MANTROPCHAR (1) DIVINE CURE मंत्रोपचार

MANTROPCHAR (1) DIVINE CURE
मंत्रोपचार

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

 ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

Mantr (मन्त्र) are Sanskrat stanzas-rhymes which have special effect on us and the environment. These always bring peace, prosperity and wellness to all. If recited with the proper pronunciation a Shlok-Mantr can perform miracles. Scriptures have described specific Mantr which can cure diseases which are declared incurable. There are Mantr for healing, relief, mental peace, harmony, control of diseases, famine, floods, rains, soothing effect over the environment, repulsion of evil etc.
These are the coded verses which opens the power centres hidden in an individual to over his troubles, tensions, problems, provide performed with care, austerity, devotions with proper procedure under the supervision of some trained, qualified priest, Don’t link it with religion, if one wish to seek his welfare and blessings.

One, desirous of having intelligence, wisdom, knowledge, Riddhi, Siddhi and fulfilment of all desires, should pray, meditate Ganesh Ji Maha Raj respectfully, with faith, concentration and devotion. One often comes across difficulties in life, due to the deeds of present or previous lives. Ganpati is the incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu (God), who is worshipped  before one starts with the prayers, auspicious occasion,  new venture, marriage, construction of house or else. Om Ganganpatye Namah (or Om Ganganpatye Swaha) is the Mantr, recitation of which regularly 108 or 1008 times, clear, removes all hurdles in the way of auspicious-pious deeds, ventures or the deeds undertaken by the devotee. One must fresh himself, under take to have only vegetarian meals, no smoking, alcohol, drugs, narcotics, observe fast and recite this Mantr, facing east in the morning and north in the evening with concentration and asceticism.

Recitation of  any of these Mantr 5,00,000 times or more, ascertain success in the desired field.

Procedure-Methodology :: The devotee should sit comfortably over cushion, mattress (Munj-Chatai), skin of black deer, with crossed legs, in front of the image (photograph, picture, sketch), statue of the deity having placed a Lota, Kalsh filled with water, made up of copper, brass, silver, gold or earthen. Dhoop, Agarbatti-incense sticks, should be ignited and suitably placed in front by the desirous. One should be clad in washed cloths. Flow of fast air should be avoided. These performances should be avoided in  high speed wind, typhoon, cyclone. Extreme care should be taken to pronounce the Shlok, Mantr correctly, with rhythm. One should adhere to asceticism. The water in the Kalsh may be added with Ganga Jal, milk, honey, sugar, Tulsi leaves, pure ghee, curd, Kapoor-camphor etc. Help of learned Brahman Priest  may be obtained. Jal in the Kalsh has to be poured, offered to Sury Bhagwan in the morning. A Tulsi plant may be placed in east direction with a Shiv ling in it, for offering water.
Caution :: Recitation of these Mantr with evil designs, ulterior motives, yield negative results and is counter productive.

गणपति सिद्ध मंत्र :: गणेश  महाराज के सिद्ध मंत्र  लम्बोदर के प्रमुख चतुर्वर्ण हैं। सर्वत्र पूज्य सिंदूर वर्ण के हैं। इनका स्वरूप व फल सभी प्रकार के शुभ व मंगल भक्तों को प्रदान करने वाला है। नीलवर्ण उच्छिष्ट गणपति का रूप तांत्रिक क्रिया से संबंधित है। शांति और पुष्टि के लिए श्वेत वर्ण गणपति की आराधना करना चाहिए। शत्रु के नाश व विघ्नों को रोकने के लिए हरिद्रा गणपति की आराधना की जाती है।

गणपतिजी का बीज मंत्र “गं” है। इनसे युक्त मंत्र :- “ॐ गं गणपतये नमः” का जप करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।

षडाक्षर मंत्र ::

“ॐ वक्रतुंडाय हुम्‌”

आर्थिक प्रगति व समृद्धि के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

उच्छिष्ट गणपति मंत्र ::

“ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा”

किसी के द्वारा अनिष्ट के लिए की गई क्रिया को नष्ट करने के लिए, विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए उच्छिष्ट गणपति की साधना करना चाहिए। इनका जप करते समय मुँह में गुड़, लौंग, इलायची, पताशा, ताम्बुल, सुपारी होना चाहिए। यह साधना अक्षय भंडार प्रदान करने वाली है। इसमें पवित्रता-अपवित्रता का विशेष बंधन नहीं है।

विघ्नराज आराधना मंत्र ::

“गं क्षिप्रप्रसादनाय नम:”

आलस्य, निराशा, कलह, विघ्न दूर करने के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

हेरम्ब गणपति मंत्र ::

“ॐ गं नमः”

विघ्न को दूर करके धन व आत्मबल की प्राप्ति के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

लक्ष्मी विनायक मंत्र ::

“ॐ श्रीं गं सौभ्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं में वशमानय स्वाहा”

रोजगार की प्राप्ति व आर्थिक वृद्धि के लिए उपरोक्त मत्रं का प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

विवाह में आने वाले दोषों को दूर करने वालों को त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप करने से शीघ्र विवाह व विवाह में आने वाले दोषों को दूर करने, शीघ्र विवाह व अनुकूल जीवनसाथी की प्राप्ति के लिये निम्न त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप प्रतिदिन नहा धोकर 108 बार सस्वर जप करें।

त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र :: 

“ॐ वक्रतुण्डैक दंष्ट्राय क्लीं ह्रीं श्रीं गं गणपते वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा”

इन मंत्रों के अतिरिक्त गणपति अथर्वशीर्ष, संकटनाशन गणेश स्तोत्र, गणेशकवच, संतान गणपति स्तोत्र, ऋणहर्ता गणपति स्तोत्र, मयूरेश स्तोत्र, गणेश चालीसा का पाठ करने से गणेश जी महाराज की कृपा प्राप्त होती है।

ॐ गं गणपत्ये नम:। ॐ गं गणपत्ये स्वाहा:।

Om Gan Ganpatye Namh.  Om Gan Ganpatye Swaha.

ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसम्स्प्रभः।

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

Vakr Tund Maha Kay Sury Koti Sam Prabah, Nir Vighnam Kuru Me Dev Sarv Karyeshu Savda.
Hey Bhagwan Ganesh, bearing large body, the curved trunk, who shines like a million suns, may you always make my work free from obstacles.
गणपति मंत्र GANPATI MANTR ::

ॐ गं गणपत्ये नम:। Om Gan Ganpatye Nameh.

ॐ गं गणपत्ये स्वाहा:। Om Gan Ganpatye Swaha.

वक़तुण्ड महाकाय कोटि सूर्य समप्रभा: निर्विघ्नं कुरुमेदेव सर्वाकार्येसु सर्वदा। Vakr Tund Mahakay Koti Sury Samprabh: Nirvighnam Kuru May Dev Sarv  Karyeshu Sarvda.

गजाननं  भूतगणादि  सेवितं, कपिथ्य जम्बू फल चारू भक्षणम्।

उमासुतं शोक विनाश कारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥

Gajanan Bhoot Ganadi Sawitam, Kapithy Jumboo Fal Charu Bhakshnam,

Umasutam Shok Vinash Karakam Namami Vighneshwer Pad Pankjam.

This is recited before starting any auspicious work to avoid obstacles.

गणेश्वरकल्प मन्त्र ::

ॐ गाँ गीं गूँ गैं गौं ग:।

नया मकान खरीदना :: निम्न मंत्रों से युक्त विघ्नहर्ता भगवान गणपति की प्रतिमा घर में स्थापित करने से आर्थिक तंगी-परेशानी, कलह, विघ्न, अशांति, क्लेश, तनाव, मन-मुटाव, बच्चों में अशांति, मानसिक संताप आदि का नाश होता है।
(1). बीज मंत्र “गं” का जप करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है, (2). षडाक्षर मंत्र “ॐ गं गणपतये नमः” का जप आर्थिक प्रगति व समृद्धि प्रदायक है, (3). ॐ श्री विघ्नेश्वार्य नम:, (4). ऊं श्री गणेशाय नम:, (5). निर्हन्याय नमः। अविनाय नमः।
गणपति की प्रतिमा के साथ श्रीपतये नमः, रत्नसिंहासनाय नमः, ममिकुंडलमंडिताय नमः, महालक्ष्मी प्रियतमाय नमः, सिद्घ लक्ष्मी मनोरप्राय नमः लक्षाधीश प्रियाय नमः, कोटिधीश्वराय नमः जैसे मंत्रों का सम्पुट होता है। गणपति की मूर्ति की पीठ दक्षिण दिशा में रखें।

MORNING-EVENING SANDHYA PRAYERS :: Following three Mantr are recited in the morning, as a part of prayers to seek the blessings of the Almighty to get the desired.

(1). Twmev Mata Ch Pita Twmev, Twmev Bandhusch Sakha Twmev;
Twmev Vidyasch Dravinam Twamev, Twamev Sarwam Mam Dev Dev.
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्याश्च द्रविनम त्वमेव ,त्वमेव सर्वं मम देव देव॥

(2). Kragre Vaste Lakshmi: Karmule Saraswati. Kar Madhyetu Govindh Prabhate Kardarshnam.

कराग्रे वस्ते लक्ष्मी: करमूले सरस्वती। 
कर मध्येतु गोविन्द :प्रभाते कर दर्शनम॥

शान्ति मन्त्र:: 

ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥

ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनां त्वा निधीपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥

ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।

ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥

स्वस्ति-वाचन आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। 

देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे॥ 

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्। 

देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥ 

तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। 

अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥ 

तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः। 

तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥ 

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्। 

पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥ 

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः। 

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ 

पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः। 

अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥ 

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। 

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ 

शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम। 

पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥ 

अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। 

विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम॥[ऋक॰1.89.1-10]

कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है, अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है।

द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥[यजुर्वेद 36.17]

 यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु। 

शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः  

सुशान्तिर्भवतु। 

ग्रह शांति के लिये नाम के अनुरूप मंत्र :: अपने नाम के प्रथम अक्षर से राशि को देखना चाहिये।

 राशि  नामाक्षर  मंत्र
मेष चू चे चो ला ली लू ले लो अ ॐ ऐं क्लीं सोः
 वृषभ  इ उ ए ओ वा वी वू वे वो ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मिथुन का की कू घ ङ छ के को हा  ॐ क्लीं ऐं सोः
कर्क  ही हू हे हो डा डी डू डे डो ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 सिंह मा मी मू मे मो टा टी टू टे ॐ ह्रीं श्रीं सोः
कन्या टो पा पी पू ष ण ठ पे पो ॐ क्लीं ऐं सोः
तुला रा री रू रे रो ता ती तू ते ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 वृश्चिक तो ना नी नू ने नो या यी यू ॐ ऐं क्लीं सोः
धनु ये यो भा भी भू धा फा ढा भे ॐ ह्रीं क्लीं सोः
 मकर भो जा जी खी खू खे खो गा गी ॐ ऐं क्लीं श्रीं
कुंभ गू गे गो सा सी सू से सौ दा ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मीन दी दू थ झ ञ दे दो चा ची ॐ ह्रीं क्लीं सोः

नवग्रह शान्ति मंत्र NAV GRAH SHANTI MANTR :: सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति चाहता है तो उसे नीचे लिखे नवग्रह मंत्रों का जाप करने से हर तरह की परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

सूर्य मंत्र :: “ऊँ घृणि सूर्याय नम:”।

चन्द्र मंत्र :: “ऊँ सों सोमाय नम:”।

मंगल मंत्र :: “ऊँ अंगारकाय नम:”।

बुध मंत्र :: “ऊँ बुं बुधाय नम:”।

गुरु मंत्र :: “ऊँ बृं बृहस्पत्ये नम:”।

शुक्र मंत्र :: “ऊँ शुं शुक्राय नम:”।

शनि मंत्र :: “ऊँ शं शनैश्चराय नम:”।

राहु मंत्र :: “ऊँ रां राहवे नम:”।

राहु मंत्र :: “ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:”

नवग्रह शान्ति बीज मंत्र :: ब्रह्मा मुरारी  त्रिपुरांतकारी भानु शशि भूमिसुतो बुधश्च गुरुश्च शुक्र: शनि राहु केतव:, सर्वे ग्रहा शान्ति करा भवन्तु।
Brahma Murari Tripurantkari Bhanu Shashi Bhumi Suto Budhshcha Gurushcha Shukr Shani Rahu Ketvh,  Sarve Graha Shanti Kara Bhawntu.Let Brahma, Vishnu (Murari) and Shiv (Tri Pu Rant Kari), the Sun (Bhanu), the Moon (Shashi), Mars (Bhumi Sut the son of earth), Buddh, Guru (teacher) Shukr, Shani and Ketu make the morning auspicious for me.

This is recited in the morning to make the day auspicious and fruitful.  

SHANTI MANTR शान्ति मंत्र ::

ॐ द्यौ: शांति अंतरिक्ष शांति पृथिवी शांति आपः शांति औषधय: शांति वनस्पतय: शांति विश्र्वेदेवा शांति सर्व शांति ब्रह्म शांतिरेव शांति  सामा शांति शान्तिरेधि: विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव। ॐ शांति: शांति: शांति: ॐ॥

Om Dhyo Shanti,  Antriksh Shanti,  Prathvi Shanti,  Apah Shanti,  Oushadhay Shanti, Vanaspaty Shanti,  Vishve Deva Shanti, Sarv Shanti, Shanti Rev Shanti,  Sa Ma Shanti Redhi, Vishwani Dev Sviturduritani Prasuv. Yad Bhadrantann Asuv.  Om Shanti Shanti Shanti Om.

हे परमात्मा स्वरुप शांति कीजिये, वायु में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, हे परमपिता परमेश्वर शांति हो, शांति हो, शांति हो।

Let the Almighty bless the mankind with peace (solace & tranquillity). Let the space be quite, the earth be quite. The air, water, medicines, the universe, demigods-deities, the creator-Brahm be quite. All of use be at peace. the God be quite. Let the entire world enjoy a congenital (mutually beneficial) environment. All of us should live happily.::

One who is suffering from mental tensions, agony, failure in endeavours, ill health, troubled married life, should recite this Mantr, every day 108 times.

For protection from death recite the following Mantr 108 times after taking bath facing North, East of North-East ::

मृत्यु-रोग, शांति-मन्त्र :: 

ॐ ह्रूमं हं स:।

मृत संजीवनी मन्त्र ::

 ॐ हं स: हूं हूं स:,
ॐ  ह: सौ:,
ॐ हूं स:,
ॐ जूं स:,
ॐ जूं स: वषट। 

महामृत्युंजय मन्त्र ::

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। 
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥ 

कूष्माण्ड मंत्र ::

कूष्माण्डैर्वापि जुहुयाद् घृतमग्नौ यथाविधि। 
उदित्यृचा वा वारुण्या तृचेनाब्दैवतेन वा॥[मनु स्मृति 8.106]

कृष्माण्ड मंत्रों से यथाविधि अग्नि में घृत से हवन करे। “किंया उदुत्तमं” इस वरुण मन्त्र से जल देवता की तीन ऋचाओं से हवन करे।

“ॐ कूष्माण्डायै नम:” का जाप मृत्युभय दूर करने के लिये किया जाता है। महामृत्युंजय मंत्र में उर्वारिक शब्द तोरी, घीया, खीरे जैसी वनस्पतियों के लिये आया है। इसका जाप करने से रोग, शोक, जरा-मृत्युभय दूर होता है।

One should recite “Krashmand Mantr” while offering holy sacrifices in holy fire. “Kinya Uduttamam” is a rhyme devoted to Varun Dev-deity of water, which has to be recited trice while performing Yagy, Hawan, Agnihotr-holy sacrifices in fire.

Kushmand Mantrs reduces the fear of diseases, ageing, sorrow-pain and death. Kushmand is a word used for gourds in Maha Mratunjay Mantr devoted to Bhagwan Shiv i.e., Maha Kal.

कूष्माण्ड :: gourd, cucurbit

राशि का मूल मंत्र :: धन, यश और समृद्धि लिये अपनी राशि के अनुकूल मंत्र का जाप करें। सामान्य सहज भाव से स्नान के पश्चात पूजा गृह या घर में शुद्ध स्थान का चयन कर प्रतिदिन धूप-दीप के पश्चात ऊन या कुशासन पर बैठें एवं अपनी शक्ति अनुरूप एक, तीन या पाँच माला का जाप करें।

मेष ॐ ऐं क्लीं सौं:
 वृषभ  ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 मिथुन  ॐ क्लीं ऐं सौं:
 कर्क  ॐ ऐं क्लीं श्रीं
 सिंह  ॐ ह्रीं श्रीं सौं:
 कन्या  ॐ श्रीं ऐं सौं:
 तुला  ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं
 वृश्चिक  ॐ ऐं क्लीं सौं:
 धनु  ॐ ह्रीं क्लीं सौं:
 मकर  ॐ ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं सौं:
 कुंभ  ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं
 मीन  ॐ ह्रीं क्लीं सौं:

SANDHYA-EVENING PRAYER ::

शुभं कुरुत्वं कल्याणं आरोग्यं धनसंपदः।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिनमोऽस्तु ते॥

दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योति जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

भो दीप ब्रह्मारूपस्त्वं ज्योतिषां प्रभुरव्ययः।
आरोग्यं देहि पुत्रांश्च मतिं स्वच्छां हि मे सदा॥

स्वेरस्तं समारभ्य यावत्सूर्योदयो भवेत्।
यस्य तिष्ठेद्गृहे दीपस्तस्य नास्ति दरिद्रता॥

Shubham Kurutvam Kalyanam Arogyam Dhan Sampdah, Shatru Buddhi Vinashay Deep Jyoti Namo Astu Te.

Deep Jyotih Par Brahm Deep Jyoti Janardnah, Deepo Hartu Me Papam Sandhya Deep Namo Astu Te.

Bho Deep Brahma Rupstwam, Jyotisham Prabhurvyyh Arogyam Dehi Putranshch Matim Swachchham Hi Me Sada.

Swerastam Samarbhay Yavatsuryodayo Bhavet, Yasy Tishthedgrahe Deepstasy Nasti Daridrta.

SANDHYA MANTR :: This is recited while lighting a candle (दीप, Deep) in the evening.

ॐ ऐं वाग्देव्यै च विद्महे कामराजाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदया।

ॐ नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि;

सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते।

ॐ काली काली महाकाली पाप नाशिनी;

काली कराली निष्क्रान्ते कालिके तवन्नामोSस्तुते।
For purification of body, mind and soul, eternal peace, solace and tranquillity and attainment of Salvation, recitation of these Mantr is helpful:
(1).  ॐ नम: शिवाय। Om Namah Shivay.
(2). ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।  Om Namo Bhagwate Vasudevay.
(3). कर्पूर गौरं करुणावतारम्, संसारसारं भुजगेंद्र हारम।
सदा बसंतम्  ह्र्द्यारविन्दे, भवम्  भवानी सहितम् नमामि॥
Karpur Gouram Karunavtaram, Sansarsaram Bhujgendr Haram;
Sada Basantam Hradyarvinde, Bhawam Bhawami Sahitam Namami.
(4). मंगलम्  भगवान  विष्णु, मंगलम् गरुड़ ध्वज।
मंगलम् पुंड्रिरिकाक्ष, मंगलाय तनु  हरि:॥
Manglam Bhagwan Vishnu, Manglam Garud Dhwaj,
Manglam Pundrikaksh, Manglay Tanu Hari.
(5). शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं;

विश्र्वाधारं गगन सदॄशमं मेघ वर्णं शुभांगम।
लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभिर्ध्यान गम्यं;

वंदे विष्णु भवभयहरं सर्व लोकैकनाथं॥
Shantakaram Bhujagshaynam Padmnabham Suresham,
Vishwadharam Gagan Sdrasham Megh Varnam Shubhangam.
Laxmi Kantam Kamal Nayanam Yogibhirdhyan Gamyam,
Vande Vishnu Bhavbhayharam Sarvloknatham.
(6). सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वादी साधिके।

शरण्ये त्रिअम्बिके गौरी नारायणी  नमोस्तुते॥
Sarv Mangal Mangalye Shive Sarvadi Sadhike,
Sharanye Triambike Gauri Narayani Namostute.

गायत्री मन्त्र ::

पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्। 

पश्चिमां तु समासीन: सम्यगृक्षविभावनात्॥[मनु स्मृति 2.101]

प्रातः संध्या में पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होकर सूर्य दर्शन पर्यन्त सावित्री का जप करे। संध्याकालीन संध्या में पश्चिम की ओर मुँह करके बैठ कर जब तक तारे न दिखाई पड़ें तब तक गायत्री का जप करे।

One should stand facing east in the morning and recite the Savitri Mantr till the Sun rises and in the evening he should sit facing west and recite the Gayatri Mantr till the stars-constellations  appear.

This process begins quite early in the morning in the Brahm Muhurt, around 4 AM during summers and 6 AM during winters.

पूर्वां संध्यां जपन्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति। 

पश्चिमां तु समासीनो मलं  हन्ति दिवाकृतम्॥[मनु स्मृति 2.102]

प्रातः संध्या में खड़े होकर (गायत्री) जप करने वाला रात के पाप को नष्ट करता है और साँय-सँध्या के समय बैठकर जप करने वाला दिन के पाप को नष्ट करता है।

Recitation of the Gayatri Mantr in the morning while standing removes the sins-guilt committed at night, while the recitation of the Mantr while sting in the evening removes the sins of the day.

अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। 

सावित्रीमप्यधीयीत  गत्वाSरण्यं समाहितः॥[मनु स्मृति 2.104]

निर्जन स्थान में जल के समीप जाकर अपनी नित्य क्रियाओं को कर, स्थिर चित्त होकर, गायत्री का जप करना चाहिए।

One should move to an isolate place near a water body, pond, lake, river & perform the daily routine of freshness and then he should recite the Gayatri Mantr with full concentration-devotion.

ॐ भुर्भुवः स्वः तत्सोवितुवरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्॥

Om Bhur Bhuvah Svah Tat Savitur Varenyam; Bhargo Devasy Dhee Mahi Dhiyo Yonah Prachodyat.

O God! YOU are the giver of life, the remover of pain and sorrow, the bestower of happiness; O Creator of the Universe!, may we receive YOUR supreme, sin destroying light; may YOU guide our intellect in the right direction.

Reciting or listening this Mantr, 3 to 108 times in early morning is extremely beneficial.

ब्रह्मा गायत्री BRAHMA GAYATRI ::

ॐ चतुर्मुखाय  विद्महे, हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्।

Om Chaturmukhay Vidhmahe, Hansarudhay Dhimahi, Tenno Brahma Prechodyat.

विष्णु गायत्री VISHNU GAYATRI ::

ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।

Om Naraynay Vidmahe, Vasudevay Dheemahi Tenno Vishnuh Prechodyat.

रूद्र गायत्री RUDR GAYATRI ::

ॐ  पंच वाक्याय विद्महे, महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।

Om Punch Vakyay Vidhmahe, Mahadevay Dhimahi Tenno Rudrah Prechodyat.

श्री दुर्गा गायत्री SHRI DURGA GAYATRI ::

ऊँ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारि धीमहि तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात्॥

महामृत्युंजय साधना :: प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम् अर्थात् ज्योतिष प्रत्यक्ष शास्त्र है। फलित ज्योतिष में महादशा एवं अन्तर्दशा का बड़ा महत्व है। वृहत्पाराशर होराशास्त्र में अनेकानेक दशाओं का वर्णन है। आजकल विंशोत्तरी दशा का प्रचलन है। मारकेश ग्रहों की दशा एवं अन्तर्दशा में महामृत्युंजय प्रयोग फलदायी है।
जन्म, मास, गोचर, अष्टक आदि में ग्रहजन्य पीड़ा के योग, मेलापक में नाड़ी के योग, मेलापक में नाड़ी दोष की स्थिति, शनि की साढ़ेसाती, अढय्या शनि, पनौती (पंचम शनि), राहु-केतु, पीड़ा, भाई का वियोग, मृत्युतुल्य विविध कष्ट, असाध्य रोग, त्रिदोषजन्य महारोग, अपमृत्युभय आदि अनिष्टकारी योगों में महामृत्युंजय प्रयोग रामबाण औषधि है।
शनि की महादशा में शनि तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, केतु में केतु तथा गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, रवि की महादशा में रवि की अनिष्टकारी अंतर्दशा, चन्द्र की महादशा में बृहस्पति, शनि, केतु, शुक तथा सूर्य की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, राहु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, शुक्र की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अन्तर्दशा, गुरु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अंतर्दशा, बुध की महादशा में मंगल-गुरु तथा शनि की अनिष्टकारी अन्तर्दशा आदि इस प्रकार मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा में सविधि मृत्युंजय जप, रुद्राभिषेक एवं शिवार्जन से ग्रहजन्य एवं रोगजन्य अनिष्टकारी बाधाएँ शीघ्र नष्ट होकर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त अनिष्टकारी योगों के साथ ही अभीष्ट सिद्धि, पुत्र प्राप्ति, राजपद प्राप्ति, चुनाव में विजयी होने, मान-सम्मान, धन लाभ, महामारी आदि विभिन्न उपद्रवों, असाध्य एवं त्रिदोषजन्य महारोगादि विभिन्न प्रयोजनों में सविधि प्रमाण सहित महामृत्युंजय जप से मनोकामना पूर्ण होती है।
विभिन्न प्रयोजनों में अनिष्टता के मान से 1 करोड़ 24 लाख, सवा लाख, दस हजार या एक हजार महामृत्युंजय जप करने का विधान उपलब्ध होता है। मंत्र दिखने में जरूर छोटा दिखाई देता है, किन्तु प्रभाव में अत्यंत चमत्कारी है।
देवता मंत्रों के अधीन होते हैं- मंत्रधीनास्तु देवताः। मंत्रों से देवता प्रसन्न होते हैं। मंत्र से अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों का नाश होता है तथा सिद्धियों की प्राप्ति भी होती है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता एवं निरुवतादि मंत्र शास्त्रीय ग्रंथों में त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। उक्त मंत्र मृत्युंजय मंत्र के नाम से प्रसिद्ध है।
शिवपुराण में सतीखण्ड में इस मंत्र को ‘सर्वोत्तम’ महामंत्र’ की संज्ञान से विभूषित किया गया है- मृत संजीवनी मंत्रों मम सर्वोत्तम स्मृतः। इस मंत्र को शुक्राचार्य द्वारा आराधित ‘मृतसंजीवनी विद्या’ के नाम से भी जाना जाता है। नारायणणोपनिषद् एवं मंत्र सार में- मृत्युर्विनिर्जितो यस्मात तस्मान्यमृत्युंजय स्मतः अर्थात् मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के कारण इन मंत्र योगों को ‘मृत्युंजय’ कहा जाता है। सामान्यतः मंत्र तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, तांत्रिक, एवं शाबरी। इनमें वैदिक मंत्र शीघ्र फल देने वाले त्र्यम्बक मंत्र भी वैदिक मंत्र हैं।
मृत्युंजय जप, प्रकार एवं प्रयोगविधि का मंत्र महोदधि, मंत्र महार्णव, शारदातिक, मृत्युंजय कल्प एवं तांत्र, तंत्रसार, पुराण आदि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में विशिष्टता से उल्लेख है। मृत्युंजय मंत्र तीन प्रकार के हैं- पहला मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र। पहला मंत्र तीन व्यह्यति- भूर्भुवः स्वः से सम्पुटित होने के कारण मृत्युंजय, दूसरा ॐ हौं जूं सः (त्रिबीज) और भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) से सम्पुटित होने के कारण ‘मृतसंजीवनी’ तथा उपर्युक्त हौं जूं सः (त्रिबीज) तथा भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) के प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ में ॐ का सम्पुट लगाया जाता है। इसे ही शुक्राचार्य द्वारा आराधित महामृत्युंजय मंत्र कहा जाता है।
इस प्रकार वेदोक्त ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ मंत्र में ॐ सहित विविध सम्पुट लगने से उपर्युक्त मंत्रों की रचना हुई है।

उपर्युक्त तीन मंत्रों में मृतसंजीवनी मंत्र ::

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः ॐ सः जूं हौं ॐ।

यह मंत्र सर्वाधिक प्रचलित एवं फल देने वाला माना गया है। कुछ लघु मंत्र भी प्रयोग में आते हैं, जैसे-त्र्यक्षरी अर्थात तीन अक्षरों वाला ॐ जूं सः पंचाक्षरी ॐ हौं जूं सः ॐ तथा ॐ जूं सः पालय पालय आदि। ॐ हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ। हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ।
इस मंत्र के 11 लाख अथवा सवा लाख जप का मृत्युंजय कवच यंत्र के साथ जप करने का विधान भी है। यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखकर पुरुष के दाहिने तथा स्त्री के बाएँ हाथ पर बाँधने से असाध्य रोगों से मुक्ति होती है। सर्वप्रथम यंत्र की सविधि विभिन्न पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना करना चाहिए, पूजा में विशेष रूप से आंकड़े, एवं धतूरे का फूल, केसरयुक्त, चंदन, बिल्वपत्र एवं बिल्वफल, भांग एवं जायफल का नैवेद्य आदि।
मंत्र जप के पश्चात् सविधि हवन, तर्पण एवं मार्जन करना चाहिए। मंत्र प्रयोग विधि सुयोग्य वैदिक विद्वान आचार्य के आचार्यत्व या मार्गदर्शन में सविधि सम्पन्न हो तभी यथेष्ठ की प्राप्ति होती है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने की आशंका हो सकती है।
जप विधि में साधक को नित्यकर्म से निवृत्त हो आचमन-प्राणायाम के साथ मस्तक पर केसरयुक्त चंदन के साथ रुद्राक्ष माला धारण कर प्रयोग प्रारंभ करना चाहिए। प्रयोग विधि में मृत्युंजय देवता के सम्मुख पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर शरीर शुद्धि कर संकल्प करने का विधान प्रमुख है। संकल्प के साथ विनियोग न्यास एवं ध्यान जप विधि के प्रमुख अंग हैं। मृत्युंजय महादेवों त्राहिमाम् शरणामम्। जन्म-मृत्यु जरारोगैः पीड़ितम् कर्मबंधनैः के ध्यान के साथ जप निवेदन करना चाहिए। अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों से मुक्ति की यह रामबाण महौषधि है।

Recitation or listening of this Mantr, 3 to 108 times in early morning is highly beneficial. This Mantr protects one along with his family, friends, relatives, elders, from accidents and misfortunes of all kinds and has great curative effect over diseases declared incurable.

व्याधि-बीमारी-रोग, संकट, कष्ट, मृत्यु का आभास होने पर मनुष्य को इस मन्त्र का पूरी लग्न-निष्ठां-ईमानदारी के साथ श्रवण, मनन, पाठ करना चाहिए। इसके जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। स्वयं के लिए निम्न मन्त्रों का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा।

(1). एकाक्षरी मंत्र :-

हौं। 

(2). त्र्यक्षरी मंत्र :-

ॐ जूं सः। 

(3). चतुराक्षरी मंत्र :-

ॐ वं जूं सः। 

(4). नवाक्षरी  मंत्र :-

ॐ जूं सः पालय पालय। 

(5). दशाक्षरी (10) मंत्र :-

ॐ जूं सः मां पालय पालय।

तांत्रिक बीजोक्त मंत्र :: महामृत्युंजय मन्त्र के अलग-अलग रुप हैं। अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी मंत्र का चुनाव करके नियमित रूप से इन मंत्रों का पाठ करना चाहिये। यह मन्त्र महर्षि वशिष्ठ ने हमें प्रदान किया। आचार्य शौनक ने ऋग्विधान में इस मन्त्र का वर्णन किया है। नियम पूर्वक व्रत तथा इस मंत्र द्वारा पायस (खीर, pudding) के हवन से दीर्घ आयु प्राप्त होती है, मृत्यु दूर  है तथा प्रकार सुख प्राप्त होता है। इस मंत्र  के अधिष्ठाता भगवान् शिव हैं। वेदोक्त महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है :-

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥[ऋग्वेद 7.59.12]

सुगन्ध युक्त, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव समस्त प्राणियों को भरण-पोषण, पालन-पोषण करने वाले, हमें संसार सागर (मृत्यु-अज्ञान) से उसी प्रकार बन्धन मुक्त करें, जिस प्रकार खीरा अथवा ककड़ी पककर बेल से अलग हो जाती है।

I worship Bhagwan Shiv the three-eyed Supreme deity, who is full of fragrance and who nourishes all beings; may He liberate me from the death (of ignorance), for the sake of immortality (of knowledge and truth), just as the ripe cucumber is severed from its bondage (the creeper).

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या ::

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ॥

महामृत्युंजय मंत्र :: 

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ॥

MAHA MRATUNJAY MANTR OTHER FORM ::

ॐ मृतुंज्याय महादेवाय नमोस्तुते।

Om Mratunjayay Maha Devay Namostute.

भगवान् शिव को अति प्रसन्न करने वाला मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र। जन साधारण की धारणा है कि इसके जाप से व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती परंतु यह पूरी तरह सही अर्थ नहीं है। महामृत्युंजय का अर्थ है महामृत्यु पर विजय अर्थात् व्यक्ति की बार-बार मृत्यु ना हो। वह मोक्ष को प्राप्त हो जाए। उसका शरीर स्वस्थ हो, धन एवं मान की वृद्धि तथा वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाए। शिव पुराण में भी महामृत्युंजय मंत्र की महिमा के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी मंत्र के लगातार जाप से कई असाध्य रोगों से भी लाभ पहुंचता है। महामृत्युंजय मेंत्र के पहले तथा बाद उसके बीज मंत्र “ॐ हौं जूँ स:” का उच्चारण आवश्यक माना गया है। जिस तरह बिना बीज के जीवन उत्पन्न नहीं होता है उसी तरह बिना बीज मंत्र के महामृत्युंजय मंत्र फलित नहीं होता है। जो पूरे मंत्र का जाप नहीं सकते वे केवल बीज मंत्र के सतत जाप से सभी अभिष्ट फल प्राप्त कर सकते हैं।महामृत्युंजय मंत्र का एक लाख जाप करने पर शरीर की शुद्धि होती है। दो लाख जाप करने पर पूर्वजन्म का स्मरण होता है। तीन लाख जाप करने पर इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाती है। चार लाख जाप करने पर स्वप्न में भगवान् शिव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। पांच लाख जाप करने पर भगवान् शिव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। दस लाख जाप करने पर संपूर्ण फल की सिद्धि होती है। मंत्र जाप आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से पूर्ण पवित्र होकर करें। जो असहाय बीमार हो वह कैसी भी अवस्था में लेटे-बैठे, बगैर स्नान किए, किसी भी समय, किसी भी उम्र में बीज मंत्रों का जाप कर सकते हैं। उन्हें भगवान् शिव की कृपा से निरोगता प्राप्त होगी।

शिवाराधना से चन्द्रमा और शनि दोनों मजबूत और निरापद होते हैं। निराकार रूप में भगवान् शिव शिवलिंग रूप में पूजे जाते हैं। शिवपुराण में कहा गया है कि साकार और निराकार दोनों ही रूपों में शिव जी की पूजा कल्याणकारी होती है, लेकिन शिवलिंग की पूजा करना अधिक उत्तम है। भगवान् शिव के अतिरिक्त अन्य कोई भी देवता साक्षात् ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं। संसार भगवान्  शिव के ब्रह्मस्वरूप को जान सके इसलिए ही भगवान शिव ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट हुए और शिवलिंग के रूप में इनकी पूजा होती है। भगवान् शिव को जगत पिता हैं। वही सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म भी हैं। शिव’ का अर्थ है, कल्याणकारी, लिंग का अर्थ है :- सृजन अतः भगवान् सर्जनहार हैं। उत्पादक शक्ति के चिन्ह के रूप में लिंग की पूजा होती है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं।

विधि-विधान :: (1). रोजाना सुबह शिव मंदिर जायें और शिवलिंग पर चावल चढ़ायें। शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से घर में कभी भी धन की कमी नहीं होती।

(2).  रोजाना रात के समय शिव मंदिर जाएं और दीप दान करें। ऐसा करने वाले व्यक्ति के जीवन में कभी भी धन का अभाव नहीं होता।

(3). मंत्र कामनापूर्ति का श्रेष्ठ साधन हैं। पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके किया गया मंत्र जाप धन, वैभव व ऐश्वर्य की कामना को पूरी करता है।

रूद्राक्ष की माला लेकर अपनी इच्छा अनुसार शिव मंत्र का जाप करें : –

मन्दारमालाङ्कुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥

श्री अखण्डानन्दबोधाय शोकसन्तापहारिणे।

सच्चिदानन्दस्वरूपाय शंकराय नमो नम:॥

(4). जन-धन हानि हो रही हो तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें :-

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥

(5).  सोमवार के दिन भगवान शिव जी को पंजीरी का भोग लगाएं।
सावधानियाँ :- महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम कल्याणकारी-फलदायी है। अनिष्ट निवारण हेतु जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :-
(1). जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
(2). एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
(3). मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
(4). जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
(5). रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
(6). माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
(7). जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
(8). महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
(9). जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
(10). महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
(11). जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
(12). जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
(13). जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
(14). मिथ्या बातें न करें।
(15). जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
(16). जपकाल में मद्य-नशा-मांसाहार त्याग दें।
शिवाराधना से चन्द्रमा और शनि दोनों मजबूत और निरापद होते हैं। निराकार रूप में भगवान शिव शिवलिंग रूप में पूजे जाते हैं।शिवपुराण में कहा गया है कि साकार और निराकार दोनों ही रूपों में शिव जी की पूजा कल्याणकारी होती है, लेकिन शिवलिंग की पूजा करना अधिक उत्तम है। शिव जी के अतिरिक्त अन्य कोई भी देवता साक्षात् ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं। संसार भगवान शिव के ब्रह्मस्वरूप को जान सके इसलिए ही भगवान शिव ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट हुए और शिवलिंग के रूप में इनकी पूजा होती है।भगवान् शिव को जगत पिता हैं। वही सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म भी हैं। शिव’ का अर्थ है – कल्याणकारी, लिंग का अर्थ है :- सृजन अतः भगवान् सर्जनहार हैं।उत्पादक शक्ति के चिन्ह के रूप में लिंग की पूजा होती है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं।
विधि-विधान :: (1). रोजाना सुबह शिव मंदिर जाएं और शिवलिंग पर चावल चढ़ाएं। शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से घर में कभी भी धन की कमी नहीं होती।
(2).  रोजाना रात के समय शिव मंदिर जाएं और दीप दान करें। ऐसा करने वाले व्यक्ति के जीवन में कभी भी धन का अभाव नहीं होता।
(3). मंत्र कामनापूर्ति का श्रेष्ठ साधन हैं। पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके किया गया मंत्र जाप धन, वैभव व ऐश्वर्य की कामना को पूरी करता है।
रूद्राक्ष की माला लेकर अपनी इच्छा अनुसार शिव मंत्र का जाप करें : –

मन्दारमालाङ्कुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय॥

श्री अखण्डानन्दबोधाय शोकसन्तापहारिणे।

सच्चिदानन्दस्वरूपाय शंकराय नमो नम:॥

(4).  जन-धन हानि हो रही हो तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें ::

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥

(5).  सोमवार के दिन भगवान शिव जी को पंजीरी का भोग लगाएं।
कुशाग्र बुद्धि हेतु शिव मंत्र द्वारा आराधना ::

याते रुद्रशिवातनूरघोरा पापकाशिनी।
तयानस्तन्नवाशन्त मयागिरी शंताभिचाकशीहि॥

भगवान शिव के इस मंत्र को जप करने के लिए पूर्व दिशा या काशी की तरफ मुख कर, आसन पर बैठकर जाप करें। इस  मंत्र का जाप प्रत्येक दिन 108 बार करने से बुद्धि कुशाग्र हो जाती है और  गृहक्लेशों का निवारण होता है। मंत्र को जपते समय भगवान शिव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। विद्यार्थियों के लिए यह श्लोक बहुत लाभ प्रद है। मन्त्र सिद्धि की लिए इसका 5,00,000 जप विधि विधान से करें।

SARASWAT MANTR ::

This Mantr is helpful to those who wish to be blessed with education, knowledge  and enlightenment.

 Om aim namah. ॐ ऐं नम:। 

सोने की सलाई से या कुशा की जड़ से गंगा-जल द्वारा अभिमंत्रित, अष्टमी या चतुर्दशी के दिन छात्र-बच्चे की जीभ पर ऐं’बीज लिखें व 5,00,000 बार शांत भाव से सस्वर उच्चारण करें।

सारस्वत मन्त्र: “ॐ ह्रां ऐं ह्रीं सरस्वतयै नमः” का जाप 5,00,000 बार विधि-विधान के साथ करें।

हंसारुढा भगवती मां सरस्वती का ध्यान कर मानस-पूजा पूर्वक इस मन्त्र का 108 बार जप करें :-

ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः।

सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा॥

Saraswati Namas Tubhyam Varde Kam Rupini;

Vidyarambham Karishyami Siddhirbhvtu Me Sada.

O Goddess Saraswati, I bow down humbly before you, the bestow-er of all wishes; As I commence my studies, may there be success for ever. Note: This is recited to salute Goddess Saraswati before starting studies.

 या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्र वस्त्रावृता। 

या वीणा वर दण्ड मण्डितकरा या श्वेत पद्मासना॥

या ब्रह्माच्युत सङ्कर प्रभृतिभिः देवैः सदा वन्दिता। 

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा॥

Ya Kundendu Tushar Har Dhavla Ya Shubhr Vastra Vrta;

Ya Veena Var Dand Manditkara Ya Shvet Padmasana.

Ya Brahmachyut Sankar Prabhr Tibhih Devaeh  Sada Vandita;

Sa Maan Patu Sarasvati Bhagvati Nihi Shesh Jadyapha.

Hey Maan  Saraswati, pure and radiant as the full moon and frost, wearing a garland of jasmine flowers, in your white robes, seated on lotus throne; with the Veena on your lap; O one who is worshipped by Brahma, Vishnu and Maheshwar (Shiv), may you bless and protect me and remove the laziness and sloth in me.

This is recited while worshipping Maa Saraswati.

SHAKTI MANTR ::

Tantrik/Beej (बीजमंत्र) :: This is a form of prayer, performed by the Tantrik. Those who recite this Mantr with good intentions, are blessed with might and power.

Om Aim Hreem Kleem Chamunday Vichchae Phat Swaha.

