महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ध्यानम् ::
इति शिवम्।
ईश्वर उवाच :-
श्री विश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्त।
श्रीदुर्गा सप्त श्लोकी स्तोत्र ::
(2). साध्वी :- अच्छे चरित्रवाली, वह स्त्री जिसने वैराग्य धारण कर लिया हो, भली तथा शुद्ध आचरणवाली स्त्री, पतिव्रता।
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श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान् का स्तवन :: श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष की कथा, द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान् श्री हरी विष्णु के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग और चतुर्थ अध्याय में गज ग्राह के पूर्व जन्म का इतिहास है, जो कि पूर्व कल्प का है। श्री मद्भागवत में गजेन्द्र मोक्ष आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक और श्रेय साधक कहा गया है।
जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं, फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं, उन अपने आप, बिना किसी कारण के बने हुए भगवान् श्री हरी विष्णु की मैं शरण लेता हूँ।
एकदा सुखमासीनम गर्गाचार्य मुनीश्वरम।
किन्तु भ्रान्ति के कारण अज्ञानी लोग साक्षीआत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता और भोक्ता मान लेते हैं। आभास तो मिथ्या है और बुद्धि अविद्या का कार्य है।
But due to ignorance, people ascribe this activity to witnessing Soul and assume it to be the doer and the user. This reflection is fake, false, Mithya (non existent) and the intelligence is the by product of Avidya (nature or Maya, falsehood).
स्तुति: ::
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम्।
विष्णु सूक्त :: ऋषि :- दीर्घतमा, निवास स्थान :- द्युस्थानीय, सूक्त सँख्या :- 5.
आदित्यवर्णे तस्य तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ विल्यः। तस्य फलानि तमसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥6॥
हे क्षिप्रबाहु, सुकर्मपालक और विस्तीर्ण-भुज-संयुक्त अश्विद्वय! तुम लोग यज्ञीय अन्न को ग्रहण करो।
हे विविध कर्मा, नेता और पराक्रमशाली अश्विद्वय! आदरयुक्त बुद्धि के साथ हमारी स्तुति सुनो।
हे शत्रुनाशन, सत्यभाषी और शत्रुदमनकारी अश्विद्वय! सोमरस तैयार कर छिन्न कुशो पर रक्खा हुआ है; तुम आओ।
हे विचित्र-दीप्तिशाली इन्द्र! अँगुलियों से बनाया हुआ नित्य-शुद्ध यह सोमरस तुम्हें चाहता है; तुम आओ।
हे इन्द्र! हमारी भक्ति से आकृष्ट होकर और ब्राह्मणो द्वारा आहूत होकर सोम-संयुक्त वाघत नाम के पुरोहित की प्रार्थना ग्रहण करने आओ।
हे अश्वशाली इन्द्र! हमारी प्रार्थना सुनने शीघ्र आओ। सोमरस-संयुक्त यज्ञ में हमारा अन्न धारण करो।
हे विश्वे देवगण! तुम रक्षक हो तथा मनुष्यों के पालक हो। तुम हव्यदाता यजमान के प्रस्तुत सोमरस के लिए आओ। तुम यज्ञ-फल-दाता हो।
जिस तरह सूर्य की किरणें दिन में आती हैं, ऐसी तरह वृष्टिदाता विश्वेदेव! शीघ्र प्रस्तुत सोमरस के लिए आगमन करें।
विश्वे देवगण अक्षय, प्रत्युत्पन्नमति, निर्वैर और धन-वाहक हैं। वे इस यज्ञ में पधारें।
पतितपावनी, अन्न-युक्त और धनदात्री सरस्वती धन के साथ हमारे यज्ञ की कामना करें।
सत्य की प्रेरणा करनेवाली, सुबुद्धि पुरुषों को शिक्षा देनेवाली सरस्वती हमारा यज्ञ ग्रहण कर चुकी हैं।
प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि उत्पन्न की है और इसके सिवा समस्त ज्ञानों का भी जागरण किया है।
अग्नि :: देवताओं में अग्नि का सबसे प्रमुख स्थान है और इन्द्र के पश्चात अग्नि देव का ही पूजनीय स्थान है। अग्निदेव नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न, यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करने वाले तथा तेज एवं प्रकाश के अधिष्ठाता हैं। मातरिश्वा भृगु तथा अंगिरा इन्हें भूतल पर लाये। अग्नि पार्थिव देव हैं। यज्ञाग्नि के रूप में इनका मूर्तिकरण प्राप्त होता है। अतः ये ही ऋत्विक, होता और पुरोहित हैं। ये यजमानों के द्वारा विभिन्न देवों के उद्देश्य से अपने में प्रक्षिप्त हविष् को उनके पास ऋग्वेद में अग्नि को धृतपृष्ठ, शोचिषकेश, रक्तश्मश्रु,रक्तदन्त, गृहपति, देवदूत, हव्यवाहन, समिधान, जातवेदा, विश्वपति, दमूनस, यविष्ठय, मेध्य आदि नामों से सम्बोधि्ात किया गया है।
‘मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत’ पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवां भाई हैं। उनका रथ सोने के समान चमकता है और दो मनोजवा एवं मनोज्ञ वायुप्रेरित लाल घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। अग्नि का प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक, अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आह्वान किया जाता है :-
अग्नि का स्वरूप :: अग्नि शब्द “अगि गतौ” (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है। गति के तीन अर्थ हैंः – ज्ञान, गमन और प्राप्ति। इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता है :- “अग्निर्वै सर्वा देवता।” [ऐतरेय-ब्राह्मण 1.1, शतपथ 1.4.4.10] अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है। अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा है :- अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा।[शतपथ-ब्राह्मण 14.3.2.5]
निरुक्ति :- अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति हैं :-
(1). अग्रणीर्भवतीति अग्निः। मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(2). अयं यज्ञेषु प्रणीयते। यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(3). अङ्गं नयति सन्नममानः । अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(4). अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः। न क्नोपयति न स्नेहयति। निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं।
(5). त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।” शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से “अ”, अञ्जू से या दह् से “ग” और णीञ् से “नी” लेकर बना है [आचार्य यास्क, निरुक्तः 7.4.15]
कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है। याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैं :- गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि। गार्हपत्याग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है। शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है।
अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है।
(1). अग्नि का रूप :- अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है :- घृतपृष्ठ। इनका मुख घृत से युक्त है :–घृतमुख। इनकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान हैं। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इनके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इनके नेत्र घृतयुक्त हैं :- घृतम् में चक्षुः। इनका रथ युनहरा और चमकदार है जिसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वे अपने उपासकों के सदैव सहायक हैं।
(2). अग्नि का जन्म :- अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है। ये स्वतः-अपने आप, उत्पन्न होते हैं। अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होते हैं। इनके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि अग्नि का जन्म, अग्नि से ही हुआ है। प्रकृति के मूल में अग्नि है। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में अग्नि की उत्पत्ति विराट्-पुरुष के मुख से बताई गई है :- मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च। अग्नि द्यावापृथ्वी के पुत्र हैं।
(3). भोजन :- अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है। आज्य उनका प्रिय पेय पदार्थ है। ये यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करते हैं।
(4). अग्नि कविक्रतु है :- अग्नि कवि तुल्य है। वे अपना कार्य विचारपूर्वक करते हैं। कवि का अर्थ है :- क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी। वे ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी हैं। उनमें अन्तर्दृष्टि है। अग्निर्होता कविक्रतुः। [ऋग्वेदः 1.1.5]
(5). गमन :- अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है। विद्युत् रथ पर सवार होकर चलते हैं। जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है। वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है, जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है।
(6). अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक हैं :- अग्नि रोग-शोक, पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह व्यक्ति पराजित नहीं होता :-देवम् अमीवचातनम्।[ऋग्वेदः 1.12.7] और प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः। [यजुर्वेदः-1.7]
(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। उसे यज्ञ का ऋत्विक् कहा जाता है। वह पुरोहित और होता है। वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता है :-अग्निमीऴे पुरोहितम्। [ऋग्वेदः 1.1.1]
(8). देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं। मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि विस्तार है। अश्विनी प्राण-अपान वायु हैं। इनसे ही मानव जीवन चलता है। इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं। अग्नि वायु के मित्र हैं। जब अग्नि प्रदीप्त है, तब वायु उनका साथ देते हैं :- आदस्य वातो अनु वाति शोचिः। [ऋग्वेदः 1.148.4]
(9). मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :- अग्नि मनुष्य के रक्षक पिता हैं :- स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव। [ऋग्वेदः 1.1.9] उन्हें दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।
(10). पशुओं से तुलना :- आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होते हैं। ये हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहते हैं। ये उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करते हैं :- हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः। [ऋग्वेदः 1.65.5]
(11). अग्नि अतिथि है :- अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहते हैं और सत्यनिष्ठा से रक्षा करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी है, वे उसकी सदैव रक्षा करते हैं। ये अतिथि के समान शरीर में रहते हैं, जब उनकी इच्छा होती है, तब प्रस्थान कर जाते हैं :- अतिथिं मानुषाणाम्। [ऋग्वेदः 1.127.8]
(12). अग्नि अमृत है :- संसार नश्वर है। इसमें अग्नि ही अजर-अमर है। यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है। अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है। जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता है :- विश्वास्यामृत भोजन। [ऋग्वेदः 1.44.5]
(13). अग्नि के तीन शरीर हैं :– स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। मानव शरीर अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला स्थूल शरीर है। मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है। आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर है :- तिस्र उ ते तन्वो देववाता। [ऋग्वेदः- 3.20.2]
हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुती करते हैं। आप यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं।
Hey Agni Dev-the demigod of fire! We glorify (adore, pray, worship) you as the highest priest of sacrifice, the divine, one who invites the demigods, who is the offeror and possessor of greatest wealth.
जो अग्नि देव पूर्व कालिक ऋषियों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित हैं। जो वर्तमान काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें।
देव आवाहन मंत्र :-
May that Agni, who is worthy to be praised by ancient and modern sages, gather the deities-demigods here.
स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर; यश बढ़ाने वाले अग्नि देव मनुष्यों-यजमानों को प्रतिदिन विवर्धमान-बढ़ने वाला धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि, वीर पुरूष आदि प्रदान करनेवाले हैं।
Agni Dev, the deity of fire grants wealth to the devotees, which keeps on enhancing-increasing day by day along with the devotee’s name fame-honour. He is blessed with able progeny.
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं। आप जिस अध्वर (हिंसा रहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है।
Hey Agni Dev! You are capable of protecting everyone. You keep on surrounding the Hawan Kund-sacrificial pot free from violence (Animal sacrifice, meat) from all sides. These offerings reach the demigods-deities through you.
This verse clearly states that the Yagy-Hawan-Agni Hotr does not allow animal sacrifice, eating of meat.
हे अग्निदेव! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त है। आप देवों के साथ इस यज्ञ में पधारें।
O Agni Dev! You provide us with the material for offerings-sacrifices, knowledge-enlightenment and power-strength, inspiration for performing deeds-duties and you are an embodiment of truth, unique in qualities. Kindly oblige us by arriving here at the site of the Yagy along with the demigods-deities.
हे अग्निदेव! आप यज्ञ करने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओं की समृद्धि करके, जो भी कल्याण करते हैं, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है।
Hey Agni Dev! What ever welfare you do-bestow to the devotee-the person performing Yagy; in the form of wealth, live stock (animals), progeny and residence is returned to you through various sacrifices performed by the devotee in his life time-span.
हे जाज्वलयमान अग्निदेव! हम आपके सच्चे उपासक हैं। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो।
O Agni Dev possessor of Aura-brilliance! We are your devotees, performing the worship with pure intentions and keep on reciting your praise (qualities, traits) through day & night.
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञों के रक्षक, सत्य वचन रूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञ स्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट, स्तुति पूर्वक आते हैं।
We, the house holds leading a family life come to seek asylum (patronage, protection) under you at the site of the Yagy to have growth; you being the illuminator of the Yagy site and our protector requesting you again and again politely.
हे गाहर्पत्य अग्ने! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार आप भी (हम यजमानों के लिये) बाधा रहित होकर सुख पूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहें।
O Gaharpaty Agni! The convenience with which a son can approach his father without tension (trouble, hesitation), you should also be accessible to us for our welfare, around-near us.
साम वेदियों ने साम-गान द्वारा, ऋग्वेदियों ने वाणी द्वारा और यजुर्वेदियों ने वाणी द्वारा इन्द्र की स्तुति की है।
इन्द्र अपने दोनों घोड़ों को बात की बात में जोत कर सबके साथ मिलते हैं। इन्द्र वज्रयुक्त और हिरण्यमय हैं।
दूरस्थ मनुष्यों को देखने के लिए ही इन्द्र ने सूर्य को आकाश में रक्खा है। सूर्य अपनी किरणों द्वारा पर्वतों को आलोकित किये हुए हैं।
उग्र इन्द्र! अपनी अप्रतिहत रक्षण-शक्ति द्वारा युद्ध और लाभकारी महासमर में हमारी रक्षा करो।
इन्द्र हमारे सहायक और शत्रुओं के लिए वज्रधर हैं; इसलिए हम धन और महाधन के लिए इन्द्र का आह्वान करते हैं।
अभीष्ट फलदाता और वृष्टिप्रद इन्द्र! तुम हमारे लिए इस मेघ को भेदन करो। तुमने कभी भी हमारी प्रार्थना अस्वीकार नहीं की।
जो विवध स्तुति वाक्य विभिन्न देवताओं के लिए प्रयुक्त होते हैं, सो सब वज्रधारी इन्द्र के हैं। इन्द्र की योग्य स्तुति मैं नहीं जानता।
जिस तरह विशिष्ट गतिवाला बैल अपने गो बल को बलवान करता है, उसी प्रकार इच्छित वितरण करता इन्द्र मनुष्य को बलशाली करते हैं। इन्द्र शक्ति संपन्न हैं और किसी की याचना को अग्राह्य नहीं करते।
इन्द्र मनुष्यों, धन और पञ्चक्षिति के ऊपर शासन करने वाले हैं।
सबके अग्रणी इन्द्र को तुम लोगों के लिए हम आह्वान करते हैं। इन्द्र हमारे ही हैं।
पितृ सूक्त ::
उषस् सूक्त :: ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त (48), ऋषि :- प्रस्कण्व काण्व, देवता :- उषा, छन्द :- बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती), निवास स्थान :- द्युस्थानीय।
उषा शब्द वस् दीप्तौ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसकाअर्थ है, प्रकाशमान होना। इस सौन्दर्य की देवी के उदित् होते ही आकाश का कोना कोना जगमगाने लगता है, तथा विश्व हर्ष के अतिरेक से भर जाता है। यह प्रत्येक प्राणी को अपने कार्य में प्रवृत कर देती है। उषा का रथ चमकदार है और उसे लाल रंग के घोड़े खींचते हैं। उषा को रात्रि की बहन भी कहा गया है। आकाश से उत्पन्न होने के कारण उषा को स्वर्ग की पुत्री भी कहा गया है। उषा सूर्य की प्रेमिका है, इसके अतिरिक्त उषा का सम्बन्ध अश्विनी कुमारो से भी है। उषा अपने भक्तों को धन, यश, पुत्र आदि प्रदान करती हैं। ऋग्वेद में उषा को रेवती, सुभगाः, प्रचेताः, विश्ववारा, पुराणवती मधुवती,ऋतावरी, सुम्नावरी, अरुषीः, अमर्त्या आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है।
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों अर्थात हमे आपका अनुदान-अनुग्रह होता रहे।
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें।
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं।
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं।
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है।
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते।
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं।
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं।
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें।
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें।
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें।
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें।
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें।
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें।
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें।
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें।