष्टयः]
स वा इन्द्राय विमृध एकादश कपालम् पुलोडाशम् निर्वपति।
इन्द्रो वै मृधाम् विहन्ता।[विकृति इष्टयः]
स एव अस्य मृधो विहन्ति। अथो आमावास्यम् एव एतत् प्रत्याहरति यत् पौर्णमास्याम् इन्द्रम् यजति।
[विकृति इष्टयः]
अत्र संस्थित दर्श पूर्ण मासौ यजमानो यद्य् अपर पक्षे भङ्गम् नीयात्।
[विकृति इष्टयः]
न अस्य यज्ञ विकर्षः स्यात्। अथ यद् अमावास्यायाम् अदितिम् यजति।
यज्ञस्य एव सभारतायै। सा सम्याज्यातो विमृद्वती भवति।[विकृति इष्टयः]
 (4.2).  अभ्युदितेष्टिः ::
अथातो अभ्युदितायाः। एहि ह वा एष यज पथात्।
यस्य उपवसथे पुरस्ताच् चन्द्रो दृश्यते। [विकृति इष्टयः]
सो अग्नये दात्रे अष्टा कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।
अग्निर् वै दाता।[विकृति इष्टयः]
स एव अस्मै यज्ञम् ददाति।इन्द्राय प्रदात्रे सायम् दोहितम् दधि। इन्द्रो वै प्रदाता।[विकृति इष्टयः]
स एव अस्मै यज्ञम् प्रयच्छति।
विष्णवे शिपि विष्टाय प्रातर् दोहिते पयसि चरुम्।[विकृति इष्टयः]
यज्ञो वै विष्णुः। स एव अस्मै यज्ञम् ददाति। तद् यद् एता देवता याति।[विकृति इष्टयः]
न इद् यज्ञ पथाद् अयानि इति। तिसृधन्वम् दक्षिणा। तत् स्वस्त्ययनस्य रूपम्।[विकृति इष्टयः]
(4.3). अभ्युद्दृष्टेष्टिः ::
अथातो अभ्युद्रष्टायाः। एहि ह वा एष यज्ञ पथात्।
यस्य उपसवथे पश्चाच् चन्द्रो दृश्यते।[विकृति इष्टयः]
सो अग्नये पथि कृते अष्टा कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।
अग्निर् वै पक्षिकृत्।[विकृति इष्टयः]
स एव एनम् यज्ञ पथम् अपिपातयति।
इन्द्राय वृत्रघ्न एकादश कपालम्। इन्द्रो वै वृत्रहा।[विकृति इष्टयः]
स एव एनम् पुनर् यज्ञ पथम् अपिपातयति।
वैश्वानरीयम् द्वादश कपालम्।[विकृति इष्टयः]
असौ वै वैश्वानरो यो असौ तपति। एष एव एनम् पुनर् यज्ञ पथम् अपिपातयति।तद् यद् एता देवता यजति।[विकृति इष्टयः]
न इद् यज्ञ पथाद् अयानि इति।
दण्ड उपानहम् दक्षिणा। तद् अभयस्य रूपम्।[विकृति इष्टयः]
(4.4). दाक्षायणयज्ञः ::
अथातो दाक्षायण यज्ञस्य। दाक्षायण यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते।[विकृति इष्टयः]
मुखम् वा एतत् संवत्सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी। तस्मात् तस्याम् अदीक्षित अयनानि प्रयुज्यन्ते।[विकृति इष्टयः]
अथो दक्षो ह वै पार्वतिर् एतेन यज्ञेन इष्ट्वा सर्वान् कामान् आप।
तद् यद् दाक्षायण यज्ञेन यजते।[विकृति इष्टयः]
सर्वेषाम् एव कामानाम् आप्त्यै। नाशने कामम् आपयीत।
सोमम् राजानम् चन्द्रमसम् भक्षयानि इति मनसा ध्यायन्न् अश्नीयात्।[विकृति इष्टयः]
तद् असौ वै सोमो राजा विचक्षणश् चन्द्रमाः। तम् एतम् अपर पर्क्षम् देवा अभिषुण्वन्ति।[विकृति इष्टयः]
तद् यद् अपर पक्षम् दाक्षायण यज्ञस्य व्रतानि चरन्ति।
देवानाम् अपि सोम पीथो असानि इति।[विकृति इष्टयः]
अथ यद् उपवसथे अग्नीषोमीयम् एकादश कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।
य एव असौ सोमस्य उपवसथे अग्नीषोमीयः।[विकृति इष्टयः]
तम् एव अस्य तेन आप्नोति।अथ यत् प्रातर् आमावास्येन यजते। ऐन्द्रम् वै सुत्यम् अहः।[विकृति इष्टयः]
तत् सुत्यम् अहर् आप्नोति। अथ यद् अमावास्याया उपवसथ ऐन्द्राग्नम् द्वादश कपालम् पुरोडाशम् निर्वपति।[विकृति इष्टयः)
ऐन्द्राग्नम् वै सामतस् तृतीय सवनम्। तत् तृतीय सवनम् आप्नोति।
[विकृति इष्टयः]
अथ यन् मैत्रावरुणी पयस्या। मैत्रावरुणी वा अनूबन्ध्या। तद् अनूबन्ध्याम् आप्नोति।[विकृति इष्टयः]
स एष सोमो हविर् यज्ञान् अनुप्रविष्टः।
तस्माद् अदीक्षितो दीष्कित व्रतो भवति।[विकृति इष्टयः]
(4.5). इळादधेष्टिः ::
अथातः इडादधस्य। इडादधेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। [विकृति इष्टयः]
स एष पशु कामस्य अन्न अद्य कामस्य यज्ञः। तेन पशु कामो अन्न अद्य कामो यजेत।[विकृति इष्टयः]
तत्र तथा एव व्रतानि चरति। दाक्षायण यज्ञस्य हि समासः।
(4.6). शौनकयज्ञः ::
अथ अतः सार्वसेनि यज्ञस्य।[विकृति इष्टयः]
सार्वसेनि यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। (विकृति इष्टयः]
स एष तु स्तूर्षमाणस्य यज्ञः। स य इच्छेद् द्विषन्तम् भ्रातृव्यम् स्तृण्वीय इति।[विकृति इष्टयः]
स एतेन यजने स्तृणुते ह।
(4.7). सार्वसेनियज्ञः ::
अथातः शौनक यज्ञस्य। शौनक यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
स एष प्रजाति कामस्य यज्ञः। तेन प्रजाति कामो यजेत। तद् यद् अध्वर्युर् हवींषि प्रजनयति तत् प्रजात्यै रूपम्।[विकृति इष्टयः]
(4.8). वसिष्ठयज्ञः ::
अथातो वसिष्ठ यज्ञस्य। वसिष्ठ यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् अमावास्यायाम् प्रयुङ्क्ते।[विकृति इष्टयः]
ब्रह्म वै पौर्णमासी। क्षत्रम् अमावास्या। क्षत्रम् इव एष यज्ञः।[विकृति इष्टयः]
क्षत्रेण शत्रून्त् सहा इति। वसिष्ठो अकामयत हत पुत्रः प्रजायेन प्रजया पशुभिर् अभि सौदासान् भवेयम् इति।[विकृति इष्टयः]
स एतम् यज्ञ क्रतुम् अपश्यद् वसिष्ठ यज्ञम्। तेन इष्ट्वा प्राजायत प्रजया पशुभिर् अभि सौदासान् अभवत्।[विकृति इष्टयः]
तथो एव एतद् यजमानो यद् वसिष्ठ यज्ञेन यजने।
प्रजायते प्रजया पशुभिर् अभि द्विषतो भ्रातृव्यान् भवति।[विकृति इष्टयः]
(4.9). साकंप्रस्थाय्ययज्ञः ::
अथातः साकम् प्रस्थाय्यस्य। साकम् प्रस्थाय्येन इष्यन्न् एतस्याम् एव अमावास्यायाम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
स एष श्रैष्ठ्य कामस्य पौरुष कामस्य यज्ञः। तेन श्रैष्ठ्य कामः पौरुष कामो यजते।[विकृति इष्टयः]
तद् यत् साकम् सम्प्रतिष्ठन्ते। साकम् सम्प्रयजन्ते। साकम् सम्भक्षयन्ते। तस्मात् साकम् प्रस्थाय्यः।[विकृति इष्टयः]
(4.10). मुन्ययनेष्टिः ::
अथातो मुन्ययनस्य। मुन्ययनेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
स एष सर्व कामस्य यज्ञः। तेन सर्व कामो यजेत।
(4.11). तुरायणयज्ञः ::
अथातस् तुरायणस्य।[विकृति इष्टयः]
तुरायणेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते तस्या उक्तम् ब्राह्मणम्। [विकृति इष्टयः]
स एष स्वर्ग कामस्य यज्ञः। ब्रह्मणा एव तद् आत्मानम् समर्धयति।
[विकृति इष्टयः]
तानि वै त्रीणि हवींषि भवन्ति। त्रयो वा इमे लोकाः। इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति।[विकृति इष्टयः]
(4.12). श्यामाकेष्टिः ::
अथात आग्रयणस्य। आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये।[विकृति इष्टयः]
श्यामाकान् उद्धर्तव आह। सा या तस्मिन् काले अमावास्या उपसम्पद्येत।[विकृति इष्टयः]
तया इष्ट्वा अथ एतया इष्ट्या यजेत। यदि पौरुणमासी। एतया इष्ट्वा अथ पौर्णमासेन यजेत।[विकृति इष्टयः]
यद्य् उ नक्षत्रम् उपेप्सेत्। पूर्व पक्षे नक्षत्रम् उदीक्ष्य यस्मिन् कल्याणे नक्षत्रे कामयेत तस्मिन् यजेत।[विकृति इष्टयः]
तस्यै सप्तदश सामिधेन्यः सद्वान्ताव् आज्य भागौ विराजौ सम्याज्ये तस्य उक्तम् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
सौम्यश् चरुः। सोमो वै राजा ओषधीनाम्। तद् एनम् स्वया दिशा प्रीणाति।[विकृति इष्टयः]
अथ यन् मधु पर्कम् ददाति। एष ह्य् आरण्यानाम् रसः।[विकृति इष्टयः]
(4.13).  वेणुयवेष्टिः ::
अथ वसन्त आगते पक्वेषु वेणु यवेषु। वेणु यवान् उद्धर्तव आह।
तस्या एतद् एव पर्व एतत् तन्त्रम् एषा देवता एषा दक्षिणा एतद् ब्राह्मणम्।[विकृति इष्टयः]
ताम् ह एक आग्नेयीम् वा वारुणीम् वा प्राजापत्याम् वा कुर्वन्त्य् एतत् तन्त्राम् एव एतद् ब्राह्मणाम्।[विकृति इष्टयः]
(4.14).  आग्रयणेष्टिः ::
अथ व्रीहि सस्ये वा यवसस्ये वा आगते। आग्रयणीयान् उद्धर्तव आह।[विकृति इष्टयः]
तस्या एतद् एव पर्व एतत् तन्त्रम्। अथ यद् ऐन्द्राग्नो द्वादश कपालः।[विकृति इष्टयः]
इन्द्राग्नी वै देवानाम् मुखम्। मुखत एव तद् देवान् प्रीणाति।[विकृति इष्टयः]
अथ यद् वैश्वदेवश् चरुः। एते वै सर्वे देवा यद् विश्वे देवाः। सर्वेषाम् एव देवानाम् प्रीत्यै।[विकृति इष्टयः]
अथ यद् द्यावा पृथिवीय एक कपालः। द्यावा पृथिवी वै सस्यस्य साधयित्र्यै।[विकृति इष्टयः]
प्रतिष्ठा पृथिवी ओद्म्ना असाव् अनुवेद। तद् यद् एता देवता यजति।
एताभिर् देवताभिः शान्तम् अन्नम् अत्स्यामि इति।[विकृति इष्टयः]
अथ य प्रथजम् गाम् ददाति। पथम कर्म ह्य् एतत्। यद्य् एतस्यै ग्लायात्।[विकृति इष्टयः)
पौर्णमासम् वा अमावास्यम् वा हविष् कुर्वीत नवानाम् उभयस्य आप्त्यै।[विकृति इष्टयः]
अपि वा पौर्णमासे वा अमावास्ये वा हवींष्य् अनुवर्तयेद् देवतानाम् अपरिहाणाय। [विकृति इष्टयः]
अपि वा यवाग् वा एव सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयान् नवानाम् उभयस्य आप्त्यै। [विकृति इष्टयः]
अपि वा स्थाली पाकम् एव गार्हपत्ये श्रपयित्वा नवानाम् एताभ्य आग्रयण देवताभ्य आहवनीये जुहुयात् स्विष्टकृच् चतुर्थीभ्यो अमुष्यै स्वाहा अमुष्यै स्वाहा इति देवतानाम् अपरिहाणाय।[विकृति इष्टयः]
अपि वा अग्निहोत्रीम् एव नवान् आदयित्वा तस्यै दुग्धेन सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयाद् उभयस्य आप्त्यै।[विकृति इष्टयः]
एत एतावन्तः पाताः। तेषाम् येन कामयेत तेन यजेत।[विकृति इष्टयः]
त्रिहविस् तु स्थिता। त्रयो वा इमे लोकाः। इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति इमान् एव तल् लोकान् आप्नोति।[विकृति इष्टयः]

NAKSHATR SUKT-NAKSHATRESHTI :: 

अग्निर्नः॑ पातु कृत्तिकाः। नक्षत्रं देवमिन्द्रियम्। इदमासां विचक्षणम्। हविरासं जुहोतन। यस्य भान्ति रश्मयो यस्य केतवः। यस्येमा विश्वा भुवनानि सर्वास कृत्तिकाभिरभिसंवसानः। अग्निर्नोदेवस्सुविते दधातु॥1॥
प्रजापते रोहिणीवेतु पत्नी। विश्वरूपा बृहती चित्रभानुः। सा नो यज्ञस्य सुविते दधातु। यथा जीवेम शरदस्सवीराः। रोहिणी देव्युदगात्पुरस्तात्। विश्वा रूपाणि प्रतिमोदमाना। प्रजापतिग्ं हविषा वर्धयन्ती। प्रिया देवानामुपयातु यज्ञम्॥2॥
सोमो राजा मृगशीर्षेण आगन्न्। शिवं नक्षत्रं प्रियमस्य धाम। आप्यायमानो बहुधा जने॑षु। रेतः प्रजां यजमाने दधातु। यत्ते नक्षत्रं मृगशीर्षमस्ति। प्रियग्ं राजन् प्रियतमं प्रियाणाम्। तस्मै ते सोम हविषा विधेम। शन्न एधि द्विपदे शं चतु॑ष्पदे॥3॥
आर्द्रया रुद्रः प्रथमा न एति। श्रेष्ठो दे॒वानां पतिरघ्नियानाम्। नक्षत्रमस्य हविषा विधेम। मा नः प्रजाग्ं रीरिषन्मोत वीरान्। हेति रुद्रस्य परिणो वृणक्तु। आर्द्रा नक्षत्रं जुषताग्ं हविर्नः॑। प्रमुञ्चमानौ दुरितानि विश्वा। अपाघशग्ं सन्नुदतामरातिम्॥4॥
पुनर्नो देव्यदितिस्पृणोतु। पुनर्वसूनः पुनरेतां यज्ञम्। पुनर्नो देवा अभियन्तु सर्वे॓। पुनः पुनर्वो हविषा यजामः। एवा न देव्यदितिरनर्वा। विश्वस्य भर्त्री जगतः प्रतिष्ठा। पुनर्वसू हविषा वर्धयन्ती। प्रियं देवाना मप्येतु पाथः॥5॥
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानः। तिष्यं नक्षत्रमभि सम्बभूव। श्रेष्ठो देवानां पृतनासुजिष्णुः। दिशो‌नु सर्वा अभयन्नो अस्तु। 
तिष्यः पुरस्तादुत मध्यतो नः। बहस्पतिर्नः परिपातु पश्चात्। 
बाधेतान्द्वेषो अभयं कृणुताम्। सुवीर्यस्य पतयस्याम॥6॥
इदग्ं सर्पेभ्यो हविरस्तु जुष्टम्। आश्रेषा येषामनुयन्ति चेतः। ये अन्तरिक्षं पृथिवीं क्षियन्ति। ते नस्सर्पासो हवमागमिष्ठाः।
ये रोचने सूर्यस्यापि सर्पाः। ये दिवं देवीमनुसञ्चरन्ति। येषामश्रेषा अनुयन्ति कामम्। 
तेभ्यस्सर्पेभ्यो मधुमज्जुहोमि॥7॥
उपहूताः पितरो ये मघासु। मनोजवसस्सुकृतस्सुकृ॒त्याः। ते नो नक्षत्रे हवमागमिष्ठाः। स्वधाभिर्यज्ञं प्रयतं जुषन्ताम्। ये अग्निदग्धा ये‌नग्निदग्धाः। ये॑मुल्लोकं पितरः क्षियन्ति। याग्‍श्च विद्मयाग्म् उ च न प्रविद्म। 
मघासु यज्ञग्ं सुकृतं जुषन्ताम्॥8॥
गवां पतिः फल्गुनीनामसि त्वम्। तदर्यमन् वरुणमित्र चारु। तं त्वा वयग्ं सनितारग्ं सनीनाम्। जीवा जीवन्तमुप संविशेम। येनेमा विश्वा भुवनानि सञ्जिता। यस्य देवा अनुसंयन्ति चेतः। अर्यमा राजा‌जरस्तु विष्मान्। फल्गुनीनामृषभो रोरवीति॥9॥
श्रेष्ठो देवानां भगवो भगासि। तत्त्वा विदुः फल्गुनीस्तस्य वित्तात्। अस्मभ्यं क्षत्रमजरग्ं सुवीर्यम्। गोमदश्ववदुपसन्नुदेह। भगोह दाता भग इत्प्रदाता। भगो देवीः फल्गुनीराविवेश। भगस्येत्तं प्रसवं गमेम। यत्र देवैस्सधमादं मदेम॥10॥
आयातु देवस्सवितोपयातु। हिरण्ययेन सुवृता रथेन। वहन्, हस्तग्ं सुभग्ं विद्मनापसम्। प्रयच्छन्तं पपुरिं पुण्यमच्छ। हस्तः प्रयच्छ त्वमृतं वसीयः। दक्षिणेन प्रति॑गृभ्णीम एनत्। दातारमद्य सविता विदेय। 
यो नो हस्ताय प्रसुवाति॑ यज्ञम्॥11॥
त्वष्टा नक्षत्रमभ्येति चित्राम। सुभग्ं ससंयुवतिग्ं राचमानाम्। निवेशयन्नमृतान्मर्त्याग्श्च। रूपाणि पगं शन् भुवनानि विश्वा। तन्नस्त्वष्टा तदु चित्रा विचष्टाम्। तन्नक्षत्रं भूरिदा अस्तु मह्यम्। तन्नः प्रजां वीरवतीग्ं सनोतु। 
गोभिर्नो अश्वैस्समनक्तु यज्ञम्॥12॥
वायुर्नक्षत्रमभ्येति निष्ट्याम्। तिग्मशृंगो वृषभो रोरुवाणः। समीरयन् भुवना मातरिश्वा। अप द्वेषाग्ंसि नुदतामरातीः। तन्नो वायस्तदु निष्ट्या शृणोतु। तन्नक्षत्रं भूरिदा अस्तु मह्यम्। तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम्। 
यथा तरेम दुरितानि विश्वा॥13॥
दू॒रमस्मच्छत्रवो यन्तु भीताः। तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे। तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्। पश्चात् पुरस्तादभयन्नो अस्तु। नक्षत्राणामधिपत्नी विशाखे। श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ। विषूचश्शत्रूनपबाधमानौ। अपक्षुधन्नुदतामरातिम्॥14॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्। उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय। तस्यां देवा अधिसं वसन्तः। उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्। पृथ्वी सुवर्चा युवतिः सजोषा:। पौर्णमास्युदगाच्छोभमाना। आप्याययन्ती दुरितानि विश्वा। 
उरुं दुहां यजमानाय यज्ञम्॥15॥
ऋद्ध्यास्म हव्यैर्नमसोपसद्य। मित्रं देवं मित्रधेयंनो अस्तु। अनूराधान्, हविषा वर्धयन्तः। शतं जीवेम शरदः सवीराः। चित्रं नक्षत्रमुदगात्पुरस्तात्। अनूराधा स इति यद्वदन्ति; तन्मित्र एति पथिभिर्देवयानै॓ः। हिरण्ययैर्विततैरन्तरि॑क्ष॥16॥
इन्द्रो ज्येष्ठामनु नक्षत्रमेति। यस्मिन वृत्रं वृत्र तूर्ये॑ ततार। तस्मिन्वय ममृतं दुहानाः। क्षुधन्तरेम दुरितिं दुरिष्टिम्। पुरन्दराय वृषभाय धृष्णवे॓। अषाढाय सहमानाय मीढुषे। इन्द्राय ज्येष्ठा मधुमद्दुहाना। 
उरुं कृणोतु यजमानाय लोकम्॥17॥
मूलं प्रजां वीरवतीं विदेय। पराच्येतु निरृतिः पराचा। गोभिर्नक्षत्र पशुभिस्समक्तम्। अहर्भूयाद्यजमानाय मह्यम्। अहर्नो अद्य सुविते ददातु। मूलं नक्षत्रमिति यद्वदन्ति। पराचीं वाचा निरृति नुदामि। 
शिवं प्रजायै॑ शिवमस्तु मह्यम्॥18॥
या दिव्या आपः पयसा सम्बभूवुः। या अन्तरिक्ष उत पार्थिवीर्याः। यासामषाढा अनु॒यन्ति कामम्। ता न आपः शग्ग् स्योना भवन्तु। याश्च कूप्या याश्च नाद्यास्मुद्रिया:। याश्च वैशन्तीरुत प्रासचीर्याः। यासामषाढा मधु भक्षयन्ति। 
ता न आपः शग्ग् स्योना भवन्तु॥19॥
तन्नो विश्वे उप शृण्वन्तु देवाः। तदषाढा अभिसंयन्तु यज्ञम्। तन्नक्षत्रं प्रथतां पशुभ्यः। कृषिर्वृष्टिर्यजमानाय कल्पताम्। शुभ्राः कन्या युवतयस्सुपेशसः। कर्मकृतस्सुकृतो वीर्यावतीः। विश्वान् देवान्, हविषा वर्धयन्तीः। अषाढाः काममुपायन्तु यज्ञम्॥20॥
यस्मिन् ब्रह्माभ्यजयत्सर्वमेतत्। अमुञ्च लोकमिदमूच सर्वम्। तन्नो नक्षत्रमभिजिद्विजित्य। श्रियं दधात्वहृणीयमानम्। उभौ लोकौ ब्रह्मणा सञ्जितेमौ। तन्नो नक्षत्रमभिजिद्विचष्टाम्। तस्मिन्वयं पृतनास्सञ्जयेम। 
तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम्॥21॥
शृण्वन्ति श्रोणाममृतस्य गोपाम्। पुण्यामस्या उपशृणोमि वाचम्। महीं देवीं विष्णुपत्नीमजूर्याम्। प्रतीची मेनाग्ं हविषा यजामः। त्रेधा विष्णुरुरुगायो विचक्रमे। मही दिवं पृथिवीमन्तरिक्षम्। तच्छ्रोणैतिश्रव इच्छमाना। 
पुण्यग्ग् श्लोकं यजमानाय कृण्वती॥22॥
अष्टौ देवा वसवस्सोम्यासः। चतस्रो देवीरजराः श्रविष्ठाः। ते यज्ञं पान्तु रजसः पुरस्तात्। संवत्सरीणममृतग्ग् स्वस्ति। यज्ञं नः पान्तु वसवः पुरस्तात्। दक्षिणतो‌भियन्तु श्रविष्ठाः। पुण्यन्नक्षत्रमभि संविशाम। 
मा नो अरातिरघशग्ंसा‌गन्न्॥23॥
क्षत्रस्य राजा वरुणो‌धिराजः। नक्षत्राणाग्ं शतभिषग्वसिष्ठः। तौ देवेभ्यः कृणुतो दीर्घमायुः। शतग्ं सहस्रा भेषजानि धत्तः। यज्ञन्नो राजा वरुण उपयातु। तन्नो विश्वे अभि संयन्तु देवाः। तन्नो नक्षत्रग्ं शतभिषग्जुषाणम्। 
दीर्घमायुः॒ प्रतिरद्भेषजानि॥24॥
अज एकपादुदगात्पुरस्तात्। विश्वा भू॒तानि प्रति मोदमानः। तस्य देवाः प्रसवं यन्ति सर्वे॓। प्रोष्ठपदासो अमृतस्य गोपाः। विभ्राजमानस्समिधा न उग्रः। आ‌न्तरिक्षमरुहदगन्द्याम्। तग्ं सूर्यं देवमजमेकपादम्। 
प्रोष्ठपदासो अनुयन्ति सर्वे॓॥25॥
अहिर्बुध्नियः प्रथमा न एति। श्रेष्ठो देवानामुत मानुषाणाम्। तं ब्राह्मणास्सोमपास्सोम्यासः। प्रोष्ठपदासो अभिरक्षन्ति सर्वे॓। चत्वार एकमभि कर्म॑ देवाः। प्रोष्ठपदा स इति यान्, वदन्ति। ते बु॒ध्नियं परिषद्यग्ग् स्तुवन्तः। 
अहिग् रक्षन्ति नमसोपसद्य॑॥26॥
पूषा रेवत्यन्वेति पन्थाम्। पुष्टिपती॑ पशुपा वाजबस्त्यौ। इमानि हव्या प्रयता जुषाणा। सुगैर्नो यानैरुपयातां यज्ञम्। क्षद्रान् पशून् रक्षतु रेवती नः। गावो नो अश्वाग्म अन्वेतु पूषा। अन्नग्ं रक्षन्तौ बहुधा विरूपम्। 
वाजग्ं सनुतां यजमानाय यज्ञम्॥27॥
तदश्विनावश्वयुजोपयाताम्। शुभङ्गमिष्ठौ सुयमेभिरश्वै॓ः। स्वं नक्षत्रग्ं हविषा यजन्तौ। मध्वासम्पृक्तौ यजुषा समक्तौ। यौ देवानां भिषजौ हव्यवाहौ। विश्वस्य दूतावमृतस्य गोपौ। तौ नक्षत्रं जुजुषाणोपयाताम्। 
नमो‌श्विभ्यां कृणुमो‌श्वयुग्भ्याम्॥28॥
अप पाप्मानं भरणीर्भरन्तु। तद्यमो राजा भगवान्, विचष्टाम्। लोकस्य राजा महतो महान्, हि। सुगं नः पन्थामभयं कृणोतु। यस्मिन्नक्षत्रे यम एति राजा। यस्मिन्नेनमभ्यषिंचन्त देवाः। तदस्य चित्रग् हविषा यजाम। 
अप पाप्मानं भरणीर्भरन्तु॥29॥
निवेशनी सङ्गमनी वसूनां विश्वा रूपाणि वसून्यावेशयन्ती। 
सहस्रपोषग्ं सुभगा रराणा सा न आगन्वर्चसा संविदाना। 
यत्ते देवा अदधुर्भागधेयममावास्ये संवसन्तो महित्वा। 
सा नो यज्ञं पिपृहि विश्ववारे रयिन्नो धेहि सुभगे सुवीरम्॥30॥
[तैत्तिरीय ब्रह्मणम् अष्टकम् 3 प्रश्नः 1; तैत्तिरीय संहिताः  काण्ड 3 प्रपाठकः 5 अनुवाकम् 1]

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। 

गृहस्थ के हेतु यज्ञ हवन कर्म :: 

एकमप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पञ्चयज्ञिके। 
न चैवात्रशयेत्किंञ्चिद्वैश्र्वदेवं प्रति द्विजम्॥[मनु स्मृति 3.83]

पंचयज्ञ के अन्तर्गत पितृ के निमित्त एक ब्राह्मण को अवश्य भोजन करावे, पर वैश्य देव के निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराने की आवश्यकता नहीं है।
Under the procedure of Pitr Yagy, the household must offer food to one Brahmn for the satisfaction of the Manes. For the sake of Vaeshy Dev there is no such compulsion.
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। 
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥[मनु स्मृति 3.84]
वैश्य देव के लिये पकाए अन्न से, ब्राह्मण गार्हपत्य अग्नि में, आगे कहे हुए देवताओं के लिये प्रति दिन हवन करे।
The Brahmn should perform Hawan as per description that follows, into the Garhpaty Agni, for Vaeshy Dev with the cooked food grains, for the sake-satisfaction, appeasement of deities, demigods.
गार्हपत्य अग्नि का एक प्रकार है। अग्नि तीन प्रकार की है :- (1). पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, (2). माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और (3). गुरु आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं॥ वेद॥
Garhpaty Agni is a type of fire. Veds describe fire by the name of father, mother and the Guru-teacher.
अग्ने: सोमस्य चैवादौ तयोच्श्रैव समस्तयो:। 
विश्रेव्भ्यच्श्रैव  देवोभ्यो धन्वन्तरय एव च॥[मनु स्मृति 3.85]
पहले अग्नि और सोम को फिर दोनों को एक साथ “अग्निसोमाभ्यां स्वाहा:” कहकर आहुति दे, तदनन्तर विश्वदेव और धन्वंतरीको आहुति दे।
First offering should be made to fire and the next to Som (Moon-Luna) followed by a joint offering to both by spelling “Agnisomabhyaan Svaha:”, thereafter offering should be made to Vishw Dev and then to Dhanvantri.
Dhanvantri is demigods physician.
कुह्वै चैवानुमत्यै  च प्रजापतय एव च। 
सहद्यावापृथिव्योश्र्च तथा स्विष्टकृतेSन्तपः॥[मनु स्मृति 3.86]
फिर कुहू को, अनुमति को, प्रजापति को आहुति दे, द्यो: पृथिवी को एक साथ आहुति दे। अन्त में स्विष्टकृत् अग्नि को आहुति दे।
The household should sacrifice offerings in holy fire for the sake of Kuhu, Anumati, Prajapati, the earth and the fire form Swishtkrat it self.
कुहू :: कोयल की कूक या बोली, मोर की केका-ध्वनि, अमावस्या की अधिष्ठात्री देवी या शक्ति, अमावस्या की रात, छलना, प्रवञ्चना;  The goddess-deity of the no moon night.
स्विष्टकृत् अग्नि :: The fire which performs the sacrifice well.
अनुमति :: आज्ञा, हुकुम, कोई काम करने से पहले उसके संबंध में अधिकारी से मिलने या ली जानेवाली स्वीकृति, अनुज्ञा, पूर्णिमाकीअधिष्ठात्री देवी या शक्ति; Sanction, assent, counsel, decree, advice, permission, The goddess-deity of the full-moon night.
एवं सम्यग्धविर्हुत्वा सर्वदिशु प्रदक्षिणम्। 
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥[मनु स्मृति 3.87]
इस प्रकार होम करके सारी दिशाओं में दक्षिण क्रम से इन्द्र, यम, वरुण और सोम को तथा साथ ही साथ उनके अनुयायियों को बलि देनी चाहिये।
यथा पूर्व दिशा में इन्द्राय नमः इंद्रपुरुषेभ्यो नमः, दक्षिण में यमाय नमः यमपुरुषेभ्यो नमः,
पश्चिम में वरुणाय नमः वरुणपुरुषेभ्यो नमः, उत्तर दिशा में सोमाय नमः सोमपुरुषेभ्यो नमः। 
Having performed the holy sacrifices in fire the household should recite the holy Mantr-verses directed to Indr-the King of heaven, facing east  as :- Om Indray Namh Om Indr Purushebhyo Namh, to Yum-the deity of death, religion and deeds facing south as :- Om Yamay Namh Om Yam Purushebhyo Namh, to Varun-the deity of water facing west as :: Om Varunay Namh Varun Purushebhyo Namh and then to Moon-the king of Brahmns as :- Om Somay Namh Om Som Purushebhyo Namh.
मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि।
वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥[मनु स्मृति 3.88]
मरुत को द्वार पर, आप-जल को जल में, वनस्पति को मूसल और उलूखल में बलि दे।
Offerings to Marut-air be made at the entrance-door, to Varun in water, to plantation-vegetation in Musal or Ulukhal made of wood.
मूसल :: Muller, (pestle, plunger, ponder, flail, pestle and the mortar) is made of wood nad used to separate chaff from grain.
उलूखल :: A mortar for crushing or cleaning rice, grinding ingredients.
उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकल्यै च पादत:। 
ब्रह्म वास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥[मनु स्मृति 3.89]
वास्तु पुरुष के शीर्ष भाग (उत्तर-पूर्व दिशा) में लक्ष्मी को, पद प्रदेश (दक्षिण-पश्चिम) में भद्र काली को, ब्रह्मा और वास्तुपति को वास्तु के मध्य भाग में बलि दे।
Offerings to Maa Lakshmi should be made at the top segment of Vastu Purush (North East direction), to Maa Bhadr Kali offering should be made at the lowest segment-foot of the Vastu Purush while offering to Brahma Ji and the Vastu Pati himself be made at the centre of the Vastu Purush.
विश्वेदेवश्र्चैव देवेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्। 
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तञ्चारिभ्य एव च॥[मनु स्मृति 3.90]
वैश्यदेव को आकाश में और दिन चर प्राणी को दिन में रात्रि चर प्राणी को रात में बलि दे।
Offerings for sake of the micro or divine creatures, including ghosts or the diseased be made in the sky, for the sake of the living beings it should be made during the day and offerings for the sake of the goblins that walk at night be made during the night only.
वैश्यदेव :: पंच महायज्ञों मे से भूतयज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ। सूक्ष्म, दिव्य जितने भी प्राणी या देव, सबों को तृप्त करने की भावना से भोज्य सामग्री की हवि प्रदान करना ही भूत या वैश्यदेव यज्ञ है। इससे व्यक्ति का हृदय और आत्मा विशाल होकर अखिल विश्व के प्राणियों के साथ एकता सम्मिलित का अनुभव करने में होता है।
पञ्च दक्षिण यज्ञ ::
पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम्।
दद्यादतिथिपूजार्थ स यज्ञ: पञ्चदक्षिण:॥
अतिथि को पैर धोने के लिए जल, बैठने के लिए आसन, प्रकाश के लिए दीपक, खाने के लिए अन्न और ठहरने के लिए स्थान देता है, इस प्रकार अतिथि सत्कार के लिए इन पाँच वस्तुओं का दान पञ्च दक्षिण यज्ञ कहलाता है।[महा.अनुशासनपर्व 4.8]
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PRAYER प्रार्थना

PRAYER प्रार्थना

 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 

By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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ॐ गं गणपतये नम:।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥

WORSHIP पूजा-अर्चना :: Worship and religion are two concepts which are closely knit together. One may worship a living being-legend, who is his ideal, Godfather, guardian, patron. Hero worship is prevalent in all societies.

This is curious that most of the places of worship have been built over the remains of ancient shrines-temples.

There is no doubt that these temples were devoted to the worship of SUN in addition to the various incarnations of the Almighty. Sun worship is prevalent in the traditional form of worship in the present communities-spreaded all over the world, although they have switched their loyalty to some other religion-faith. Rituals, dances, prayers, still portrait the significance of it, which needs to be studied by the currently surviving population of the world. Most curious-significant-astounding reality is that, almost each and every where these practices were in common.

What is more peculiar is that the structures located thousands of miles-kilometres apart have identical formations-designs-architecture. Is it not wonderful that almost all of them lie over certain longitude and latitude.

हे परमात्मा मुझे क्षर से अक्षर, नश्वर से अनश्वर बना, समता प्रदान कर और अनन्य भक्ति से परिपूर्ण कर।

हे! विघ्न विनाशक गणपति! संवारो बिगड़े काम; मोक्ष मार्ग हो सहज, साधना हो निष्काम। करें वन्दना नित्य प्रति, दर्शन दो भगवान; अनन्य भक्ति प्रदानकर संतोष पर करो अहसान॥

मंत्र-जप, देव पूजन तथा उपासना की शब्दावली :: मंत्र जप, देव पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ

(1). पंचोपचार :: गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।

(2). पंचामृत :: दूध, दही, घृत, मधु (शहद) तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

(3). पंचगव्य :: पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर के द्वारा किया जाता है। पंचगव्य द्वारा शरीर की रोगनिरोधक क्षमता को बढाकर रोगों को दूर किया जाता है। गोमूत्र में प्रति ऑक्सीकरण की क्षमता के कारण डीएनए को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। गाय के गोबर का चर्म रोगों में उपचारीय महत्व सर्वविदित है। दही एवं घी के पोषण मान की उच्चता से सभी परिचित हैं। दूध का प्रयोग विभिन्न प्रकार से भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से होता आ रहा है। घी का प्रयोग शरीर की क्षमता को बढ़ाने एवं मानसिक विकास के लिए किया जाता है। दही में सुपाच्य प्रोटीन एवं लाभकारी जीवाणु होते हैं जो क्षुधा को बढ़ाने में सहायता करते हैं। पंचगव्य का निर्माण देसी मुक्त वन विचरण करने वाली गायों से प्राप्त उत्पादों द्वारा ही करना चाहिए, शहरों में घूमने वाली और गन्दगी  खाने वाली गायों से नहीं।

(4). षोडशोपचार :: आवाहन्, आसन, पाध्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवैध्य, अक्षत, ताम्बुल-पान तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं।

(5). दशोपचार :: पाध्य, अर्घ्य, आचमनीय, मधुपक्र, आचमन, गंध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को दशोपचार कहते हैं।

(6). त्रि धातु :: सोना, चाँदी और लोहा अथवा सोना, चाँदी तथा ताँबे का मिश्रण।

(7). पंच धातु :: सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा और जस्ता।

(8). अष्ट धातु :: सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, जस्ता, राँगा, काँसा और पारा।

(9). नैवैध्य :: खीर, मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएँ।

(10). नवग्रह :: सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु।

(11). नवरत्न :: माणिक्य, मोती, मूँगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद और वैदूर्य।

(12). अष्टगंध-देव पूजन हेतु  :: अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन और सिन्दूर।

(13). अष्टगंध-देवी पूजन :: अगर, लाल चन्दन, हल्दी, कुमकुम, गोरोचन, जटामासी, शिलाजीत और कपूर।

(14). गंध त्रय :: सिन्दूर, हल्दी, कुमकुम।

(15). पञ्चांग :: किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल और जड़।

(16). दशांश :: दसवां भाग।

(17). सम्पुट :: मिट्टी के दो सकोरों को एक-दूसरे के मुँह से मिला कर बंद करना।

(18). भोज पत्र :: एक वृक्ष की छाल। मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकड़ा लेना चाहिए, जो कटा-फटा न हो।

(19). मन्त्र धारण :: किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं, परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए।

(20). ताबीज :: ये ताँबे के बने हुए गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं। सोना, चांदी, त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज बनवाये जा सकते हैं।

(21). मुद्राएँ :: हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्थिति में लेने कि क्रिया को मुद्रा कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।

(22). स्नान :: यह दो प्रकार का होता है। बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।

(23). तर्पण :: नदी, सरोवर, आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को तर्पण कहा जाता है। जहाँ नदी, सरोवर आदि न हो, वहाँ किसी पात्र में पानी भरकर भी तर्पण की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।

(24). आचमन :: हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।

(25). करन्यास :: अँगूठा, अँगुली, करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को करन्यास कहा जाता है।

(26). ह्रदयाविन्यास :: ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ह्रदयाविन्यास कहते हैं।

(27). अंगन्यास :: ह्रदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र एवं करतल; इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को अंगन्यास कहते हैं।

(28). अर्घ्य :: शंख, अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है। घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं। अर्घ्य पात्र में दूध, तिल, कुशा के टुकड़े, सरसों, जौ, पुष्प, चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है।

(29). पंचायतन पूजा :: इसमें पांच देवताओं :– विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजनकिया जाता है।

(30). काण्डानुसमय :: एक देवता के पूजा काण्ड को समाप्त कर, अन्य देवता की पूजा करने को काण्डानुसमय कहते हैं।

(31). उद्धर्तन :: उबटन।

(32). अभिषेक :: मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को अभिषेक कहते हैं।

(33). उत्तरीय :: वस्त्र।

(34). उपवीत :: यज्ञोपवीत-जनेऊ।

(35). समिधा :: जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं। समिधा के लिए आक, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, उदुम्बर, शमी, कुषा तथा आम की लकड़ियों को ग्राह्य माना गया है।

(36). प्रणव :: ॐ।

(37). मन्त्र ऋषि :: जिस व्यक्ति ने सर्व प्रथम शिव जी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध किया था, वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।

(38). छन्द :: मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को छन्द कहते हैं। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मंत्र का उच्चारण चूँकि मुख से होता है, अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

(39). देवता :: जीव मात्र के समस्त क्रिया-कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राण शक्ति को देवता कहते हैं। यह शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है, अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है।

(40). बीज :: मन्त्र शक्ति को उद॒भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यांग में किया जाता है।

(41). शक्ति :: जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व शक्ति कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते हैं।

(42). विनियोग :: मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

(43). उपांशु जप :: जिह्वा एवं होठों को हिलाते हुए केवल स्वयम को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण को उपांशु जप कहते हैं।

(44). मानस जप :: मन्त्र, मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र का उच्चारण करने को मानस जप कहते हैं।

(45). अग्नि की जिह्वाएँ ::

(45.1). अग्नि की 7 जिह्वाएँ :- (45.1.1). हिरण्या, (45.1.2). गगना, (45.1.3). रक्ता, (45.1.4). कृष्णा,  (45.1.5). सुप्रभा, (45.1.6). बहुरूपा एवं (45.1.7). अतिरिक्ता।

(45.2.1). काली, (45.2.2). कराली, (45.2.3). मनोभवा, (45.2.4). सुलोहिता, (45.2.5). धूम्रवर्णा, (45.2.6). स्फुलिंगिनी एवं (45.2.7). विश्वरूचि।

(46). प्रदक्षिणा :– देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं।

विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश और सूर्य आदि देवताओं की 4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमायें करनी चाहियें।

(47). 5 प्रकार की साधना:-

(47.1). अभाविनी :– पूजा के साधन तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहा जाता है।

(47.2). त्रासी :– जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।

(47.3). दोवोर्धी :– बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा दोर्वोधी कहलाती है।

(47.4). सौतकी :- सूत की व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।

(47.5). आतुरी :: रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्य मंडल की ओर देख कर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे, ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करें तो इस पूजा को आतुरी कहा जाएगा।

(48). अपने श्रम का महत्व :: पूजा की वस्तुएँ स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है। अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

(49). वर्णित पुष्पादि :– (49.1). पीले रंग की कट सरैया, नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के फूल पूजा में नही चढाये जाते।

(49.2). सूखे, बासी, मलिन, दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प देवता पर नहीं चढाये जाते।

(49.3). भगवान् विष्णु पर अक्षत, आक तथा धतूरा नहीं चढाये जाते।

(49.4). भगवान् शिव पर केतकी, बन्धुक (दुपहरिया), कुंद, मौलश्री, कोरैया, जयपर्ण, मालती और जूही के पुष्प नही चढाये जाते।

(49.5). माँ दुर्गा पर दूब, आक, हरसिंगार, बेल तथा तगर नही चढाये जाते।

(49.6). भगवान् सूर्य तथा गणेश जी पर तुलसी नहीं चढाई जाती।

(49.7). चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य पुष्पों की कलियाँ नहीं चढाई जातीं।

(50). ग्राह्य पुष्प :– भगवान् विष्णु पर श्वेत तथा पीले पुष्प, तुलसी, सूर्य, गणेश जी पर लाल रंग के पुष्प, माँ लक्ष्मी पर कमल, भगवान् शिव के ऊपर आक, धतूरा, बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप से चढाये जाते हैं। अमलतास के पुष्प तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता।

(51). ग्राह्य पत्र :: तुलसी, मौलश्री, चंपा, कमलिनी, बेल, श्वेत कमल, अशोक, मैनफल, कुषा, दूर्वा, नागवल्ली, अपामार्ग, विष्णुक्रान्ता, अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं।

(52). ग्राह्य फल :: जामुन, अनार, नींबू, इमली, बिजौरा, केला, आंवला, बेर, आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं।

(53). धूप :: अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष रूप से ग्राह्य है। चन्दन-चूरा, बालछड़ आदि का प्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है।

(54). दीपक की बत्तियाँ :: यदि दीपक में अनेक बत्तियाँ हों तो उनकी संख्या विषम रखनी चाहिए।दायीं ओर के दीपक में सफ़ेद रंग की बत्ती तथा बायीं ओर के दीपक में लाल रंग की बत्ती रखनी चाहिए।

PRAYER OF DEITIES FOR FULFILLMENT OF DESIRES इच्छा पूर्ति हेतु देवराधना ::

ब्रह्म तेज़ या विशिष्ट ज्ञान-विद्या हेतु :: देवगुरु बृहस्पति।

इन्द्रियों की सन्तुष्टि-विशिष्ट शक्ति :: देवराज इन्द्र।

अगले जन्म में सन्तान  सुख :: प्रजापतियों का स्मरण।

सुन्दर और आकृषक शरीर :: अग्नि, गन्दर्भ।

अन्न संग्रह :: देव माता अदिति।

पौरुष-बहादुरी :: रुद्रगण।

धन-लक्ष्मी :: माया (माँ लक्ष्मी), कुबेर।

स्वर्ग :: देवमाता अदिति।

राज्य, सत्ता :: विश्व देव।

सुंदरता :: गन्दर्भ।

ज्ञान, शिक्षा-विद्या :: भगवान् शिव,  माता सरस्वती।

बुद्धि, चातुरी कौशल :: गणपति महाराज और बुध देव।

पति-पत्नी में सामंजस्य-प्रेम-सौहार्द, गृहस्थ सुख :: माँ गौरी-पार्वती, शिव परिवार (भगवान् शिव, माँ पार्वती, गणपति, कुमार भगवान् कार्तिकेय और नंदी महाराज)।

वंश वृद्धि :: पितृगण।

भोग :: देवराज इन्द्र, चन्द्र देव, कामदेव, रति,  प्रीति।

मोक्ष :: भगवान्  श्री हरी विष्णु।

कष्ट निवारण :: गणपति श्री गणेश।

रोग निवारण :: अश्वनी कुमार, भगवान् धन्वंतरि, महामृत्युंजयी महा काल भगवान् शिव।

PRAYER प्रार्थना :: हे परम पिता परमेश्वर, पर ब्रह्म परमेश्वर, जगदीश्वर मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर जगदीश्वर भगवान् सदाशिव में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

आदिदेव महादेव, भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महेश मुझ अकिंचक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद्भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परम धाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

आदि माता भगवती, उमा पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् लक्ष्मी-नारायण, शेष नाग मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

माँ गायत्री-सावित्री, भगवान ब्रह्मा जी महाराज मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् सदाशिव, माता पार्वती, गणपति जी महाराज, कुमार कार्तिकेय, नंदी बाबा जी महाराज, हनुमान जी बाबा जी महाराज, रिद्धि, सिद्धि, शुभ लाभ मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान रत्नाकर, समुद्र देवता, वरुण देवता, माता गंगा, यमुना सरस्वती, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, गोमती मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

कुल देवता, नाग देवता, भगवान अनंत मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् शेष नाग, नागराज वासुकी, कर्कोटक, महात्मा तक्षक मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो।आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

देवात्मा देवराज इंद्र, परम पवित्र अग्नि देवता, पवन देव, वरुण देव, समस्त मेध गण और बिजलियाँ मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो।

श्री हनुमान जी बाबा जी महाराज मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद्गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। मुझे तुम्हारा दर्शन और आशीर्वाद नित्य प्राप्त हॉट रहे। मेरे शरीरिक, मानसिक, भौतिक, आध्यात्मिक, काम और मोह विकार सदासर्वदा के लिए, जन्म-जन्मांतरों के लिये नष्ट हो जायें।आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् वेद व्यास, देवऋषि नारद, सप्तऋषि गण, ब्रह्मऋषि गण, माता भगवती, माता सरस्वती, गणपति बाबा जी महाराज मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। हे प्रभु! मैं केवल वही लिखूँ जो सत्य, तुम्हारा कथन और मन्तव्य हो। मैं जो कुछ भी लिखूँ मुझे समझ में आये। मेरे लिखने में कोई भूल, गलती, त्रुटि हो तो उसे क्षमा करके शुद्ध कर देना। लिखे को अनन्त असंख्य लोग पढ़ें और सात्विक विचारों को ग्रहण करके जीवन में उपयोग में लायें। उनके कल्याण के साथ-साथ मेरा भी कल्याण हो जाये। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् सूर्य व चन्द्र देव मुझ अकिंचक पर प्रसन्न हों! मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। मैं तेजस्वी ओजस्वी बनूँ। मेरे शरीरिक, मानसिक, भौतिक, आध्यात्मिक, काम और मोह विकार सदा-सर्वदा के लिए, जन्म-जन्मांतरों के लिये नष्ट हो जायें। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

समस्त देवगण, ऋषिगण, पितृगण, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, राक्षस, दैत्य आदि प्रजातियाँ! मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् नर, नारायण, बद्रीनाथ, केदारनाथ! मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

बाबा विश्वनाथ, महाकाल, रामेश्वर! मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वरमें, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। मुझे तम्हारे, द्वारकाधीश, द्वादस ज्योतिर्लिंग और तिरुपति बाला जी महाराज का दर्शन और आशीर्वाद निरंतर प्राप्त होता रहे। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् तिरुपति बाला जी महाराज! मुझ अकिञ्चक पर प्रसन्न हों। मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर जगदीश्वर भगवान् सदाशिव में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो। आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

भगवान् सदाशिव, माता पार्वती, गणपति बाबा महाराज, भगवान् कार्तिकेय और नंदी महाराज! मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद् बुद्धि, सद् भावना, समता, सद् गति प्रदान करने के साथ-साथ, मुझ पर ऐसी अनुकम्पा-कृपा करें कि मेरी शुद्ध सात्विक, मनोकामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायें। मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर में, सदा सर्वदा के लिए, स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ। मुझे मेरे परिवार, पूर्वजों, पितरों ऋषियों सहित परम सुख, अनंत सुख, अक्षय सुख, परमानन्द, परमधाम की प्राप्ति हो। मेरा व्यवहार अनुकरणीय, सौहार्द पूर्ण, निर्मल, विनम्र और विवेक पूर्ण हो।

हे प्रभु! मुझ में तेरे प्रति श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, आस्था, निष्ठा, प्रेम और ज्ञान की ज्योति सदैव जाग्रत-कायम रहे। समस्त प्राणियों के प्रति करुणा मय प्रेम हो। तुम्हारी कृपा से मेरे शरीर, आत्मा, बुद्धि-विवेक, मन, प्राण, चेतना, ध्यान, चित्त में, तुम्हारा, देवी देवताओं, परमात्मा, माँ भगवती, परम पिता परब्रह्म परमेश्वर भगवान सदाशिव का नित्य निवास-स्थाई निवास हो।आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

O God! Kindly bless me with faith, devotion, trust, confidence, reliance, belief, belief, inclination, regard, respect, reverence, devotion, faith, allegiance-devout-fulfilment of all religious duties, love-affection and knowledge, enlightenment along with compassion, pity, mercy, tenderness towards all creatures for ever. My body, soul, intelligence, mind, brain, prudence, mood-mind and heart, vital breath, consciousness, recollection, intelligence of mind, attention of mind, contemplation, meditation, memory, reflection-thought, understanding of mind should become permanent abode of the Almighty, Mother Bhagwati, Per Brahm Parmeshwar Bhagwan Sada Shiv.

हे प्रभु! मुझे व मेरे स्वजनों को मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद्बुद्धि, सद भावना, सदगति प्रदान कर। तेरी कृपा से हमारी समस्त शुद्ध सात्विक इच्छाएं, मनोकामनाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायं। हमें तुम्हारी अविचल, निश्छल, अनन्य, अनुपम, दिव्य, परम, अनन्त, अद्वितीय, नित्य, निर्मल भक्ति की प्राप्ति हो।आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

O! Almighty kindly bless me, my relatives and fellow people with detachment, liberation, salvation, devotion, purity of body, mind, heart and soul, prudence, enlightenment, purity of thoughts, good, feelings, thoughts, will, and peaceful transformation to next birth.

हे परमात्मा-दयानिधान! कृपा करके मुझे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति एवं परमानंद प्रदान कर!

Almighty kindly bless me with religiosity, finances, sensuality (ability to perform righteous sex for family life/household duties, which considered as the best ashram), salvation, detachment (from vices, defects-sins-wickedness), devotion and Ultimate bliss-happiness.

तेरी छत्र छाया, मुझ पर, मेरे परिवार पर, सदा बनी रहे। हमें मुक्ति, भक्ति, आत्मशुद्धि, सद्बुद्धि सद्भावना, अनंत सुख, अक्षय सुख-परम सुख, परमानन्द की प्राप्ति हो।
आयु पर्यन्त हम सुखी, सम्पन्न और निरोग रहें। हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक, कार्मिक, काम विकार, मोह विकार सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जाएँ। मन, चेतना, बुद्धि, प्राण और आत्मा सदा तुझमें केन्द्रित हो। हमारा मन, मस्तिष्क, अंग-प्रत्यंग, स्नायु-तन्त्रिका तंत्र आयु पर्यन्त सुचारु रूप से काम करता रहे।

Let the asylum-protection-shelter under you, be always available-bestowed upon me, my family-household members and fellow people.

प्रार्थना PRAYER :: हे परमात्मा! हे भगवान्! कृप्या मुझे समस्त शारीरिक मानसिक दोषों, विकारों, विषय, वासनाओं, व्याधि, बीमारी, रोगों, तनावों से मुक्त कर।

हे प्रभु! मुझ में तेरे प्रति श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, आस्था, निष्ठा, प्रेम और ज्ञान की ज्योति सदैव जाग्रत-कायम रहे। समस्त प्राणियों के प्रति करुणा मय प्रेम हो। तुम्हारी कृपा से मेरे शरीर, आत्मा, वाणी, बुद्धि-विवेक, मन, प्राण, चेतना, ध्यान, चित्त में, तुम्हारा, देवी देवताओं, परमात्मा, माँ भगवती, परम पिता परब्रह्म परमेश्वर भगवान् सदाशिव का नित्य-स्थाई निवास हो।

हम धर्म, कर्तव्य, न्याय, सत्य परायण हों। किसी किस्म का शारीरिक, मानसिक, आत्मिक विकार जन्म-जन्मांतरों में हैं न सताये। मुझे अपने परिवार, बड़े-बूढ़े, पितृगण और ऋषि गणों सहित परम्  सुख, अनन्त सुख और ब्रह्मानन्द की प्राप्ति हो।

हे प्रभु! मुझे व मेरे स्वजनों को मुक्ति, भक्ति, आत्म शुद्धि, सद्बुद्धि, सद भावना, सदगति  प्रदान कर। तेरी कृपा से हमारी  समस्त शुद्ध सात्विक इच्छाएं, मनोकामनाएँ, मनोरथ सिद्ध हो जायं। हमें तुम्हारी अविचल, निश्छल, अनन्य, अनुपम, दिव्य, परम, अनन्त, उत्तम, अद्वितीय, नित्य, निर्मल स्थाई भक्ति की, स्थाई रूप प्राप्ति हो।

हे परमात्मा-दयानिधान! कृपा करके मुझे व मेरे परिवार को  धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मुक्ति, भक्ति, आत्मशुद्धि  एवं  परमानंद प्रदान कर!हमें अक्षय सुख, परम सुख, अन्नत सुख, परमानन्द की  प्राप्ति हो।

तेरी  छत्र छाया, मुझ पर, मेरे परिवार पर, मेरे देश पर, सारे संसार पर, सारे प्राणियों सदा बनी रहे।

हे परमात्मा! हे भगवान! कृप्या मुझे समस्त शारीरिक, मानसिक दोषों, विकारों, विषय, वासनाओं, व्याधि-बीमारी, रोगों, तनावों  से मुक्त कर।

O God! Kindly bless me with faith, devotion, trust, confidence, reliance, belief, inclination, regard, respect, reverence, devotion, allegiance, devout, fulfilment of all religious duties, love-affection, and knowledge-enlightenment along with compassion, pity, mercy, tenderness towards all creatures for ever. My body, soul, intelligence-mind-brain, prudence, mood-mind and heart, vital breath, consciousness-recollection-intelligence of mind, attention of mind-contemplation-meditation-memory, reflection-thought-understanding of mind, should become permanent abode of the Almighty, Mother Bhagwati, Per Brahm Permashwer, Bhagwan Sada Shiv.

O! Almighty kindly bless me, my relatives and fellow people with detachment-liberation-salvation, devotion, purity of body-mind-heart-speech and soul, prudence-enlightenment-purity of thoughts, good-feelings-thoughts-will,  and peaceful transformation to next birth.

Almighty kindly bless me with religiosity, finances, sensuality (ability to perform righteous sex for family life/household duties, which considered as the best ashram), salvation, detachment (from vices, defects, sins, wickedness), devotion and Ultimate bliss-happiness.

Let the asylum-protection-shelter under you, be always available-bestowed upon me, my family-household members and fellow people.

O! God kindly protect me from vices, defects, wickedness.

I should not  be smeared, stained, sullied, engrossed, discredited, attached, sullied to the following and get rid of them, as early as possible:

O! God kindly protect me from vices-defects-wickedness.

One should not smear, stained, sullied, engross, discredited, attached, sullied to the following and get rid of them, as early as possible.
Each and everyone, should spare some time for prayers, irrespective of religion-faith. God, is one and the same and is present in all of his creations. Being a component of the Almighty-one should remember him, he too remembers his creations. The devotee attains divine protection as soon he dedicate himself to the pious, virtuous, righteous, deeds. One’s dedication to work is surely going to help him in an hour of need. So, always remember the God, before  starting work. Remember, it’s He who creates and nourishes us all. He is present in all of us.

(1). काम (Sexuality, sex blindness, sensuality, passions, wanton, lust, amorous) :: काम दैवी श्रष्टि और मैथुनी श्रष्टि दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है। काम देव और चन्द्र दोनों ही ब्रह्मा जी के रूप ही हैं। ब्रह्मा जी ने स्वयं काम की रचना की और स्वयं ही उससे ग्रस्त हो गये।  भगवान शिव को भी काम ने त्रस्त किया और उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया। मोहिनी अवतार ने भगवान शिव को मोहित कर दिया परन्तु वे भगवत कृपा से उसके दुष्प्रभाव से बच गये। विश्वामित्र जैसे ऋषि भी इसके जाल से निकल नहीं पाये। इस विकार से बचना असम्भव नहीं है, दृढ निश्चय-तप-ब्रह्मचर्य-भगवत भक्ति-शुद्ध विचार, विवेक, सद्बुद्धि  काम के आवेग को रोकते हैं।

Its really very difficult to overcome-overpower the sex urge. Still one is capable of controlling-diverting this to devotion in God. [Please read more-Kam Yog, Sex Education of these blogs :: bhartiyshiksha.blogspot.com  santoshkipathshala.blogspot.com]

(2). क्रोध (Anger, fury, rage, resentment, wrath) :: राग-द्वेष, ईर्ष्या, इच्छाओं की पूर्ति न होना, क्रोध उत्पन्न करता है। क्रोध में आकर व्यक्ति अपना नुक्सान ज्यादा करता है दूसरे का कम।

One must control anger, not to repent later. Any act done in a fit of anger may put one  in trouble for the whole life. Life is spoiled. Always avoid such situations. Its better if you avoid anger. Anger is not bad if it is meant for the improvement-betterment of the depraved, corrupt, sinner, our children, society, self-others.

(3). मद (Intoxication, pride, arrogance, conceit, vanity) :: Its the root cause behind the downfall of the mighty. Power, wealth, recognition, flattery corrupts the minds of such people. They start comparing themselves with God. The presume that they are capable of doing everything.One who suffers with this stigma is sure to loss his prestige-power-wealth-recognition-respect and human incarnation in next births. He is destined to hells for millions of years. Never have too high opinion about yourself.

(4). लोभ (Greed, eager, covet) :: There is no end of desires. As soon one is satisfied, another one develops-grows. It creates restlessness-instability till the goal (targets, desires, ambitions) are not fulfilled. One can never live with peace. Satisfaction, Santosh, contentment is the key to live peacefully. Make efforts without greed.

(5). मोह (Allurement-delusion-ignorance) :: One will not be able to qualify for assimilation in God-liberation, till he overpowers this faculty. It keeps one struck-attached with the world. One has affection-attachments for the children-relations-property-wealth etc. Indifference-neglect is useful. Which can not be cut easily. One can seek guidance-help from the enlightened-Guru.

(6). ईर्षा (Envy-jealousy) :: One feels that he should have all that which is possessed by others. As soon as he notices that some thing new (worthy, precious, useful) is acquired by others he starts longing for it. Failure to obtain it fills him with dis satisfactions, distress-anger. The results of which are never good for him and the society. Contentment, self satisfaction, discipline, minimisation of needs-desires is helpful.

(7). आलस्य (Laziness) :: Its an evil which does not allow to attain the desired material, philosophical or spiritual goals. One seldom achieve success in life if he remains sluggish. Health conscious person always remain active, alert and ready to perform any duty assigned to him.

(8). मान (False Pride, vanity, self respect) :: Its good to be proud of ones country, children but one must not be overpowered by this defect. Hirany Kashyap, Hiranyaksh Ravan, Kans, Shishu Pal were killed because they considered themselves to be above all-the greatest. One must maintain his dignity-self respect-prestige, but not by degrading others. All creatures have the same soul-it’s only the body which is different by virtue of the Karm-deeds. The egoist will certainly meet down fall.

(9). अपमान (Insult, disrespect, disgrace, contempt, curse, reproach) :: One must respect others and their sentiments even if they do not resemble his thoughts. In not good to dishonour others without any valid reason. Chanky was insulted by Maha Nand which led to the elimination of his dynasty and crowning of Chandr Gupt Maury.

(10). भय Fear :: One should never be afraid of others. There is no reason to be afraid of the parents, elders, well wisher and the Almighty. We should be afraid of our sins, wickedness which sends us to hells and lower species. It does b not mean that one has to become overconfident and too bold. Always asses the danger and act wisely-prudently-carefully-precisely remembering the God all the time. Fear can be overcome easily.

(11). निद्रा Sleep, Drowsiness :: One should not sleep for more than 8 hours. A sound sleep removes tiredness-fatigue and makes one alert, stable and fine. Instead of drowsing all the time one should prefer a sound sleep. It dangerous for own and others life. Never sleep while driving-navigating-flying. Arjun overpowered sleep through practice-Yog. One can easily control sleep through practice and Yog. Always too hard work and fatigue. rest is an essential part of our daily routine. [Please refer to longevity of this blog for more knowledge] The God takes refuge in Yog Nidra-sleep.

(12). थकान Tiredness :: One must avoid extreme physical and mental tiredness. Its not good for health. Amusement-entertainment are essential parts of our lives to shed off tiredness. Yog and refuse in God are alternate remedy for fatigue-tiredness. Increase stamina-enhance energy-boost power and start taking regular physical exercise and Yog. Consume healthy nourishing food,avoid meat, wine-women, fish, egg, narcotics-drugs.

(13). शोक Grief, condolence, mourning ::  Its not good to be under the cloud of grief for the ones who are dead for long. control yourself and be busy with the daily routine-chores of life. God-religion-social gatherings-congregations are good remedy for this. Its a temporary phase in each and every one’s life.

(14). संताप Anguish, suffering, grief, remorse, trauma ::  Too much of every thing is bad. Control yourself. One who has given grief will pull you out of it as well. Take a look at the future-brighten it.

(15). दुःख Sorrow, pain, sadness, grief, distress :: There is nothing to be afraid or fear the pains-tensions-failures. They come and go. Over power them. They are meant to educate you, help you in finding out solutions. Remember nothing is difficult for the one who is determined-confident-brave-alert-conscious.

(16). कष्ट Trouble, difficulty ::  They come as routine. One must not be afraid of them and face them with confidence. They are the out come, result of current, previous deeds. Never try to escape them. Have faith in God.

(17). पाप तीन प्रकार का होता है ::  (17.01). शारीरिक-कार्मिक, (17.02). वाचिक और (17.03). मानसिक।

शारीरिक :: किसी भी प्राणी को शारीरिक आघात-कष्ट पहुँचाना।

वाचिक :: वचनों-वाणी-शब्दों से अपमान-तिरस्कार-दिल दुखाना-क्रोध करना ।

मानसिक :: बुरा सोचना-दुर्भावना रखना-बदले की चाहत।

पाप को प्रायश्चित, आराधना, तपस्या, दूसरों की मदद करके कम किया जा सकता है।

(17.1). परस्त्री की संगति, पापियों के साथ रहना और प्राणियों के साथ कठोरता का व्यवहार करना।

(17.2). फलों की चोरी, आवारागर्दी, वृक्ष पेड़ काटना।

(17.3.1). वर्जित वस्तुओं को लेना, (17.3.2). वे कसूर को मारना, जेल-बन्धन में डालना, धन की प्राप्ति के लिये मुकदमा करना।

(17.4). सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करना धर्म-नियमों के विपरीत चलना।

(17.5). पुरश्चरण आदि तान्त्रिक अभिचरों से किसी को मारना, मृत्यु जैसा अपार कष्ट देना, मित्र के साथ छल-छंद, झूँठी शपथ, अकेले मधुर पदार्थ खाना।

(17.6). फल-पत्र-पुष्प की चोरी, बंधुआ रखना, सिद्ध की प्राप्ति में बाधा डालना और नष्ट करना, सवारी के सामानों चोरी।

(17.7). राजा को देय राशि में घपला, राजपत्नी का सन्सर्ग और राज्य-देश का अमंगल।

(17.8). किसी वस्तु या व्यक्ति पर लुभा जाना, लालच करना, पुरुषार्थ से प्राप्त धर्म युक्त धन का विनाश करना, लार मिली वाणी-चिकनी-चुपड़ीबातें करना बनाना।

(17.9). ब्राह्मण को देश से निकालना, उसका धन चुराना, निंदा करना तथा बन्धुओं से द्वेष-विरोध रखना।

(17.10). शिष्टाचार का नाश, शिष्ट जनों से विरोध, नादान-अबोध बालक की हत्या करना, शास्त्र-ग्रंथों की चोरी, स्वधर्म का नाश-धर्म परिवर्तन।

(17.11). वेद-विद्या, संधि विग्रह, यान, आसन, द्वैधी भाव, समाश्रय-राजनैतिक गुणों का प्रतिवेश।

(17.12). सज्जनों से वैर, आचारहीनता, संस्कार हीनता, बुरे कामों से लगाव।

(17.13). धर्म, अर्थ, सत्कामना की हानि, मोक्ष प्राप्ति में बाधा डालना या इसके समन्वय में विरोध उत्पन्न करना।

(17.14). कृपण,  धर्म हीनता, परित्याज्य और आग लगाने वाला।

(17.15). विवेकहीनता, दूसरे के दोष निकालना, अमंगल-बुरा करना, अपवित्रता एवं असत्य वचन बोलना।

(17.16). आलस्य, विशेष रूप से क्रोध करना, सभी के प्रति आतताई बन जाना और घर में आग लगाने वाला।

(17.17). परस्त्री की कामना, सत्य के प्रति ईर्ष्या, निन्दित एवं उदण्ड व्यवहार।

(17.18). देव ऋण, ऋषिऋण, प्राणियों के ग्रहण-विशेषत :- मनुष्यों एवं पित्तरों का ऋण, सभी वर्णो को एक समझना, ॐ औंकार  के उच्चारण में उपेक्षा भाव रखना, पापकर्मों को करना, मछली खाना तथा अगम्या स्त्री से संगत; महापाप हैं।

(17.19). तेल-घृत बेचना, चाण्डाल से दान लेना अपना दोष छिपना और दूसरे का उजागर करना घोर पाप हैं।

(17.20). दूसरे का उत्कर्ष देखकर जलना, कड़वी बात बोलना, निर्दयता, भयंकरता और अधर्मिकता। [वामन पुराण]

SINS are divided into three categories :-

(17.01). PHYSICAL :: The abuse is carried out physically by torture, murder, beating-thrashing, assault, tying, inflicting pain by harming bodily, overpowering.

(17.02). VOCAL :: Speaking harsh words, insult, abusing, making fun, cutting jokes, rejection, mental agony-turpitude, harassment.

(17.03). MENTAL :: Thinking bad of others, desire for revenge, bad motives, desire for illicit relations, sensuality, passions, pride, ego, greed.

Any deed-action-maneuver, preformed with bad intentions to harm others, amounts to sin. Harming others whether intentional or without intention-chance-happening is sin. Penances, repentance, ascetics, prayers devotion to God, helping others-poor-downtrodden-elders-needy, pity on others, forgiving.

VICE (Devil, satanic, wicked, vicious, corrupt, villain, wretch, enemy) :: One is subjected-forced into the hells for thousands and thousands of years, become insect, worm, animal, tree on his release from the hells. The God provides him with an opportunity to improve by giving birth in human incarnation. This opportunity must be utilise for our own sack.

(17.1). Company of others women, wicked and too strict behaviour.

(17.2).  Stealing of fruits, roaming aimlessly with leisure, cutting-felling of trees.

(17.3). Acceptance of restricted goods, killing, beating, imprisoning, filing of false cases against for the sake of extracting money against the innocents.

(17.4). Destruction of community property and acting against the religious rules, scriptures, epics, code.

(17.5). Killing of people through ghostly-wretched actions, torture like-comparable to death, cheating with friends, relatives, well wishers, false promise, ignoring colleagues, friends, relatives, sitting nearby while sweets.

(17.6). Theft of vegetation-leaves-fruits-flowers, either vehicles or their components, keeping bonded labor, creating troubles-hindrances in the way of devotees busy in meditation asceticism.

(17.7). Contact-relations with the queen, action against the country and non payment of the state dues.

(17.8). To become greedy (bait, lure, to temp, to decoy, intense desire, avarice) for a person or thing,  to be greedy and to destroy the wealth-money earned through righteous-honest means.

(17.9). To expel a Brahmn (Pandit, scholar, learned, enlightened) from the country, snatching-looting his money-wealth-property, spoiling the money earned through righteous means-honest-pure means, envy-anguish with the relatives-friends.

(17.10).  Loss of decency, opposition with the descent people, murder of infants-kids, theft-stealing of scriptures, epics, holy, religious books, change-conversion from own religion and acting against the religion.

(17.11). Action against the Veds, Purans, Upnishads, breaking of treaties, destabilising from vehicle-seat-couch, duality in behaviour, equanimity with the political thoughts-ideas-philosophy.

(17.12). Rivalry-enmity with the descent people-gentle men, lack of virtues-manners, lack of ethics, attachment to bad deeds-vices-wickedness-devilish.

(17.13). Loss of religiosity, money-wealth-finances-budget, loss of good thoughts-ideas, prohibiting in the attainment of Liberty-Salvation-The Ultimate-Almighty.

(17.14). Miserliness, lack of religiosity, one to be rejected-expelled from family-society and the one who ignites fire to others possessions.

(17.15). Imprudence, finding faults with others, doing bad, impurity and speaking untrue-slur.

(17.16). Laziness, furore-being angry-anguish, becoming tyrant to all, burning homes-houses-inhabitants-huts-tents.

(17.17). Desire for someone else’s wife-abduction-forcefully or otherwise luring others women, enmity for truth, bad insensitive abnormal behaviour.

(17.18). All sorts of debt pertaining to elders, ancestors-failure to pay debt-debt servicing, considering all castes to be equal, keeping anti opinion-negligence-rejection-opposition against the pronunciation of Om-Omkar, ॐ,  the primordial sound created at the time of evolution, eating fish, sex with impure-wretched women are extreme sins.

(17.19). Selling of oil-ghee, accepting of donations-charity from a Chandal-one who performs last rites in cremation ground-extremely low caste person who lives away from the periphery of civilians-cities, hiding of own faults and exposing others are the ulterior sins.

(17.20). To envy others rise, always speaking the bitter, lack of pity, to act terribly like a monster-fearsome-terrible-dangerous-desolate.

Prayers, donations-charity, fasting, bathing in pious rivers, ponds, lakes on auspicious occasions-festivals, visiting holy places-holy rivers, helping poor-downtrodden-weaker sections of society, participation in religious activities, chanting, recitation, singing, celebrating, remembering of God’s names on auspicious occasions, meditation, asceticism, thinking-analysing God’s deeds are some of the actions which helps in getting rid from sins. sins carry the sinners to rigorous hells. On being released from them the soul goes to the species like insects-worms-animals.

(18). मत्सरी Envious, jealous, hostility :: Envy, jealousy, hostility leads to unnecessary desires and competitions. One indulge in acquisitions, which makes his bond-attachments strong with the world , making it difficult for him to relinquish it and attain liberation.

(19). प्रमाद Intoxication, frenzy :: One who attain power-worldly acquisitions generally become intoxicated. Those who never had it before, are plagued by this disease. They start thinking that they are above law and rest of the people, leading to their downfall. The sooner they rise the earlier the fall from grace.

(20). निंदा Blame, censure, scorn, abuse, defamation, slander, criticism, blasphemy, scolding, reproach, scorn :: Always avoid these things as far as possible. They only lead to displeasure-discomfort-disharmony and spoiled relations. Never blame or censure those in power, since these people are revengeful and harm one at the first opportunity, specially in today’s climate.

(21). त्रष्णा Thirst-desires-longing :: Satisfaction-contentment is essential if you want to live peacefully. Desires have no limit. As soon as one desire is met the other comes forward.

(22). अहंकार, दंभ, दर्प, अभिमान Egotism, pride, arrogance :: Those who considered themselves to be powerful and above all, are no more with us. One can not become God, how so ever mighty he be.

(23). भोग Pleasure, gratification, enjoyment, suffering :: Pleasure leads to formation of ties with the world which may result in sin and suffering. Pleasure and pain are the two sides of the same coin. Neutrality towards them makes one closer to the Almighty.

(24). कुमती Evil thoughts-ideas, plans, designs :: Think before you act. One who act without analysing the consequences of his deeds, leads to trouble, ultimately.

(25). विलास (Sensuous pleasure-flirting, luxurious life :: This leads to dissatisfaction from sex. Such people always suffer from venereal diseases, AIDS, black mail, disturbed family life. They loss their peace of mind.

(26). दंभ Pretence-hypocrisy, deceit, boasting, ostentation :: One who is not so mature-intelligent-wise-prudent will suffer from this defect. Never show off your acquisitions. Protect them for lean period-difficult times.

(27). निराशा Despair, disappointment, hopelessness :: Never dream that high which you may not be able to attain instantaneously. Gradual rise is good. Go up step by step. Wait for the opportunities to come and catch hold of them, as soon as they come. Always remember the God. Your present, accumulated and deeds in previous births will modify your destiny. Nothing is too difficult to attain. Try to attain the God-Moksh-Salvation.

(28). घृणा-द्वेष Hatred, aversion, enmity, spite :: It develops automatically when some one react-abuse-tease-tortures-troubles-scorn you without any valid reason. Its better you move away from the company of such people. Discard-avoid-repel them, away from you.

(29). अपशब्द Abuses :: Some people use abuses as a slang. Some do not miss an opportunity to abuse others. One must dissociate such people since he may also acquire this bad habit-evil. Always exercise restraint-control over the tongue.

(30). असत्य Falsehood, lies, fake, incorrect ::  A lie spoken to save protect the innocent is not a sin. Those who are in a habit of telling, lies invite troubles for themselves in one or the other form. In fact they reserve their berth in the hells.

(31). अधर्म Irreligiosity, unrighteousness, immorality, wickedness, sins, crime, guilt, impiety :: One who act against the humanity is irreligious. Visiting holy places, shrines, bathing in holy rivers, does not make you virtuous, pious, devoted to God.  Just by remaining away from criminality, anti social activities one may become religious. Scriptures have defined Varnashram Dharm for each and every one.

(32). कुटैव Bad habits, thought, ideas :: One loss his health, mental peace-harmony if  he indulge in bad company, habits. they are always harmful.

(33). कुविचार Kuvichar, bad-wicked ideas, negative thoughts :: Reading vulgar books, watching vulgar films, bad company moves one to thoughts, which will spoil his present and future births.

(34). कुसंगति Kusangati, evil, wretched, bad company :: It always add to ills, bad ideas, imprudence. No chance is left for reforming such people.

PRAYER प्रार्थना कामना DESIRE ::    

ॐ गंगणपतये  नम: ॐ गंगणपतये  नम: ॐ गंगणपतये  नम:

Om Ganganpatye Namh.      Om Ganganpatye Namh.        Om Ganganpatye Namh.

हे गणपति बाबा जी महाराज। हे गजानन, लम्बोदर, विनायक, विघ्न हर्ता, विघ्नेश्वेर, माता गौरी व भगवान शिव के पुत्र, रिद्धि-सिद्धि के स्वामी, भगवान कार्तिकेय के भाई व नंदिश्वेर के सहचर! मेरे शरीर, मन, आत्मा, प्राण, बुद्धि, वाणी, चित्त, ध्यान, चेतना, घर-मकान-परिवार, में तुम्हारा देवी-देवताओं, परम पिता-पर ब्रह्म परमेश्वर भगवान सदा शिव का, नित्य निवास हो, स्थाई हो।तुम्हारी कृपा से, मैं परम पिता पर ब्रह्म परमेश्वर भगवान सदाशिव में सदा सर्वदा-सदैव के लिए  स्थाई रूप से लीन और एकाकार हो जाऊँ।
O Ganpati! O Gajanan, Lamboder, Vinayak, Vighnhurta, Vighneshwer, the worthy son of mother Gauri and Bhagwan Shiv, the husband-master of Riddhi-Siddhi and the mighty brother of Bhagwan Kartikay and colleague of Nandishwer; kindly bless me that my Physique-body, Man (mood, innerself, mind  & heart), Atma, soul, Buddhi (intelligence, prudence, mind, brain), Chitt (reflections, thoughts, mood), understanding of mind, Dhyan (meditation, contemplation), memory-attention of mind, Chetna (consciousness, recollection), house-home, family-household members, becomes the permanent abode of Devi-Devta (deities), Param Pita Par Brahm Parmeshwar Bhagwan Sada Shiv.
Let me assimilate-merge in Param Pita Par Brahm Permashwer Bhagwan Sada Shiv forever, with your kindness and blessings.

MORNING PRAYER प्रातः स्मरण-आराधना ::

प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। 

प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम॥

हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! आप स्वप्रकाश स्वरूप-सर्वज्ञ, परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य से युक्त, प्राण और उदान के समान, सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न करने वाले हैं।आप भजनीय, सेवनीय, पुष्टिकर्त्ता हैं। आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता, अन्तर्यामी और प्रेरक, पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोग नाशक हैं। हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 7.41.1]

यह महर्षि वशिष्ठ द्वारा भगदेवता-ईश्वर से सभी रोगों से मुक्ति पाने की प्रार्थना है। इसके प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक पाठ करने से असाध्य से भी असाध्य रोग दूर हो जाते हैं और दीर्घायु प्राप्त होती है।

Hey Almighty! YOU bear (inbuilt) aura, all knowing, possess & grants ultimate comforts-bliss, support Pran Vayu-life sustaining force in us, creator of Sun & Moon, has to be prayed by us-devotees. YOU maintain-nurture your devotees, Ved & the Universe, punishes the sinners & eliminates all diseases-illness. We pray to YOU in the morning.

प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता।

आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह॥

हे ईश्वर! आप जयशील, ऐश्वर्य के दाता, तेजस्वी, ज्ञानस्वरूप, अन्तरिक्ष के पुत्र-रूप सूर्य को उत्पन्न कर्ता, सूर्यादि लोकों को धारण करने वाले हैं। आप सभी को जानते वाले, दुष्टों को दण्डित करने वाले हैं। मैं आपकी स्तुति (प्रार्थना, उपासना) करता हूँ।[ऋग्वेद 7.41.2]

Hey Almighty! YOU grant victory, bliss-comforts, creator & supporter-nurturer of the Sun, sustains the universe, know everyone, punish the sinners & enlightens all. I pray to YOU.

भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगे मां धियमुदवा ददन्नः।

भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम॥

हे ईश्वर! आप भजनीय, सबके उत्पादक और सत्याचार में प्रेरक-सत्य धन को देने वाले, ऐश्वर्य देने वाले हैं। हमें प्रज्ञा का दान देकर हमारी रक्षा कीजिए, गाय, अश्व आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्य-श्री को उत्पन्न कीजिए। आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्य बनें, वीर बनें।[ऋग्वेद 7.41.3]

Hey Almighty! We worship YOU-who created all, leads us to divine virtues-truthfulness, grants all sorts of amenities, prudence-intelligence, enlightenment, wealth (cows, horses etc.) and to become excellent & brave humans.

उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अन्हाम्।

उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम॥

हे परम पूजित ईश्वर! आपकी कृपा से और अपने पुरुषार्थ से हम लोग प्रातःकाल में तथा दिनों के मध्य में उत्तमता प्राप्त करें और सूर्यास्त के  समय ऐश्वर्य से युक्त हों। हम लोग देवपुरुषों की उत्तम प्रज्ञा और सुमति में तथा उत्तम परामर्श में सदा रहें।[ऋग्वेद 7.41.4]

Hey Almighty! We should be enriched & powerful by way of our efforts & YOUR kindness during the morning, noon & the evening. We should be ready-inclined to attain prudence-enlightenment from the learned-enlightened.

भग एव भगवां अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम।

तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुरएता भवेह॥

हे जगदीश्वर! सज्जन पुरुष आपको सकल ऐश्वर्य सम्पन्न कहते हैं, आपकी प्रशंसा और गुणगान करते हैं। आप इस संसार में हमारे अग्रणी, आदर्श, शुभ कर्मों में प्रेरित करने वाले हों। आपके कृपा कटाक्ष से हम विद्वत्व, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होकर, सब संसार के उपकार में तन, मन, धन से प्रवृत्त होयें।[ऋग्वेद 7.41.5]

Hey Almighty! The virtuous, righteous, pious, truthful call YOU the Ultimate Bliss-comfort and praise YOU. YOU should be our idol-role model & direct us to pious-virtuous deeds. By virtue of YOUR kindness-blessings, we should become enlightened, attain all sorts of amenities and serve the humanity with our body, mind and wealth.

MORNING PRAYERS प्रातः स्मरण ::

प्रात: कर-दर्शनम् ::

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

पृथ्वी क्षमा प्रार्थना ::

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण ::

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

स्नान मन्त्र ::

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।

नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

सूर्य नमस्कार ::

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।

दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम् 

सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

ॐ मित्राय नम:। ॐ रवये नम:। ॐ सूर्याय नम:। 

ॐ भानवे नम:। ॐ खगाय नम:

ॐ पूष्णे नम:। ॐ हिरण्यगर्भाय नम:। ॐ मरीचये नम:। ॐ आदित्याय नम:

ॐ सवित्रे नम:। ॐ अर्काय नम:। ॐ भास्कराय नम:। 

ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर। 

दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

संध्या दीप दर्शन ::

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।

शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।

दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

गणपति स्तोत्र ::

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:। 

द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥

विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।

द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥

विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय। लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥

नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय। गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं। प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

आदिशक्ति वंदना ::

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥

शिव स्तुति ::

कर्पूर गौरम करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।

सदा वसंतं हृदयार विन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि॥

विष्णु स्तुति ::

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं 

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् 

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

श्री कृष्ण स्तुति ::

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।

नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥

सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।

गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्। 

यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥

श्रीराम वंदना ::

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।

कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

श्रीरामाष्टक ::

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।

गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।

बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥

एक श्लोकी रामायण ::

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।

वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।

पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

सरस्वती वंदना ::

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।

या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।

सा माम पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्याऽपहा॥

हनुमान वंदना ::

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्।

दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्।

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

स्वस्ति-वाचन ::

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

शांति पाठ :: 

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:, 

पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,

सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:। 

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