ॐ  ऐं  ह्रीं  क्लीं चामुंडाय  विच्चै  फट  स्वाहा:।

DURGA SAPT SHATI ::

Durge Smreta Harsi Bheetim shesh Janto, Swesthe Smreta Matimateew Shubham Dadasi.

Daridry Dukh Bhayharini Ka Tvdanya, Serwopkar Kernay Sdardr Chitta.

दुर्गे स्मृता  हरसि भीतिम शेष जन्तो, स्वस्थे: स्मृतामतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्र्य दुःख भयहारिणी का त्वदन्या, सर्वोपकार  करणाय सदार्द्र चित्ता॥ 

LAKSHMI MANTR :: भौतिक सुख के लिये लक्ष्मी मन्त्र :-

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये महे प्रसीदा प्रसीदा स्वाहा॥

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मेय नमः॥

किसी भी मन्त्र को कमलगट्टे की माला से हर गुरुवार को 5 माला जपे। इससे घर की आर्थिक परिस्थिती में सुधार होने लगता है।
Laxmi is the Shakti of Bhagwan Vishnu, who nurtures this universe. Desirous of worldly comforts and pleasures, people worship mother Laxmi on Deepawali, new ventures and the beginning of new business.

Om Shreem Hreem Kleem Aim Kamal Vasiney Phat Swaha.

ओम श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमल वासिन्ये फट स्वाहा:। 

आर्थिक संकट से मुक्त होने के लिए  ऋग्वेद के इस मंत्र का जप करें ::

“ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मादभ्रं भूर्या भर। भूरि धेदिन्द्र दित्ससि।

ॐ भूरि दाह्यसि श्रुतः पुरुजा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

हे लक्ष्मीपते! आप दानी हैं, साधारण दानदाता ही नहीं बहुत बड़े दानी हैं। आप्तजनों से सुना है कि संसारभर से निराश होकर जो याचक आपसे प्रार्थना करता है, उसकी पुकार सुनकर उसे आप आर्थिक कष्टों से मुक्त कर देते हैं-उसकी झोली भर देते हैं। हे भगवान्! मुझे इस अर्थ संकट से उबार दें।
LAKSHMI VANDNA ::

महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वेरि।

हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधि॥

Maha Laxmi Namstubhayam Namstubhayam Sureshrewari,

Hari Priye Namstubhayam Namstubhayam Dayanidhi.

KUBER MANTR कुबेर मन्त्र :: दीपावली की रात में लक्ष्मी और कुबेर देव का पूजन करें और इस मंत्र का जाप 108 बार करें।

ऊँ यक्षाय कुबेराय वैश्रववाय, धन-धान्यधिपतये धन-धान्य समृद्धि मम देहि दापय स्वाहा।

महालक्ष्मी के पूजन में गोमती चक्र भी रखना चाहिए। गोमती चक्र भी घर में धन संबंधी लाभ दिलाता है। दीपावली पर तेल का दीपक जलाएं और दीपक में एक लौंग डालकर हनुमान जी की आरती करें। किसी हनुमान जी के मंदिर में जाकर ऐसा दीपक भी लगा सकते हैं।

LAKSHMI (wealth) & SARASWATI (Education)

Laxmi, Lajje, Maha Viddye Sherddhe, 

Pushti Swedhye Dhruve;

Maha Ratri Maha Viddye Narayani Namostute.

 लक्ष्मी, लज्जे, महाविद्दे श्रद्दे, पुष्टि स्वधे ध्रुवे।

 महारात्रि महाविद्द्ये   नारायणि नमोस्तुते॥ 

DAKHNINA MANTR :: For timely, good, harmonious marriage this Mantr is purposeful.

Om  Shreem Hreem Kleem Dakshinayae Phat Swaha. 

  ॐ श्रीं  ह्रीं  क्लीं  दक्षिणायै  फट स्वाहा:। 

SURY (रवि) MANTR :: The devotees of Bhagwan Sury Narayan are blessed with success, riches, name, fame, health and vigour. One should recite the Mantr every day, in the morning, after becoming fresh and pour water towards the Sun, such that the Lota-pot-vessel,  carrying water is slightly over the head. The water may be allowed to run into Tulsi Plant kept in the open. The day assigned to specific Pooja and Archna is Sunday.

Om Suryay Namo Namah. ॐ सूर्याय नमो: नम:।  

Om Suryay Namah. ॐ सूर्याय नम:। 

   Om Adityay Namo Namah. ॐ आदित्याय नम:। 

                  Om Jyotir Aditay Phat Swaha. ॐ ज्योतिर आदित्य फट स्वाहा:। 

             Om Bhaskray Namah. ॐ भास्कराय नम:। 

 Om Bhanuve Namah.  ॐ भानुवे नम:। 

 Om Khakhol Kay Namah. ॐ  खखोलकाय नम:।    

 Om Khakhol Kay Swaha.  ॐ  खखोलकाय स्वाहा:।

Om Vyam Phat. ॐ व्यं फट।

Om Hram Hreem Sah: Phat Swaha. ॐ  ह्रां  ह्रीं   स: फट स्वाहा:।

Om Hram Hreem Sheh Suryay Namah. ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम:।

SURY GAYATRI MANTR ::

Om Adityay Vidmahe Bhaskray Dheemahi Tanno  Bhanuh Prachodyat.

आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुह: प्रचोदयात्।

साध्य सूर्य मन्त्र :: ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः। ॐ घृणि सूर्याय नमः।  

SOM MANTR :: Som (सोम-Moon) Mantr is devoted to Moon. Moon is the lord of Brahmns and the vegetation-herbs (Medicinal Plants). He nourishes all medicinal plants herbs. He is associated with travel and love. Those who wish to have good mental & physical health may pray to him. The day assigned is Monday. He is  a component of Brahma Ji and controls the Man, Mood, psyche, wisdom. For special-specific prayers visit Som Nath temple in Gujrat.

Om Somay Namo Nameh. ॐ सोमाय नमो: नम:।

MANGAL (मंगल-Mars) MANTR ::

This Mantr is meant to seek the blessings of Mangal-the red planet Mars which was created by the sweat of Bhagwan Shiv, which fell on earth.Those who are Mangli, must recite this Mantr, to seek protection from the bad omens associated with this sign lord.This plane creates all sorts of hurdles in the life of some people. Recitation of Hanuman Chalisa on Tuesdays is helpful to great extent.

Om Bhomay Namo Namah.  ॐ भोमाय नमो: नम।  

                   BUDDH MANTR

Buddh  (बुद्ध-Mercury) is the son of Moon from Tara-the wife of Dev Guru Vrahspati. This planet is closest to the Sun and is worshiped for success in trade, business, sciences, new inventions, techniques, innovations, new designs etc. on Wednesday. This day is assigned for Ganpati-Ganesh ji’s prayers as well.

ॐ सोमात्मज्याय नमो: नम:। 

Om Somatmjyay Namo Nameh.

GURU VRAHASPATI (गुरू वृहस्पति) :: Jupiter is the largest-gaseous planet in our Solar system. He is the teacher, philosopher and guide of Demigods, and most revered person in the Heaven. For harmony in family and cordial relations, one has to observe fast on Thursday, wear yellow cloths, donate yellow goods and eatables. Bhagwan Shiv is  the Maha Guru.  Guru Vandna is recited to pay salutation to teacher  (गुरु, guru) in the evening.

“ॐ गुं गुरूभ्यो नम:”। Om Gun Gurubhyo Namah.

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

Gurur Brahma, Gurur Vishnuh, Gurur Devo Maheshwarah;

Gurur Sakshat Param Brahm, Tasmae Shri Gurve Nameh.

My salutation to my teacher, who to me are Brahma, Vishnu and Maheshwar, the Ultimate Par Brahm, the Supreme reality.

SHUKR DEV :: Shukr (शुक्र-Venus) is the shining planet, which is closest to the earth. It affects the weather on earth, along with moon and Shishumar Chakr-constituted of 4 stars. Dhruv-the Pole Star is located at the tail of Shishumar Chakr-the embodiment of Bhagwan Vishnu. Sun revolves round Dhruv. It provides health, vigour  potency and success in arts and literary fields. Wear white cloths and observe fast on Friday.

ॐ शुक्राय नमो: नमः।

Om Shukray Namo Namah.

मृत सञ्जीवनी विद्या ::

ॐ हौं जूँ स:। ॐ भूर्भुव: स्व:। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं। ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम। ॐ भर्गो देवस्य धीमहि। ॐ उर्वारुकमिव बन्धनाद। ॐ धियो यो न प्रचोदयात। ॐ मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात। ॐ स्व: भुव: भू:। ॐ स: जूँ ह्रौं ॐ।

असुरों के गुरु शुक्राचार्य द्वारा इसका अभ्यास किया गया। सभी प्रकार के रोग-शोक निवारण के लिये इसका विधि-विधान पूर्वक अभ्यास करें।

सर्वरोग नाशक प्रातः स्मरण-आराधना :: यह महर्षि वशिष्ठ द्वारा भगदेवता-ईश्वर से सभी रोगों से मुक्ति पाने की प्रार्थना है। इसके प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक पाठ करने से असाध्य से भी असाध्य रोग दूर हो जाते हैं और दीर्घायु प्राप्त होती है।

प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। 

प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम॥

हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! आप स्वप्रकाश स्वरूप-सर्वज्ञ, परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य से युक्त, प्राण और उदान के समान, सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न करने वाले हैं।आप भजनीय, सेवनीय, पुष्टिकर्त्ता हैं। आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता, अन्तर्यामी और प्रेरक, पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोग नाशक हैं। हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं।[ऋग्वेद 7.41.1]

Hey Almighty! YOU bear (inbuilt) aura, all knowing, possess & grants ultimate comforts-bliss, support Pran Vayu-life sustaining force in us, creator of Sun & Moon, has to be prayed by us-devotees. YOU maintain-nurture your devotees, Ved & the Universe, punishes the sinners & eliminates all diseases-illness. We pray to YOU in the morning.

SHANI DEV-SATURN (शनि देव) :: It is the ringed planet, which is most feared and considered to be dreaded and cruel  by nature. If one is facing tough time, difficulties, obstructions in life, money losses, weak constitution, poor health, thin pale body, he must pray to Shani. People wear blue clothes and observe fast on Saturdays, for protection from its ill effects. They donate mustered oil, glow/light earthen lamp, with mustard oil, below the Peepal tree near its root.  People wear iron ring in their Saturn finger to avoid ill effects of Shani. It provides Bhakti, might and wealth.

ॐ शनैश्वराय  नमो नम:। Om Shaneshwray Namo Namah.

शनि गायत्री मन्त्र ::

ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न सौरि प्रचोदयात।

शनि पौराणिक मन्त्र ::

ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनये नम:। ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनैश्चराय नमः॥    

 काल सर्प योग 

Protection from Snakes/Nag/Serpents. Recitation of these Mantr is useful.

 

Om Kurukulle Phat Swaha.  ॐ कुरुकुल्ले फट स्वाहा:|

 Om Nagar Phat Swaha.  ॐ नगर  फट स्वाहा:|

Om Narmdaye Nameh. Prater Narmdaye Namo Nishi,

Namo Astu Narmdye Trahimam Vishsarpt:.

ॐ  नर्मदायै नम:. प्रातर्नर्मदायै  नमो निशि। नमोअस्तु नर्मदे तुभं त्राहि मां विश्सर्पत:॥ 

Om Namo Bhagwate Neel Kanthay.

ॐ नमो भगवते नील कंठाय।

कालसर्प योग के दोष निवारण :- इस कार्य हेतु ताँबे का एक बड़ा सर्प शिवलिंग को अर्पित करें अथवा चांदी के नाग नागिन का जोड़ा समर्पित करें। नव नाग स्तोत्र तथा सर्प गायत्री मंत्र का उच्चारण करें।
नवनाग स्तोत्र :- अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलं, शन्खपालं ध्रूतराष्ट्रं च तक्षकं, कालियं तथा एतानि नव नामानि नागानाम च, महात्मनं सायमकाले पठेन्नीत्यं प्रातक्काले विशेषतः तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेतll
NAVNAG STROT :: Anant Vasukim Shesham Padmnabham Ch Kambalam, Shankhpalm Dhratrashtram  Ch Takshakm Kaliyam Tatha, Atani Nav Namani Naganam Ch Mahatmanm,Sayamkale Pathennityam Pratahkale Visheshtah Tasy Vishbhyam Nasti Sarwatr Vijyee Bhavet.
नाग गायत्री मंत्र :- ॐ नव कुलाय विध्महे विषदन्ताय धी माहि तन्नो सर्प प्रचोदयात।
NAG GAYATRI MANTR :: Om Nav Kulay Vidhmahe Vishdantay Dhee Mahi Tanno Sarp Prachodyat.

Protection from Ghosts, evil spirits 

Recitation of this Mantr and Hanuman Chalisa will help:

Om Shree Maha Anjnay Pawan Putravesh Veshey,

 Om Shree Hanumate Phat.

ॐ श्री महा अन्ज्नाये पवन पुत्रावेशवेशय। 

 ॐ श्री हनुमते फट॥ 

Shri Hanumat Vandna 

Atulit Bal Dhamam hem Shaella Bhadem, 

Dju Jwn Krashanu Gyani Namgr  Gamyam.

Sakal Gun Nidhanam Vrndhishm Vanrandhisham, 

Ragupati Pribhkram Vat Jatm Namami.

अतुलित बल धामं हेम शैला  भदेहं, दजु जवन  कृषानु  ज्ञानी नामग्र गम्यं।

सकल गुण निधानं वंरधिषम वानराधीशं, रघुपति प्रियभ्कृम्  वात  जातं नमामि॥ 

 Wish to have long life of son, recite this Mantr ::

ॐ नमोस्तुते कार्त्विर्याय।

Wish to avoid untimely/accidental  death, recite:

Akal Mrtyu-Hrnam Sarv Vyadhi-Vinashnam.               

Shri Ram Padodkam Peetva Punrjnm Na Vidhyte.

 अकाल मृत्यु-हरणं सर्व व्याधि-विनाशनम्। 

 श्री राम पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विध्यते॥ 

Shri Ram Vandna ::

Shri Ram Chandr Raghupungev Rajvry Rajendr Ram Raghu Nayak Raghvesh.

Rajadhiraj Raghunandan Ramchandr Dasoahmdy Bhawth Sarnagatoasmi.

श्री रामचन्द्र रघु पुंगव राज्वर्य राजेन्द्र राम रघु नायक राघवेश।

राजाधिराज रघुनन्दन रामचन्द्र दासोडहमद्द भवत: शरणागतोअस्मि॥ 

PREVENTION FROM  EPIDEMIC/PLAGUE ::

      Om Jayanti Mangla Kali Bhadr Kali Krapalini.               
Durga Kshama Shiva Dhatri Swaha Swedha Namostute.

 ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कृपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा  स्वधा नमोस्तुते॥ 

PREVENTION OF DISTRESS, DISASTER, ADVERSITY, MISFORTUNE ::

                                                   Sharnagat Deenatr Paritran Prayne;  

Sarw Syatimhre Devi Narayani Namostute.

   

 शरणागतदीनार्तपरीत्राण परायणे।

     सर्वस्यातिमंहरे देवी नारायणि नमोस्तुते।।  

PREVENTION FROM FEAR

                   Sarw-Sverupe Sarveshe Sarw Shakti Samnvite;                     

Bhyebhy strahi no Devi Durge Devi Namostute.. 

        सर्व-स्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।         

 भयेभ्यस्त्राहि  नो देवी दुर्गे देवि नमोस्तुते।।

           Prevention from Poverty, Pains and sorrow/grief

Durge Smrta Hersi Bheetim Sheshjnto. Swestheh Smrta Mtimteev Shubham Dadasi..

Daridry Dukh-Bhy Hrni Ka Tvdnya. Sarvopkarkrnay Sdardrchita..

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो । स्वेस्थे: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।।

दारिद्र्य दुःख-भय हारिणि  का त्वदन्या। सर्वोपकारकरणाय  सदार्द्रचिता  ।।

PREVENTION OF DISTRESS, DISASTER, ADVERSITY, MISFORTUNE OF THE ENTIRE  WORLD

Devi Prsann Tirhre Prsid Prsid Matrjgto Akhilsy.

 Prsid Vishveshwari Pahi Vishvm Tvmishwri Devi Chrachrsy..

देवि प्रसन्नतिर्हेरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतो   अखिलस्य।

 प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य।।

Mantr recited  for Good Night sound sleep before sleeping

Krshnay Vasudevay Hrye Prmatmne, Prnat Klesh Nashay Govinday Namo Namh..

कृष्णाय  वासुदेवाय हरये परमात्मने, 

प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नम:।

भैरवी कवच ::

भैरवी कवचस्यास्य सदाशिव ऋषि: स्मृत:; 

छंदोSनुष्टुब देवता च भैरवी भयनाशिनी। 
धर्मार्थ काम मोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित:; 

हसरैं मे शिर: पातु भैरवी भयनाशिनी। 
हसकलरीं नेत्रंच हसरौश्च ललाटकम् ; कुमारी सर्व्वगात्रे च वाराही उत्तरे तथा। 
पूर्व्वे च वैष्णवी देवी इंद्राणी मम दक्षिणे; दिग्विदिक्ष सर्व्वेत्रैवभैरवी सर्व्वेदावतु। 
इदं कवचमज्ञात्वा यो सिद्धिद्देवी भैरवीम; कल्पकोटिशतेनापि सिद्धिस्तस्य न जायते। 

Shri Brahm Vandna श्री ब्रह्म वन्दना 

Nameste Sate  Jagatkarnaay, Nameste Chite Serwlokashryay.

Namo Asdwet Ttway Mukti Prday, Namo Brahmne Vyapine Shashwtay.

नमस्ते सते ते जगत्कारणाम, नमस्ते चिते सर्व लोकाश्रयाय।

नमो अद्वेत तत्वाय मुक्ति प्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय ।।

Shri Krashn Vandna श्री कृष्ण वन्दना ::

Vsudev Sutam Devm Kans Chadur Mardnm, Devki Permanandm Kreshnm Vnde Jagatgurum.

वसुदेव सुतं देवं कंस  चाणूर मर्दनम्, देवकी परमानन्दं कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम।

Shuddhi Mantr  शुद्धि मंत्र ::

Om Apvitrh  Pavitro Va Sarwavsthangto Api Va.

Yh Smret Pundrikakshm S Wa Hyabhyantr Shuchih.

ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वाव स्थान्गतो अपि वा। 

य: स्मरेत  पुंडरीकाक्षं स वा ह्यभ्यन्तर: शुचि:॥   

प्रात: कर-दर्शनम् ::

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

पृथ्वी क्षमा प्रार्थना::

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण ::

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

स्नान मन्त्र ::

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

सूर्य नमस्कार ::

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।

दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्  सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

ॐ मित्राय नम:। ॐ रवये नम:। ॐ सूर्याय नम:। ॐ भानवे नम:। ॐ खगाय नम:। ॐ पूष्णे नम:। ॐ हिरण्यगर्भाय नम:। ॐ मरीचये नम:। ॐ आदित्याय नम:। ॐ सवित्रे नम:। ॐ अर्काय नम:। ॐ भास्कराय नम:। ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:।

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

दीप दर्शन ::

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

गणपति स्तोत्र ::

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।
द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥

विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।
द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥

विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय। लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥

नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय। गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं। प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

माता आदि शक्ति वंदना ::

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

भगवान् शिव स्तुति ::

कर्पूर गौरम करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।

सदा वसंतं हृदयार विन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि॥

भगवान्  श्री हरी विष्णु स्तुति ::

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

भगवान्  श्री कृष्ण स्तुति ::

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥

सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌॥

भगवान्  श्री राम वंदना ::

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

श्री रामाष्टक ::

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥

एक श्लोकी रामायण ::

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

सरस्वती वंदना ::

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। 

सा माम पातु सरस्वती भगवती  निःशेषजाड्याऽपहा॥

श्री हनुमान वंदना ::

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌। दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌। रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

स्वस्ति-वाचन ::

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

शाँति पाठ ::

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:, पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

शुद्धि मन्त्र ::

आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने।
सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः॥

स्नान आचमन आदि के बाद चाण्डाल आदि अपवित्र लोगों पर दृष्टि पड़े तो वह साध्य सूर्य का मन्त्र (उदुत्यं जातवेदसमीत्यादि) और यथाशक्ति पावमानी (पुनन्तु मां, इत्यादि) मन्त्र जपे।
If one happen to see a Chandal of some impure-unclean person, he should recite the Sadhy Sury Mantr and practice Pavmani Mantr with effort.

साध्य सूर्य मन्त्र :: ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः। ॐ घृणि सूर्याय नमः।

पावमानी मन्त्र ::

ॐ स्तूता मया वरदा वेद माता प्रचोदयंताम् पावमानी द्विजानाम् आयुः प्राणं प्रजाम् पशुं कीर्तिम् द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यम् द्वत्वा वृजत् ब्रह्मलोकं।  ततो नमस्कारं करोमि।

उच्चाटन मन्त्र ::

 (1). ॐ उल्लूकाना विद्वेषय फट स्वाहा:, (2). ॐ  क्षौं क्षौं भैरवाय स्वाहा:, (3). ॐ हृलीं ब्रह्मास्त्राये विद्यमने स्तम्भन धीमही तन्नो बगला प्रचोदयात।

आजचा मंत्र :: महामारी, स्वास्थ्य, भय दूर करने हेतु तथा  बुद्धि-ज्ञान प्राप्ति हेतु निम्न मंत्र  का जप प्रतिदिन शुद्ध होकर प्रातःकाल 108 बार करें :-

ॐ नमो भगवते सुदर्शन वासुदेवाय, धन्वंतराय अमृतकलश हस्ताय, सकला भय विनाशाय, सर्व रोग निवारणाय, त्रिलोक पठाय, त्रिलोक लोकनिथाये, ॐ श्री महाविष्णु स्वरूपा, ॐ श्री श्री ॐ औषधा चक्र नारायण स्वहा॥

अनावृष्टि दूर करने के उपाय ::

अनश्नतैतज्जप्तव्यं वृष्टिकामेन यन्त्रत:। 

पंचरात्रेSप्यतिक्रान्ते महतीं वृष्टिमाप्नुयात्॥[ऋग्विधान 2.327]

जल वृष्टि  :: निम्न दोनों मंत्रों से सत्तू और जल का ही सेवन करता हुआ, गुड़ तथा दूध में वेतस् की समिधाओं को भिगोकर हवन करे करें तो भगवान् सूर्य नारायण जल बरसाते हैं :-

“असौ यस्ताम्नो” तथा “असौ योSवसर्पति”

भूत-प्रेत से मुक्ति :: निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए सरसों के दाने अभिमन्त्रित करके आविष्ट पुरुष पर डालने से ब्रह्मराक्षस,भूत-प्रेत, पिशाचादि से मुक्ति प्राप्त होती है :-

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्। 

अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योSधराची: परा सुव॥[शुक्ल यजुर्वेद 16.5]

 बाल शान्ति ::

मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। 

मा नो वधी: पितरं मोत मातरं मा नः प्रिया स्तन्वो रूद्र रीरिष:॥

[शुक्ल यजुर्वेद 16.15]

इस मंत्र से तिल की 10,000 आहुति देने से बालक नीरोग रहता है तथा परिवार में शान्ति रहती है।

रोग नाशन :: 

नमः सिकत्याय च प्रवाह्याय च नमः कि ँ ्शिलाय च क्षयणाय च नमः कपर्दिने च पुलस्तये च नम इरिण्याय च प्रपथ्याय च॥

[शुक्ल यजुर्वेद 16.43]

इस मंत्र से 800 वार कलश स्थित जल को अभिमन्त्रित करके उससे रोगी का अभिषेक करें तो वह रोग मुक्त हो जाता है।

सर्वरोग निवारण ::

ॐ नमो भगवते महासुदर्शन वासुदेवाय धन्वंतराय अमृतकळश हस्ताय सकल भय विनाशाय सर्वरोग निवारणाय त्रिलोक पतये त्रिलोक निधये ॐ श्री महाविष्णू स्वरुप श्री धन्वंतरी स्वरुप ॐ श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नम:।

द्रव्य प्राप्ति :: 

नमो वः किरिकेभ्योo।[शुक्ल यजुर्वेद 16.46]

उपरोक्त मंत्र से तिल की 10,000 आहुति देने पर धन की प्राप्ति होती है।

PRAYERS FOR HUMAN WELFARE :: 

ऋग्वेद का आद्य मांगलिक संदेश ::

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ 

स्वयं आगे बढ़कर लोगों का हित करनेवाले, प्रकाशक, ऋतु के अनुसार यज्ञ करने तथा देवों को बुलाने वाले और रत्नों को धारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।

आद्य :: आदि, मूल; primitive, primordial.

I pray to the Agni-deity of fire, who illuminates all, performs Yagy as per the season (sowing crops, mating and performing all useful deeds), who invites the demigods-deities, bearing jewels-ornaments.

यजुर्वेद का आद्य मांगलिक संदेश ::

इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रापयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायस्व मध्य इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत माघश सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्याहि॥

(हे मानव!) सबको उत्पन्न करने वाला देव-सविता देव, तुझे अन्न-प्राप्ति के लिये प्रेरित करें। सबको उत्पन्न करने वाला देव तुझे बल-प्राप्ति के लिये प्रेरित करे। हे मनुष्यो! तुम प्राण हो। सबका सृजन करने वाला देव तुम सबको श्रेष्ठतम कर्म के लिये प्रेरित करे। हे मनुष्यो! बढ़ते जाओ। तुम सभी प्रजाओं का वध करने के अयोग्य हो।

तुम इन्द्र के लिये अपना भाग बढ़ाकर दो। तुम सन्तान युक्त, यज्ञ से रोग मुक्त और क्षय रोग रहित होओ। चोर तुम्हारा प्रभु न बने, पापी तुम्हारा स्वामी न बने। इस भूपति के निकट स्थिर रहो, अधिक सँख्या में प्रजा सम्पन्न हो, यज्ञ कर्ता के पशुओं की रक्षा करो।

Hey Humans! Savita Dev (read Almighty) who gave birth to all, should inspire-guide us to produce food grain. One-God who produces all, should inspire to acquire strength-power. Hey Humans! You are life force. The God who gave birth to all may inspire you to do excellent Karm-Deeds (endeavours). Keep on progressing. Let the God make you incompetent to destroy life-shun from violence.

You should increase the offering to Indr (Dev Raj-here Almighty, for the sake of charity, donations, human welfare). You should be blessed with progeny through the Yagy (production of life is also a form of Yagy.) and become free from illness & tuberculosis. The thief should not become your master-king. Stay with this land lord-the honest (virtuous, righteous, pious). More and more people should become rich-wealthy. Protect the one who performs the Yagy.

सामवेद का आद्य माङ्गलिक संदेश ::  

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि॥ 

 हे अग्ने! हवि-भक्षण करने के लिये तू आ, देवों को हवि देने के लिये जिसकी स्तुति की जाती है, ऐसा तू यज्ञ में ऋत्विज् होता हुआ आसन पर बैठ।

Hey Agni Dev! Please come and acquire the seat of Ritvij-the person making offerings to the demigods-deities.  Please eat the offerings to the demigods-deities for whom you act the mouth.

अथर्ववेद का आद्य माङ्गलिक संदेश :: 

शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः॥ 

दिव्य जल हमें सुख दे और इष्ट-प्राप्ति के लिये एवं पीने के लिये हो तथा हम पर शान्ति का स्रोत बहाये।

The divine water should grant us pleasure-comforts & should be meant as an offering to the Isht-the deity prayed by us and for drinking, in addition to showering solace, peace & tranquillity over us.

शरीर शुद्ध करने का मंत्र ::

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा

यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

अतिनिल घनश्यामं नलिनायतलोचनं

स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम॥

Contents of these blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission of the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR. 

गुप्त सप्तशती और कुञ्जिका स्तोत्र

गुप्त सप्तशती और कुञ्जिका स्तोत्र
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com  jagatgurusantosh.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com     santoshsuvichar.blogspot.com  santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com  santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नमः

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सात सौ मन्त्रों की “श्री दुर्गा सप्तशती”, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी गुप्त-सप्तशती का पाठ है। यह “गुप्त-सप्तशती” प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम :- प्रारम्भ में “कुञ्जिका-स्तोत्र”, उसके बाद “गुप्त-सप्तशती”, तदन्तर “स्तवन” का पाठ करें।
कुञ्जिका-स्तोत्र ::
पूर्व-पीठिका :-
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्। 
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्। 
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्। 
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति। 
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्॥ 4॥
अथ मंत्र ::
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा। 
इति मंत्रः। 
इस “कुञ्जिका-मन्त्र” का यहाँ दस बार जप करें। इसी प्रकार “स्तवन-पाठ” के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर “कुञ्जिका स्तोत्र” का पाठ करें।
कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ ::
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि। जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥ 
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥ 
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा। 
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा॥
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। 
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी। 
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥
मन्त्र ::
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, 
हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय,  त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा। 
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।
 म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये। 
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्। 
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्।
गुप्त-सप्तशती ::
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते॥1॥
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे॥
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते॥2॥
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते॥3॥
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते॥4॥
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे॥
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते॥5॥
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने॥
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते॥6॥
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते॥7॥
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते॥8॥
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री॥
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते॥9॥
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये॥
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि॥10॥
स्तवन ::
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥1॥
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥2॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥3॥
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥4॥
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥5॥
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन॥
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥6॥
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे॥
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥7॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते॥
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे॥8॥
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे॥9॥
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा॥
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते॥10॥
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा॥
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे॥11॥
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्॥
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्॥12॥
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा॥
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा॥13॥

Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.

महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र

 महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र

 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com 
 santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नमः। अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।

गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदनुते गिरिवर विंध्य शिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते। भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥1॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते। दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥2॥
अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रिय वासिनि हासरते शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृंग निजालय मध्यगते। मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥3॥
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।  निज भुज दण्ड निपातित खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥4॥
अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभृते चतुर विचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते।
दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत कृतांतमते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥5॥
अयि शरणागत वैरि वधूवर वीर वराभय दायकरे त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि शिरोधि कृतामल शूलकरे। 
दुमिदुमि तामर दुंदुभिनाद महो मुखरीकृत तिग्मकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥6॥
अयि निज हुँकृति मात्र निराकृत धूम्र विलोचन धूम्र शते समर विशोषित शोणित बीज समुद्भव शोणित बीज लते। शिव शिव शुंभ निशुंभ महाहव तर्पित भूत पिशाचरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥7॥
धनुरनु संग रणक्षणसंग परिस्फुर दंग नटत्कटके कनक पिशंग पृषत्क निषंग रसद्भट शृंग हतावटुके।
कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥8॥
जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते झण झण झिञ्जिमि झिंकृत नूपुर सिंजित मोहित भूतपते। नटित नटार्ध नटीनट नायक नाटित नाट्य सुगानरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥9॥
अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते।
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥10॥
सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरते विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते। सितकृत पुल्लिसमुल्ल सितारुण तल्लज पल्लव सल्ललिते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥11॥
अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते।
अयि सुद तीजन लालसमानस मोहन मन्मथ राजसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥12॥
कमल दलामल कोमल कांति कलाकलितामल भाललते सकल विलास कलानिलयक्रम केलि चलत्कल हंस कुले। अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल मौलिमिलद्भकुलालि कुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥13॥
कर मुरली रव वीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुमते मिलित पुलिन्द मनोहर गुञ्जित रंजितशैल निकुञ्जगते। निजगुण भूत महाशबरीगण सद्गुण संभृत केलितले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥14॥
कटितट पीत दुकूल विचित्र मयूखतिरस्कृत चंद्र रुचे प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुल सन्नख चंद्र रुचे। जित कनकाचल मौलिपदोर्जित निर्भर कुंजर कुंभकुचे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥15॥
विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते कृत सुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते। सुरथ समाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥16॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्। तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥17॥
कनकलसत्कल सिन्धु जलैरनु सिञ्चिनुते गुण रङ्गभुवं भजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम्। तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवं जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥18॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते किमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥19॥
अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासिरते। यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपाकुरुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥20॥
इति श्रीमहिषासुरमर्दिनि स्तोत्रं संपूर्णम्॥
Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.

श्री चण्डी ध्वज स्तोत्र

श्री चण्डी ध्वज स्तोत्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com 
santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
विनियोग :: 
अस्य श्री चण्डी-ध्वज स्तोत्र मन्त्रस्य मार्कण्डेय ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रां बीजं, श्रीं शक्तिः, श्रूं कीलकं मम वाञ्छितार्थ फल सिद्धयर्थे विनियोगः। 
अंगन्यास :: श्रां, श्रीं, श्रूं, श्रैं, श्रौं, श्रः से हृदयादिन्यास व करन्यास करें। 
मूल पाठ ::
ॐ श्रीं नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै भूत्त्यै नमो नमः। 
परमानन्दरुपिण्यै नित्यायै सततं नमः॥1॥ 
नमस्तेऽस्तु महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥2॥ 
रक्ष मां शरण्ये देवि धन-धान्य-प्रदायिनि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥3॥ 
नमस्तेऽस्तु महाकाली पर-ब्रह्म-स्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥4॥ 
नमस्तेऽस्तु महालक्ष्मी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥5॥
नमस्तेऽस्तु महासरस्वती परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥6॥ 
नमस्तेऽस्तु ब्राह्मी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥7॥ 
नमस्तेऽस्तु माहेश्वरी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥8॥ 
नमस्तेऽस्तु च कौमारी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥9॥ 
नमस्ते वैष्णवी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥10॥ 
नमस्तेऽस्तु च वाराही परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥11॥ 
नारसिंही नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥12॥
 नमो नमस्ते इन्द्राणी परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥13॥
नमो नमस्ते चामुण्डे परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥14॥
नमो नमस्ते नन्दायै परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥15॥ 
रक्तदन्ते नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥16॥
नमस्तेऽस्तु महादुर्गे परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥17॥
शाकम्भरी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥18॥
शिवदूति नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥19॥
नमस्ते भ्रामरी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥20॥ 
नमो नवग्रहरुपे परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥21॥
नवकूट महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥22॥
स्वर्णपूर्णे नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥23॥ 
श्रीसुन्दरी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥24॥
नमो भगवती देवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥25॥
 दिव्ययोगिनी नमस्ते परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥26॥
नमस्तेऽस्तु महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि। 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥27॥
नमो नमस्ते सावित्री परब्रह्मस्वरुपिणि।
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥28॥  
जयलक्ष्मी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि।
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥29॥ 
मोक्षलक्ष्मी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि।
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा॥30॥
चण्डीध्वजमिदं स्तोत्रं सर्वकामफलप्रदम्।
राजते सर्वजन्तूनां वशीकरण साधनम्॥31॥ 
 
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.

LALITA SAHASTRA NAM STROTR ललिता सहस्र नाम स्तोत्र

LALITA SAHASTRA NAM STROTR 

ललिता सहस्र नाम स्तोत्र

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नम:।

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
श्री विद्यां जगतां धात्रीं सर्गस्स्थि लयेश्वरीम्। 
अगस्त्य उवाच :-
अश्र्वानन महाबुद्धे सर्वशास्त्र विशारद।
कथितं ललितादेव्याश्चरितं परमाद्भुतम्॥
पूर्वं प्रादुर्भवो मातुस्ततः पट्टाभिषेचनम्। 
भण्डासुरवधवैव विस्तरेण त्वयोदितः॥
वर्णितः श्रीपुरं चापि महाविभवविस्तरम्। 
श्रीमत्पञ्चदशाक्षर्या महिमा वर्णिस्तथा॥ 
षोढान्यासादयो न्यासा न्यासखण्डे समीरिताः।
अन्तर्यागक्रमश्चैव बहियार्गक्रमस्तथा॥
महायागक्रमश्वैव पूजाखण्डे प्रकीर्तितः। 
पुरश्वरखण्डे तु जपलक्षणमीरितम्॥
होमखण्डे त्वया प्रोक्तो होमद्रव्यविधिक्रमः। 
चक्रराजस्य विद्यायाः श्रीदेव्या देशिकात्मनोः॥
रहस्यखण्डे तदात्म्य परस्परमुदीतिम्। 
स्तोत्रखण्डे बहुविधाः स्तुतयः परिकीर्तिताः॥
मन्त्रिणीदण्डिनीदेव्योः प्रोक्तो नामसहस्रके। 
न तु श्री ललितादेव्याः प्रोक्ते नामसहस्रकम्॥
तत्र मे संशयो जातो हयग्रीव दयानिधे। 
किं वा त्वया विस्मृतं तज्ज्ञात्त्वा वा समुपेक्षितम्॥
मम वा योग्यता नास्ति श्रोतुं नामसहस्रकम्। 
किमर्थं भवता नोक्तं तत्र मे कारणं वद॥
सूत उवाच :- 
इति पृष्टो हयग्रीवो मुनिना कुम्भजन्मना। 
प्रह्ष्टो वचनं प्राह तापसं कुम्भसंभवम्॥
श्री हयग्रीव उवाच :- 
ळोपामुद्रापतेऽगस्त्य सावधानमनाः शुणृः। 
नाम्नां सहस्र यन्नोक्तं कारणं तद्वदामि ते॥
रहस्यमिति मत्वाऽहं नोक्तवास्ते न चान्यथा। 
पुन्श्च पृच्छते भक्त्या तस्मात्त्ते वदाम्यहम्॥
ब्रूयाच्छिष्याय भक्ताय रहस्यमपि देशिकः। 
भवता न प्रदेयं स्यादभक्ताय कदाचन॥
न शठाय न दुष्टाय नाविश्वासाय कर्हिचित्। 
श्रीमातृभक्तियुक्ताय श्रीविद्याराजवेदिने॥
उपासकाय शुद्धाय देयं नामसहस्रकम्।
यानि नाम सहस्रणानि सद्यः सिद्धिप्रदानि वै॥
तन्त्रेषु ललितादेव्यास्तुते मुख्यमिदं मुने।
श्रीविद्यैव तु मन्त्राणां तत्र कादिर्यथा परा॥
पुराणां श्रिरपुरमिव शक्तिनां ललिता यथा।
श्रीविद्योपासकानां च यथा देवो परः शिवः॥
तथा नाम सहस्रेषु वरमेतत् प्रकीर्तितम्।
यथाऽस्य पठनाद्देवी प्रीयते ललिताम्बिका॥
अन्यनामसहस्रस्य पाठान्न प्रीयते तथा।
श्रीमातुः प्रीयते तस्माददिशं कीर्तयेदिद्म॥
बिल्वपत्रैश्वक्रराजे योऽर्चयेल्ललिताम्बिकाम्।
पद्य्मैर्वा तुलसीपुष्पैरिभिर्नामसहस्रैः॥
सद्यः प्रसादं कुरुते तस्य सिंहासनेश्वरी।
चक्राधिराजमभ्यर्च्य जप्त्वा पञ्चदशाक्षरीम्॥ 
जपान्ते कीर्तियेन्नित्यमिदं नामसहस्रकम्।
जपपूजाद्यशक्तश्रेत् पठेन्नामसहस्रम्॥
साङ्गर्चने साङ्गजपे यत्फलं तदवाप्नुयात्।
उपासने स्तुतीरन्या पठेदभ्युदयो हि सः॥ 
इदं नामसहस्रं तु कीर्तियेन्नित्यकर्मवत्।
चक्रराजार्चनं देव्या जपो नाम्नां च कीर्तिनम्॥ 
भक्तस्य कृत्यमेतावदन्यदभ्युदयं विदुः।
भक्तस्यावश्यकमिदं नामसहस्रकीर्तिनम्॥ 
तत्र हेतुं प्रवक्ष्यामि शुणृ त्वं कुम्भसम्भव।
पुरा श्रीललितादेवी भक्तानां हितकाम्यया॥ 
वाग्देवीर्वशिनीमुख्याः समाहूयेदमब्रवीत।
वाग्देवता वशिन्याद्याः शुणृध्वं वचनं मम॥ 
भवत्यो मत्प्रसादेन प्रोल्लसद्वाग्विभूतयः। 
मद्भक्तानाम् वाग्विभूतिप्रदाने विनियाजिताः॥ 
मच्चक्रस्य रहस्यज्ञा मम नामपरायणाः। 
मम स्तोत्रविधानाय तस्मादाज्ञापयामि वः॥ 
कुरुध्वमंक्कितं स्तोत्रं मम नामसहस्रकैः। 
येन भक्तैः स्तुताया मे सद्यः प्रीतिः परा भवेत्॥ 
हयग्रीव उवाच :–
इत्याज्ञप्ता वचोदेव्यो देव्या श्रीललिताम्बया। 
रहस्यैर्नामभिर्दिव्यैश्र्वकुः स्तोत्रमनित्तमम्॥ 
रहस्यनामसाहस्रमिति तद्विश्रुतं परम्। 
ततः कदाचित् सदसि स्थित्वा सिंहासनऽम्बिका॥ 
स्वसेवासरं प्रदात् सर्वेषां कुम्भसम्भव। 
सेवार्थमागतास्तत्र ब्राह्माणी ब्रह्मकोटयः॥ 
लक्ष्मीनारायणानां च कोटयः समुपागताः।
गौरीकोटिसमेतानाम् रुद्राणां मपि कोटयः॥
मन्त्रिणीदण्डिनीमुख्याः सेवार्थ याः समागताः।
शक्तयो विविधाकारास्तासां संख्या न विद्यते॥ 
दिव्यौघा मानवौघाश्व सिद्धौघाश्व समागताः। 
तत्र श्री ललितादेवी सर्वेषां दर्शनं ददौ॥ 
तेषु दुष्टोपविष्टेषु स्वे स्वे स्थाने यथाक्रमम्। 
ततः श्रीललितादेवीकटाक्षाक्षेपचोदिताः॥ 
उत्थाय वशिनीमुख्या बद्धाञ्जलिपुटास्तदा। 
अस्तुवन्नामसाहस्रैः स्वकृतैर्ललिताम्बिकाम्॥ 
श्रुत्वा स्तवं प्रसन्नाभूल्ललिता परमेश्वरी। 
ते सर्वे विस्मयं जग्मुर्ये तत्र सदसि स्थिताः॥ 
ततः प्रोवाच ललिता सदस्यान् देवतागणान्। 
ममाज्ञयैव वाग्देव्यश्र्वक्रुः स्तोत्रमनुत्तमम्॥
अंक्कितं नामभिर्दिव्यैर्मम प्रीतिविधायकैः। 
तत्पठध्वं सदा यूयं स्तोत्रं मत्प्रीतिवृद्धये॥ 
प्रवर्तयध्वं भक्तेषु मम नामसहस्रकम्। 
इदं नामसहस्रं मे यो भक्तः पठते सकृत्॥
स मे प्रियतमो ज्ञेयस्तस्मै कामान् ददाम्यहम्। 
श्रीचक्रे मां समभ्यर्च्य जप्त्वा पञ्चदशाक्षरीम्॥ 
पश्चान्नामसहस्रं मे कीर्तियेन्मम तुष्टये। 
मामर्चयतु वा मा वा विद्यां जपतु वा ना वा॥ 
कीर्तियेन्नामसाहस्रमिदं मत्प्रीतये सदा। 
मत्प्रीत्या सकलान् मे कीर्तयध्वं सदाऽऽदरात्॥ 
इति श्रीललितेशानी शास्ति देवान् सहानुगान्। 
हयग्रीव उवाच :–
तदाज्ञया तदारभ्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। 
शक्तयो मन्त्रिणीमुख्या इदं नामसहस्रकम्॥ 
पठन्ति भक्तया सततं ललितापरितुष्टये। 
तस्मादवश्यं भक्तेन कीर्तिनीयमिदं मुने॥ 
आवश्यकत्वे हेतुस्ते मया प्रोक्तो मुनीश्वर। 
इदानीं नामसाहस्रं वक्ष्यामि श्रद्वया शुणृ॥ 
श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम् [सम्पाद्यताम्]।
न्यास ::
अस्य श्रीललितासहस्रनामस्तोत्रमाला मन्त्रस्य वशिन्यादि वाग्देवता ऋषयः।
अनुष्टुप् छन्दः। श्रीललितापरमेश्वरी देवता। श्रीमद्वाग्भवकूटेति बीजम्।
मध्यकूटेति शक्तिः। शक्तिकूटेतिकीलकम्।
श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरी प्रसादसिद्धिद्धारा चिन्तित फलावाप्त्यर्थे जपे विनियोगः। लमित्यादिञ्चपूजां कुर्यात्।
ध्यान ::
सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्ता रानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम्।
पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं रक्तोफळं बिभ्रतीं सौम्या रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत्पराम्बिकाम्॥ 

श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम् ::

ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी। 
चिदग्रि कुण्ड सम्भूता देवकार्य समुद्यता॥ 
उद्भानु सहस्राभा चर्तुबाहू समन्विता। 
रागस्वरुप पाशाढ्या क्रोधाकारांक्कुशोज्ज्वाळा॥ 
मनोरुपेक्षु कोदण्डा पञ्चतन्मात्र सायका। 
निजारुण प्रभापूर मज्जद्वह्याण्ड मण्डला॥ 
चम्पकाशोक पुन्नाग सौगन्धिक लसत्कचा। 
कुरुविन्द मणि श्रेणी कनत्कोटीर मण्डिता॥ 
अष्टमीचन्द्र विभ्राज दलिकस्थल शोभिता। 
मुखचन्द्र कलंक्काभ मृगनाभि विशेषका॥ 
वदनस्मर माङ्गळ्य गृहतोरण चिळ्लिका। 
वक्त्रलक्ष्मी परिवाह चलन्मीनाभ लोचना॥ 
नवचम्पक पुष्पाभ नासादण्ड विराजिता। 
ताराकान्ति तिरस्कारि नासाभरण भासुरा॥ 
कदम्बमञ्जरी क्लृप्त कर्णपूर मनोहरा। 
ताटङ्क युगली भूत तपनोडुप मण्डला॥ 
पद्य्मरागशिलादर्श परिभावि कपोलभूः। 
नवविद्रुम बिम्बश्री न्यक्कारि रदनच्छदा॥ 
शुद्धविद्यांकुराकार द्विजपंक्ति द्वयोज्ज्वला। 
कर्पूरवीटिकामोद समाकर्ष द्विगन्तरा॥ 
निज सळ्लाप माधुर्य विनर्भिर्त्सित कच्छपी। 
मन्दस्मित प्रभापूर मज्ज्तकामेश मानसा॥ 
अनाकालित सादृश्य चुबुकश्री विराजिता। 
कामेश बद्ध माङ्ग्ल्य सूत्र शोभित कन्धरा॥ 
कनकाङ्ग्द केयूर कमनीय भुजानविता। 
रत्नग्रैवेय चिन्ताक लोल मुक्ता फलान्विता॥
कामेश्वर प्रेमरत्न मणि प्रतिपण स्तनी। 
न्याभ्यालवाल रोमालि लता फल कुचद्वयी॥ 
लक्ष्यरोम लताधारता समुन्नेय मध्यमा। 
स्तनभार दलन्मध्य पट्टबन्ध वलित्रया॥ 
अरुणारुणकौसुम्भ वस्त्र भास्वत्क टीतटी। 
रत्न किङ्किणिका रम्य रशना दाम भूषिता॥ 
कामेश ज्ञात सौभाग्य मार्दुवोरु द्वयान्विता। 
माण्यिकामुकुटाकार जानुद्वय विराजिता॥ 
इन्द्रगोप परिक्षिप्तस्मरणतूनाभ जंघिका। 
गूढगुळ्फा कूर्मपृष्ठ ययिष्णु प्रपदान्विता॥ 
नख दीधित संछन्न नमज्जन तमोगुणा। 
पदद्वय प्रभाजाल पराकृत सरोरुहा॥ 
सिञ्जान मणिमञ्जीर मण्डित श्री पदाम्बुजा। 
मराली मन्दगमना महालावण्य शेवधिः॥
सर्वारुणाऽनवद्यांगी सर्वाभरण भूषिता। 
शिव कामेश्वराङ्कस्था शिवा स्वाधीन वल्लभा॥ 
सुमेरु मध्य शृङ्गत्था श्रीमन्नगर नायिका। 
चिन्तामणि गृहान्तस्था पञ्च ब्रह्मासन स्थिता॥ 
महापद्य्माटवी संस्था कदम्बवन वासिनी। 
सुधासागर मध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी॥ 
देवर्षि गण संघात स्तूयमानात्म वैभवा। 
भण्डासुर वधोद्युक्त शक्तिसेना समान्विता॥ 
सम्पत्करी समारुढ सिन्धुर वज्र सेविता। 
अश्र्वारुढाधिष्ठिताश्र कोटि कोटिभि रावृता॥ 
चक्रराज रथारुढ सर्वायुध परिष्कृता। 
गेयचक्र रथारुढ मंत्रिणी परिसेविता॥ 
किरिचक्र रथारुढ दण्डनाथा पुरस्कृता। 
ज्वालामालिनिकाक्षिप्त मह्निप्राकार मध्यगा॥ 
भण्डसैन्य वधोयुक्त शक्ति विक्रम हर्षिता। 
नित्या पराक्रमाटोप निरीक्षण समुत्सुका॥
भण्डपुत्र वधोद्युक्त बाला विक्रम नन्दिता। 
मन्त्रिण्यम्बा विरचित विषङ्ग  वध तोषिता॥ 
विशुक्र प्राणहरण वाराही वीर्य नन्दिता। 
कामेश्वर मुखालोक कल्पित श्रीगणेश्वर॥ 
महागणेश निभिन्न विघ्नयन्त्र प्रहर्षिता। 
भण्डासुरेन्द्र निर्मुक्त शस्त्र प्रयस्र वर्षिणी॥
कराङ्गुलि नखोत्पन्न नारायण दशाकृतिः। 
महा पाशुपतास्राग्रि निर्दग्धासुर सैनिका॥ 
कामेश्वरास्र निर्दग्ध सभण्डासुर शून्यका। 
ब्रह्मोपेन्द्र महेन्द्रादि देव संस्तुत वैभवा॥ 
हर नेत्राग्रि संदग्ध काम सञ्जीवनौषधिः। 
श्रीमद्वाग्भव कूटैक स्वरुप मुख पंक्कजा॥ 
कण्ठाधः कटि पर्यन्त मध्यकूट स्वरुपिणी। 
शक्तिकूटैकतापन्न कट्यधोभाग धारिणी॥ 
मूलमन्त्रात्मिका मूलकूटत्रय कलेवरा। 
कुलामृतैक रसिका कुलसंकेत पालिनी॥ 
कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी। 
अकुला समयान्तरस्था समयाचार तत्परा॥ 
मूलाधारैक-निलया ब्रह्माग्रन्थि विभेदिनी। 
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदनी॥ 
आज्ञाचक्रकान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि-विभेदनी। 
सहस्राम्बुजारुढा सुधासाराभिवर्षिणी॥ 
तडिलता समरुचिऋ षट्चक्रोपरि संस्थिता। 
महाशक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तु तनीयसी॥ 
भवानी भावनागम्या भवारण्य कुठारिका। 
भद्रप्रिया भद्रमूर्ति भक्त सौभाग्यदायिनी॥ 
भक्तिप्रिया भक्तिगम्या भक्तिवश्या भयापहा। 
शाम्भवी शारदाराध्या शर्वाणी शर्मदायिनी॥ 
शाक्करी श्रीकरी साध्वी शरचन्द्र निभानना।
शातोदरी शान्तिमती निराधारा निरञ्जना॥ 
निर्लेपा निर्मला नित्या निराकारा निराकुला। 
निर्गुणा निष्कला शान्ता निष्कामा निरुपप्लवा॥
नित्यमुक्ता निर्विकारा निष्प्रपञ्जा निराश्रया। 
नित्यशुद्धा नित्यबुद्धा निरवद्या निरन्तरा॥ 
निष्कारणा निष्कलङ्का निरुपाधि र्निरीश्वरा।
नीरागा रागथनी निर्मदा मदनाशिनी॥ 
निश्रिन्ता निरहङ्कारा निर्मोहा मोहनाशिनी। 
निमर्मा ममताहन्त्री निष्पापा पापनाशिनी॥ 
निष्क्रोधा क्रोधशमनी निर्लोभा लोभनाषिनी। 
निःसंशया संशयघ्नी निर्भवा भवनाषिनी॥ 
निर्विकल्पा निराबाधा निर्भेदा भेदनाशिनी। 
निर्नाशा मृत्युमथनी निष्क्रिया निष्परिग्रहा॥ 
निस्तुला नीलचिकुरा निरपाया निरत्यया। 
दुर्लभा दुर्गमा दुर्गा दुःखहन्त्री सुखप्रदा॥ 
दुष्टदूरा दुराचारशमनी दोष वर्जिता। 
सर्वज्ञा सान्द्रकरुणा समानाधिक वर्जिता॥ 
सर्वशक्तिमयी सर्वमाङ्ग्ला सद्गति-प्रदा। 
सर्वेश्वरी सर्वमयी सर्वमन्त्र सर्वरुपिणी॥ 
सर्व-यन्त्रात्मिका सर्व तन्त्ररुपा मनोन्मनी।
माहेश्वरी महादेवी महालक्ष्मी मृडप्रिया॥
महारुपा महापूज्या महापातक नाशिनी। 
महामाया महासत्वा महाशक्ति र्मकारतिः॥ 
महाभोगा महैश्वर्या महावीर्या महाबला। 
महाबुद्धि महासिद्धि र्महायोगेश्वरेश्वरी॥ 
महातन्त्रा महामन्त्रा महायन्त्रा महासना। 
महायाग महाक्रमाराध्या महाभैरव पूजिता॥ 
महेश्वर-महाकल्प महाताण्डव साक्षिणी। 
महाकामेश-महिषी महारात्रिपुरसुन्दरी॥ 
चतुष्टषष्ट्युपचाराढ्या चतुष्टषष्टकलामयी। 
महाचतुःषष्टकोटि-योगिनी-गणसेवीता॥ 
मनुविद्या चन्द्रविद्या चन्द्रमण्डल मध्यगा। 
चारुरुपा चारुहासा चारुचन्द्र कलाधरा॥ 
चराचर-जगन्नाथा चक्ररात निकेतना। 
पार्वती पद्य्मनयना पद्य्मराग समप्रभा॥ 
पञ्चप्रेतासनासीना पञ्चब्रब्मस्वरुपिणी। 
चिरमयी परमानन्दा विज्ञानज्ञनस्वरुपिणी॥ 
ध्यान ध्यातृ ध्येयरुपा धर्माधर्मविवर्जिता। 
विश्वरुपा जागरणी स्वपन्ती तैजसात्मिका॥ 
सुप्ता प्राज्ञात्मिका तुर्या सर्वावस्था विवर्जिता। 
सृष्टिकर्त्री ब्रह्मरुपा गोप्त्री गोविन्दरुपिणी॥ 
संहारिणी रुद्ररुपा तिरोधानकरीश्वरी। 
सदाशिवाऽनुग्रहदा पञ्चकृत्यपरायणा॥ 
भानुमण्डल मध्यस्था भैरवी भगमालिनी। 
पद्य्मासना भगवती पद्य्मनाभ सहोदरी॥ 
उन्मेष निमिषोत्पन्न विपन्न भुवनावलिः। 
सहस्रशीर्षवदना सहस्राक्षी सहस्रपात्॥ 
आब्रह्मकीटजननी वर्णाश्रम विधायनी। 
निजाज्ञारुप निगमा पुण्यापुण्य फलप्रदा॥ 
श्रुति सिमन्त सिन्दुरी कृत पादाब्जधूलिका। 
सकलागम सन्दोह सूक्ति सम्पुट मौक्तिका॥ 
पुरुषार्थ प्रदा पूर्णा भोगिनी भुवनेश्वरी। 
अम्बिकाऽनादि निधना हरिब्रह्मेनदु सेविता॥ 
नारायणी नादरुपा नामरुप-विवर्जिता। 
ह्रीं कारी ह्रीमती ह्रया हेयोपादेय वर्जिता॥ 
राजराजार्चिता राज्ञी रम्या राजीव लोचना। 
रञ्जनी रमणी रस्या रणत्किङ्किणी-मेखला॥ 
रमा राकेन्दु-वदना रतिरुपा रतिप्रिया। 
रक्षाकरी राक्षसघ्नी रामा रमणलम्पटा॥ 
काम्या कामकलारुपा कदम्ब कुसुम प्रिया। 
कल्याणी जगती कन्दा करुणा रस सागरा॥ 
कलावती कलालापा कान्ता कादम्बरी-प्रिया। 
वरदा वामनयना वारुणी मद विह्वला॥ 
विश्वाशिका वेदवेद्या विन्ध्याचल-निवासनी। 
विधात्री वेदजननी विष्णुमाया विलासनी॥ 
क्षेत्रस्वरुपा क्षेत्रेशी क्षेत्र क्षेत्र्यज्ञ पालिनी। 
क्षयवृद्धि विर्निमुक्ता क्षेत्रपाल समर्जिता॥  
विजया विमला वन्ध्या वन्दारु जन वत्सला।
वाग्वादिनी वामकेशी वह्मिमण्डल वासिनी॥
भक्तिमय कल्पलतिका पशुपाश विमोचनी। 
संह्रताशेष पाषण्डा सदाचार प्रवर्तिका॥
तापत्रयाग्रि सन्तप्त समाह्वदन चन्द्रिका। 
तरुणी तापसा राध्या तनुमध्या तमोऽपहा॥ 
चिति स्ततपद लक्ष्यार्थी चिदेकरस रुपिणी। 
स्वात्मानन्द लयाभूत ब्रह्माद्यानन्द सन्तति॥ 
परा प्रत्यक चित्तरुपा पश्यन्ती परदेवता। 
मध्यमा वैखरी रुपा भक्तृमानस हंसिका॥ 
कामेश्वर प्राणनाडी कृतज्ञा कामपूजिता। 
श्रृंगार रस सम्पूर्णा जया जालन्धर स्थिता॥ 
ओड्यपाण पीठ विलया बिन्दु माण्डलवासिनी। 
रहायोग क्रमाराध्या रहस्तपर्ण तर्पिता॥ 
सद्यः प्रसादिनी विश्वसाक्षिणी साक्षिवर्जिता। 
षडङ्गदेवता युक्ता षाड्गुण्य परिपूरिता॥ 
नित्या-क्लिन्ना निरुपमा निर्वाण सुख दायिनी। 
नित्याषोडशिका रुपा श्रीकण्ठार्ध शरीरिणी॥ 
प्रभावती प्रभारुपा प्रसिद्धा परमेश्वरी। 
मूलप्रकृति रव्यक्ता व्यक्ताव्यक्त स्वरुपिणी॥ 
व्यापिनी विविधाकारा विद्याऽविद्या स्वरुपिणी। 
महाकामेश नयन कुमुदाह्वाद कौमुदी॥ 
भक्त हार्द तमो भेद मद्भानु संततिः। 
शिवदूती शिवराध्या शिवमूर्तिः शिवक्करि॥ 
शिवप्रिया शिवपरा शिष्टेष्टा शिष्टपूजिता। 
अप्रमेया स्वप्रकाशा मनो वाचामगोचरा॥ 
च्छिछक्ति श्चेतना रुपा जडशक्ति र्जडात्मिका। 
गायत्री व्याह्रती संध्या द्विजबृन्द निषेविता॥ 
तत्वासना तत्तवमयी पञ्चकोशान्तर स्थिता। 
निःसीम महिमा नित्य यौवना मदशालिनी॥ 
मद्घूर्णित रक्ताक्षी मदपाट्ल गण्डभूः। 
चन्दन द्रव दिग्धाङ्की चाम्पेय कुसुम प्रिया॥ 
कुशला कोमलाकारा कुरुकुल्ला कुलेश्वरी।
कुलकुण्डलया कौलमार्ग तत्पर सेविता॥ 
कुमार  गणनाशाम्बा तुष्टिः पुष्टिर्मति धृतिः। 
शान्तिः स्वस्तिमयी कान्तिर्नन्दिनी विघ्ननाशिनी॥ 
तेजोवती त्रिनयना लोलाक्षी कामरुपिणी। 
मालिनी हंसिनी माता मलयाचल-वासिनी॥ 
सुमुखी नलिनी सुभ्रूः शोभना सुरनायिका। 
कालकण्ठी कान्तिमयी क्षोभिणी सूक्ष्मरुपिणी॥ 
वज्रेश्वरी वामदेवी वयोवस्था विवर्जिता। 
सिद्धेश्वरी सिद्धविद्या सिद्धमाता यशस्वनी॥ 
विशुद्धि चक्र निलयाऽऽरक्तवर्णा त्रिलोचना। 
खट्वाङ्गदि प्रहरणा वदवैक समन्विता॥ 
पायसान्न प्रिया त्वकस्था पशुलोक भयंक्करी। 
अमृतादि महाशक्ति संवृता डाकिनीश्वरी॥ 
अनाहाताब्ज-निलया श्यामाभा वदनद्वया। 
दंष्ट्रोज्ज्वलाक्षमालादि धरा रुधिर संस्थिता॥  
कालरात्र्यादि शक्त्यौघ वृता स्न्गिधौदन प्रिया। 
महावीरेन्द्र वरदा राकिण्यम्बा स्वरुपिणी॥  
मणिपूराब्ज निलया वदहत्रय संयुता। 
वज्राधिकायुधोपेता डामर्यादिभि रावृता॥
रक्तिवर्णा मांसनिष्ठा गुडान्न प्रीत मानसा। 
समस्तभक्त-सुखदा लाकिन्यम्बा स्वरुपिणी॥
स्वाधिष्ठानाम्बुजकता चर्तुवक्त्र मनोहरा। 
शूलाद्यायुद्ध सम्पन्ना पीतवर्णाऽतिगर्विता॥
मेदो निष्ठा मधुप्रीता बन्धिन्यादि समन्विता। 
दध्यन्नासक्त ह्रदया काकिनी रुप धारिणी॥ 
मूलाधाराम्बुजारुढा पञ्चवक्त्रास्थि संस्थिता। 
अङ्कुशादि प्रहरणा वरदादि निषेविता॥
मुद्गौदनासक्त चित्ता साकिन्यम्बा स्वरुपिणी। 
आज्ञा चक्राब्ज निलया शुक्लवर्णा षडानना॥
मज्जा संस्था हंसवती मुख्य शक्ति समान्विता। 
हरिद्रान्नैक रसिका हाकिनी रुप धारिणी॥
सहस्रदल पद्य्मस्था सर्व वर्णोप शोभिता। 
सर्वायुध धरा शुक्ल संस्थिता सर्वतोमुखी॥
सर्वौदन प्रीतचित्ता याकिन्यम्बा स्वरुपिणी। 
स्वाहा स्वधाऽमति र्मेधा श्रुति स्मृति रन्नुमत्ता॥ 
पुण्यकीर्तिः पुण्यलभ्या पुण्यश्रवण कीर्तिना। 
पुलोमजार्चिता बन्धमोचनी बन्धुरालका॥ 
विमर्शरुपिणी विद्या वियदादि जगत्प्रसूः। 
सर्वव्याधि प्रशमनी सर्वमृत्यु निवारणी॥ 
अग्रगण्याऽचिन्त्यरुपा कलिकल्मष नाशिनी। 
कात्यायनी कालहन्त्री कमलाक्ष निषेविता॥
ताम्बूल पूरित मुखी दाडिमी कुसुम प्रभा। 
मृगाक्षी मोहिनी मुख्या मृडानी मित्ररुपिणी॥
नित्य-तृप्ता भक्तिनिधि र्नियन्त्री निखिलेश्वरी। 
मैत्र्यादि-वासनालभ्या महाप्रलय साक्षिणी॥
पराशक्तिः परानिष्ठा प्रज्ञानघन रुपिणी। 
माध्वीपानालसा मत्ता मातृका वर्ण रुपिणी॥
महाकैलास निलया मृणाल मृदु दोर्लता। 
महनीया दयामूर्तिर्महासाम्राज्य शालिनी॥ 
आत्मविद्या महाविद्या श्रीविद्या कामसेविता। 
श्रीषोडाशाक्षरीविद्या त्रिकुटा कामकोटिका॥  
कटाक्ष-किंक्करी भूत कमला कोटि सेविता। 
शिरःस्थिता चन्द्रनिभा भालस्थेन्द्रु धनुः प्रभा॥  
ह्दयास्था रविप्रख्या त्रिकोणान्तर दीपिका। 
दाक्षायणी दैन्त्यहन्त्री दक्षयज्ञविनाशनी॥ 
दरान्दोलित दीर्घाक्षी दरहासोज्ज्वलमुखी। 
गुरु मूर्ति गुण निधि र्गोमाता गुहजन्म भूः॥
देवेशी दण्डनीतिस्था दहराकाश रुपिणी। 
प्रतिपन्मुख्य राकान्त तिथि मण्डल पूजिता॥ 
कलात्मिका कलानाथा काव्यालाप विनोदनी। 
सचामर रमा वाणी सव्य दक्षिण सेविता॥
आदिशक्ति रमेयाऽऽत्मा परमा पावनाकृतिः। 
अनेक कोटि ब्रह्माण्ड जननी दिव्य विग्रहा॥  
क्लीं कारी केवला गुह्या कैवल्य पद दायिनी। 
त्रिपुरा त्रिजगद्वन्द्या त्रिमूर्ति स्रिदशेश्वरी॥
त्र्यक्षरी दिव्य गन्धाढ्या सिन्दुर तिलकाञ्जिता। 
उमा शैलेन्द्रतनया गौरी गन्धर्व सेविता॥
विश्वगर्भा स्वर्णगर्भाऽवरदा वागधीश्वरी। 
ध्यानगम्याऽपरिच्छेद्या ज्ञानदा ज्ञानविग्रहा॥ 
सर्व वेदान्त सम्यवेद्या सत्यानन्द स्वरुपिणी। 
लोपामुदार्चिता लीलाक्लृप्त ब्रह्माण्ड मण्डला॥ 
अदृश्या दृश्यरहिता विज्ञात्री वैद्य वर्जिता। 
योगिनी योगदा योग्या योगानन्दा युगन्धरा॥ 
इच्छाशक्ति ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति स्वरुपिणी। 
सर्वाधारा सुप्रतिष्ठा सदसद्रूप धारिणी॥ 
अष्टमूर्ति रजाजैत्री लोकयात्रा विधायि। 
एकाकिनी भूमरुपा निर्द्वैता द्वैतवर्जिता॥ 
अन्नदा वसुदा वृद्वा ब्रह्मात्मैक्य स्वरुपिणी। 
बृहती ब्राह्मणी ब्राह्मी ब्रह्मानन्दा बलिप्रिया॥
भाषारुपा बृहत्सेना भावाभाव विवर्जिता। 
सुखाराध्या शुभकरी शोभनासुलभागतिः॥ 
राजराजेश्वरी राज्यदायिनी राज्यवल्लभा। 
राजत्कृपा राजपीठ निवेशित निजाश्रिता॥ 
राज्यलक्ष्मीः कोशनाथा चतुपङ्ग बलेश्वरी। 
साम्राज्य दायिनी सत्यसन्धा सागरमेखला॥ 
दीक्षिता दैत्यशमनी सर्वलोकवशंक्करी। 
सर्वार्थदात्री सावित्री सच्चिदानन्द रुपिणी॥ 
देशकालापरिच्छिन्ना सर्वगा सर्वमोहिनी। 
सरस्वती शास्रमयी गुहाम्बा गुह्यारुपिणी॥ 
सर्वोपाधि विर्निमुक्ता सदाशिव पतिव्रता। 
सम्प्रदायेश्वरी साध्वी गुरुमण्डल रुपिणी॥ 
कुलोत्तीर्णा भगाराध्या माया मधुमती मही। 
गणाम्बा गुह्यकाराध्या कोमलांगी गुरुप्रिया॥ 
स्वतन्त्रा सर्वतन्त्रेशी दक्षिणामूर्ति रुपिणी। 
सनकादि-समाराध्या शिवज्ञान प्रदायिनी॥ 
चित्कलाऽऽनन्द कलिका प्रेमरुपा प्रियंक्करी। 
नामपारायण-प्रीता नन्दिविद्या नटेश्वरी॥ 
मिथ्या-जगदधिष्ठाना मुक्तिदा मुक्तिरुपिणी। 
लास्यप्रिया लयकरी लज्जा रम्भादिवन्दिता॥ 
भवदाव सुधावृष्टिः पापारण्य दवानला। 
दौर्भाग्य तूलवातुला जराध्वान्तरविप्रभा॥ 
भाग्याब्धि चन्द्रिका भक्त चित्त केकि घनाघना।
 रोगपर्वत दम्भोलि र्मृत्युदारु कुठारिका॥ 
महेश्वरी महाकाली महाग्रासा महाशना। 
अपर्णा चण्डिका चण्डमुण्डासुर निषूदनी॥ 
क्षराक्षरात्मिका सर्वलोकेशी विश्वधारिणी। 
त्रिवर्गदात्री सुभगा त्र्यम्बका त्रिगुणात्मिका॥ 
स्वर्गापवर्गदा शुद्धा जपापुष्प निभाकृतिः। 
ओजोवती द्युतिधरा यज्ञरुपा प्रियव्रता॥ 
दुराराध्या दुराधर्षा पाटली कुसुम प्रिया। 
महती मेरुनिलया मन्दार कुसुम प्रिया॥ 
वीराराध्या विराड्रुपा विरजा विश्वतोमुखी। 
प्रत्यग्रु पा पराकाशा प्राणदा प्राणरुपिणी॥ 
मार्ताण्ड भैरवाराध्या मन्त्रिणी न्यस्त राज्यधूः। 
त्रिपुरेशी जयत्सेना निस्रैगुण्या परापरा॥ 
सत्यज्ञानान्द रुपा सामरस्य परायणा। 
कपर्दिनी कलामाला कामधु क्काम रुपिणी॥ 
कलानिधिः काव्यकला रसज्ञा रसशेवधिः। 
पुष्टा पुरातना पूज्या पुष्करा पुष्करेक्षणा॥ 
परञ्ज्योतिः परन्धाम परमाणुः परात्परा। 
पाशहत्सा पाशहन्त्री परमन्त्र विभेदनी॥ 
मूर्ताऽमूर्ता नित्यतृप्ता मुनिमानस हंसिका। 
सत्यव्रता सत्यरुपा सर्वान्तर्यामिनी सती॥ 
ब्रह्माणी ब्रह्मजननी बहुरुपा बुधार्चिता। 
प्रसवित्री प्रचण्डाऽऽज्ञा प्रतिष्ठा प्रकटाकृतिः॥ 
प्राणेश्वरी प्राणदात्री पञ्चाशत्पीठ-रुपिणी। 
विश्वृंखला विवित्तस्था वीरमाता वियत्सप्रसुः॥ 
मुकुन्दा मक्तिनिलया मूलविग्रह रुपिणी। 
भावज्ञा भवरोगघ्नी भवचक्र प्रवर्तिनी॥ 
छन्दः सारा शास्रसारा मन्त्रसारा तलोदरी। 
उदारकीर्ति रुद्दामवैभवा वर्णरुपिणी॥ 
जन्ममृत्यु जरातप्त जन विश्रांति दायिनी। 
सर्वोप्निष-दुद्घुष्टा शान्त्यतीत कलात्मिका॥ 
गम्भीरा गगनान्तस्था गर्विता गानलोलुपा। 
कल्पना रहिता काष्ठाऽकान्ता कान्तार्ध विग्रहा॥ 
कार्यकारण निर्मुक्ता कामकेलि तरङ्गिता। 
कनत्कनक ताटंक्का लीला विग्रह धारिणी॥ 
अजा क्षयविर्निर्मुक्ता मुग्धा क्षिप्र प्रसादिनी। 
अन्तर्मुख समाराध्या बहिर्मुख-सुदुर्लभा॥ 
त्रयी त्रिवर्ग निलया त्रिस्था त्रिपुर मालिनी। 
निरामया निरालम्बा स्वात्मारामा सुधासृतिः॥ 
संसारपङ्क निमर्ग्र समुद्धरण पण्डिता। 
यज्ञप्रिया यज्ञकर्त्री यजमान स्वरुपिणी॥ 
धर्माधारा धनाध्यक्षा धनधान्य विवार्धिनी। 
विप्रप्रिया विप्ररुपा विश्वभ्रमण कारिणी॥ 
विश्वग्रासा विद्रुमाभा वैष्णवी विष्णुरुपिणी। 
अयोनि र्योनि निलया कूटस्था कुलरुपिणी॥ 
वीरगोष्ठी-प्रिया वीरा नैष्कर्म्या नादरुपिणी। 
विज्ञानकलना कल्या विदग्धा बैन्दवासना॥ 
तत्तवाधिका तत्वमयी त्तत्वमर्थ स्वरुपिणी। 
सामगन प्रिया सोम्या सदाशिव कुटुम्बिनी॥ 
सव्यापसव्य मार्गस्था सर्वापद्धिनिवारिणी। 
स्वस्था स्वभावमधुरा धीरा धीरसमर्चिता॥ 
चैतन्यार्ध्य समाराध्या चैतन्य कुसुम प्रिया। 
सदोदिता सदातुष्टा तरुणादित्य पाटला॥ 
दक्षिणा-दक्षिणाराध्या दरस्मेर मुखाम्बुजा। 
कौलिनी केवऽनर्घ्य कैवल्य पद दायिनी॥ 
स्तोत्र प्रिया स्तुतिमती श्रुति संस्तुत वैभवा।
मन्स्विनी मानवती महेशी मंङ्ग्लाकृतिः॥ 
विश्वमाता जगद्धात्री विशालाक्षी विरागिणी।
प्रगल्भा परमोदारा परामोदा मनोमयी॥ 
व्योमकेशी विमानस्था वज्रिणी वामकेश्वरी।
पञ्चयज्ञ प्रिया पञ्चप्रेत मञ्चाधिशायिनी॥ 
पञ्चमी पञ्चभूतेशी पञ्चसंख्योपचारिणी।
शाश्वती शाश्वतैश्वर्या शर्मदा शम्भुमोहिनी॥ 
धरा धरसुता धन्या धर्मिणी धर्मवर्धिनी।
लोकातीता गुणातीता सर्वातीता शमात्मिका॥ 
बन्धुक कुसुम प्रख्या बाला लीला विनोदिनी।
सुमङ्गली सुखकरी सवेषाढ्या सुवासिनी॥ 
सुवासिन्यर्चन प्रीताऽऽशोभना शुद्ध मानसा।
बिन्दु तर्पण सन्तुष्टा पूर्वजा त्रिपुराम्बिका॥
दशमुद्रा समाराध्या त्रिपुराश्रीवशंक्करी।
ज्ञानमुद्रा ज्ञानगम्या ज्ञान ज्ञेय स्वरुपिणी॥ 
योनिमुद्रा त्रिखण्डेशी त्रिगुणाम्बा त्रिकोणगा।
अनघाऽद्भुत चारिता वाञ्छितार्थ प्रदायिनी॥ 
अभ्यासातिशय ज्ञाता षडध्वातीत रुपिणी। 
अव्याज करुणा मूर्ति रज्ञान ध्वान्त दीपिका॥ 
आबाल गोप विदिता सर्वानुल्लंघ्य शासना। 
श्रीचक्रराज निलया श्रीमत्त्रि पुरसुन्दरी॥ 
श्री शिवा शिव शक्त्यैक्य रुपिणी ललिताम्बिका। 
एवं श्रीललितादेव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः॥
श्रीब्रह्माण्डपुराणे उत्तरखण्डे श्रीहयग्रीवागस्त्य संवादे श्री ललितासहस्रनाम स्तोत्रं सम्पूर्णम्।
ललिता सहस्रनाम (ब्रहमाण्ड पुराण) ::
(1). विविधाकारा :- विविध आकार या रूपोंवाली माँ, (2). विद्याविद्यास्वरूपिणी :- विद्या और अविद्या का स्वरूप माँ, (3). महाकामेशनयनकुमुदाल्हादकौमुदी :- भक्तके कुमुद जैसे आखोंको अपने दर्शनमात्रसे आनंद देकर खिलाने वाली माँ, (4). भक्तहार्दतमोभेदभानुमदभानुसंततिः :- भक्तों के अविद्यारूपी अन्धकार को भगाने के लिये सूर्य रूपी माँ, (5) शिवदूती :- भगवान श्री शंकर को दूत बना कर कल्याण और शांति का संदेश भेजने वाली माँ, (6). शिवाराध्या :- भगवान श्री शंकर से आराधित माँ, (7). शिवमूर्ति :- भगवान श्री शंकर के रूप में विराजित माँ, (8). शिवकरी :- कल्याण करनेवाली माँ, (9). शिवप्रिया :- भगवान श्री शंकर को प्रिय माँ, (10). शिवपरा :- भगवान श्री शंकरसेभी परे माँ, (11). शिष्टेष्टा :- सदाचार, सदविचार और शिष्टचारसे प्रसन्न होनेवाली माँ, (12). शिष्टपूजिता :- विद्वान, सदाचारी और महात्माओं से पूजीत माँ, (13). अप्रमेया :- किसी भी तर्क, शास्त्र या प्रमाणसे जाननेमे न आनेवाली माँ, (14). स्वप्रकाशा :- अपनेही प्रकाशमे आप स्थित माँ, (15). मनोवाचामगोचरा :- मन और वाणिसे अगोचर माँ, (16). चिच्छक्ति :- अविद्याका नाश करनेवाली चैतन्य शक्तिरूप माँ, (17). चेतनरूपा :- भक्तके अन्दर चेतन रूप माँ, (18) जडशक्ति :- निर्जीव जगत और वस्तुओं की शक्ति जो चैतन्यकोभी क्षोभित कर डालती है उस शक्ति स्वरूप माँ, (19). जडात्मिका :- निर्जीवोंकी आत्मा स्वरूप माँ, (20). गायत्री :- गायत्री मन्त्रस्वरूप माँ, (21). व्याह्रती :- भक्त के पुकारने पर या बुलाने पर आने वाली माँ, (22). सन्ध्या :- गायत्री सन्ध्या का स्वरूप माँ, (23). द्विजवृंदनिषेविता :- ब्राह्मण, वैश्य आदि समूहों से पूजित होनेवाली माँ, (24). तत्वासना :- जिनके आसनके नीचे सब तत्व है या तत्वोंके आसनपर आरूढ होनेवाली माँ, (25-26). तत्, त्वम :- तत्वमसी महावाक्यका चिंतन करते समय जीवात्मा अपने को त्वम समझता है और अपनी आत्मा को छोडकर बाकी सब कुछ तत् समझता है और तत् और त्वम की एकता को सिद्द करता है उसी प्रयास में  तत् भी माँ है ओर त्वम भी माँ है और एकता सिध्द करता है। उसी प्रयोग में  तत् भी माँ है और त्वम भी माँ है और एकता सिध्द भी माँ ही है, यही तत् स्वरूप माँ है और एकता स्वरूप माँ  है, (27). अयी :- प्रेम के जोश से पुकार से बुलाई जानेवाली मा । तत् – सर्वस्व, त्वं – मा, अयी – सर्व माई स्वरूप है, माई सब में है और सब माई में है, उसके अस्तित्वके सिवा कुछ भी नही है, (28). पंचकोषांतरस्थिता :- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय इन पाच कोषोमें विराजित माँ, (29). निःसीममहिमा :- जिसकी महिमाकी सीमा ही नहीं  वह माँ, (30). नित्ययौवना :- सदा जवानीसे भरपूर माँ, (31). मदशालिनी :- मद और आनंदसे युक्त माँ, (32). मदघूर्णितरक्ताक्षी :- मदके आनंदसे भरी हुई रक्तवर्ण आखोवाली  माँ, (33). मदपाटलगण्डभूः :- मद और लज्जा से जिनका मुख और गाल गुलाबी रंग का हो गया है वह माँ, (34). चंदनद्रवदिग्धांगी :- चंदन का लेप जिनके शरीर पर है, वह माँ, (35). चाम्पेयकुसुमप्रिया :- जिन्हें चंपक का फूल प्रिय है वह माँ, (36). कुशला :- सब प्रकारके कार्यो में, व्यवहार में  कुशल माँ, (37). कोमलाकारा :- कोमल स्वरूप माँ, (38). कुरूकुल्ला :- श्रीचक्रके बीचमें स्थित माँ, (39). कुलेश्वरी :- ब्रह्मा, विष्णु और महेशके कुल की माँ, (40). कुलकुण्डालया :- मुलाधार चक्र के बीच में स्थित माँ, (41). कौलमार्गत्तपरसेविता :- कौलाचार मार्गियोंसे सेवित माँ, (42). कुमरगणनाथांबा :- कार्तिकेय और गणपती जिनके पुत्र हैं, वह पार्वती जिनका अंश है वह माँ, (43). तुष्टिः :- भक्तके ह्रदयमे संतुष्टताके रूपमे रहने वाली माँ, (44). पुष्टिः :- भक्त का पोषण करने वाली  माँ, (45) मतिः :- भक्तके कल्याणके लिये उसको सद् बुध्दी देने वाली माँ, (46). धृतिः :- दुःख्ख सहन करने की शक्ति देने वाली माँ, (47). शान्तिः :- शान्ति देने वाली माँ, (48) स्वतिमतिः :- मंगल स्वरुप, मंगल करनेवाली देने वाली माँ, (49). कान्तिः :- प्रकाश स्वरूप माँ, (50) नन्दिनी – नन्दके घर जन्मी हुई श्रीकृष्णकी बहन  के रुपमे शक्तिस्वरूप माँ, (51). विघ्ननाशिनी :- विघ्नोंका नाश करनेवाली माँ, (52) तेजोवती :- तेजसे परिपूर्ण माँ, (53). त्रिनयना – सुर्य, चन्द्र और अग्नि रूप तीन नेत्रोंवाली माँ, (54) लोलाक्षीकामरुपिणी :- तिरछी, खोजनेवाली और डोलती हुई आखों वाली माँ, (55). मालिनी :- असंख्य हारों से सुशोभित माँ, (56). हंसिनी :- हंसिनी जैसे चाल वाली माँ, (57). माता :- सृष्टि माता के रुप में माँ, (58). मलयाचलवासिनी :- सुगन्धी मलयाचल पर्वत में रहने वाली माँ, (59). सुमुखी ::- संदर मुख वाली माँ, (60). नलिनी :- कमल जैसी कोमल माँ, (61). सुभ्रुः :- सुंदर भौंहो वाली माँ, (62). शोभना :- शोभायमान मा। शोभना बढाने वाली माँ, (63). सुरनायका :- देवताओं का कल्याण और दैत्योंसे बचनेका उपाय बताने वाली माँ, (64). कालकण्ठी :- जिनके कण्ठ में  कालका निवास है, वह माँ, (65). कान्तिमति :- कान्तिकी तेज से भर पुर माँ, (66). क्षोभिणी :- मन में  क्षोभ या जोश उत्पन्न करने वाली माँ, (67). सुक्ष्मरुपिणी :- सूक्ष्म रुप वाली माँ, (68). वज्रेश्वरी :- इन्द्रको वज्र अस्त्रका प्रदान करने वाली माँ, (69). वामदेवी :- वाममार्ग से देवी की उपासना करनेवाले वाम-मार्गियों की माँ, (70). वयोवस्थाविवर्जिता :- सब अवस्थाओंसे मुक्त माँ, (71). सिध्देश्वरी :- सिध्दोंकी इश्वरी और सब सिध्दीया देनेवाली माँ, (72). सिध्दविद्या :- सिद्दी और सिद्दीकी विद्या रुप माँ, (73). सिध्दमाता :-सिध्दोंकी माता माँ, (74). यशस्विनी :- यश प्रदान करनेवाली माँ, (75). विशुध्दचक्रनिलया  :- कण्ठमें स्थित विशुध्द चक्रमे स्थित माँ, (76). आरक्तवर्णा :- गुलाबी रंगकी चेहरेवाली माँ, (77). त्रिलोचना  :-  तीन आखोवाली माँ, (78). खट्वांगादिप्रहरणा :- चारपाइ के पांव जैसे मामुली अस्त्रोंसे भी दुष्मनोंको दुर भगानेवाली माँ, (79). वदनैकसमन्विता :- एक वदनवाली माँ, (80). पायसान्नप्रिया :- जिन्हे दूध और खीर जैसे अन्न प्रिय है, वह माँ, (81). त्वकस्था :- त्वचाकी अध्यक्षा माँ, (82). पशुलोकभयंकरी :- पशुवृत्तियोंके लोगोंको भय दिखाने वाली  माँ, (83). अमृतादिमहाशक्तिसंंवृता :- अमृत आदि महाशक्तियोंसे घिरी हुई माँ, (84). डाकिनीश्वरी :- डाकिनीश्वरीके रूप में  माँ, (85). अनाहताब्जनिलया :- बारह दल कमल जो ह्रदयमे स्थित होता है उस अनाहत चक्रमे निवास करनेवाली माँ, (86). श्यमाभा :-श्याम रंगवाली माँ, (87). वदनद्वया :- दो मुखवाली माँ, (88). दंष्ट्रोज्वला :- उज्वल दाँतों वाली माँ, (89). अक्षमालादिधरा :- अक्षमाला धारण की हुई माँ, (90). रूधिरसंस्थिता :- रुधिरमें अध्यक्षरुप माँ, (91). कालरात्र्यादिशक्त्यौकवृत्ता :- कालरात्री आदि शक्तियों से सेवित माँ, (92). स्निग्धौदनप्रिया :- घीसे बनाये जानेवाले अन्न जिन्हे प्रिय है वह माँ, (93). महावीरेन्द्रवरदा :- महावीरोंको वर प्रदान करनेवाली माँ, (94) राकिण्यम्बास्वरूपिणी :- राकिणि अम्बाके स्वरुपमे माँ, (95). मणिपूराब्जनिलया :- नाभीमें स्थित मणिपूर चक्रमे स्थित माँ, (96) वदनत्रयसंयुता :- तीन वदनवाली माँ, (97).  वज्रादिकयुधोपेता :- व्रज आदि आयुध जिन्हे धारण किये है, वह माँ; (98). डामर्यादिभिरावृता :- डामरी आदी शक्तियोंसे सेवित माँ; (99). रक्तवर्णा :- लाल रंगवाली माँ और (100). माँस निष्ठा :- माँस की अधिष्ठात्री स्वरूप में माँ।
श्री ललिता चिन्ता मणि माला स्तोत्र ::

ॐ अस्य श्रीललिता चिन्तामणिमाला स्तोत्र महामन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिर्भगवान् ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीचिन्तामणि महाविद्येश्वरी ललिता महाभट्टारिका देवता ऐं बीजं क्लीं शक्तिः सौः कीलकं श्रीललिताम्बिका प्रसादसिद्धर्थे जपे विनियोगः॥ 

ध्यानम् :: 

बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। 
पाशाङ्कुशधनुर्बाणान् धारयन्तीं शिवां भजे॥ 
“ऐं ह्रीं श्रीं” 
ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी। 
चिदग्निकुण्डसम्भूता देवकार्यसमुद्यता॥ 
उद्यद्भानुसहस्राभा चतुर्बाहुसमन्विता। 
रागस्वरूपपाशाढ्या क्रोधाकाराङ्कुशोज्ज्वला॥ 
मनोरूपेक्षुकोदण्डा पञ्चतन्मात्रसायका। 
निजारुणप्रभापूरमज्जद्ब्रह्माण्डमण्डला॥ 
चम्पकाशोकपुन्नागसौगन्धिकलसत्कचा। 
कुरुविन्दमणिश्रेणीकनत्कोटीरमण्डिता॥ 
अष्टमीचन्द्रविभ्राजदलिकस्थलशोभिता। 
मुखचन्द्रकलङ्काभमृगनाभिविशेषका॥ 
वदनस्मरमाङ्गल्यगृहतोरणचिल्लिका। 
वक्त्रलक्ष्मीपरीवाहचलन्मीनाभलोचना॥ 
नवचम्पकपुष्पाभनासादण्डविराजिता। 
ताराकान्तितिरस्कारिनासाभरणभासुरा॥ 
कदम्बमञ्जरीकॢप्तकर्णपूरमनोहरा। 
ताटङ्कयुगलीभूततपनोडुपमण्डला॥ 
पद्मरागशिलादर्शपरिभाविकपोलभूः। 
नवविद्रुमबिम्बश्रीन्यक्कारिरदनच्छदा॥
शुद्धविद्याङ्कुराकारद्विजपङ्क्तिद्वयोज्ज्वला। 
कर्पूरवीटिकामोदसमाकर्षद्दिगन्तरा॥
निजसल्लापमाधुर्यविनिर्भर्त्सितकच्छपी। 
मन्दस्मितप्रभापूरमज्जत्कामेशमानसा॥ 
अनाकलितसादृश्यचिबुकश्रीविराजिता। 
कामेशबद्धमाङ्गल्यसूत्रशोभितकन्धरा॥ 
कनकाङ्गदकेयूरकमनीयभुजान्विता। 
रत्नग्रैवेयचिन्ताकलोलमुक्ताफलान्विता॥ 
कामेश्वरप्रेमरत्नमणिप्रतिपणस्तनी। 
नाभ्यालवालरोमालिलताफलकुचद्वयी॥
लक्ष्यरोमलताधारतासमुन्नेयमध्यमा। 
स्तनभारदलन्मध्यपट्टबन्धवलित्रया॥
अरुणारुणकौसुम्भवस्त्रभास्वत्कटीतटी। 
रत्नकिङ्किणिकारम्यरशनादामभूषिता॥ 
कामेशज्ञातसौभाग्यमार्दवोरुद्वयान्विता। 
माणिक्यमुकुटाकारजानुद्वयविराजिता॥
इन्द्रगोपपरिक्षिप्तस्मरतूणाभजङ्घिका। 
गूढगुल्फा कूर्मपृष्ठजयिष्णुप्रपदान्विता॥
नखदीधितिसंछन्ननमज्जनतमोगुणा। 
पदद्वयप्रभाजालपराकृतसरोरुहा॥ 
शिञ्जानमणिमञ्जीरमण्डितश्रीपदाम्बुजा। 
मरालीमन्दगमना महालावण्यशेवधिः॥ 
सर्वारुणाऽनवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता। 
शिवकामेश्वराङ्कस्था शिवा स्वाधीनवल्लभा॥ 
सुमेरुमध्यशृङ्गस्था श्रीमन्नगरनायिका। 
चिन्तामणिगृहान्तस्था पञ्चब्रह्मासनस्थिता॥ 
महापद्माटवीसंस्था कदम्बवनवासिनी। 
सुधासागरमध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी॥ 
देवर्षिगणसंघातस्तूयमानात्मवैभवा। 
भण्डासुरवधोद्युक्तशक्तिसेनासमन्विता॥
सम्पत्करीसमारूढसिन्धुरव्रजसेविता। 
अश्वारूढाधिष्ठिताश्वकोटिकोटिभिरावृता॥
चक्रराजरथारूढसर्वायुधपरिष्कृता। 
गेयचक्ररथारूढमन्त्रिणीपरिसेविता॥
किरिचक्ररथारूढदण्डनाथापुरस्कृता। 
ज्वालामालिनिकाक्षिप्तवह्निप्राकारमध्यगा॥
भण्डसैन्यवधोद्युक्तशक्तिविक्रमहर्षिता। 
नित्यापराक्रमाटोपनिरीक्षणसमुत्सुका॥ 
भण्डपुत्रवधोद्युक्तबालाविक्रमनन्दिता। 
मन्त्रिण्यम्बाविरचितविषङ्गवधतोषिता॥ 
विशुक्रप्राणहरणवाराहीवीर्यनन्दिता। 
कामेश्वरमुखालोककल्पितश्रीगणेश्वरा॥
महागणेशनिर्भिन्नविघ्नयन्त्रप्रहर्षिता। 
भण्डासुरेन्द्रनिर्मुक्तशस्त्रप्रत्यस्त्रवर्षिणी॥
कराङ्गुलिनखोत्पन्ननारायणदशाकृतिः। 
महापाशुपतास्त्राग्निनिर्दग्धासुरसैनिका॥
कामेश्वरास्त्रनिर्दग्धसभण्डासुरशून्यका। 
ब्रह्मोपेन्द्रमहेन्द्रादिदेवसंस्तुतवैभवा॥
हरनेत्राग्निसंदग्धकामसञ्जीवनौषधिः। 
श्रीमद्वाग्भवकूटैकस्वरूपमुखपङ्कजा॥ 
कण्ठाधःकटिपर्यन्तमध्यकूटस्वरूपिणी। 
शक्तिकूटैकतापन्नकट्यधोभागधारिणी॥
मूलमन्त्रात्मिका मूलकूटत्रयकलेबरा। 
कुलामृतैकरसिका कुलसंकेतपालिनी॥ 
कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी। 
अकुला समयान्तस्था समयाचारतत्परा॥ 
मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थिविभेदिनी। 
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थिविभेदिनी॥
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थिविभेदिनी। 
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी॥
तटिल्लतासमरुचिः षट्चक्रोपरिसंस्थिता। 
महासक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तुतनीयसी॥ 
श्रीशिवा शिवशक्त्यैक्यरूपिणी ललिताम्बिका॥ 

इति शिवम्।

 
 
Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.

दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र

दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 

By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नम:।

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]

ईश्वर उवाच :-

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥1॥
ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥2॥
पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥3॥
सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्द स्वरूपिणी।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥4॥
शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥5॥
अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।
पट्टाम्बर परीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥6॥
अमेयविक्रमा क्रुरा सुन्दरी सुरसुन्दरी।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥7॥
ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥8॥
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहन वाहना॥9॥
निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी॥10॥
सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥11॥
अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥12॥
अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला॥13॥
अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥14॥
शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥15॥
य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥16॥
धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च।
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥17॥
कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥18॥
तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात्॥19॥
गोरोचनालक्तककुङ्कुमेव सिन्धूरकर्पूरमधुत्रयेण।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः॥20॥
भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् संपदां पदम्॥21॥

श्री विश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्त।
श्रीदुर्गा सप्त श्लोकी स्तोत्र :: 

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥1॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥2॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते॥3॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते॥4॥
सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते॥5॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति॥6॥
सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥7॥
देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
नव दुर्गा जी 108 नाम :: 
(1). सती :- अग्नि में जल कर भी जीवित होने वाली,

(2). साध्वी :- अच्छे चरित्रवाली, वह स्त्री जिसने वैराग्य धारण कर लिया हो, भली तथा शुद्ध आचरणवाली स्त्री, पतिव्रता।

(3). भवप्रीता :- भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली,
(4). भवानी :- ब्रह्मांड की निवास (pervading the entire universe, cosmos),
(5). भवमोचनी :- संसार बंधनों से मुक्त करने वाली,
(6). आर्या :- देवी,
(7). दुर्गा :- अपराजेय,
(8). जया :- विजयी,
(9). आद्य :- शुरूआत की वास्तविकता,
(10). त्रिनेत्र :- तीन आँखों वाली (three eyed),
(11). शूलधारिणी :- शूल धारण करने वाली,
(12). पिनाकधारिणी :- शिव का त्रिशूल धारण करने वाली,
(13). चित्रा :- सुरम्य, सुंदर,
(14). चण्डघण्टा :- प्रचण्ड स्वर से घण्टा नाद करने वाली, घंटे की आवाज निकालने वाली,
(15). महातपा :- भारी तपस्या करने वाली (absolute ascetic),
(16). मन :- मनन- शक्ति (innerself, psyche, mood),
(17). बुद्धि :- सर्वज्ञाता (Intelligence),
(18). अहंकारा :- अभिमान करने वाली (egoistic),
(19). चित्तरूपा :- वह जो सोच की अवस्था में है,
(20). चिता :- मृत्युशय्या,
(21). चिति :- चेतना (consciousness),
(22). सर्वमन्त्रमयी :- सभी मंत्रों का ज्ञान रखने वाली,
(23). सत्ता :- सत्-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है,
(24). सत्यानन्दस्वरूपिणी :- अनन्त आनंद का रूप,
(25). अनन्ता :- जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं,
(26). भाविनी :- सबको उत्पन्न करने वाली, खूबसूरत औरत,
(27). भाव्या :- भावना एवं ध्यान करने योग्य,
(28). भव्या :- कल्याणरूपा, भव्यता के साथ,
(29). अभव्या :- जिससे बढ़कर भव्य कुछ नहीं,
(30). सदागति :- हमेशा गति में, मोक्ष दान,
(31). शाम्भवी :- शिवप्रिया, शंभू की पत्नी,
(32). देवमाता :- देवगण की माता,
(33). चिन्ता :- चिन्ता,
(34). रत्नप्रिया :- गहने से प्यार,
(35). सर्वविद्या :- ज्ञान का निवास,
(36). दक्षकन्या :- दक्ष की बेटी,
(37). दक्षयज्ञविनाशिनी :- दक्ष के यज्ञ को रोकने वाली,
(38). अपर्णा :- तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली,
(39). अनेकवर्णा :- अनेक रंगों वाली,
(40). पाटला :- लाल रंग वाली,
(41). पाटलावती :- गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली,
(42). पट्टाम्बरपरीधाना :- रेशमी वस्त्र पहनने वाली,
(43). कलामंजीरारंजिनी :- पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली,
(44). अमेय :- जिसकी कोई सीमा नहीं (infinitre, limitless)),
(45). विक्रमा :- असीम पराक्रमी,
(46). क्रूरा :- दैत्यों के प्रति कठोर,
(47). सुन्दरी :- सुंदर रूप वाली (beautiful),
(48). सुरसुन्दरी :- अत्यंत सुंदर,
(49). वनदुर्गा :- जंगलों की देवी,
(50). मातंगी :- मतंगा की देवी,
(51). मातंगमुनिपूजिता : बाबा मतंगा द्वारा पूजनीय,
(52). ब्राह्मी :- भगवान ब्रह्मा की शक्ति,
(53). माहेश्वरी :- प्रभु शिव की शक्ति,
(54). इंद्री :- इन्द्र की शक्ति,
(55). कौमारी :- किशोरी,
(56). वैष्णवी :- अजेय,
(57). चामुण्डा :- चंड और मुंड का नाश करने वाली,
(58). वाराही :- वराह पर सवार होने वाली,
(59). लक्ष्मी :- सौभाग्य की देवी,
(60). पुरुषाकृति :- वह जो पुरुष धारण कर ले,
(61). विमिलौत्त्कार्शिनी :- आनन्द प्रदान करने वाली,
(62). ज्ञाना :- ज्ञान से भरी हुई (enlightened),
(63). क्रिया :- हर कार्य में होने वाली,
(64). नित्या :- अनन्त,
(65). बुद्धिदा :- ज्ञान देने वाली,
(66). बहुला :- विभिन्न रूपों वाली,
(67). बहुलप्रेमा :- सर्व प्रिय,
(68). सर्ववाहनवाहना :- सभी वाहन पर विराजमान होने वाली,
(69). निशुम्भशुम्भहननी :- शुम्भ, निशुम्भ का वध करने वाली,
(70). महिषासुरमर्दिनि :- महिषासुर का वध करने वाली,
(71). मधुकैटभहंत्री :- मधु व कैटभ का नाश करने वाली,
(72). चण्डमुण्ड विनाशिनि :- चंड और मुंड का नाश करने वाली,
(73). सर्वासुरविनाशा :- सभी राक्षसों का नाश करने वाली,
(74). सर्वदानवघातिनी :- संहार के लिए शक्ति रखने वाली,
(75). सर्वशास्त्रमयी :- सभी सिद्धांतों में निपुण,
(76). सत्या :- सच्चाई,
(77). सर्वास्त्रधारिणी :- सभी हथियारों धारण करने वाली,
(78). अनेकशस्त्रहस्ता :- हाथों में कई हथियार धारण करने वाली,
(79). अनेकास्त्रधारिणी :- अनेक हथियारों को धारण करने वाली,
(80). कुमारी :- सुंदर किशोरी,
(81). एककन्या :- कन्या,
(82). कैशोरी :- जवान लड़की,
(83). युवती :- नारी (young woman),
(84). यति :- तपस्वी (ascetic),
(85). अप्रौढा :- जो कभी पुराना ना हो,
(86). प्रौढा :- जो पुराना है,
(87). वृद्धमाता :- शिथिल,
(88). बलप्रदा :- शक्ति देने वाली,
(89). महोदरी :- ब्रह्मांड को संभालने वाली,
(90). मुक्तकेशी :- खुले बाल वाली,
(91). घोररूपा :- एक भयंकर दृष्टिकोण वाली,
(92). महाबला :- अपार शक्ति वाली,
(93). अग्निज्वाला :- मार्मिक आग की तरह,
(94). रौद्रमुखी :- विध्वंसक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा,
(95). कालरात्रि :- काले रंग वाली,
(96). तपस्विनी :- तपस्या में लगे हुए,
(97). नारायणी :- भगवान नारायण की विनाशकारी रूप,
(98). भद्रकाली :- काली का भयंकर रूप,
(99). विष्णुमाया :- भगवान विष्णु का जादू,
(100). जलोदरी : ब्रह्मांड में निवास करने वाली,
(101). शिवदूती :- भगवान शिव की राजदूत,
(102). करली :- हिंसक,
(103). अनन्ता :- विनाश रहित,
(104). परमेश्वरी :- प्रथम देवी,
(105). कात्यायनी :- ऋषि कात्यायन द्वारा पूजनीय,
(106). सावित्री :- सूर्य की बेटी,
(107). प्रत्यक्षा :- वास्तविक,
(108). ब्रह्मवादिनी :- वर्तमान में हर जगह वास करने वाली।
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR. 

GAJENDR MOKSH STROTR गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत्र

GAJENDR MOKSH STROTR
गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत्र
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नमः।

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
प्रातर्भजामि भजताम भयाकरं तं, प्राकसर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै;
यो ग्राहवक्त्रपतितांगघ्रिगजेन्द्रघोर, शोकप्रणाशनकरो धृतशंखचक्र:।
जिसने शंख-चक्र धारण करके ग्राह के मुख में पड़े हुए चरण वाले गजेन्द्र के घोर संकट का नाश किया, भक्तों को अभय करने वाले उन भगवान् को अपने पूर्व जन्मों के सब पापों का नाश करने के लिये प्रात:काल भजना  चाहिए।

श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान् का स्तवन :: श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष की कथा, द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान् श्री हरी विष्णु के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग और चतुर्थ अध्याय में गज ग्राह के पूर्व जन्म का इतिहास है, जो कि पूर्व कल्प का है। श्री मद्भागवत में गजेन्द्र मोक्ष आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक और श्रेय साधक कहा गया है।

श्री शुक उवाच ::
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। 
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥1॥
श्री शुकदेव जी ने कहा: बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा।
गजेन्द्र उवाच ::
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥
गजराज ने (मन ही मन) कहा :- जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड़ शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भाँति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥3॥

जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं, फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं, उन अपने आप, बिना किसी कारण के बने हुए भगवान् श्री हरी विष्णु की मैं शरण लेता हूँ।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम 
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥4॥
अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः॥5॥
समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥6॥
भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते, उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है। वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः। 
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥7॥
आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितु एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं।
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥8॥
जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥9॥
उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान् श्री हरी विष्णु को बारंबार नमस्कार है।
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥10॥
स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता। 
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥11॥
विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्व गुण विशिष्ट निवृत्ति धर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे। 
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥12॥
सत्त्व गुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञान घन प्रभु को नमस्कार है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। 
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥13॥
शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम्  कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। 
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥14॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़ -प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है।
नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय। 
सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय॥15॥
सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है।
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय। 
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥16॥
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय। 
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥17॥
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है। अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय। 
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥18॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप, सर्वसमर्थ भगवान् श्री हरी विष्णु को नमस्कार है।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥19॥
जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥20॥
जिनके अनन्य भक्त-जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥21॥
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान् श्री हरी विष्णु की मैं स्तुति करता हूँ।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥22॥
ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं।
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः। 
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥23॥
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर, यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाते हैं।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः॥24॥
वे भगवान् न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची पशु, पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों।
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥25॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर, सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढँक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ,  जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता, अपितु भगवान् की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है।
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥26॥
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूँ, उनकी शरण में हूँ।
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोSस्म्यहम॥27॥
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥28॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रज, तम रूप) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं, ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागत रक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोSस्म्यहम॥29॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान्  की मैं शरण आया हूँ।
श्री शुकदेव उवाच :: 
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥30॥
श्री शुकदेवजी ने कहा :- जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीं आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात भगवान् श्री हरि, जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं, वहाँ प्रकट हो गये।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान–श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥31॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानुरूप वेग वाले गरुड़ जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था।
सोSन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा–न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥32॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड़ जी की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान् श्री हरी विष्णु  को देखकर अपनी सूँड को, जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था, ऊपर उठाया और बड़ी कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान् नारायण आपको प्रणाम है” कहा।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥33॥
उसे पीड़ित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड़ जी को छोड़कर नीचे झील पर उतर आये। वे दया से प्रेरित हो ग्राह सहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते ही देखते चक्र से ग्राह का मुँह चीर कर, उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया।
“नमो नारायण ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”
गजेन्द्र मोक्ष कथा :: प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान् की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान् श्री हरी विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे।
राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी।
एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए। लेकिन न पाद्ध, न अघ्र्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया, “इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ऋषियों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो”। महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान् का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया।
क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊँचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान् वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था।
एक बार की बात है। गजेन्द्र अपने साथियो सहित तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल हो गया। वह कमल की गंध से सुगंधित वायु को सूँघकर एक चित्ताकर्षक विशाल सरोवर के तट पर जा पहुँचा। गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल,शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया। पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीड़ा आरम्भ कर दी। वह अपनी सूँड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूँड उठाकर चीत्कार की। पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियाँ, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूँड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए।
वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्व श्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह द्रश्य देखकर देवगण चकित हो गए।
अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो गया। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद्  आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्व समर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूँ। इस निश्चय के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा।
गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव रूप भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हो गए। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर भगवान् विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर अत्यंत शीघ्रता से उक्त सरोवर के तट पर पहुँचे। जब जीवन से निराश तथा पीड़ा से छटपटाते गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुड़ारूढ़ भगवान् विष्णु को तीव्रता से अपनी ओर आते देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूँड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े कष्ट से कहा, “नारायण! जगद्गुरो! भगवन्! आपको नमस्कार है”।
गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान् विष्णु गरुड़ जी की पीठ से कूद पड़े और गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींच लाए और तुरंत अपने तीक्ष्ण चक्र से ग्राह का मुँह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया।
ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की प्रशंसा करते हुए उनके ऊपर स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषि-महर्षि परब्रह्म भगवान् श्री हरी विष्णु का गुणगान करने लगे। ग्राह दिव्य शरीर-धारी हो गया। उसने विष्णु के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और भगवान् विष्णु के गुणों की प्रशंसा करने लगा।
भगवान् विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूहू गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रेलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया। भगवान् विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने सबके समक्ष कहा, “प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा”।
यह कहकर भगवान् विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडारुढ़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए।
Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESVERED WITH THE AUTHOR.

चामुण्डा स्त्रोत्र

चामुण्डा  स्त्रोत्र
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नम:।

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
श्रीगणेशाय नमः। श्रीभैरवाय नमः।  श्रीउमामहेश्वराभ्यां नमः।
श्री मार्कण्डेय उवाच ::
ततो गच्छेन्महीपाल तीर्थं कनखलोत्तमम्। 
गरुडेन तपस्तप्तं पूजयित्वा महेश्वरम्॥1॥
दिव्यं वर्षशतं यावज्जातमात्रेण भारत। 
तपोजपैः कृशीभूतो दृष्टो देवेन शम्भुना॥2॥
ततस्तुष्टो महादेवो वैनतेयं मनोजवम्। 
उवाच परमं वाक्यं विनतानन्दवर्धनम्॥3॥
प्रसन्नस्ते महाभाग वरं वरय सुव्रत। 
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु ददामि तव खेचर॥4॥
गरुड उवाच ::
इच्छामि वाहनं विष्णोर्द्विजेन्द्रत्वं सुरेश्वर।
प्रसन्ने त्वयिमेसर्वम्भवत्विति मतिर्मम॥5॥
श्री महेश उवाच ::
दुर्लभः प्राणिनान्तातयोवरः प्रार्थितोऽनघ।
देवदेवस्यवहनं द्विजेन्द्रत्वं सुदुर्ल्लभम्॥6॥
नारायणोदरे सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
त्वया स कथमूह्यतेदेवदेवो जगद्गुरुः॥7॥
तेनैव स्थापितश्चेन्द्रस्त्रैलोक्ये सचराचरे।
कथमन्यस्य चेन्द्रत्वं भवतीति सुदुर्लभम्॥8॥
तथापि ममवाक्येनवाहनन्त्वम्भविष्यसि।
शङ्खचक्रगदापाणेर्वहतोऽपि जगत्त्रयम्॥9॥
इन्द्रस्त्वं पक्षिणां मध्येभविष्यसिनसंशयः।
इति दत्त्वावरन्तस्मान्तर्धानङ्गतोहरः॥10॥
ततो गते महादेवेह्यरुणस्यानुजो नृप।
आराधयामास तदा चामुण्डां मुण्डमण्डिताम्॥11॥
श्मशानवासिनीं देवीं बहुभूतसमन्विताम्।
योगिनीं योगसंसिद्धां वसामांसासवप्रियाम्॥12॥
ध्यातमात्रा तु तेनैवप्रत्यक्षाह्यभवत्तदा।
जालन्धरे च या सिद्धिः कौलीने उड्डिशे परे॥13॥
समग्रा सा भृगुक्षेत्रे सिद्धक्षेत्रे तु संस्थिता।
चामुण्डा तत्र सा देवी सिद्धक्षेत्रे व्यवस्थिता॥14॥
संस्तुता ऋषिभिर्द्देवैर्योगक्षेमार्थसिद्धये।
विनताऽऽनन्दजननस्तत्र तां योगिनीं नृप।
भक्त्या प्रसादयामास स्तोत्रैर्वैदिकलौकिकैः॥15॥
गरुड उवाच ::
या सा क्षुत्क्षामकण्ठा नवरुधिरमुखा प्रेतपद्मासनस्था
भूतानां वृन्दवृन्दैः पितृवननिलया क्रीडते शूलहस्ता।
शस्त्रध्वस्तप्रवीरव्रजरुधिरगलन्मुण्डमालोत्तरीया
देवी श्रीवीरमाता विमलशशिनिभा पातु वश्चर्ममुण्डा॥16॥
या सा क्षुत्क्षामकण्ठा विकृतभयकरी त्रासिनी दुष्कृतानां
मुञ्चज्ज्वालाकलापैर्द्दशनकसमसैः खादति प्रेतमांसम्।
पिङ्गोद् र्ध्वोद् बद्धजूटारविसदृशतनुर्व्याघ्रचर्मोत्तरीया
दैत्येन्द्रैर्यक्षरक्षोऽरसुरनमिता पातु वश्चर्ममुण्डा॥17॥
या सा दोर्द्दण्डचण्डैर्डमरुरणरणाटोपटङ्कारघण्टैः
कल्पान्तोत्पातवाताहतपटुपटहैर्वल्गते भूतमाता।
क्षुत्क्षामा शुष्ककुक्षिः खरतरनखरैः क्षोदति प्रेतमांसं
मुञ्चन्ती चाट्टहासं घुरघुरितरवा पातु वश्चर्ममुण्डा॥18॥
या सा निम्नोदराभा विकृतभवभयत्रासिनी शूलहस्ता
चामुण्डा मुण्डघाता रणरुणितरणझल्लरीनादरम्या।
त्रैलोक्यं त्रासयन्ति ककहकहकहैर्घोररावैरनेकैर्नृत्यन्ती
मातृमध्ये पितृवननिलया पातु वश्चर्ममुण्डा॥19॥
या धत्ते विश्वमखिलं निजांशेन महोज्ज्वला।
कनकप्रसवे लीना पातु मां कनकेश्वरी॥20॥
हिमाद्रिसम्भवा देवी दयादर्शितविग्रहा।
शिवप्रिया शिवे सक्ता पातु मां कनकेश्वरी॥21॥
अनादिजगदादिर्या रत्नगर्भा वसुप्रिया।
रथाङ्गपाणिना पद्मा पातु मां कनकेश्वरी॥22॥
सावित्री या च गायत्री मृडानी वागथेन्दिरा।
स्मर्तृणां या सुखं दत्ते पातु मां कनकेश्वरी॥23॥
सौम्यासौम्यैः सदा रूपैः सृजत्यवति या जगत्।
परा शक्तिः परा बुद्धिः पातु मां कनकेश्वरी॥24॥
ब्रह्मणः सर्गसमये सृज्यशक्तिः परा तु या।
जगन्माया जगद्धात्री पातु मां कनकेश्वरी॥25॥
विश्वस्य पालने विष्णोर्या शक्तिः परिपालिता।
मदनोन्मादिनी मुख्या पातु मां कनकेश्वरी॥26॥
विश्वसंलयने मुख्या या रुद्रेण समाश्रिता।
रौद्री शक्तिः शिवाऽनन्ता पातु मां कनकेश्वरी॥27॥
कैलाससानुसंरूढ कनकप्रसवेशया।
भस्मकाभिहृता पूर्वं पातु मां कनकेश्वरी॥28॥
पतिप्रभावमिच्छन्ती त्रस्यन्ती या विना पतिम्।
अबला त्वेकभावा च पातु मां कनकेश्वरी॥29॥
विश्वसंरक्षणे सक्ता रक्षिता कनकेन या।
आ ब्रह्मस्तम्बजननी पातु मां कनकेश्वरी॥30॥
ब्रह्मविष्ण्वीश्वराः शक्त्या शरीरग्रहणं यया।
प्रापिताः प्रथमा शक्तिः पातु मां कनकेश्वरी॥31॥
श्रुत्वा तु गरुडेनोक्तं देवीवृत्तचतुष्टयम्।
प्रसन्ना सम्मुखी भूत्वा वाक्यमेतदुवाच ह॥32॥
श्रीचामुण्डोवाच ::
प्रसन्ना ते महासत्त्व वरं वरय वाञ्छितम्।
ददामि ते द्विजश्रेष्ठ यत्ते मनसि रोचते॥33॥
गरुड उवाच ::
अजरश्चामरश्चैव अधृष्यश्च सुरासुरैः।
तव प्रसादाच्चैवान्यैरजेयश्च भवाम्यहम्॥34॥
मार्कण्डेय उवाच ::
त्वयाचाऽत्र सदा देवि स्थातव्यं तीर्थसन्निधौ।
एवं भविष्यतीत्युक्त्वा देवी देवैरभिष्टुता॥35॥
लक्ष्मीरुवाच ::
जगामाकाशमाविश्य भूतसङ्घसमन्विता। 
यदा लक्ष्म्या नृपश्रेष्ठ स्थापितं पुरमुत्तमम्॥36॥
अनुमान्य तदा देवीं कृतं तस्यां समर्पितम्। 
रक्षणाय मया देवि योगक्षेमार्थसिद्धये॥37॥
मातृवत्प्रतिपाल्यं ते सदा देवि पुरं मम। 
गरुडोऽपि ततः स्नात्वा सम्पूज्य कनकेश्वरीम्॥38॥
तीर्थं तत्रैव संस्थाप्य जगामाकाशमुत्तमम्। 
तत्र तीर्थे तु यः स्नात्वा पूजयेत्पितृदेवताः॥39॥
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य फलमश्नुते। 
गन्धपुष्पादिभिर्यस्तु पूजयेत्कनकेश्वरीम्॥40॥
तस्य योगैश्वर्यसिद्धिर्योगपीठेषु जायते।
मृतो योगेश्वरं लोकं जयशब्दादिमङ्गलैः। 
स गच्छेन्नाऽत्र सन्देहो योगिनीगणसंयुतः॥41॥
 [श्रीस्कान्दे रेवाखण्डे कनखलेश्वरतीर्थमाहात्म्ये चामुण्डा स्तोत्रम्]

माँ चामुण्डा माँ राज राजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी का ही एक स्वरूप हैं।
शुम्भ और निशुम्भ का पृथ्वी पर शासन था। उन्होंने धरती व स्वर्ग में प्राणियों-मनुष्यों पर घोर अत्याचार किये तो देवताओं ने हिमालय पर्वत पर जाकर माँ भगवती की आराधना की। उन्होंने स्तुति में किसी भी देवी का नाम नही लिया। तभी भगवान् शिव और माता पार्वती मानसरोवर में स्नान के लिये पधारे। उन्होंने देवताओं से पूछा कि किसकी आराधना कर रहे हो? तब देवता तो मौन हो गए क्योंकि माँ भगवती के स्वरूप को तो भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी नही जानते। देवता मौन रहे। माँ भगवती ने देवी पार्वती जी के शरीर में से प्रगट होकर माता पार्वती से कहा कि देवगण उन्हीं की स्तुति कर रहे थे। 
माँ पार्वती के शरीर से प्रगट होने के कारण माँ दुर्गा का एक नाम कोशिकी भी पड़ गया। कोशिकी को राक्षस दूतों ने देख लिया और उन्होंने कहा कि वे शुम्भ-निशुम्भ तीनों लोकों के अधिपति हैं। उनके यहाँ सभी अमूल्य रत्‍न उपलब्ध हैं। इन्द्र का ऐरावत हाथी भी उनके पास है। अतः इस उनके पास ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो कि तीनों लोकों में सर्वसुन्दर है। यह सुनकर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक अन्य दूत देवी कोशिकी के पास भेजा और उस दूत से कहा कि तुम उस सुन्दरी से जाकर कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनों लोकों के राजा है और वो दोनों तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं। यह सुन दूत माता कोशिकी के पास गया और दोनों दैत्यों द्वारा कहे गये वचन माता को सुना दिये। माता ने कहा मैं मानती हूँ कि शुम्भ और निशुम्भ दोनों ही महान बलशली है। परन्तु मैं एक प्रण ले चुकी हूँ कि जो व्यक्ति मुझे युद्ध में हरा देगा, मैं उसी से विवाह करूँगी। 
यह सारी बातें दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को बताई। तो वह दोनों कोशिकी के वचन सुन कर उस पर क्रोधित हो गये और कहा उस नारी का यह दूस्‍साहस कि वह हमें युद्ध के लिए ललकारे। तभी उन्होंने चण्ड और मुण्ड नामक दो असुरों को भेजा और कहा कि उसके केश पकड़कर हमारे पास ले आओ। चण्ड और मुण्ड देवी कोशिकी के पास गये और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी के मना करने पर उन्होंने देवी पर प्रहार किया। तब देवी कौशिकी ने अपने आज्ञाचक्र भृकुटि (ललाट) से अपना एक और रूप, काली रूप धारण कर लिया और चण्ड ओर मुण्ड का वध कर दिया, जिससे उनका नाम चामुण्डा पड़ गया।
आध्यात्म में चण्ड प्रवर्त्ति ओर मुण्ड निवर्ती का नाम है और माँ भगवती प्रवर्त्ति ओर निवर्ती दोनों से जीव छुड़ाती है और मोक्ष प्रदान करती हैं। 
 
Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.

अन्नपूर्णा स्तोत्र (श्री शङ्कराचार्य कृत) 

अन्नपूर्णा स्तोत्र (श्री शङ्कराचार्य कृत) 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com 

ॐ गं गणपतये नम:।  

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलघोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी।
प्रालेयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥1॥
नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविलम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी।
काश्मीरागरुवासिताङ्गरुचिरे काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥2॥
योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मार्थनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी।
सर्वैश्वर्यसमस्तवाञ्छितकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥3॥
कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी उमा शङ्करी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओङ्कारबीजाक्षरी।
मोक्षद्वारकपाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥4॥
दृश्यादृश्यविभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपाङ्कुरी।
श्रीविश्वेशमनःप्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥5॥
उर्वीसर्वजनेश्वरी भगवती मातान्नपूर्णेश्वरी
वेणीनीलसमानकुन्तलहरी नित्यान्नदानेश्वरी।
सर्वानन्दकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥6॥
आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी
काश्मीरात्रिजलेश्वरी त्रिलहरी नित्याङ्कुरा शर्वरी।
कामाकाङ्क्षकरी जनोदयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥7॥
देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी
वामं स्वादुपयोधरप्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी।
भक्ताभीष्टकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥8॥
चन्द्रार्कानलकोटिकोटिसदृशा चन्द्रांशुबिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्निसमानकुन्तलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी।
मालापुस्तकपाशासाङ्कुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥9॥
क्षत्रत्राणकरी महाऽभयकरी माता कृपासागरी
साक्षान्मोक्षकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरश्रीधरी।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥10॥
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्करप्राणवल्लभे।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति॥11॥
माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः।
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥12॥
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR.

SHRI RAM HRADYAM STROTR श्रीराम ह्रदयम् स्त्रोत्र

SHRI RAM HRADYAM STROTR
श्रीराम ह्रदयम् स्त्रोत्र

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com

ॐ गं गणपतये नम:।  

अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
श्रीमहादेव उवाच ::
 ततो रामः स्वयं प्राह हनूमंत मुपस्थितम्।
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥1॥
श्री महादेव कहते हैं: तब श्री राम ने अपने पास खड़े हुए श्री हनुमान से स्वयं कहा, मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और  परमात्मा का तत्त्व बताता हूँ, तुम ध्यान से सुनो। 
Bhagwan Shiv said:  Then Sri Ram himself addressed Sri Hanuman, who was standing nearby to understand the gist, theme, basics, roots of the soul and the Almighty-Supreme Soul.
आकाशस्य यथा भेद-स्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्-तदवच्छिन्न एव हि॥2॥
विस्तृत आकाश के तीन भेद दिखाई देते हैं : एक महाकाश, दूसरा जलाशय में जलावच्छिन्न (जल से घिरा हुआ सा) आकाश। 
The vast space appears to be divided into three partitions: First, the great space itself; second, space appearing to be partitioned by pool water. 
प्रतिबिंबाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः। 
बुद्ध्यवचिन्न चैतन्यमे-कं पूर्णमथापरम्॥3॥
और तीसरा (महाकाश का जल में) प्रतिबिम्बाकाश। उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का होता है: एक बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन (बुद्धि से परिमित हुआ सा), दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है। 
And the third reflection (or image) of the great space in pool water. Similarly, Consciousness also appears to have three partitions: consciousness (appearing to be)surrounded by intelligence, the other all pervading consciousness.
आभासस्त्वपरं बिंबभूत-मेवं त्रिधा चितिः। 
साभासबुद्धेः कर्तृत्वम-विच्छिन्नेविकारिणि॥4॥
और तीसरा आभास चेतन जो बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है। कर्तृत्व आभास चेतन के सहित बुद्धि में होता है अर्थात् आभास चेतन की प्रेरणा से ही बुद्धि सब कार्य करती है। 
And third is the consciousness which gets reflected in intelligence. This reflected consciousness along with intelligence has illusion of doing. Or due to this consciousness, intelligence is able to do all the work.
साक्षिण्यारोप्यते भ्रांत्या जीवत्वं च तथाऽबुधैः। 
आभासस्तु मृषाबुद्धिः अविद्याकार्यमुच्यते॥5॥

किन्तु भ्रान्ति के कारण अज्ञानी लोग साक्षीआत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता और भोक्ता मान लेते हैं। आभास तो मिथ्या है और बुद्धि अविद्या का कार्य है। 
But due to ignorance, people ascribe this activity to witnessing Soul and assume it to be the doer and the user. This reflection is fake, false, Mithya (non existent) and the intelligence is the by product of Avidya (nature or Maya, falsehood).

अविच्छिन्नं तु तद् ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पितः। 
विच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते॥6॥
वह ब्रह्म विच्छेद रहित है और विकल्प (भ्रम) से ही उसके विभाजन (विच्छेद) माने जाते हैं। इस प्रकार विच्छिन्न (आत्मा) और पूर्ण चेतन (परमात्मा) के एकत्व का प्रतिपादन किया गया। 
That Consciousness is without any division and due to illusion only; these divisions appear to exist. This illustrates that the divided (soul) and undivided consciousness (supreme soul) are to be the same.
तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्‍च साभासस्याहमस्तथा। 
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः॥7॥
तत्त्वमसि (तुम वह आत्मा हो) आदि वाक्यों द्वारा  अहम् रूपी आभास चेतन की आत्मा (बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन) के साथ एकता बताई जाती है। जब महावाक्य द्वारा एकत्व का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। 
Final statements-addresses like: You are that soul etc., establishes the unity between the reflected consciousness (which we call I, my, me or myself) and surrounded consciousness. When Maha Vaky firmly Ultimate statement-address, demonstrates this unity.
तदाऽविद्या स्वकार्येश्चनश्यत्येव न संशयः।
एतद्विज्ञाय मद्भावा-योपपद्यते॥8॥
तो अविद्या अपने कार्यों सहित नष्ट हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। इसको जान कर मेरा भक्त, मेरे भाव (स्वरुप) को प्राप्त हो जाता है। 
Then Avidya (nature or Maya-illusion, ignorance, imprudence) gets destroyed along with its manifestations (which produce such illusions). One, who is devoted to the Almighty, when understands this assimilates in me i.e., attains Moksh, Liberation.
मद्भक्‍तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्। 
न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥9॥
मेरी भक्ति से विमुख जो लोग शास्त्र रूपी गड्ढे में मोहित हुए पड़े रहते हैं, उन्हें सौ जन्मों में भी न ज्ञान प्राप्त होता है और न मुक्ति ही। 
Those who are devoid of devotion to the Almighty  remain struck with the lust-ignorance of learning the scriptures, without understanding & adopting the gist, theme, elixir, nectar, basics which stresses over devotion, will not be able to become scholar even in hundreds of births, devoid of Salvation.
इदं रहस्यं ह्रदयं ममात्मनो मयैव साक्षात्-कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठाय च त्वया दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम्॥10॥
हे निष्पाप हनुमान! यह रहस्य मेरी आत्मा का भी हृदय है और यह साक्षात् मेरे द्वारा ही तुम्हें सुनाया गया है। यदि तुम्हें इंद्र के राज्य से भी अधिक संपत्ति मिले तो भी मेरी भक्ति से रहित किसी दुष्ट को इसे मत सुनाना। 
O sinless Hanuman! this secret constitutes the centre-heart of even my soul. This has been described to you directly by me. Even if someone offers you a kingdom more precious than that of Indr-Heavens, you should not tell it to him if he is devoid of my devotion or is wicked.
इति श्रीमदध्यात्मरामायण-बालकांडोक्तं श्रीरामह्रदयं संपूर्णम्।
इस प्रकार श्री अध्यात्म रामायण के बाल कांड में कहा गया श्रीराम हृदय संपूर्ण हुआ॥
This completes the Sri Ram Hradyam as mentioned in Bal Kand of Sri Adhyatm Ramayan.(SALVATION-MOKSH :-  ILLUSTRATION FROM RAMAYAN)
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR.